25 दिसंबर 2014

नदीन गोर्डिमर

                        नदीन गोर्डिमर 

(रंगभेद के खिलाफ एक     गुरिल्ला कल्पना-शक्ति)

विनोद तिवारी

Colonialism is not satisfied merely with holding a people in its grip and emptying the native’s brain of all form and content. By a kind of perverted logic, it runs to the past of the oppressed people, and distorts, disfigures and destroys it.

उपनिवेशवाद केवल इसी बात से संतुष्ट नहीं हो जाता कि उसने उपनिवेशित लोगों को अपने अधिकार एवं नियंत्रण में ले लिया है और वहां के लोगों के मन-मस्तिष्क में मौजूद सभी तरह के रूपों व छवियों से पूरी तरह उन्हें खोखला कर दिया है | इससे आगे; वह एक विकृत सोच के तहत दमित-शोषित लोगों को उन्हीं के भूत से हांकता है और उनकी पहचान से उन्हें विरूपित कर विनष्ट कर देता है |

                                                                                       -         Frantz Fanon

  पूरी दुनिया में उपनिवेशवादी साम्राज्यवाद के दमन, शोषण, अत्याचार और लूट का दंश जिन देशों ने झेला है उनमें अफ्रीका का इतिहास काफी लम्बा है | शताब्दियों तक यह देश गुलामी, दासता और नृशंस शोषण का उपनिवेश बना रहा | विकसित कहे जाने वाले पहली दुनिया के देशों ने अफ़्रीकी, एशियाई और लातीन अमरीकी देशों और वहां के काले, पीले और मिश्रित रंग के लोगों के प्रति नस्लभेद और रंगभेद की अमानवीयता का जो सभ्य (?) खेल खेला वह मनुष्यता के इतिहास का सबसे नियोजित घिनौना और बर्बर उदहारण है | इस पूंजी आधारित बर्बर सभ्यता ने उपनिवेशित देशों और वहां के मूल निवासियों के ऊपर जो कानून और व्यस्थाएं लादीं वह निश्चित ही अन्यायपूर्ण, निर्दयी और मनुष्यता के इतिहास में सभ्य-प्रवाह के विपरीत थीं | प्रगति, विकास, सभ्यता, शासन आदि के नाम पर साम्रज्यवादी शक्तियों ने दुनिया भर में जो ‘पाठ’ बनाया वह कितना झूठा और बेमानी था इसकी पोल आज खुल चुकी है | इंटरनेशनल कांफ्रेंस सेंटर, हवाना, क्यूबा में साउथ सम्मिट के समापन सत्र में 14 अप्रैल 2000को दिए गए अपने भाषण ‘तीसरी दुनिया की एकता’ में फिदेल कास्त्रो का यह कथन देखा जाना चाहिए - वे यह भूल जाते हैं कि जब योरोप में ऐसे लोगों का वास था जिन्हें रोमन साम्राज्य वहशी कहता था उस समय चीन, भारत, मध्य-पूर्व, तथा दक्षिण और मध्य-अफ्रीका में सभ्यताएं थीं और उन्होंने उन चीजों का सृजन कर दिया था जिन्हें दुनिया के अजूबे कहा जाता था | यूनानियों द्वारा पढ़ना सीखे जाने और होमर द्वारा इलियड लिखे जाने से पहले उन्होंने लिखित भाषाएँ विकसित कर ली थीं | हमारे अपने गोलार्द्ध में ‘माया’ और ‘इंका’ पूर्व सभ्यताओं ने वह ज्ञान अर्जित कर लिया था जिससे आज भे दुनिया चकित रह जाती है | (नव उदारवाद का फासीवादी चेहरा - फिदेल कास्त्रो, हिंदी अनुवाद - रामकिशन गुप्ता, ग्रंथशिल्पी, दिल्ली)  

  उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में तीसरी दुनिया का पूरा साहित्य साम्रज्यवादी शोषण, लूट, आत्याचार और बर्बरता के विरुद्ध संघर्ष का साहित्य है | बीसवीं में दक्षिण-अफ्रीका ने जो महत्वपूर्ण लड़ाकू नेता और साहित्यकार दिए हैं; जिन्होंने नस्लभेद और रंगभेद जनित असमानता और अमानवीयता के विरुद्ध लडाईया लड़ी हैं; उनमें नोबेल सम्मान से सम्मानित कथाकार नदीन गोर्डिमर काम अत्यंत महत्व का है | उनके इस महत्पूर्ण योगदान के लिए उन्हें 1991 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया | यह पुरस्कार पाने वाली वह विश्व की सातवीं महिला और दक्षिण अफ्रीका की पहली साहित्यकार थीं | 20 नवम्बर 1923  में  दक्षिण अफ्रीका के सोने की खान वाले एक छोटे से शहर स्प्रिंग्स, ट्रांसवाल में नदीन गोर्डिमर का जन्म एक निम्न मध्यवर्गीय यहूदी परिवार में हुआ | 90 वर्ष का सक्रिय रचनात्मक जीवन जीने के बाद 14 जुलाई 2014 को उनका निधन हो गया | उनकी माता हन्नाह म्येर्स लन्दन की थीं और पिता इसिडोर लातिवियन थे | पिता ने लातिविया किशोरवय में ही छोड़ दिया और अपने बड़े भाई के पास रोजगार की तलाश में दक्षिण अफ्रीका आ गए थे | घड़ीसाज के रूप में उन्होंने अपने भाई के साथ काम शुरू किया बाद में खुद की अभोषणों की दूकान खोल ली | अंग्रेजी- भाषी और श्वेत होने के कारण अन्य दक्षिण अफ्रीकी श्वेत परिवारों की तरह उन्हें भी कुलीनता और उच्चता के वे सारे अधिकार मिले थे जो ‘रूलिंग कास्ट’ के नाते गोरों की सरकार और सत्ता ने अपने लिए बना रखे थे | पर; इस विशेष सुविधा प्राप्त प्रभु-वर्ग का होने के नाते गोर्डिमर को अपने परिवार में ही नजदीक से उस मानसिकता को जानने-समझने का मौका मिला जो बाद में उनकी रचनाओं की संवेदनात्मक आधारभूमि प्राप्त करता है |

  नदीन गोर्डिमर की पढाई-लिखाई में उनकी माँ का विशेष हाथ रहा | स्प्रिंग्स में ही एक कैथोलिक कान्वेंट स्कूल से उनकी पढाई-लिखाई हुयी | अपनी पढाई-लिखाई का सबसे अधिक श्रेय वे उस छोटे से शहर में मौजूद पुस्तकालय को देती हैं जिसके बारे में उनका कहना है कि, बिना उस पुस्तकालय के शायद उनका लेखक बनना संभव न होता | उच्चशिक्षा के लिए उन्होंने विट्स विश्वविद्यालय, जोहान्सबर्ग में प्रवेश लिया | पहली बार यहीं पर उन्होंने अपने ‘कलर बार’ से बाहर अश्वेत लोगों से दोस्ती कायम की | जोहान्सबर्ग से ही लगे एक सबर्ब ‘सोफियाटाउन’ में उनका परिचय कई दक्षिण-अफ्रीकी अश्वेत लेखकों और बुद्धिजीवियों से हुआ जिनमें एस्किया माफ्हेले, नात नकासा, टॉड मात्शिकिज़ा लेविश न्कोसी जैसे प्रमुख लोग थे | गोर्डिमर ने बीच में ही अपने पढ़ाई छोड़ दी और जोहान्सबर्ग में ही बसने का निर्णय लिया | गोर्डिमर ने दो शादियाँ कीं | पहले पति गेराल्ड गैव्रोन से एक लड़की हुयी | 1954 में उन्होंने दूसरी शादी एक पूंजीपति व्यवसायी रेनाल्ड कैसिरर से की जिससे एक लड़का है | रेनाल्ड नाज़ी जर्मनी के समय के एक शरणार्थी थे और दूसरे विश्वयुद्ध में अंगरेजी सेना की और से लड़ाई में शामिल हुए थे |

  नदीन गोर्डिमर ने बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक से अपना लेखन कार्य शुरू किया | जब वे 15 साल की थीं तब उनकी पहली कहानी प्रकाशित हुयी | इस कहानी के सन्दर्भ के लिए वे गोरी चमड़ी वालों का काले लोगों के प्रति जो अमानवीय भेदभावपूर्ण बर्ताव था उसका जिक्र करती हैं जिनके चलते बाल मन में काले लोगों के प्रति एक ऐसी संवेदना ने जन्म लिया जो जीवन भर उनके हक़ और अधिकार की पुरजोर लड़ाई लड़ता रहा | अपने बचपन की दो घटनाओं का जिक्र करते हुए बताती हैं कि कैसे इन दो घटनाओं ने उनके बाल-मन को झकझोर कर रख दिया था | पहली घटना के सम्बन्ध में वे बताती हैं कि जब वे आठ साल की थीं तो एक बार अपने कान्वेंट स्कूल में छुट्टी के समय निकल कर घूमते हुए थोडा आगे की ओर निकल गयीं जहाँ सोने की खानों में काम करने वाले काले मजदूरों की बस्ती थी | घर आकर माँ से उन्होंने जब यह बताया तो बहुत ही सख्ती के साथ उन्हें चेताया गया कि भूलकर भी उधर मत जाना अन्यथा वे लोग तुम्हारे साथ बहुत बुरा बर्ताव कर सकते हैं | गोर्डिमर कहती हैं की, अब मैं सोचती हूँ तो बहुत गुस्सा आता है कि क्या सचमुच, वे काले मजदूर इसी ताक में बैठे रहते हैं कि कब कोई गोरी चमड़ी वाली लड़की दिखे और वे उस पर टूट पड़ें | दूसरी घटना तब की है जब वे ग्यारह या बारह साल की थीं | एक जनरल स्टोर में मान के साथ कुछ सामान कह्रीदाने गयी थीं | वहां उन्होंने देखा कि काले लोगों के लिए रस्सी के सहारे एक कतार्नुमा बनाया गया है और आगे के सिरे पर जाकर उस रस्सी को एक बैरियर की तरह घेरकर बाँध दिया गया है जिसके आगे काले लोग नहीं जा सकते हैं | वे वहीँ से जो भी सामन चाहिए उसे चिल्लाकर मांगते और एक टोकरी में वह सामन उनके पास पहुंचा दिया जाता था उसी टोकरी में वह उस सामन की कीमत रख देते थे | गोरे लोगों की तुलना में न तो स्टोर में सामान तक उनकी पहुँच संभव थी न भुगतान के लिए काउंटर तक ही वे जा सकते थे | उन्हें जानबूझकर दूर रखा जाता था | इस नस्ली असमानता और अन्याय से नदीन गोर्डिमर बहुत बेचैन होती थीं | नस्ली भेदभाव तो दक्षिण अफ्रीका में औपनिवेशिक काल से ही चला आ रहा था | पर रंगभेद की नीति को तो 1948 में गोरे लोगों की सरकार ने बाकायदा कानून बनाकर सरकारी नीति के तहत लागू किया | इस नए क़ानून में लोगों को चार समूहों में बांटा गया – काले, गोरे, मिश्रित और भारतीय | इन समूहों के लिए अलग –अलग रिहाईशी क्षेत्र निर्धारित किये गए |  इन सबके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य नागरिक सुविधाओं में पर्याप्त भिन्नता और असमानता रखी गयी | सबसे बुरी हालत काले लोगों की ही थी | बीसवीं शताब्दी के छठे दशक से दक्षिण अफ्रीका में जो आन्दोलन शुरू हुआ वह इसी अन्यायपूर्ण और अमानवीय सरकार और क़ानून के खिलाफ था |
नदीन गोर्डिमर ने अपनी कलम की ताकत और कल्पना-शक्ति से इस बर्बर यथार्थ को शसक्त रचनात्मक आवाज दी | उन्होंने इस नस्ली भेदभाव और रंगभेद को दूर करने संबंधी अपनी सोच और सपने को ऐसी ताकत दी कि रंगभेद के खिलाफ उनके लेखन को खतरनाक समझा जाने लगा | उनकी कई किताबें सेंसर और प्रतिबंधित हुयीं | यह कार्य उन्हीं गोरे प्रभु-वर्ग के लोगों ने किया जो उन्हें अपने वर्ग का मानते थे | पर इससे उनकी आवाज मद्धिम नहीं हुयी वरन वह और ताकतवर होकर सामने आयी | जब उनके उपन्यास ‘दि कन्ज़र्वेस्निस्ट’ (1974) को जब बुकर सम्मान मिला तो पहली बार दुनिया की नजरों में उनका लेखकीय संघर्ष और प्रतिरोध सामने आया | 1991 में जब उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला तो पूरी दुनिया के साथ खुद दक्षिण अफ्रीका में वे महत्वपूर्ण लेखक के रूप में स्वीकृत हुयीं | स्वीडिश एकेडेमी ने पुरस्कार दते समय यह कहा कि, नदीन गोर्डिमर ने अपने देश दक्षिण अफ्रीका के नस्लभेद संबंधी सचाई को सामने लाने वाले महाख्यान रचे हैं | सच तो यही है कि, गोर्डिमर ने जीवन भर दक्षिण अफ्रीका की समस्याओं को ही अपने लेखन का केंद्र बनाया | 1991 में रंगभेद के खिलाफ लम्बी लड़ाई के बाद जब नेल्सन मंडेला को जेल से रिहा किया गया और पूरी दुनिया में जीत का जश्न मनाया गया तो एक साक्षात्कारकर्ता ने जब उनसे यह पूछा कि, अब अप क्या करेंगी अब तो आप के लेखन का जो एजेंडा था, जो मोटिव्स थे वो पूरे हुए | गोर्डिमर का जवाब था क्या सचमुच दक्षिण अफ्रीका के लोगों की समस्याएं खत्म हो गयीं ? अभी तो उनके जीवन-स्तर की कई अनेक समस्याएं हैं जिनसे लड़ना बाकी है | सच में, गोर्डिमर का बाद का लेखन सेक्स और एड्स की समस्या, राजनितिक दमन, भ्रष्टाचार आदि समस्यायों को केंद्र बनाता है | गोर्डिमर अपने समय की विश्व की सर्वाधिक राजनीति-चेतना संम्पन्न उपन्यासकार हैं | नेल्सन मंडेला उनके अछे मित्रों में से थे | वे अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (ANC) की एक जुझारू सदस्य थीं | पार्टी के भीतर अपनी सोच और सही मंतव्यों के नाते उनकी एक महत्वपूर्ण जगह थी | 1994 में जब पहली बार जब स्वतंत्र चुनाव हुए तो उन्होंने बढ़-चढ़ कर उसमें भागीदारी की | जोहान्सबर्ग में अपने क्षेत्र में ‘जैकब जुमा’ के साथ चुनाव प्रचार किया | अब नयी सरकार से उनकी उम्मीद थी कि, एक बेहतर संविधान बने, नाक्रिक अधिकारों का एक विश्व-स्तरीय क़ानून बनाया जाय दक्षिण अफ्रिका एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बने | पर, ऐसा संभव नहीं हुआ | जब ‘स्टेट इन्फोर्मेशन बिल (AKA)’ लाया गया तो गोर्डिमर ने इसका खुलकर विरोध किया | यह बिल खुलेआम भ्रष्टाचार को प्रश्रय देता था और भ्रष्टाचारियों के पक्ष में जाता था | वह थाबो मबेकी के प्रशंसकों में से थीं पर नहीं, उन्होंने ‘कांग्रेस’ छोड़ दी | नदीन ने अपने उपन्यास ‘नो टाइम लाइक प्रेजेंट’ (2012) में इसका पुरजोर क्रिटिक रचा है |

  लगभग 75 साल के अपने लम्बे रचनात्मक जीवन में नदीन गोर्डिमर ने कुल 200 कहानियां और 30 उपन्यास लिखे हैं | उनकी सभी कहानियाँ पांच संकलनों- ‘नॉट फॉर पब्लिकेशन’ (1965), ‘लिविंगस्टोन’स कम्पेनियन’ (1971), ‘जम्प’ (1991), ‘लूट’ (2003) और ‘लाईफ टाइम’ (2011)  में संकलित हैं | उनकी ‘कामरेड्स’ और ‘लूट’ कहानियाँ खूब चर्चित हुयी थीं | ‘कामरेड्स’ तो पेंगुइन द्वारा प्रकाशित ‘इंटरनॅशनल विमेंस शार्ट स्टोरीज’ में भी संकलित है | इसके अलावा उनका वह आलोचनात्मक लेखन ओर अभिमत भी है जो स्टीफन क्लिंगमैन के सम्पादन में ‘दि एसेंशियल जेस्चर’ (1988) में संकलित हैं | उनका पहला प्रकाशित उपन्यास ‘दि लाइंग डेज’ (1953) है | यह एक अर्द्ध-आत्मकथात्मक उपन्यास है जिसमें खंडित होते, ढहते औपनिवेशिक पृष्ठभूमि को चित्रित किया गया है | इसके बाद गोर्डिमर ने तीन उपन्यास दिए - ‘ए वर्ल्ड ऑफ स्ट्रेन्जेर्स’ (1958), ‘ऑकेजन फॉर लविंग’ (1963), और ‘दि लेट बोर्जुवा’ ज वर्ल्ड’ (1966)  | अब तक गोर्डिमर को लगता था कि उन्होंने एक ऐसा रास्ता चुना है जिस पर शायद उन्हें अकेले चलना है क्योंकि समकालीन दक्षिण अफ्रीकी कथाकारों के बीच उनकी कहीं कोई जगह नहीं थी उन्हें बाहरी ही माना जाता था, एक तो अपने औपन्यासिक एजेंडे के कारण दूसरे अंगरेजी भाषा के कारण | पर, उनके उपन्यास ‘दि लेट बोर्जुवा’ ज वर्ल्ड’ के प्रकाशित होने के साथ ही एक उपन्यास के रूप में उनके औपन्यासिक क्षमता को धीरे-धीरे स्वीकृति और मान्यता मिलने लगी | इस उपन्यास में गोर्डिमर एक आतंरिक आलोचक की तरह एक ऐसे समय को खरोंचती हैं जिसमें पूरा बोर्जुआ समाज प्रश्नांकित होता है | इस उपन्यास में गोर्डिमर पहली बार औपनिवेशिक दायरे के सीमित प्रेम, नैतिकता और भ्रष्टाचार के जेनर से बाहर निकलती हैं | अपने कहन के लिए जिस एस्थेटिक की वो लगभग दो दशकों से तलाश कर रही थे अब वह साधता हुआ दिखता है | एक तरह से यह उपन्यास नेल्सन मंडेला के सत्याग्रह के जज्बे को परिलक्षित करता है | अपने उपन्यासों में अब तक जो एक ‘लिबरल-कंजर्वेटिव’ वाली पोजीशन अख्तियार करती दिखती थीं वह टूटता है | उनके अगले उपन्यास (जिसपर संयुक्त रूप से उन्हें बुकर सम्मान मिला) ‘दि कन्जर्वेस्निस्ट’ (1974) में तो वह एक रेडिकल मॉडर्निस्ट के रूप में प्रकट होती हैं | अब वह उन सचाईयों को खरोंचती हैं, उनको सामने ले आती हैं जो खुद उन्हीं के वर्ग और समुदाय की सचाईयाँ हैं | ‘न्यूयार्क टाइम्स’ में एक साक्षात्कार के दौरान पूछे गए इस सवाल का कि, ‘अब आपके ही जो ‘लिबरल’ विचार वाले लोग हैं आपके बारे में क्या सोचते हैं ?’ उनका जवाब था, ‘मैं पैदाईशी श्वेत हूँ पर मैं लिबरल नहीं हूँ | फिर तत्क्षण उनका वाक्य था ‘ आई एम लेफ्टिस्ट माई डियर’ | ‘दि कन्जर्वेस्निस्ट’ एक पूंजीपति फार्म के मालिक मेहरिंग की कहानी है | इस फार्म में एक बड़े व्यवसायी का बड़ा इन्वेस्टमेंट है | उसने टैक्स बचाने के लिए यह इन्वेस्टमेंट किया है | यह वह ‘ब्लैक मनी’ है जिसे उसने टैक्स बचाने के लिए इन्वेस्ट किया है | उसकी वामपंथी पत्नी यह सब जानती है फिर भी वह उसका संरक्षण करती है | मेहरिंग अपने फार्म में काम करने वाले काले लोगों के साथ अनेकशः बर्बर और अमानवीय व्यवहार करता है | इस किये का उसे कोई पछतावा भी नहीं वरन वह बार इसे वैध और ठीक ठहराता रहता है | ‘इन पर शासन करने के लिए ही हमें बना या गया है’ यही उसका टोन है | यह ‘टोन’ केवल मेहरिंग का ही नहीं वरन उस पूरी 13 प्रतिशत गोरी आबादी का ‘टोन’ है जो काले लोगों पर शासन करने के लिए ही बनाये गए हैं | यह उपन्यास नौकर और मालिक के रिश्तों का ऐसा दस्तावेज है जिसे गोर्डिमर बहुत समय से चित्रित करने का साहस कर रही थीं पर कह  पायीं इस उपन्यास में | उनका अगला उपन्यास ‘बर्गर’स डाटर’ (1979)  एक बहुत ही शसक्त राजनितिक उपन्यास है | यह उपन्यास उनके अफ्रीकी मित्र और नेल्सन मंडेला के साथ साथ रंगभेद के खिलाफ संघर्ष करने वाले अन्य अफ्रीकी लोगों की कानूनी लड़ाई लड़ने वाले वकील ब्रैम फिशर को फोकस कर लिखा गया है | यह उपन्यास एक तरह से साहित्यिक विधि-संहिता है जिसे गोर्डिमर ‘कोडेड होमेज़’ के रूप में प्रस्तुत करती हैं | दक्षिण-अफ्रीकी सरकार ने गोर्डिमर के जिन कुछ उपन्यासों को प्रतिबंधित किया उनमें से यह भी एक है | माना जाता है कि, यह गोर्डिमर के उपन्यासों में सर्वाधिक मुखरराजनितिक उपन्यास है | 1981 में नौकर और मालिक के रिश्तों पर उनका एक अन्य उपन्यास ‘जुलाई’स पीपल’ (July’s people) आता है | यह उपन्यास रंगभेद के खिलाफ काले लोगों द्वारा भविष्य में होने वाले भीषण विद्रोह का बहुत ही मुखरता से एक ‘रोड मैप’ प्रस्तुत करता है | उपन्यास में दक्षिण अफ्रीका की अश्वेत पुलिस अपने ही लोगों को गिरफ्तार करने से मन कर देती है | सभी तरह की नागरिक सुविधाएं ठप्प कर दी जाती हैं | संघर्ष केवल शहरों तक ही नहीं सीमित रहता वरन गाँवों तक फ़ैल जाता है | इस बार विद्रोही पूरी तरह से खूनी लड़ाई की तैयारी कर चुके हैं | उनके पास भारी मार्क क्षमता वाले शस्त्र और हवाई जहाज हैं | वे अपने पड़ोसी अश्वेत राष्ट्रों – बोत्स्वाना, ज़िम्बाब्वे, जाम्बिया. नामीबिया और मोजाम्बिक तक इस लड़ाई में एक दूसरे की मदद करते हैं | क्यूबा और सोयियत संघ उनके इस संघर्ष में मदद पहुंचा रहा है | गोर्डिमर का यह  भी प्रतिबंधित किया गया | आरोप यही कि, यह उपन्यास गृहयुद्ध को जन्म दे सकता है | 

  वस्तुतः नदीन गोर्डिमर का समूचा साहित्य दक्षिण अफ्रीका ही नहीं पूरे दुनिया में रंगभेद के खिलाफ संघर्षरत उन करोड़ों लोगों की आवाज को मुखर करता है जो अपने ही देश में अपनी ही जमीन पर एक ऐसी जिन्दगी जीने के लिए विवश और बाध्य हैं जिसे कहीं से भी मनुष्य का जीवन नहीं कहा जा सकता | गोर्डिमर अपने उपन्यासों और कहानियों के माध्यम से उस समाज को गहरे घुसकर छेदती और छीलती हैं जो सभ्यता, मानवता, आधुनिकता आदि का दंभ भरता है | वह गोर प्रभु-वर्ग के राजनीतिकों, बुद्धिजीवियों और व्यापारियों के आपसी रिश्ते और चालाकियों को सामने ले आती हैं | उनकी हिप्पोक्रेसी को वे तार तार करती हैं | गोर्डिमर बड़े ही रचनात्मक ढंग से पूंजीवाद, उदारवाद और मार्क्सवाद की साझेदारियों और उनके झूठ और छद्म के व्याकरण को प्रस्तुत करती हैं | वास्तव में गोर्डिमर का पूरा लेखन आधी शताब्दी के दक्षिण अफ्रीका के समाज और मनोविज्ञान का एक साहित्यिक दस्तावेज़ है जिसके सहारे आप उस इतिहास को जान समझ सकते हैं जब उपनिवेशी दौर से मुक्त होकर यह देश 1948 में लोकतान्त्रिक चुनाव की प्रक्रिया के बाद एक नए तरह के अन्याय, शोषण और दमन के चक्र में  मात्र 13% गोरे लोगों के शासन के अधीन आता है |  गोर्डिमर का साहित्य अब तक विश्व की लगभग तीस भाषाओं में अनुदित हो चुका है | नदीन गोर्डिमर 14 जुलाई 2014 को हमारे बीच से विदा ले चुकी हैं पर इस धरती पर कहीं भी जब तक जाति, रंग या नस्ल के नाम पर भेदभाव, अन्याय, दमन और शोषण का साम्राज्य बना रहेगा उनका साहित्य उससे लड़ने और मुक्त होने की प्रेरणा देता रहेगा |

( इस लेख के लिए सारे तथ्य रोनाल्ड सुरेश रॉबर्ट द्वारा लिखित गोर्डिमर की जीवनी ‘नो कोल्ड किचन’ से लिए गए हैं | कुछ सन्दर्भ ‘दि गार्डियन’, ‘दि न्यूयार्क टाइम्स’ और ‘टेलीग्राफ’ से लिए गए हैं )

संपर्क: C-4/604, ऑलिव काउंटी, सेक्टर-5, वसुंधरा, गाज़ियाबाद-201012  





27 सितंबर 2014

पक्षधर-16  
सम्पादकीय 
  जो सलीब अपनी कीलों से लिखती है
                                                                     विनोद तिवारी
            मैं अपने आभ्यंतर का आलोचक (Critical Insider) हूँ | अपनी संस्कृति को अपनी ही दृष्टि से देखना, अनुमान करना हमारे लिए महत्वपूर्ण है| हमारी परम्परा का विकास इसी कारण हुआ है | वेद की परम्परा आयी | बुद्ध ने इस पर प्रश्न किया | मैं भी उसी परम्परा का हूँ | साहित्य का हूँ, साहित्य में भी बसवण्णा, कनक दास, कुमार व्यास,नवोदय लेखक, नव्य लेखकों की परम्परा का | कालानुक्रम में यही साहित्यिक परंपरा से प्रश्न करते, ढका देते हुए उसका विकास करते हुए आये हैं |” ( यू. आर. अनंतमूर्ति की पुस्तक किस प्रकार की है यह भारतीयतासे)                                                                    
 नारणप्पा के शव-संस्कार का जब प्रश्न उठा तो उसका स्वयं समाधान करने की कोशिश मैंने नहीं की | मैं परमात्मा पर भरोसा करता रहा;धर्मशास्त्रों के पन्ने उलटता रहा | लेकिन क्या ठीक इसी उद्देश्य से हमने शास्त्रों का निर्माण नहीं किया है ? हमारे द्वारा किये गए निर्णयों के और समूचेसमाज के बीच गहरा सम्बन्ध होता है | अपनी प्रत्येक प्रक्रिया में हम अपनेपूर्वजों, अपने गुरुओं अपने देवी-देवताओं, अपने मानव संगी साथियों को लपेट लेतेहैं | अंतर का संपर्क इसी कारण पैदा होता है | जब मैं चन्द्री के साथ सोया था, तो किसी ऐसे संघर्ष का भान हुआ था ? क्या उस बारे में अपना निर्णय किसी विशेष नाप-तोल के बाद मैंने किया था ?” (‘संस्कारउपन्यास में वेदान्त शिरोमणि प्राणेशाचार्य का द्वंद्व)
सार्वजनिक जीवन रहना चाहिए | वाच्यार्थ स्पष्ट रहना चाहिए ध्वन्यार्थ भी स्पष्ट रहना चाहिए | लेकिन आज के कई राजनीतिज्ञों मेंशर्मजैसी नैतिक भावना भी नहीं है | राजनीति में हर अच्छा व्यक्ति लगना चाहिए | केवल चुनाव लड़ना ही राजनीति नहीं है | आम लोगों की समस्यायों को हिम्मत से कहना आवशयक बन चुका है |” ( यू.आर. अनंतमूर्ति की पुस्तक किस प्रकार की है यह भारतीयतासे) 

धर्म और धर्माचरण आधारित साम्प्रदायिक-राजनीतिक शक्तियों के प्रति आलोचनात्मक और अनासक्त नैतिक बोध रखने वाले, लम्पटता और कट्टरता की समूहगत राजनीति को लगातार चुनौती देने वाले, परम्परा और संस्कृति को निरंतर आलोच्य और परीक्षणीय बनाने की वकालत करने वाले, एक तेजस्वी मष्तिष्क, लोहियावादी, आधुनिकलेखक, विचारक और सार्वजनिक-बुद्धिजीवी उडुपी राजगोपालाचार्य अनंतमूर्ति ने अंततःइस दुनिया से विदा ले लिया | सार्त्र ने लिखा है कि, लेखकों को अपने घर ज्वालामुखी के मुहाने पर बनाना चाहिए | अनंतमूर्ति जैसे लेखकों ने अपने लेखक होने के उत्तरदायित्व को सचमुच ज्वालामुखी के मुहाने पर रहते हुए निभाया | भारत में ही नहीं पूरे विश्व की साहित्यिक विरादरी से अनंतमूर्ति को जो प्रेम और सम्मान मिला वह उनके लोकप्रिय होने का प्रमाण है | अनंतमूर्ति की सोच उनके विचार उनका सृजनात्मक-रचनात्मक कार्य उन्हें एक ऐसे भारतीय लेखक और विचारक के रूप में स्थापित करता है जो रूढ़िवादी, साम्प्रदायिक, कट्टरवादी, कुएँ के दादुर-शिशुओं के लिए निरंतर समस्या पैदा करता रहेगा ।

अनंतमूर्ति के पूरे रचनात्मक व्यवहार में मनुष्यता की बेहतरी  के  लिए धर्म,राजनीति, समाज, संस्कृति को लेकर जो निरंतर एक आलोच्य-भाव है वह किसी प्रतिक्रया में नहीं है न ही वह यूरो-केन्द्रितआधुनिकता की दृष्टि का प्राच्य-भाव ही है | वह भारतीयताका इतना प्रामाणिक औरअसंदिग्ध आधुनिक पाठ है जिसे अनंतमूर्ति को उनकी उसी भारतीयपरम्परा ने उपलब्ध कराया है, जिस भारतीय परम्परा ने उनका विरोध करने वाले, उनके खिलाफ नफरत और घृणा फैलाने वाले उनकी मृत्यु का जश्न मनाने वालों को तंगनजरी दी है | ‘परम्पराको हेरिटेज मानकर उसे सिर्फ गर्व और गौरव के, महान और महानता के अविवेकी शिखर से देखने वालों के ऊपर आपको तरस भी क्योंकर आये | इसलिए जब एक व्यक्ति यह कह रहा है कि, वह अपने आभ्यंतर का आलोचक है तो उनकी समझ में ही यह नहीं आ सकता कि, दरअसल वहक्या कहना चाहता है | अनंतमूर्ति लगातार इस बात को लगातार दोहराते रहे, अपनी रचनाओं में रचते रहे कि, ‘यदि आपका परंपरा से कोई झगड़ा नहीं होगा तो वर्तमान में आपसे कोई सृजन कार्य भी नहीं होगा | और यह झगड़ा बहुत बार खुद अपने आप से भी होताहै | परम्परा से मेरा झगड़ा किसी बाहरी व्यक्ति का सा नाता नहीं रखता, बल्कि उसके भीतर बसे व्यक्ति का सा नाता है मेरा | इसलिए मैं उसमें अपने आप को  एक आलोचनाशील अन्तर्वासी की तरह पाता हूँ | कन्नड़ साहित्य की परम्परा से भी मुझे अपने इस प्रयत्न में मार्ग-दर्शन मिलता है |  हमारे आदि कवि पम्प स्वयं जैन होते हुए भी एक हिन्दू राजा के दरबार में रहे और कन्नड़ में महाभारत के रचना की | पम्प के महाभारत के वास्तविक नायक अर्जुन या कृष्णनहीं हैं वहाँ वास्तविक नायक कर्ण है जो स्वयं कई वर्ण-व्यवस्था के ऊँच-नीच काशिकार हुआ था | बारहवीं सदी के हमारे महान शिव-भक्त वचनकार संत कवि वर्ण-व्यवस्था की, वेद की अपौरुषेयता को चुनौती देते हैं | उन्हीं दिनों महाकवि बासवण्णा नेब्राह्मण कन्या का विवाह एक अछूत से कराया था । बीसवीं शताब्दी का छठा दशक नव-लेखनकी टेक पर देश भर की लगभग सभी भाषाओँ में एक नए तेवर के साथ आता है| हिन्दी में भी नयी कविता’ ‘नयी कहानी’ ‘नव-लेखनका यही दौर है | कन्नड़ में भीयह नव्य आन्दोलनके नाम से जाना जाता है | उसी नव्य-आन्दोलनकी वैचारिकी सेनिकले रचनाकार थे यू. आर. अनंतमूर्ति | कन्नड़ में इस नव्य आन्दोलन के अगुआ थे विनायक कृष्ण गोकाक और गोपाल कृष्ण अडिग | इस आन्दोलन ने अपने आलोचनात्मक तेवर और आधुनिकताके तकाजों के साथ परम्परा के पुनर्मूल्यांकन, भाषा के नए प्रयोगों,सामजिक-सांस्कृतिक असमानताओं और भेदों के चलते उस समय के सभी रचनाकारों को अपनी ओरआकर्षित किया | यू. आर. अनंतमूर्ति, पी लंकेश, शांतिनाथ देसाई, ए. के. रामानुजन,शंकर मोकाशी पुणेकर, सुमतिन्द्र नाडिग, तिरुमलेश, चंद्रशेखर कम्बार, गंगाधर चित्ताल, गिरीश कर्नाड, श्रीकृष्ण आलनहल्ली, राव बहादुर, पूर्णचंद्र तेजस्वी और निसार अहमद सभी इसनव्य-आन्दोलनका हिस्सा बने | जिस अपनी एक रचना संस्कारके चलते अनंतमूर्ति कन्नड़ के अलावा भारत और भारत से बाहर चर्चित और प्रसिद्ध हुए वह इसी नव्य आन्दोलनकी देन है |

 ‘संस्कारविश्व की किसी भी भाषा में जो कुछ महत्वपूर्ण रचा गया है उससे होड़ लेने वाला एक ऐसा आधुनिक क्लासिक है जो धर्म, धर्माचरण, वर्णव्यवस्था, जाति, समाज, परंपरा, नैतिकता, मूल्य सबमें अन्तर्निहित पाखण्ड को उजागर करता है | कृत्रिम, बनावटी, अवास्तविक आवरणों को तार-तार करता यह उपन्यास सही अर्थों में ब्राह्मणवादी-संरचनाऔर व्यवस्थाका जबरदस्त क्रिटिक रचता है | धर्मशास्त्रों की स्वयं-सिद्ध प्रामाणिक नैतिकता कोउसके सारे साक्ष्यों और प्रमाणों के साथ अपने जीवन में एक-एक पल पूरी ईमानदारी केसाथ जीने वाला प्राणेशाचार्य चन्द्री के संपर्क में आकर इस कदर अवश हो जाता है और बाद में उसी सुख की कामना के लिए चन्द्री को ढूंढता फिरता है | अनंतमूर्ति अपने हाईस्कूल के दिनों की याद करते हुए यह बताते हैं किसंस्कारउपन्यास के बीज कहाँ और कैसे पड़े | अनंतमूर्ति सनातनी ब्राह्मण परिवार से थे | अग्रहार में उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा हुयी | ऐसे ही अग्रहार के दिनों की एक घटना का जिक्र करतेहुए वे लिखते हुए वे बताते हैं कि, ‘एक बार कसबे में प्लेग फ़ैल गया और टीका लगानेवाला जो डाक्टर आया था वह गाँव के बाहर बसने वाले अछूतों की बस्तियों में गया ही नहीं | प्लेग से हरिजन मरने लगे और इधर अग्रहार के कुछ दकियानूसी अन्धविश्वासी लोग उन हरिजनों की मृत्यु के लिए उनके मंदिर प्रवेश के पाप को कारण बताने लगे |...उन्हीदिनों मैं अग्रहार में एक हस्तलिखित पत्रिका निकालने लगा था और उसमें मैंने इसीविषय पर एक कहानी लिखी | उस कहानी का सारांश यह था : हरिजन जब प्लेग से मरने लगेतब उनके कुनबे की एक अत्यंत सुन्दर युवती घर से भाग निकली | मुझे पता था कि वह क्यों भागी है | सिर्फ मैं ही यह रहस्य जनता था | अग्रहार में एक नौजवान था जोसेना में था | युवती के साथ उसके अवैध सम्बन्ध थे | इसमें मुझे लगा कि, मत्स्यगंधा जैसी दिखने वाली वह काली खूबसूरत औरत अपने बस्ती के दूसरे लोगों की तरह हाथ पर हाथ धरे मरने के लिए कत्तई तैयार नहीं थी, क्योंकि उस अछूत को छुआ जा चुका था और इस स्पर्श ने उसे जगा दिया था | बाद में हाईस्कूल के दिनों की लिखी इस कहानी को पुनः लिखने की प्रक्रिया में मेरा उपन्यास संस्कारबना |

यू. आर. अनंतमूर्ति की समूची रचनात्मक-प्रक्रिया में धर्म, जाति, लिंग, भाषा आदि के आधार पर बनायी गयी सामाजिक रूढ़ियों और असमानताओं के विरुद्ध एक विद्रोही मानवतावादी लेखक की रचनात्‍मक प्रक्रिया रहीहै | वे अपने लोकतांत्रिक-विचारों, मानवतावादी-सिद्धान्‍तों, वास्तविक व तार्किक सांस्कृतिक-म्मोल्यों पर अडिग रहने वाले एक ऐसे बेबाक और मुखर छवि वाले रचनाकार थे जिनकी आवाज में कभी भी हकलाहट नहीं सुनायी पड़ी | उनका प्रतिरोधी-स्वर अखीर तक प्रभावी और निष्कंप बना रहा | अपने लेखन और विचार में वे मार्क्स, गांधी, सार्त्र, लोहिया, जीड्डू कृष्णमूर्ति, बर्ट्रेंडर सेल, डी.एच. लारेंस   आदिसे प्रभावित रहे | वे कन्‍नड़ भाषा के उन युगान्‍तरकारीरचनाकारों में थे, जिन्‍होंने भारतीय चिन्‍तनधारा को नया उन्‍मेष दिया | अपनी रचनाओं में अनंतमूर्ति भारतीयताको उसके न्यूनतम से लेकर महत्तम तक में एक ऐसे विचारके रूप में प्रस्तावित करते हैं जिसमें उसकी पहचान को किसी ख़ास धर्म, सम्प्रदाय,परमपरा, साहित्य, भाषा, समाज, जाति, रहन, रीति, रूढ़ि, पंथ, विचार या आस्था मेंनहीं परिभाषित किया जा सकता | जब वे यह कहते हैं कि, ‘राम का जन्म अयोध्या में नहीं हुआ था, बल्कि जब गोडसे ने गांधी को पिस्तौल से मारा था तब गाँधी के मुंह से जो राम निकला था वही असली राम थातो वह उस राम की बात नहीं करते जो अयोध्या केराजा दसरथ के पुत्र राम हैं वरन वह एक ऐसे राम को परिभाषित कर रहे होते हैं जिसका जन्म किसी राष्ट्रवादी-पिस्तौल से नहीं वरन पीड़ा के उन महत्तम क्षणों में होता है जिसका गान नरसी मेहता करते हैं, जिसका गान कबीर करते हैं और जिसका गान इस भारत देश की लाखों करोड़ों जनता करती है | आज जब भारतीयताको हिन्दू और हिंदुस्थानवाले कट्टर राष्ट्रवादी वैचारिकी के तंग दायरे में रिड्यूस करने के जो प्रयत्न शुरू किये जा रहे हैं उसमें अनंतमूर्ति जैसे प्रतिरोधी संबल का हमारे बीच से जाना निश्चित ही हमारे समय के अँधेरे को और घना और गहरा बनाता है |

आधुनिक लेखक होते हुए भी अनंतमूर्ति गांधी की ही तरह आधुनिकता की लगातार गहन आलोचना करने से पीछे नहीं हटते | वह पूंजीवाद के नए माडल और  विकास के रूप में भूमंडलीकरण को देखते और पहचानते हैं | भूमंडलीकरण का जो सबकुछ को लील जाने और डकार जाने का डरावना रूप है अनंतमूर्ति के यहाँ उसका बहुत ही गहरे प्रतिरोध के साथ नकार है | भूमंडलीकरण के बरक्स वे स्थानीयताकोआंचलिकताको उसके बहुसांस्कृतिक वैविध्य के साथ जीवित और बचाएरखने की बात करते हैं | उनका दृढ़ मत है कि, आज इस भूमंडलीकरण अथवा बाजारवाद के विरुद्ध कोई सही प्रतिरोधी ताकत निकलकर आयेगी वह स्थानीयताके भूगोल और संस्कृति से ही निकल कर आयेगी | भूमंडलीकरण के नाम पर जो एक तरह का स्वाद, एक तरह की रुचि, एकतरह की रहन, एक तरह की संस्कृति और एक तरह का मिजाज बनाने और रचने की कोशिश लगातार चल रही है अनंतमूर्ति उसकी निरंतर आलोचना करते रहे हैं | वे मानते हैं कि, ‘मेरे लिए यह कन्नड़ ही है जिसने मुझे लोक-स्मृतियों को, प्रतिरोध की संस्कृतियों कोजीवित रखा है | और खुद हमारे समय में हमें पश्चिम के आप्लावाक प्रभाव से उबरने और उसे पचाने का उपाय भी सिखाया है |’ अनंतमूर्ति की एक कहानी है सूरज का घोड़ा(सूर्यन कुदुरे) | इस कहानी में पूंजीवादियों की सांस्कृतिक-राजनीति और चालबाजियों का, पलायनवादी-बुद्धिजीवियों का और नव-बौद्धिक बेवकूफियों का व्यंग्यात्मक क्रिटिक रचा गया है वह अनंतमूर्ति कीसमझ को स्थापित करती है | अंग्रेज़ी के अध्यापक होने और विश्व-साहित्य और विचार को अंगरेजी के माध्यम से आत्मसात करने वाले, भारत में ही नहीं दुनिया भर में एक साहित्यिक और विचारक के रूप में पहचाने जाने वाले अनंतमूर्ति ने हमेशा अपनी भाषा कन्नड़ में ही सृजनात्मक लेखन करना जरूरी समझा | वे मानते थे कि, ‘उपनिवेशीकरण की राजनीति से उपजी मानसिकता और रु चि से हमारी वैविध्यपूर्ण बहुसांस्कृतिक पहचान की रक्षा अपनी भाषा के सृजन में ही संभव है | प्रतिरोध की प्रामाणिक अभिव्यक्ति जितने पुरजोर ढंग से हम अपनी भाषा और संस्कृति में कर सकते हैं उतनी किसी उपनिवेशित भाषामें नहीं |’ वैश्विक साहित्यिक-राजनीति वाली विरादरी में वे निरंतर भारत की सृजन-शक्ति की रक्षा का वैचारिक संघर्ष करते दीखते हैं | वी. एस. नायपाल, एरिक एरिक्सन, चिनुबा अचिबे जैसे लोगों ने अनंतमूर्ति की रचनाओं को इन्हीं मूल्यों के आधार पर महत्वपूर्ण ढंग से रेखांकित किया है |

 चिनुबा अचिबे के साथ एक उनकी एक बहुत ही दिलचस्प बातचीत है | ‘उपनिवेशवादआधुनिकता, भूमंडलीकरण, सहित स्थानीयताके साथ अपनी जातीय पहचान और अस्मिता का संघर्ष, भाषा और वर्चस्व की राजनीति आदि विषयों पर इस बातचीत में कई बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल उभरकर आये हैं | बातचीत के एकक्रम में उपनिवेशनऔर आधुनिक बनानेकी प्रक्रिया के सम्बन्ध में अचिबे अपनी बात रखते हुए अनंतमूर्ति  से पूछते हैं, ‘...अपने इतिहास के आलोक में वैकल्पिक संस्कृति के निर्माण के लिए जूझने का तात्पर्य यह नहीं है कि जो कुछ पश्चिम का है जो कुछ है सबको ही आप तिलांजलि दे दें | वहां से हम बहुत कुछ ले भी सकते हैं | यह तो सत्य है कि, यूरोप चाहे जितना भी सफल रहा हो पर सभी मामलों में उसे सफलता मिली हो ऐसी बात नहीं है | इसलिए हम केवल यूरोप को ही माडल मानकर चलते हैं तो हम एक तरफ मात्र अनुकरणशील बनाते हैं और दूसरी तरफ अपने आपको पूरी तरह पश्चिमी यथार्थ-बोध से बाँध लेते हैं | आप देखें कि, लातिन अमेरिका, भारत, चीन जैसे देशों ने हज़ारों वर्षों तक जो जीवन जिया है, उस जीवन-व्यवहार में जो दंतकथाएं बनायी हैं, उन दंतकथाओं में यथार्थ और आधुनिकता का जो लोक है उनके बारे में आप की क्या राय है ?’ इस पर अनंततमूर्ति की जो राय है वह इसलिए महत्वपूर्ण है कि वे किसी भी तरह के इकहरे यथार्थ, भाव-बोध, और विचार-बोध को आधुनिकता विरोधी मानते हैं | उनकी  दृढ़ आस्था है कि, हमारी आधुनिकता इस लोकतंत्रिक-प्रक्रिया और संघर्ष से निर्धारित होगी कि, उसमें भिन्नधर्मों, भिन्न समाजों, भिन्न-भिन्न विचारों मान्यताओं और के साथ विविध जातियों औरवर्णों की समाई कितनी है | एक जाति, एक धर्म, एक संस्कृति, एक विचार ये सबतानाशाही को बढ़ावा देते हैं | इसी अर्थ में वे देश में अनेकताके पक्षधर हैं नकी किसी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के एकीकरण के | और अनंतमूर्ति ऐसी किसी भी तानशाही के विरुद्ध जीवन भर सन्नद्ध रहे | अनंतमूर्ति की इस प्रतिरोधी साहित्यिक-सांस्कृतिक परंपरा को जीना और बचाए रखना आने वाले समय की मांग बनकर उठेगी | इसके लिए हम सभी लेखकों को यू. आर. अनंतमूर्ति के इस अपील को जेहन में रखना चाहिए-हमें सार्वजनिक विभूति बनने से बचना चाहिए अन्यथा हम केवल अपनेप्रशंसकों की आशा-आकांक्षा के गुलाम बन कर रह जायेंगे | मुझे लगता है कि, यदि हम अपनी हर नयी पुस्तक के बाद अपने कुछेक प्रशंसक नहीं खोते हैं तो जरूर ही हम लेखकोंके साथ कुछ गड़बड़ है | क्योंकि अन्यथा तो हम या तो अपना ही अनुकरण कर रहे हैं याफिर अपने प्रति हमने अपनी जो सार्वजनिक छवि बना ली है उसी को भुना रहे हैं | वक्तृता खतरनाक है, क्योंकि, यह सार्वजानिक भावावेश को, भीड़ के भावावेश को उभारतीहै | झूठ सुनते हुए लोग सुरक्षित और निश्चिन्तता का अनुभव करना चाहते हैं लेकिन उनकी आत्माएं दरअसल सच सुनने को व्याकुल रहती हैं | निपट एकांत में जिन चीजों के प्रति हमारी निष्ठा है उनके बारे में भरी सभा में कहने का साहस हमें नहीं खोनाचाहिए | अगर हम इस कदर भटक जाएँ कि, खुद से ही झूठ बोलने लगें और उस झूठ परविश्वास भी करने लगें हमें कोई नहीं बचा सकता | सार्वजनिक व्यक्तित्व या विभूति,राजनीतिक दलों के प्रवक्ता और सत्तारूढ़ वर्ग के राजकवि होने के यही सब खतरे हैं |’

 अनंतमूर्ति ताओ-ते-चिंग को बहुत पसंद करतेथे, उनके सूत्रों का अनुवाद किया है | अनंतमूर्ति को मौलाना रूमी भी बहुत पसंद थे| मेरे प्रिय लेखक और विचारक को श्रद्धांजलि के रूप में मौलाना रूमी की यह पंक्तियाँ :

 मेरेमरने के बाद धरती पर मेरी कब्र न खोजना

         मैं तोअपने आरिफ के दिलों में पाया जाउंगा |”


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इस अंतराल में एक-एक कर कई रचनाकार और साहित्य-संस्कृतिकर्मी विदा ले हमसे दूर चले गए | गेब्रिअल गार्सिया मार्केस,नेल्सन मंडेला, अमरकांत, विजय दान देथा, राजेन्द्र यादव, परमानंद श्रीवास्तव,खुशवंत सिंह, नामदेव ढसाल, ओम प्रकाश वाल्मीकि, हरिकृष्ण देवसरे, सुचित्रा सेन, नंदा, मन्ना डे, प्राण, विनोद रैना, नवारूण भट्टाचार्य, मधुकर सिंह, तेज़ सिंह, सभी को पक्षधर की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि | एक साथ जल्दी-जल्दी  इन सबका जाना निश्चित ही एक बड़ा खालीपन छोड़ जाता है | समय क्या इन्हें भर पायेगा ?

इन दुखद विदा-गीतों में जो सबसे पीड़ादायी रहा वह रविशंकर उपाध्याय जैसे एक होनहार युवा का अचानक विदा ले लेना | रविशंकर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में मेरा  छात्र रहे | रविशंकर ने बहुत ही कम कविताएँ लिखी हैं | अभी तो उसने शुरू ही शुरू किया था | रविशंकर की जो सबसे ख़ास भूमिका थी वह थी नए से नए युवा लेखकों को पहचानना, उन्हें साहित्य के मंच पर एक साथ ले आना और उनके बीच साहित्य के परस्पर संवादी रिश्तों को बनाने में सेतु का काम करना | रविशंकर बिन खाए -पिए दिन रात एक कर साहित्यिक आयोजनों में रत देखा जा सकता था | रविशंकर को चाहने वाले उस पर मर मिटने वाले युवाओं की एक लम्बी फेहरिस्त है | सचमुच, रविशंकर का यूँ ही शुरू-शुरू में ही चले जाना बेहद मार्मिक और दुखद है |

पक्षधर का यह अंक गाजा में मारे गए उन अनाम बच्चों के नाम जिन्हें अब कोई नाम नहीं मिलेगा |