18 जून 2020

कविता

आशीष त्रिपाठी 

कवि, आलोचक, संपादक आशीष त्रिपाठी प्रकृति और स्वभाव से कवि हैं । तेरह-चौदह साल की उम्र से ही कविताओं में रुचि । पहली कविता सन् 1986 में प्रकाशित । पहला कविता संग्रह एक रंग ठहरा हुआ’ 2010 में प्रकाशित । लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई स्मृति सम्मान से सम्मानित । कविता के साथ ही आलोचना के क्षेत्र में कार्य । पुस्तक समकालीन हिन्दी रंगमंच और रंगभाषाप्रकाशित । 'स्पंदन सम्मान' से सम्मानित । प्रो. नामवर सिंह की ग्यारह पुस्तकों का संपादन । नामवर सिंह के साथ ही रामचंद्र शुक्ल रचनावलीके आठ खंडों का संपादन । आशीष त्रिपाठी के आलोचक और अध्यापक ने उनकी स्वाभाविक वृत्ति से उन्हें इतना दूर कर दिया है कि उनका कवि रूप बिला गया है । आशीष कविताएँ बहुत कम लिखते हैं । पर उनकी कविताएँ बहुत गहरे संवेदन के साथ मन में ठहरती हैं । यह अस्वाभाविक नहीं है कि उनके पहले संग्रह का नाम एक रंग ठहरा हुआहै । एक कवि की सम्पूर्ण कला इस बात में निहित होती है कि वह पाठक को एक ऐसी दृष्टि प्रदान करे जिससे वह समूची प्रकृति को नक्शे पर बने विश्व की भांति, लघु आकार में, छोटी अनुकृति के रूप में देख सके । वह एक ऐसी संवेदनशीलता और गर्माहट प्रदान करे जिससे पाठक उस साँस का अनुभव कर सके जो जीवन के लिए जरूरी होती है, उस जोत को जगाए जिससे आत्म रौशन होता रहे । आशीष अपनी कविताओं से, बहुत चुपके से यह काम करते हैं । आप खुद ही इन कविताओं को पढ़ते हुए इसका पता लगा सकते है :



1.

जो छूट गया

 

     बहुत गहरे कुएँ से

     इस दिल में

     वह छुपा रहता है अँधेरे में

     जल की परतों में सबसे नीचे

     स्मृति जल सा

 

     एक अधबनी तसवीर सा

     वह कसकता है

 

     रोशनी की दो फाँकों के बीच फैले

     अँधियारे सा वह जगमगाता है

 

     बिन बरसे लौट गये बादल सा

     वह बरसने को मचलता है

 

     अनुष्ठान के लिए आये दियों सा

     वह प्रतीक्षा में

     ज़िंदगी भर जलने की राह तकता है

 

     मेले में बिछड़ गये बच्चे सा

     वह रोते रोते

     सबकी ओर उम्मीद़ से देखता है

 

     गोरसी में राख के ढेर में दबी आग सा

     वह सुलगता है भीतर ही भीतर

 

     दोगाने की खो गयी आवाज़ को

     ढूढ़ँता सा वह

     आवाज़ों के बियाबान में खो जाता है

 

     किसी फ़कीर सा वह

     नये परिंदों के खुलते पंखों को

     उड़ने की दुआ देता है

     और कहता है - आमीन ! 

 

2. 

समुद्र में आकाश

 

     यह सच है

     कि उसने खुद कभी नहीं कहा ऐसा

 

     पर उसे चाहिए था वह सब

     जो चाहिए था उस जैसी सबों को

 

     मैं एक साथ

     चार अलग अलग दिशाओं में गया

 

     एक दिशा में

     नदी के भीतर की सुरंग से होकर

     पर्वत की खोह तक पहुँचा

     जहाँ एक गंधर्व ने

     अनंत समय तक मुझे गलाया

 

     मैं गला और वह अदृश्य

     मैने देखा

     बन गया मेरा चेहरा

    

     अलग अलग दिशाओं में

     ऐसे, ऐसे मैने पाया वह सब

     जो चाहिए था उसे

     और उस जैसी सबों को

 

     उन सब चीज़ों को एक पोटली में बाँधकर

     जब गाँव वापस आया

     वह स्त्री कहीं नहीं थी

    

     वह सब कुछ से डरती थी

     सावन की झड़ी में

     मेरे हाथों में तने छाते के नीचे नहीं आयी वह

     माघ की ठंड में

     धूप के उस टुकड़े से बाहर ही रही

     जो मुझे घेरे था

 

     जेठ की तीखी दुपहरी में

     वह पेड़ की उस छाँव में नहीं आयी

     जो मेरे सर पर थी

 

     वह मुझसे दूर भागती

     और उसके भीतर का समुद्र

     ज्वार लेकर मेरी ओर

 

     मेरे करीब वह गाँवों के पुराने घरों जैसे ही

     एक घर का चित्र बनाती

     और कहती - इसके सामने मैं एक पेड़ लगाऊँगी

 

     घर के पुरानेपन की याद

     भाटे की तरह उसे वापस ले जाती

 

     मैं उससे मिलना चाहता हूँ

     माँगना चाहता हूँ

     समुद्र में आकाश की छवियाँ

 

     उसके दरवाजे पर देखना चाहता हूँ एक पेड़

     पेड़ की किसी डाल पर

     लटका आना चाहता हूँ वह पोटली

 

 

3.

गीतों से कुछ यादें

 

     कहीं भी, कभी भी

     राह चलते या ठहरे में

     खुलती सुबह

     या गहराती शाम से किसी क्षण में

     अचानक शुरू होता है कोई गीत

 

     निस्तेज तारों को

     छूते हैं सुर

     चूमते हैं शब्द

     धीरे धीरे एक गीत की चमक से

     भर उठते हैं तारे

 

     जीवित होती जाती है एक वीरान

     सोई हुई दुनिया

     रोशनी से भर उठते हैं यारबाज रंग

     ठहरी हुई चीज़ों में होती है जुम्बिश

     पुरानी कहानी दृश्यावलियों में बदलने लगती है

 

     प्रकाशित होता जाता है

     तुमसे मिलने के क्षणों का सब कुछ

 

     कड़ी उमस भरी धूप में छाँव का सुख

     पनचुछही और ठंडी चाय की सबसे अच्छी चुस्कियाँ

     बातों की कुल्हाड़ी से

     कटते जाना समय के पहाड़ का

     कुछ लोगों का घूरना बिदुराते

 

     सड़ी निबौलियों की बू से भरी हवा में

     बेला की खुशबू

     उमस भरी बारिस की उस शाम

     चट्टान पर चढ़कर बादलों से

     नेनूँ के लोंदे की तरह खेलने की इच्छा

     सैकड़ों फुट ऊपर से गिरती नदी का

     एकाएक चुप हो जाना

     और निहारने लगना मुझे

     बारिस में छत पर लटकी

     पानी की बूँदों से मेरे जीवन का

     बहने लगना

     ढेर सारा कहने के लिए चली नदी को

     स्वयं ही बाँध लिये जाने की बेचैनी

     ताज़े लिखे काग़ज़ की खुशबू

 

     रोशनी के टुकड़े सभी क्षणों को

     ममता से भरते हैं

 

     इन गीतों में सुनायी देती है

     आज भी

     तुम्हारी ही आवाज़

     मेरी आवाज़ के साथ

 

     गीतों के पूरा होने के बाद का सूनापन

     गाढ़ा होता गया है धीरे धीरे

 

 

4. 

सिन्दूर की डिबिया

(एक गर्भवती स्त्री का त्रासद स्वप्न)


     यूँ थे आसमान में रंग

     जैसे बिखरे हों अनार के दाने और छिलके बेतरतीब

     रोशनी के टुकड़ों से खेलते बेला के फूल

     बादलों में समुन्दर के पानी के खेल की छवियाँ

    

     मेरे भीतर मेरी बिटिया तीन महीने की

     जैसे एक पूरी गुड़िया लाल कनेर के फूल सी

 

     एक छोटी चिड़ी सी वह खेलती बादलों से

     रंगों को मुट्ठी में ले मेरी ओर फेंकती

     पोतती कभी अपने कभी मेरे गालों पर

     बादलों के बुलबुले बनाकर उड़ाती

     रोशनी के उद्गम को मूँदती

     दिव्य दृश्यता से भर जाती

 

     मेरी ओर टुकुर टुकुर ताकती

     मुझे धरती से ऊपर उठाकर लिये जाती थी

     मेरी अदेखी दुनिया में

     कि अचानक उगा वह बनैला नाखून

 

     बिटिया मगन थी अपने खेल में

     और वह बढ़ा आता था उसकी ओर

 

     मेरी आँख जम गयी जैसे

     वह इतनी छुटकी, कैसे पकड़ूँ उसे

     कहाँ लेकर भागूँ

     और वह उसकी ओर बढ़ता आता

 

     मैं धरती की ओर भागी

     पुरानी नदियों के किनारे पड़ी सीपियों

     कलमकारों की कलमों

     संगीतज्ञों के वाद्यों

     विद्या-भवनों

     न्यायदेवी की आँखों

     नारी मुक्ति की पुस्तकों

     गहनों की पेटियाँ

     फैशन परेडों के प्रकाश-वृत्तों

     लिपस्टिक की डिब्बियों

     कहाँ छुपा कर रख दूँ उसे

     जहाँ वह नुकीला बाघ सा नख न पहुँच पाये

 

     कहाँ जाऊँ री माँ !

 

     पूजा के कलशों

     रुकी हुई पुरानी घड़ियों

     निरापद साधुओं के कमंडलों

     कुम्हार के आवाँ

     मजूर की रोटियों के बीच

     ओ माँ क्या कोई जगह नहीं

     जहाँ उसके हमले का डर न हो

 

     मैं रोती जाती

     भागती, गिरती, उठती, भागती

     टकराती, लड़खड़ाती

     चीखती, बँबाती

     तड़पती, भागती

 

     वही बनैला नाखून मेरी नन्हीं लोरी के पीछे

     जिसके अनगिन घाव मेरी आत्मा पर

 

     वह इतना शक्तिशाली अय्यार

     कि छूता औरत की छाया को और वह सिहरती

     वह घूरता चित्र को और वह पूर्ण निरावृत्त

    

     मैनें उसे पूज्य ऋषियों, संतों और वलियों

     की वाणियों में देखा

     वह पूजाघरों और धर्म की पोथियों में छुपा रहता

     कई दफ़ा पुरुष की देह से ऐसे संयुक्त

     कि एक को देखो तो दूसरा दिखे

    

     स्त्री की चुप्पी से जिसका तेज बढ़ता है

     काली बिच्छू के डंक सा वही

     पीछा करता मेरी पाखी मेरी उड़ान का

     और मैं कहाँ ले जाऊँ कहाँ रख दूँ उसे

     जहाँ पहुँचने का कोई रास्ता न मिले बनैले नाखून को

 

     देश शव सा डूबता उतराता था

     अनंत की नदी में

     काल अर्थी की खपच्चियों सा

     बिखरा जाता था

     अँधेरा फैलता ही जाता था

     भय सा

 

     कितना असमंजस कितनी दुविधा

     कितनी पीड़ा कितना दुःख

     चारो ओर

     और मैं उसे लेकर भागती ही जाती थी

     अनंत में

 

     दृश्य एक दूसरे को काटते

     परत पर परत बनाते

     मेरी आँखों में कौंध रहे थे

 

     इतनी गति, इतना वेग

     ओह्ह! इसमें तो खत्म हो जायेगा जीवन

 

     अचानक ठहर सा गया सब कुछ

     आँख में तैरा

     सहसा धरती पर हरे पत्तों से

     ढँका एक मंडप

     और थिर हो गया दृश्य

 

     मंडप के नीचे

     दिखी सिन्दूर की डिबिया

     स्त्रियों के मंगलगान के बीच

     उसी में छिपा कर बिटिया को

     निकलना ही चाहती थी

     कि चमक उठा दादी का चेहरा

     दादी के चहरे के भीतर से उभरा

     नानी का मुख

     और फिर बुआओं, मामियों

     चाचियों, भाभियों, ननदों और सहेलियों के चेहरे

     उभरते परत दर परत

 

     गड्डमड्ड हो गये सभी चेहरे

     अंत में उभरा माँ का चेहरा स्थिर हो कर

 

     इस चेहरे को

     इस मुद्रा में देखा था मैंने

     बचपन में, घर के अंधेरों में

     जहाँ रोती थी माँ बेआवाज

     चहरे के साथ रोती थी माँ की पूरी देह

 

     अभी, दुःख की गहरी नदी बहती है चहरे पर

     पराजय और कैद के अनंत रंग

     उभरते और बिलाते जाते हैं नदी में

 

     मेरी आँखों में ठहर गया माँ का चेहरा

     क़रीब आता जाता है मेरी ओर

     सहसा मुख पर लगी सिन्दूर रेखा से

     झाँकता है हँसता हुआ बनैला नाखून

 

     माँ के चेहरे की सिन्दूर रेखा

     चमकती है बिजली सी

     ओह! कितना शांत और निर्विकार है अब

     माँ का चेहरा

     और कितना भयानक यह बनैला नाखून

 

     सहसा सिन्दूर का पहाड़ होली के गुलाल सा

     झरता है मेरी आँखों में

     ओह! दूर करो, हटाओ इस सिन्दूरी झरने को

     अंधी हुई जाती हैं आँखें

 

     बंद करने दो आँखें

     गिरने दो पलकों का पर्दा  

     बहने दो इससे आँसुओं की धारा

 

     रोती जाती हूँ

     साफ करती हूँ आँख का सिन्दूर

     दिखाई दे कुछ

 

     रोती लौटती हूँ सिन्दूर की डिबिया की ओर

     लेकर भागती हूँ अपनी सपनप्रिया को

 

     भागती हूँ

     भागती ही जाती हूँ अनंत में

 

     अनंत में झरते हैं परदे

     घूँघट और बुरक़े

     चूड़ियाँ और बिंदियाँ

     पाजेब और कर्ण-फूल

     लिपिस्टिक और आईलाइनर

     मंगलसूत्र और बिछिया

 

     झरता जाता है सिन्दूर 

 

     देखती हूँ बन गया है कचरे का पहाड़

     हिमालय से भी बड़ा

 

     इस कचरे पर पाँव रखती

     चली जाती है अनंत की ओर

     बिटिया मेरी

 

     उसकी आँखें पृथ्वी सी दीख पड़ती हैं अभी

     जैसे पृथ्वी ही हुई जाती है वह

     अपनी है धुरी पर

     अपनी ही गति से

     चलती चली जाती है अनंत में

 

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 संपर्क : हिंदी विभाग, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी - 221005 मो. : +91 9450711824