19 दिसंबर 2025

अनुपम मिश्र की स्मृति में : 

गांधी की बेदख़ली वाले समय में एक अनुपम गांधीवादी का स्मरण

विनोद तिवारी 
विनोद तिवारी  

         बीसवीं शताब्दी जहाँ आर्थिक संरचना के स्तर पर पूंजीवाद’, राजनीतिक-सामाजिक  संरचना के स्तर पर समाजवाद और सांस्कृतिक विकास के स्तर पर परंपरा व आधुनिकता के विचारों, बहसों और संघर्षों की सदी रही है, वहीं इक्कीसवीं शताब्दी पर्यावरण संकट पर विचारों, बहसों और संघर्षों की सदी होगी । इसकी चिंता भूमंडलीय स्तर पर बीसवीं सदी के आखिरी एक-दो दशकों से दिखने लगी थी । सम्मेलनों, प्रदर्शनों, धरनों, स्वयंसेवी समूहों आदि के द्वारा बहसों, चर्चाओं, सिद्धांतों, नियमों, का विश्वव्यापी विस्तृत एक्शन प्लान बनाया गया, पर ठोस जमीन पर नतीजा सिफ़र रहा । पर्यावरण संबधी हर साल की चेतावनी भरी रपटों से इसे जाना जा सकता है । ये भयानक रपटें बहुत डराती हैं । परिस्थितिकी संकट पर काम करने वाले प्रसिद्ध विद्वान रणधीर सिंह ने नेचर पत्रिका की के हवाले से एक ऐसी ही रिपोर्ट का उल्लेख अपनी पुस्तक ‘Contemporary Ecological Crisis : A Marxist View - 2009(जिसका हिन्दी अनुवाद पारिस्थिकी संकट और समाजवाद का भविष्य नाम से श्री जीतेंद्र गुप्ता ने किया है) में किया है – “अगले 50 वर्षों में जिस तरह से पर्यावरणीय परिवर्तनों की संभावना है, उससे एक चौथाई जंगल और जीव-जन्तु नष्ट हो जाएँगे । धरती पर वर्ष 2050 तक दस लाख से ज्यादा प्रजातियाँ विनष्ट हो जाएँगी ।...ग्लोबल वार्मिंग के समकालीन परिदृश्य के परिणामस्वरूप दूसरी विध्वंसक समस्याओं के बीच एक समस्या समुद्र के जल स्तर का बढ़ना भी है (अनुमान यह है कि वर्ष 2100 तक समुद्र का जल स्तर 15 से 59 सेंटीमीटर बढ़ जाएगा) । आर्कटिक और अंटार्कटिक, दोनों में ही जिस तरह से बर्फ पिघल रही है, उसी गति से पहाड़ी ग्लेशियर भी पिघल रहे हैं । वेनिस तो वास्तव में एक भूतहे शहर में तब्दील हो गया है, यहाँ केवल वे ही लोग रह रहे हैं जिनका संबंध पर्यटन और व्यापार से है । बांग्लादेश, मालदीव, दक्षिण-पूर्व एशिया और प्रशांत महासागर के द्वीप-समूहों के निम्न-सतह के इलाके समुद्री सतह के ऊपर बढ्ने से सर्वाधिक असुरक्षित माने जा रहे हैं । सूखे और अर्द्ध सूखे इलाकों का मरूस्थलीकरण बहुत तेज़ी से हो रहा है जिससे कृषि उत्पादकता निरंतर घटती जा रही है ।...कज़ाकिस्तान के आधे से ज्यादा बड़े घास के मैदान नष्ट हो चुके हैं जिंका दोबारा अस्तित्व में आना नामुमकिन है ।” पानी का बढ़ना और पानी का विलुप्त हो जाना दोनों ही खतरनाक होते हैं । सोचिए, जहाँ एक ओर पारिस्थतिकी असंतुलन से समुद्र का तल बढ़ता जा रहा है, ग्लेशियर पिघल रहे हैं, कई सभ्यताओं और संस्कृतियों का अस्तित्व खतरे में हैं, वहीं दूसरी ओर पानी के खत्म होते जाने से जो सामाजिक असंतुलन पैदा हो रहे हैं वह कम खतरनाक नहीं हैं । रणधीर सिंह ने अपनी उपर्युक्त पुस्तक में एक अन्य रिपोर्ट के हवाले से उन खतरों की ओर इशारा किया है - “ब्रिटेन स्थित विकास संस्था टियरफंड द्वारा जारी की गयी एक रिपोर्ट रनिंग ऑन इंपटी का कहना है कि ईस्वी सन् 2025 तक दुनिया में तीन में से दो व्यक्तियों को पानी की कमी का सामना करना पड़ेगा और धीरे-धीरे हम, ‘जल विस्थापित जैसी एक बिलकुल नयी परिघटना के गवाह होंगे, जहाँ दसियों लाख लोगों को पीने के पानी की तलाश में बेघरबार होना पड़ेगा ।” स्पष्ट है कि, अब तक जो विस्थापन की धारणा थी, वह जल को रोककर बांध बनाए जाने या हर साल बाढ़ आने के चलते वह इलाका छोड़कर चले जाने वालों के साथ परिभाषित होती थी, लेकिन जल की कमी के कारण लोग उसकी तलाश में अपना घरबार छोड़कर निकल पड़ें तो क्या स्थिति होगी । कल्पना कीजिये कि सब तरह की सुख-सुविधाओं से लैस स्मार्ट सिटीज पर पानी के संकट से विस्थापित जनता अगर पानी के लिए हमला बोल दे तो फिर कैसी स्थिति उत्पन्न होगी इसका अनुमान लगाया जा सकता है ।

            इन बेहद डराने वाली भयानक चेतावनियों के बावजूद हमारी असीमित उपभोक्तावादी प्रवृत्ति पर कोई असर नहीं है । भूमंडलीय बाज़ार ने इसको आज और बेलगाम बनाया है । नाज़-नखरे के साथ इसे इतना रिझाऊ बनाया गया है कि आप इसके चंगुल से बच नहीं सकते । उपभोक्तावाद का इतना महिमामंडन और उसका इतना पसारा पहले कभी नहीं था । आज जब कोई आदमी इस कंजूमरिज़्म के विपरीत अपने को बचाकर अपनी धुन और ज़िद के साथ सहज, सरल और सादा जीवन को महत्व देता है तो सच में विश्वास करना मुश्किल हो जाता है कि ऐसे समय में, क्या ऐसा भी कोई आदमी हो सकता है ? पर, अभी भी कुछ लोग हैं । अनुपम मिश्र एक ऐसे ही आदमी थे । सरल, सादे, विनम्र, हँसमुख, पोर-पोर खाँटी मनुष्य । उनके खुरदुरे चेहरे पर स्निग्ध उज्ज्वल चमक पानी की ही तरह बिना भेद-भाव किए सबके लिए अगाध आत्मीयता साथ मौजूद रहती थी । इस दौर में भी उनका मोबाइल, टीवी, मोटरकार आदि से कोई रिश्ता कायम न हो सका था । गांधी को अपने आचरण में इस कदर जीने वाले अनुपम मिश्र के असमय चले जाने से बहुत कुछ अधूरा रह गया जिसे वे ही पूरा कर सकते थे । अनुपम मिश्र भूमंडलीकरण के इस हाहाहूती छल और विकार को, उसके मनुष्य-विरोधी जंजाल को, उसकी चकाचौंध को, उसकी निर्बाध लूट को देश में ही विदेश विकसित होने की तरह देखते थे । वे लिखते हैं – “देश में क्या पानी की कमी है? हर साल भयंकर बाढ़ आती है और भयंकर सूखा पड़ता है । प्रकृति तो अपना हिसाब-किताब बराबर रखती है, आर्द्रता और शुष्कता का । यह विडम्बना क्यों घटित होती है जब कि हमें इतना पानी मिलता है । संकट प्राकृतिक नहीं मानवीय है । मानवीय शब्द गलत नहीं, अचकचा लगता हो तो व्यवस्थात्मक कर लीजिये । संकट मूलत: औपनिवेशिक दासता की प्रवृत्ति का है । दासता की मनोवृत्ति आत्मावमानना की होती है । दासता अपनी हर चीज से घृणा करती है या उसकी अवमानना करती है। अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपने इतिहास, अपनी चमड़ी के रंग से भी । वह उद्धार केवल मालिक की तरह बनने या होने में देखती है । इसीलिए जागरण और स्वाधीनता का आन्दोलन आत्मविश्वास को जगाने के स्वर में फूटता है । यह आत्मविश्वास अन्धराष्ट्रवाद में भी बदल सकता है । बदल जाता है । हमारे देश में अंग्रेजी राज, अंग्रेजी शिक्षा ने कुछ अच्छा भी किया है, स्वार्थानुरोध के कारण, किन्तु उन्होंने हमारी अपनी देसी वैज्ञानिक उपलब्धियों और चेतना को दीर्घकाल के लिए कुंठित कर दिया है । यह क्रम अभी खत्म नहीं हुआ है। यह विचारणीय है कि राजनैतिक दृष्टि से आज़ाद होने के बाद भी हम मानसिक तौर पर पहले से अधिक स्वतंत्र हुए हैं या अधिक परमुखापेक्षी हुए हैं । विचार करते समय यह याद रखें कि तथाकथित विकसित देश कच्चा माल ले कर सिर्फ डिब्बाबंद माल ही बेचकर हमारा शोषण नहीं करते, वे जानकारी संकलित करके हमारे देश में डिब्बाबंद विचार, वैचारिक, सैद्धांतिक समीकरण भी पाटते हैं। साहित्यिक विचार, दर्शन, स्वास्थ्य, भोजन, संस्कृति, मनोरंजन, खेलकूद, सबसे ज्यादा शिक्षा के क्षेत्र में । हम अपनी ही जानकारी से अपनी परिस्थितियों में अनुकूल न विचार बना पाते हैं, न तकनीक । वैज्ञानिकता-विज्ञान के क्षेत्र में बढ़ी हुई चामत्कारिक जानकारी का उपयोग हम अपनी जरूरतों के अनुसार नहीं करते । उसका उपयोग दूसरे लोग - देश के बाहर कैसे होता है, इसके लिए हम अपने आपको परिवर्तित करने का ढोंग रचते हैं । इससे भयंकर सामाजिक विषमता पैदा होती है । देश में विदेश पैदा होता है ।” 

दुनिया भर में पर्यावरण से उत्पन्न संकट से दुनिया को बचाने के लिए जब यह कहा जा रहा था कि, “इस संकट से बचने के लिए आधुनिक विज्ञान और तकनीकी को पारंपरिक ज्ञान और तरीकों से जोड़ने की अधिक जरूरत है”, उसके पहले से अनुपम मिश्र सुरक्षा और संरक्षा की अत्याधुनिक तकनीकी के बरक्स पारंपरिक ज्ञान और तरीकों से ही यह काम कर रहे थे । अनुपम मिश्र पिछले चार दशकों से पानी को अपने अंदर जी रहे थे, उसके बढ़ने-घटने को तौलते हुए उसको संतुलित कर रहे थे । उनकी पुस्तकें – ‘आज भी खरे हैं तालाब’, ‘राजस्थान की रजत बूंदें’, ‘तैरने वाला समाज डूब रहा है उनकी चिंता और कर्म की बेमिसाल दुनिया रचती हैं । हम हिंदी वालों के लिए चिंतन और ज्ञान की अमूल्य थाती । हम अनुपम जी को इसलिए भी अपने बहुत नजदीक पाते हैं कि उन्होंने अपना सारा लेखन हिंदी में किया, उस हिंदी में जिस पर हर छोटा-बड़ा बेहिचक यह आरोप लगाने से नहीं चूकता कि हिंदी चिंतन और ज्ञान की भाषा नहीं है । उत्तरी बिहार में हर साल बाढ़ के चलते भीषण तबाही होती है, पर आज तक उससे निपटने का कोई माकूल उपाय नहीं किया जा सका है । परस्पर, एक-दूसरे पर आरोप मढ़ने के अलावा कुछ करने की पहल हो, अब तक ऐसा नहीं देखा गया । अनुपम मिश्र अपनी पुस्तक तैरने वाला समाज डूब रहा है में जिस समझ के साथ इस त्रासदी को पैदा करने वाली कमियों को रखते हैं वह कोरा सिद्धान्त नहीं है, वरन् विकास के उस मॉडल की पोल खोलने वाला एक सटीक विश्लेषण है जिस पर देश को आगे बढ़ाने का जुमला उछाला जाता है – पिछले सौ-डेढ़-सौ साल में हमारे समाज ने ऐसी बहुत सारी चीजें की हैं जिनसे उसका विनम्र स्वभाव बदला है और उसके मन में थोड़ा घमंड भी आया है । समाज के मन में न सही तो उसके नेताओं,

 के योजनाकारों के मन में यह घमंड आया है । समाज ने पीढ़ियों से, शताब्दियों से, यहां फिसलगुंडी की तरह फुर्ती से उतरने वाली नदियों के साथ जीवन जीने की कला सीखी थी, बाढ़ के साथ बढ़ने की कला सीखी थी। उसने और उसकी फसलों ने बाढ़ में डूबने के बदले तैरने की कला सीखी थी। वह कला आज धीरे-धीरे मिटती जा रही 
है ।...उन्नीसवीं शताब्दी तक वहाँ के बड़े-बड़े तालाबों के बड़े-बड़े किस्से चलते थे। परिहारपुर, भरवाहा और आलापुर आदि क्षेत्रों में दो-तीन मील लंबे-चौड़े तालाब थे। धीरे-धीरे बाद के नियोजकों, राजनेताओं, अधिकारियों के मन में यह आया कि इतनी जलराशि से भरे बड़े-बड़े तालाब बेकार की जगह घेरते हैं - इनका पानी सुखाकर जमीन लोगों को खेती के लिए उपलब्ध करा दें । इस तरह हमने दो-चार खेत जरूर बढ़ा लिए, लेकिन दूसरी तरफ शायद सौ-दो-सौ खेत हमने बाढ़ को भेंट चढ़ा दिए। अब यहाँ पुराने खेत तो डूबते ही है, नए भी डूबते हैं । खेत ही अकेले नहीं खलिहान, घर, बस्ती सब बाढ़ में समा जाते हैं । आज अंग्रेजी में रेन वॉटर हारवेस्टिंग शब्द है । इस तरह का पूरा ढाँचा उत्तर बिहार के लोगों ने बनाया था वह फ्लड वॉटर हारवेस्टिंग सिस्टम' था । उसी से उन्होंने यह खेल खेला था । तब भी बाढ़ आती थी, लेकिन वे बाढ़ की मार को कम-से-कम करना जानते थे । तालाब का एक विशेषण यहाँ मिलता है- नदिया ताल । यानी वह वर्षा के पानी से नहीं, बल्कि नदी के पानी से भरता था । पूरे देश में वर्षा के पानी से भरने वाले तालाब मिलेंगे । लेकिन यहाँ हिमालय से उतरने वाली नदियाँ इतना अधिक पानी लेकर आती हैं कि नदी से भरने वाला तालाब बनाना ज्यादा व्यावहारिक होता था । नदी का पानी धीरे-धीरे कहीं न कहीं रोकते-रोकते उसकी मारक क्षमता को उपकार में बदलते-बदलते आगे गंगा में मिलाया जाता था । ऐसे भूगोलविद समझदार समाज के आज टुकड़े-टुकड़े हो गए हैं । आज के नए लोग मानते हैं कि समाज अनपढ़ है, पिछड़ा है । नए लोग ऐसे दंभी हैं ।” उनकी सर्वाधिक चर्चित और पढ़ी जाने वाली रचना अब भी खरे हैं तालाब पानी की प्रकृति और प्रकृति में पानी के साथ-साथ मनुष्य के सामाजिक और सांस्कृतिक रहन और रिश्तों के रचनात्मक गुणों का अद्भुत क्लैसिक है । यह जितना जल-संरक्षण की पुस्तक है उससे कहीं अधिक पारंपरिक ज्ञान, सृजन और रचनात्मक जतन और अभिव्यक्ति के तरीकों की भी पुस्तक है । यह पुस्तक अब तक कई भाषाओं में अनूदित हो चुकी है । अपने अपरिग्रही स्वभाव के चलते अनुपम जी ने इसे कॉपीराइट और रॉयल्टी से मुक्त रखा । इसके पीछे उनकी सोच यह थी कि इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें, सोचें और अपने आस-पास इसमें कही गयी बातों पर अमल करें । यह इकलौती किताब अनुपम जी की सृजनात्मक सोच उनकी कार्य-पद्धति, रचनात्मक समझ और भाषिक-बर्ताव को व्यक्त करने के लिए काफी है । एक बार नानाजी देशमुख ने उनसे कहा कि आज भी खरे हैं तालाब के बाद ऐसी कोई और किताब लिख रहे हैं क्या? अनुपम जी ने सहजता से उत्तर दिया – “जरूरत नहीं है ।  एक से काम पूरा हो जाता है तो दूसरी किताब लिखने की क्या जरूरत ।” हालाँकि, अनुपम जी ने छोटी-बड़ी मिलाकर कुल 18 किताबें लिखी हैं । पर वे अपनी एक किताब अब भी खरे हैं तालाब से पूरी दुनिया में अमर रहेंगे । सही अर्थों में यह किताब पानी और पर्यावरण पर काम करने वाले लोगों के लिए प्रेम पत्र है । यह न केवल धरती का, बल्कि मन-माथे का अकाल भी दूर करती है । अपने इन शब्दों के साथ श्री सुरेंद्र बंसल ने इस किताब की लोकप्रियता और उपयोगिता का बहुत ही ढंग से उल्लेख किया है – “बंगाल का किस्सा भी मज़ेदार है । जहाज़ से हथियार गिराए जाने के बाद सूर्खियों में आए पुरुलिया नामक कस्बे की एक घुमक्कड़ पत्रकार निरुपमा अधिकारी वहाँ के एक अकाल क्षेत्र का दौरा करती-करती अचानक हरियाली देखकर ठिठक गईं । गाँव वालों से पता चला कि उस गाँव में कुछ तालाब ज़िंदा थे, इसलिए वहाँ धरती के भीतर की नमी अभी शेष थी । तालाबों की उपयोगिता के बारे में निरुपमा की दृष्टि साफ़ होती चली गई । इसी बीच निरुपमा के एक मित्र ने उन्हें तालाब पुस्तक भेंट की । निरुपमा का जीवन पुस्तक पढ़ते-पढ़ते बदलता गया । रोजी-रोटी का पक्का प्रबंध न होने के बावजूद निरुपमा ने इसका बांग्ला अनुवाद किया । अब इस अनुवाद का दूसरा संस्करण भी छप चुका है । कई राज्यों से गुजरते हुए पुस्तक के किस्से महाराष्ट्र भी पहुँचे । कभी जलसंसाधन मंत्रालय के सचिव रह चुके औरंगाबाद के प्रसिद्ध इंजीनियर माधव चितले की आँखों के सामने से जैसे ही यह पुस्तक गुजरी, उन्होंने इसके मराठी अनुवाद की तत्काल ज़रूरत महसूस की । बेशक यह पुस्तक आज की इंजीनियरिंग शिक्षा पद्धति को आइना दिखाता है, फिर भी माधव जी ने इसका मराठी अनुवाद 'औरंगाबाद संस्कृति मंडल' के सौजन्य से छापा । भूकंप में ध्वस्त हो चुके गुजरात में भी इस पुस्तक का अनुवाद किया गया । श्री दिनेशभाई संघवी ने पुस्तक का अनुवाद किया तथा गुजराती समाचार पत्र 'जन्मभूमि प्रवासी' ने इसे धारावाहिक रूप में छापा । देशभर में अमृत छिड़कने के बाद यह पुस्तक फ्रांस की एक लेखिका एनीमोंतो के हाथ लगी। एनीमोंतो ने इसे दक्षिण अफ्रीकी रेगिस्तानी क्षेत्रों में पानी के लिए तड़पते लोगों के लिए उपयोगी समझा । फिर उन्होंने इसका फ्रेंच अनुवाद किया । ताज़ा जानकारी के अनुसार पुस्तक के प्रभाव के कारण इस क्षेत्र में पानी की सँभाल में काफी तेज़ी आई है । भारत ज्ञान-विज्ञान परिषद ने इसकी 25 हज़ार प्रतियाँ छापकर मुफ्त में बांटी । मध्यप्रदेश जनसंपर्क विभाग ने भी 25 हज़ार प्रतियाँ छापकर प्रदेश की प्रत्येक पंचायत तक पहुँचाया । भोपाल के राज्य संसाधन केंद्र ने इसकी 500 प्रतियाँ 500 गाँवों में बाँटी । अहमदाबाद की 'उत्थान माहिती' नामक संस्था ने 500 प्रतियाँ छापकर सामाजिक संस्थाओं में मुफ्त बाँटी । नागपुर के स्वराज प्रकाशन ने 5 हज़ार प्रतियाँ छापकर मुफ्त में बाँटी । बिहार के जमालपुर की संस्था 'नई किताब' ने भी इसकी 11 सौ प्रतियाँ बाँटी । देशभर के 16 रेडियो स्टेशन पुस्तक को धारावाहिक रूप में ब्रॉडकास्ट कर चुके हैं । कपार्ट की सुहासिनी मुले ने इस पुस्तक पर बीस मिनट की फ़िल्म भी बनाई है । सीमा राणा की बनाई फिल्म दूरदर्शन पर आठ बार प्रसारित हो चुकी है । भोपाल के शब्बीर कादरी ने पुस्तक का उर्दू अनुवाद किया और मध्यप्रदेश के मदरसों में मुफ्त में बाँटी। उर्दू तथा पंजाबी अनुवाद पाकिस्तान भी पहुँच चुके है । गुजरात की एक संस्था 'समभाव' के श्री फरहाद कांट्रैक्टर पर इस पुस्तक का गहरा प्रभाव पड़ा । श्री फरहाद राजस्थान के बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर, अलवर, जोधपुर, महाराष्ट्र तथा गुजरात के कई हिस्सों में पुराने जल स्रोतों को बचाने के एक विराट काम में जुटे हैं । गुजरात की ही श्रीमती डेजी कांट्रेक्टर ने इस पुस्तक का अंग्रेज़ी अनुवाद किया है ।

सदियों से ऐसी मान्यता है कि मनुष्य जाति का विकास मीठे जल-स्रोतों के मुहानों पर ही हुआ। जीवन के राग-विराग मनुष्य ने वहीं पर सीखे, लेकिन विकास की अंधी होड़ में मनुष्य के चारों ओर अंधेरा बढ़ता जा रहा है। इस अंधेरे की बाती को हम सब तथा हमारी तरह-तरह की नीतियाँ-प्रणालियाँ दिन-ब-दिन बुझाने की कोशिश में लगी हुई हैं । देश के अधिकतर लेखक तथा प्रकाशक पुस्तकें न पढ़ने वाले पाठकों का रोना रोते हैं। पर वे शायद ये भूल जाते हैं कि पुस्तकों का सच्चा अर्थ समाज के नाम लिखा प्रेम-पत्र होता है । और कितनी पुस्तकें ऐसी होती हैं, जिनमें समाज के लिए प्रेम भरा होता है? श्री अनुपम मिश्र की इस कृति ने यही काम किया है । 'आज भी खरे हैं तालाब' पुस्तक न केवल धरती का, बल्कि मन-माथे का अकाल भी दूर करती है ।”

            पूरी दुनिया में पर्यावरण को लेकर जो चिंता बढ़ी है, उस चिंता को लेकर जहाँ कुछ लोग दुबले हो रहे हैं, वहीं उसका धंधा कर उससे अधिक लोग मोटे हो रहे हैं । सरकारी नियोजन और ढेर सारी स्वयंसेवी संस्थाएं, इसका उदाहरण हैं । प्रभाष जोशी ने एक ऐसी ही स्वयंसेवी संस्था के एक व्यक्ति द्वारा अनुपम जी को काम के बदले हर महीने सात हज़ार रुपये देने के प्रस्ताव और अनुपम जी द्वारा उसे नकार दिये जाने का ज़िक्र किया है – “अनुपम ने कहा, विदेशी पैसा है, मैं जानता हूँ इफरात में मिलता है, इसे लेने वालों का पतन मैंने देखा है । अपने देश में काम हम दूसरों के पैसे से क्यों करें ? अगर आप अनुपम को जानते हों तो उसका संकोच एकदम समझ में आ जाएगा । नहीं तो उसके मुंह पर तारीफ और पीठ पीछे बुद्धू कहने वालों में आप भी शामिल हो सकते हैं ।” अनुपम मिश्र को एक बार नहीं अनेकों बार ऐसे लोभ-लाभ के प्रस्ताव मिलते रहे होंगे पर उन्होंने सब कुछ को नकार कर चुपचाप अपना पूरा जीवन पानी और पर्यावरण को समर्पित कर दिया । इंफोसिस ने उन्हें बुलाया कि, वे आएँ और इंफोसिस फाउण्डेशन के लिए पानी और पर्यावरण का काम देखें । अनुपम जी बेंगलुरु गये पर उन्होंने विनम्रता से इंफोसिस के लिए कार्य करने से मना कर दिया और नन्दन नीलकेणि से कहा कहा कि, ‘आपके पास पैसा भले बाहर का है लेकिन दृष्टि भारत की रखियेगा ।पर्यावरण के सिद्धांतकार के रूप में दुनिया में भले ही उनसे बड़े-बड़े नाम मिलेंगे पर प्रकृति और पर्यावरण की मूल रहन को समझने, जीने और बरतने वाले मनुष्य, उनके जैसे कम ही मिलेंगे । वे साफ तौर पर कहा करते थे कि, "केवल पर्यावरण की संस्थाएं खोल देने से पर्यावरण नहीं सुधरता । वैसे ही जैसे सिर्फ थाने खोल देने से अपराध कम नहीं हो जाते ।" वे सही अर्थों में मनुष्यता के हित में प्रकृति और पर्यावरण को बनाए-बचाए रखने वाले एक सच्चे कर्मयोगी थे ।

अनुपम मिश्र 
अनुपम मिश्र ने एक साथ कई क्षेत्रों में काम किया पर सबमें चेतना और व्यवहार के धरातल पर एक तरह की स्पिरिट को जिया । वह चाहे चंबल के बीहड़ों से डाकुओं का समर्पण करवाना हो, चाहे मिट्टी बचाओ आंदोलन हो या नर्मदा बचाओ आंदोलन या फिर चिपको आंदोलन, चाहे राजस्थान के मर रहे जीर्ण-शीर्ण तालाबों को जीवित करना हो, चाहे तरुण भारत संघ का कार्य रहा हो या चाहे सीएसइ’ ( Centre for Science & Environment – विज्ञान और पर्यावरण केंद्र) की स्थापना का काम रहा हो, वह चाहे पत्रकार का काम हो, सम्पादन का काम हो, लेखन का काम हो, चित्रकारी का काम हो सबमें व्यापक मानव हित की संकल्पना का भाव मिलेगा । जिन मुद्दों, आंदोलनों, हलचलों और संघर्षों से जुड़कर लोग शिखर हो गए उन शिखरों के नीचे की नींव की मिट्टी और पानी को हाथ लगाइए, थोड़ा ऊपरी गाद और गर्द को हटाइये तो आपको अनुपम मिश्र की आंच जरूर महसूस होगी । अनुपम मिश्र को अपने किए का कभी कोई गुमान नहीं था । अलंकरण, सम्मान, यश, कीर्ति किसी चीज का कोई लोभ नहीं था । धन-संचय की कोई लालसा नहीं थी । अत्यंत फूहड़ और बिकाऊ समय में अनुपम ने अपनी कोई बोली और कीमत नहीं लगायी वे उस प्रकृति के ऋणी और आभारी रहे जिसका अन्न जल और सांस लेते हुए भी हम निरंतर कृतघ्न होते गये हैं । सब कुछ उगाह लेने वाली इस पण्यबहुल संस्कृति में अनुपम ने न्यूनतम से भी कम में अपनी निजता को जगह दी और मिट्टी मे मिल जाने वाले किसानों के मित्र की तरह जमीन और जमीर को उर्वर बनाने में आजीवन हलकान रहे ।  सांस सांस को पर्यावरण की भलाई के लिए समर्पित अनुपम पर्यावरणविद् से आगे पर्यावरण के पर्याय होते गये वे जीवन में कर्म की शुचिता के प्रदीप बन गये । लेखन उनका द्वितीयक कर्म था लेकिन उन्होंने जो कुछ लिखा वह जीवन के सच्चे स्रोतों और अनुभवों का ईमानदार प्रतिफलन था इसीलिए उनकी भाषा भी कपास के कच्चे सूत जैसी सादी, अनाविल और अपनत्व भरी थी उसमे किसी तरह का अवांछित बघार नहीं था ऐसी ही आत्मीय और प्रभावशाली भाषा अनुपम मिश्र के व्याख्यानों की भी हुआ करती थी । आज जब अनुपम मिश्र का अनुपम प्रदाय हमारी विशिष्ट थाती बन चुका है तब तफ्सील से सोचने की आवश्यकता है कि लेखन और सिर्फ लेखन के धंधे से जुड़े और कमाते लेखकों की रचनाओं मे वैसी तरल अनायास और हार्दिक भाषा का अभाव इसलिए तो नहीं कि उनके लेखन और जीवन कर्म में किंचित् संगति नहीं ।” कवि अष्टभुजा शुक्ल के ये शब्द माटी और पानी के साथ रच-बस जाने वाले एक अनुपम आदमी की एकदम सही शिनाख्त करते हैं । अनुपम के पिता और हिंदी के प्रसिद्ध कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने कभी लिखा था :

                        चाहे मृत्यु को गाओ चाहे जवानी को

                        चाहे माटी को गाओ चाहे पानी को

                        तरल रखो प्राणों को सरल रखो बानी को ।

 

पुत्र ने पिता की इस सीख को अपना जीवन बना लिया । स्कूली शिक्षा के दौरान रहीम का यह दोहा मन और दिमाग में नाचता रहता था : रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून/पानी गए न उबरे मोती मानुष चून । अनुपम जी को मैंने जो भी दो-तीन बार देखा और जितना भी पढ़ा उनमें इस दोहे की जीवित अर्थ-छवि पाया । अनुपम जी अक्सर राजनीति के गिरते स्तर की तुलना पानी के घटते स्तर से करते थे । अब तो हाल यह है कि, यह गिरावट इतने निम्न स्तर तक पहुँच गयी है कि, पता नहीं उसका शोधन-संशोधन हो पाएगा या नहीं । जिस समय-समाज और उसका नेतृत्व करने वाले लोगों में इतिहास बनाने का धीरज न हो, जो एक झटके में इतिहास बन जाने की कुत्सित कामना में सब कुछ को बेदखल कर रहे हों, नायकत्व की ऐसी लालसा वाले समय में, अनुपम दा आप थे तो झूठ के खिलाफ सत्य के पक्ष में आवाज़ उठाने की हमारी हर छोटी-बड़ी कोशिश को संबल मिलता था । आज अप नहीं हैं, पर आपका जिया हुआ जीवन और किया हुआ कार्य हमें संबल देता रहेगा । आप ने पानी के ही उदाहरण से एक शिक्षा दी थी –“पानी जब बहता है तो वह अपने सामने कोई बड़ा लक्ष्य नहीं रखता कि, मुझे तो बस महासागर से ही मिलना है । वह बहता चलता है । सामने छोटा सा गड्ढा आ जाये तो वह पहले उसे भरता है, बच गया तो आगे बध चलता है । छोटे-छोटे ऐसे अनेक गड्ढों को भरते-भरते वह महासागर तक पहुँच जाय तो ठीक । नहीं तो कुछ छोटे गड्ढों को भरकर ही संतोष पा लेता है । ऐसी विनम्रता हम में आ जाय तो शायद हमें महासागर तक पहुँचने की शिक्षा भी मिल जाएगी ।”


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