“मैं अपने आभ्यंतर का आलोचक (Critical Insider) हूँ| अपनी संस्कृति कोअपनी ही दृष्टि से
देखना, अनुमान करना हमारे लिए महत्वपूर्ण है| हमारीपरम्परा का विकास
इसी कारण हुआ है | वेद की परम्परा आयी | बुद्ध ने इस परप्रश्न किया | मैं भी उसी परम्परा का हूँ | साहित्य का हूँ, साहित्य में भीबसवण्णा, कनक दास, कुमार व्यास,नवोदय लेखक, नव्य लेखकों की परम्परा का | कालानुक्रम में यही साहित्यिक परंपरा से प्रश्न करते, ढका देते हुए उसकाविकास करते हुए
आये हैं |” ( यू. आर. अनंतमूर्ति की पुस्तक ‘किस प्रकार कीहै यह भारतीयता’ से)
“नारणप्पा के शव-संस्कार का जब प्रश्न उठा तो उसका स्वयं
समाधान करने कीकोशिश मैंने नहीं की | मैं परमात्मा पर भरोसा करता रहा;धर्मशास्त्रों केपन्ने उलटता रहा | लेकिन क्या ठीक इसी उद्देश्य से हमने शास्त्रों कानिर्माण नहीं किया है ? हमारे द्वारा किये गए निर्णयों के और समूचेसमाज केबीच गहरा सम्बन्ध होता है | अपनी प्रत्येक प्रक्रिया में हम अपनेपूर्वजों, अपने गुरुओं अपने देवी-देवताओं, अपने मानव संगी साथियों को लपेट लेतेहैं | अंतर का संपर्क इसी कारण पैदा होता है | जब मैं चन्द्री के साथ सोया था, तोकिसी ऐसे संघर्ष का भान हुआ था ? क्या उस बारे में अपना निर्णय किसी विशेषनाप-तोल के बाद मैंने किया था ?” (‘संस्कार’ उपन्यास में वेदान्त शिरोमणि प्राणेशाचार्य का द्वंद्व)
“सार्वजनिक जीवन
रहना चाहिए | वाच्यार्थ स्पष्ट रहना चाहिएध्वन्यार्थ भी स्पष्ट रहना चाहिए | लेकिन आज के कई राजनीतिज्ञोंमें‘शर्म’ जैसी नैतिक भावना
भी नहीं है | राजनीति में हर अच्छा व्यक्तिलगना चाहिए | केवल चुनाव लड़ना ही राजनीति नहीं है | आम लोगों की समस्यायोंको हिम्मत से कहना आवशयक बन चुका है |” ( यू.आर. अनंतमूर्ति की पुस्तक ‘किस प्रकार की है यह भारतीयता’ से)
धर्म और धर्माचरण आधारित साम्प्रदायिक-राजनीतिक शक्तियोंके प्रतिआलोचनात्मक और अनासक्त नैतिक बोध रखने वाले, लम्पटता और कट्टरता की समूहगतराजनीति को लगातार चुनौती देने वाले, परम्परा और संस्कृति को निरंतर आलोच्यऔर परीक्षणीय
बनाने की वकालत करने वाले, एक तेजस्वी मष्तिष्क, लोहियावादी, आधुनिकलेखक, विचारक और सार्वजनिक-बुद्धिजीवी उडुपी राजगोपालाचार्यअनंतमूर्ति ने अंततःइस दुनिया से विदा ले लिया | सार्त्र ने लिखा है कि, लेखकों को अपने घर ज्वालामुखी के मुहाने पर बनानाचाहिए | अनंतमूर्ति जैसेलेखकों ने अपने लेखक होने के उत्तरदायित्व को सचमुच
ज्वालामुखी के मुहानेपर रहते हुए
निभाया | भारत में ही नहीं पूरे विश्व की साहित्यिक विरादरी सेअनंतमूर्ति को जो प्रेम औरसम्मान मिला वह उनके लोकप्रिय होने का प्रमाण है | अनंतमूर्ति की सोच उनके विचार उनका सृजनात्मक-रचनात्मक
कार्य उन्हें एकऐसे भारतीय लेखक और विचारक के रूप में स्थापितकरता है जो
रूढ़िवादी, साम्प्रदायिक, कट्टरवादी, कुएँ के दादुर-शिशुओं के लिए निरंतर समस्या पैदाकरता रहेगा ।
अनंतमूर्ति के पूरे रचनात्मक व्यवहार में मनुष्यता की
बेहतरीकेलिए धर्म,राजनीति, समाज, संस्कृति को लेकर जो निरंतर एक आलोच्य-भाव है वह किसीप्रतिक्रया में नहीं है न ही वह ‘यूरो-केन्द्रित’ आधुनिकता की दृष्टि काप्राच्य-भाव ही है | वह ‘भारतीयता’ का इतना प्रामाणिक
औरअसंदिग्ध आधुनिकपाठ है जिसे अनंतमूर्ति को उनकी उसी ‘भारतीय’ परम्परा ने उपलब्ध कराया है, जिस भारतीय परम्परा ने उनका विरोध करने वाले, उनके खिलाफ नफरत और घृणाफैलाने वाले उनकी मृत्यु का जश्न मनाने वालों को तंगनजरी दी
है | ‘परम्परा’ को हेरिटेज मानकर उसे सिर्फ गर्व और गौरव के, महान और महानता के अविवेकीशिखर से देखने वालों के ऊपर आपको तरस भी क्योंकर आये | इसलिए जब एक व्यक्तियह कह रहा है कि, वह अपने आभ्यंतर का आलोचक है तो उनकी समझ में ही यह नहींआ सकता कि, दरअसल वहक्या कहना
चाहता है | अनंतमूर्ति लगातार इस बात कोलगातार दोहराते रहे, अपनी रचनाओं में रचते रहे कि, ‘यदि आपका परंपरा
से कोईझगड़ा नहीं होगा तो
वर्तमान में आपसे कोई सृजन कार्य भी नहीं होगा | और यहझगड़ा बहुत बार खुद
अपने आप से भी होताहै | परम्परा से मेरा झगड़ा किसी बाहरीव्यक्ति का सा नाता नहीं रखता, बल्कि उसके भीतर बसे व्यक्ति का सा नाता हैमेरा | इसलिए मैं उसमें
अपने आप को एक आलोचनाशील अन्तर्वासी की तरह पाताहूँ |कन्नड़ साहित्य की परम्परा से भी मुझे अपने इस प्रयत्न में मार्ग-दर्शनमिलता है | हमारे आदि कवि पम्प स्वयं जैन होते हुए भी एक हिन्दू राजा
केदरबार में रहे और
कन्नड़ में महाभारत के रचना की | पम्प के महाभारत
केवास्तविक नायक
अर्जुन या कृष्णनहीं हैं वहाँ वास्तविक नायक कर्ण है जोस्वयं कई वर्ण-व्यवस्था के ऊँच-नीच काशिकार हुआ था | बारहवीं सदी के हमारेमहान शिव-भक्त वचनकार संत कवि वर्ण-व्यवस्था की, वेद की अपौरुषेयता कोचुनौती देते हैं | उन्हीं दिनों महाकवि बासवण्णा नेब्राह्मण कन्या का विवाहएक अछूत से कराया था ।बीसवीं शताब्दी का छठा दशक ‘नव-लेखन’ की टेक पर देश भर की लगभग सभी भाषाओँमें एक नए तेवर के साथ आता है| हिन्दी में भी ‘नयी कविता’ ‘नयी कहानी’ ‘नव-लेखन’ का यही दौर है | कन्नड़ में भीयह ‘नव्य आन्दोलन’ के नाम से जानाजाता है | उसी ‘नव्य-आन्दोलन’ की वैचारिकी सेनिकले रचनाकार थे यू. आर.अनंतमूर्ति | कन्नड़ में इस नव्य आन्दोलन के अगुआ थे विनायक कृष्ण गोकाक औरगोपाल कृष्ण अडिग | इस आन्दोलन ने अपने आलोचनात्मक तेवर और आधुनिकताकेतकाजों के साथ परम्परा के पुनर्मूल्यांकन, भाषा के नएप्रयोगों,सामजिक-सांस्कृतिक
असमानताओं और भेदों के चलते उस समय के सभीरचनाकारों को अपनी
ओरआकर्षित किया | यू. आर. अनंतमूर्ति, पी लंकेश, शांतिनाथ देसाई, ए. के. रामानुजन,शंकर मोकाशी पुणेकर, सुमतिन्द्र नाडिग, तिरुमलेश, चंद्रशेखर कम्बार, गंगाधर चित्ताल, गिरीश कर्नाड, श्रीकृष्णआलनहल्ली, राव बहादुर, पूर्णचंद्र तेजस्वी और निसार अहमद सभी इस ‘नव्य-आन्दोलन’ का हिस्सा बने | जिस अपनी एक रचना ‘संस्कार’ के चलतेअनंतमूर्ति कन्नड़ के अलावा भारत और भारत से बाहर चर्चित और
प्रसिद्ध हुए वहइसी ‘नव्य आन्दोलन’ की देन है |
‘संस्कार’ विश्व की किसी भी भाषा में जो कुछ महत्वपूर्ण रचा गया है
उससेहोड़ लेने वाला एक ऐसा आधुनिक क्लासिक है जो धर्म, धर्माचरण, वर्णव्यवस्था, जाति, समाज, परंपरा, नैतिकता, मूल्य सबमें अन्तर्निहित पाखण्ड को उजागरकरता है | कृत्रिम, बनावटी, अवास्तविक आवरणों
को तार-तार करता यह उपन्याससही अर्थों में ‘ब्राह्मणवादी-संरचना’ और ‘व्यवस्था’का जबरदस्त
क्रिटिकरचता है | धर्मशास्त्रों की
स्वयं-सिद्ध प्रामाणिक नैतिकता कोउसके सारेसाक्ष्यों और
प्रमाणों के साथ अपने जीवन में एक-एक पल पूरी ईमानदारी केसाथजीने वाला प्राणेशाचार्य चन्द्री के संपर्क में आकर इस कदर अवश हो जाता हैऔर बाद में उसी सुख की कामना के लिए चन्द्री को ढूंढता
फिरता है | अनंतमूर्ति अपने हाईस्कूल के दिनों की याद करते हुए यह
बताते हैं कि ‘संस्कार’ उपन्यास के बीज
कहाँ और कैसे पड़े | अनंतमूर्ति सनातनी ब्राह्मणपरिवार से थे | अग्रहार में उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा हुयी | ऐसे हीअग्रहार के दिनों
की एक घटना का जिक्र करतेहुए वे लिखते हुए वे बताते हैंकि, ‘एक बार कसबे में प्लेग फ़ैल गया और टीका लगानेवाला जो डाक्टर
आया था वहगाँव के बाहर बसने वाले अछूतों की बस्तियों में गया ही नहीं
| प्लेग सेहरिजन मरने लगे और
इधर अग्रहार के कुछ दकियानूसी अन्धविश्वासी लोग उनहरिजनों की मृत्यु के लिए उनके मंदिर प्रवेश के पाप को कारण बताने लगे |...उन्हीदिनों मैं अग्रहार में एक हस्तलिखित पत्रिका निकालने
लगा था औरउसमें मैंने इसीविषय पर एक कहानी लिखी | उस कहानी का सारांश यह था : हरिजनजब प्लेग से मरने लगेतब उनके कुनबे की एक अत्यंत सुन्दर युवती घर से भागनिकली | मुझे पता था कि वह
क्यों भागी है | सिर्फ मैं ही यह रहस्य जनता था | अग्रहार में एक नौजवान था जोसेना में था | युवती के साथ उसके अवैध सम्बन्धथे | इसमें मुझे लगा कि, मत्स्यगंधा जैसी दिखने वाली वह काली खूबसूरत औरतअपने बस्ती के दूसरे लोगों की तरह हाथ पर हाथ धरे मरने के लिए कत्तई तैयारनहीं थी, क्योंकि उस अछूत
को छुआ जा चुका था और इस स्पर्श ने उसे जगा दियाथा | बाद में हाईस्कूल के दिनों की लिखी इस कहानी को पुनः लिखने
कीप्रक्रिया में मेरा उपन्यास ‘संस्कार’ बना |
यू. आर. अनंतमूर्ति की समूची रचनात्मक-प्रक्रिया में धर्म, जाति, लिंग, भाषा आदि के आधार पर बनायी गयी सामाजिक रूढ़ियों और
असमानताओं के विरुद्ध एकविद्रोही
मानवतावादी लेखक की रचनात्मक प्रक्रिया रहीहै | वे अपनेलोकतांत्रिक-विचारों, मानवतावादी-सिद्धान्तों, वास्तविक व
तार्किकसांस्कृतिक-म्मोल्यों पर अडिग रहने वाले एक ऐसे बेबाक और
मुखर छवि वालेरचनाकार थे जिनकी आवाज में कभी भी हकलाहट नहीं सुनायी पड़ी | उनकाप्रतिरोधी-स्वर
अखीर तक प्रभावी और निष्कंप बना रहा | अपने लेखन और विचारमें वे मार्क्स, गांधी, सार्त्र, लोहिया, जीड्डू
कृष्णमूर्ति, बर्ट्रेंडर सेल, डी.एच. लारेंसआदिसे प्रभावित रहे | वे कन्नड़ भाषा के उनयुगान्तरकारीरचनाकारों
में थे, जिन्होंने भारतीय चिन्तनधारा को नयाउन्मेष दिया | अपनी रचनाओं में अनंतमूर्ति ‘भारतीयता’ को उसके न्यूनतम सेलेकर महत्तम तक
में एक ऐसे विचारके रूप में प्रस्तावित करते हैं जिसमेंउसकी पहचान को किसी ख़ास धर्म, सम्प्रदाय,परमपरा, साहित्य, भाषा, समाज, जाति, रहन, रीति, रूढ़ि, पंथ, विचार या आस्था मेंनहीं परिभाषित किया जा सकता | जब वे यह कहते हैं कि, ‘राम का जन्म अयोध्या में नहीं हुआ था, बल्कि जबगोडसे ने गांधी को पिस्तौल से मारा था तब गाँधी के मुंह से जो
राम निकला थावही असली राम था’ तो वह उस राम की बात नहीं करते जो अयोध्या केराजा दसरथ केपुत्र राम हैं वरन वह एक ऐसे राम को परिभाषित कर रहे होते
हैं जिसका जन्मकिसी राष्ट्रवादी-पिस्तौल से नहीं वरन पीड़ा के उन महत्तम
क्षणों में होताहै जिसका गान नरसी मेहता करते हैं, जिसका गान कबीर करते हैं और जिसका गान इसभारत देश की लाखों करोड़ों जनता करती है | आज जब ‘भारतीयता’ को ‘हिन्दू औरहिंदुस्थान’ वाले कट्टर राष्ट्रवादी वैचारिकी के तंग दायरे में रिड्यूसकरने के जो प्रयत्न शुरू किये जा रहे हैं उसमें अनंतमूर्ति
जैसे प्रतिरोधीसंबल का हमारे बीच से जाना निश्चित ही हमारे समय के अँधेरे
को और घना औरगहरा बनाता है |
आधुनिक लेखकहोते हुए भी
अनंतमूर्ति गांधी की ही तरह आधुनिकता की लगातार गहन आलोचनाकरने से पीछे नहीं हटते | वह पूंजीवाद के नए
माडल औरविकास के रूप मेंभूमंडलीकरण को
देखते और पहचानते हैं | भूमंडलीकरण का जो सबकुछ को लील जानेऔर डकार जाने का डरावना रूप है अनंतमूर्ति के यहाँ उसका बहुत ही गहरेप्रतिरोध के साथ नकार है | भूमंडलीकरण के बरक्स वे ‘स्थानीयता’ को ‘आंचलिकता’ को उसके
बहुसांस्कृतिक वैविध्य के साथ जीवित और बचाएरखने की बातकरते हैं | उनका दृढ़ मत है कि, आज इस भूमंडलीकरण अथवा बाजारवाद के विरुद्धकोई सही प्रतिरोधी ताकत निकलकर आयेगी वह ‘स्थानीयता’ के भूगोल औरसंस्कृति से ही
निकल कर आयेगी | भूमंडलीकरण के नाम पर जो एक तरह का स्वाद, एक तरह की रुचि, एकतरह की रहन, एक तरह की संस्कृति और एक तरह का मिजाजबनाने और रचने की कोशिश लगातार चल रही है अनंतमूर्ति उसकी
निरंतर आलोचनाकरते रहे हैं | वे मानते हैं कि, ‘मेरे लिए यह कन्नड़ ही है जिसने मुझेलोक-स्मृतियों को, प्रतिरोध की संस्कृतियों कोजीवित रखा है | और खुद हमारेसमय में हमें
पश्चिम के आप्लावाक प्रभाव से उबरने और उसे पचाने का उपाय भीसिखाया है |’ अनंतमूर्ति की एक कहानी है – सूरज का घोड़ा(सूर्यन कुदुरे) | इस कहानी में पूंजीवादियों की सांस्कृतिक-राजनीति और चालबाजियों का, पलायनवादी-बुद्धिजीवियों का और नव-बौद्धिक बेवकूफियों का
व्यंग्यात्मकक्रिटिक रचा गया है वह अनंतमूर्ति कीसमझ को स्थापित करती है
| अंग्रेज़ी केअध्यापक होने और
विश्व-साहित्य और विचार को अंगरेजी के माध्यम से आत्मसातकरने वाले, भारत में ही नहीं दुनिया भर में एक साहित्यिक और विचारक के
रूपमें पहचाने जाने वाले अनंतमूर्ति ने हमेशा अपनी भाषा कन्नड़
में हीसृजनात्मक लेखन करना जरूरी समझा | वे मानते थे कि, ‘उपनिवेशीकरण की राजनीतिसे उपजी मानसिकता
और रु चि से हमारी वैविध्यपूर्ण बहुसांस्कृतिक पहचान कीरक्षा अपनी भाषा के सृजन में ही संभव है | प्रतिरोध की प्रामाणिकअभिव्यक्ति जितने
पुरजोर ढंग से हम अपनी भाषा और संस्कृति में कर सकते हैंउतनी किसी उपनिवेशित भाषामें नहीं |’ वैश्विक साहित्यिक-राजनीति वालीविरादरी में वे
निरंतर भारत की सृजन-शक्ति की रक्षा का वैचारिक संघर्ष करतेदीखते हैं | वी. एस. नायपाल, एरिक एरिक्सन, चिनुबा अचिबे जैसे लोगों नेअनंतमूर्ति की रचनाओं को इन्हीं मूल्यों के आधार पर महत्वपूर्ण ढंग सेरेखांकित किया है |
चिनुबाअचिबे के साथ एक
उनकी एक बहुत ही दिलचस्प बातचीत है | ‘उपनिवेशवाद’ आधुनिकता, भूमंडलीकरण, सहित स्थानीयताके साथ अपनी जातीय पहचान और अस्मिताका संघर्ष, भाषा और वर्चस्व
की राजनीति आदि विषयों पर इस बातचीत में कईबहुत ही
महत्वपूर्ण सवाल उभरकर आये हैं | बातचीत के एकक्रम
में ‘उपनिवेशन’ और ‘आधुनिक बनाने’ की प्रक्रिया के सम्बन्ध में अचिबे अपनी बात रखते हुएअनंतमूर्ति से पूछते हैं, ‘...अपने इतिहास के आलोक में वैकल्पिक संस्कृतिके निर्माण के लिए जूझने का तात्पर्य यह नहीं है कि जो कुछ
पश्चिम का है जोकुछ है सबको ही आप तिलांजलि दे दें | वहां से हम बहुत कुछ ले भी सकते हैं | यह तो सत्य है कि, यूरोप चाहे जितना भी सफल रहा हो पर सभी मामलों में उसेसफलता मिली हो ऐसी बात नहीं है | इसलिए हम केवल यूरोप को ही माडल मानकरचलते हैं तो हम एक
तरफ मात्र अनुकरणशील बनाते हैं और दूसरी तरफ अपने आपकोपूरी तरह पश्चिमी यथार्थ-बोध से बाँध लेते हैं | आप देखें कि, लातिनअमेरिका, भारत, चीन जैसे देशों ने
हज़ारों वर्षों तक जो जीवन जिया है, उसजीवन-व्यवहार में जो दंतकथाएं बनायी हैं, उन दंतकथाओं में यथार्थ औरआधुनिकता का जो लोक है उनके बारे में आप की क्या राय है ?’ इस परअनंततमूर्ति की जो
राय है वह इसलिए महत्वपूर्ण है कि वे किसी भी तरह केइकहरे यथार्थ, भाव-बोध, और विचार-बोध को
आधुनिकता विरोधी मानते हैं | उनकीदृढ़ आस्था है कि, हमारी आधुनिकता इस लोकतंत्रिक-प्रक्रिया और संघर्ष सेनिर्धारित होगी कि, उसमें भिन्नधर्मों, भिन्न समाजों, भिन्न-भिन्न विचारोंमान्यताओं और के
साथ विविध जातियों औरवर्णों की समाई कितनी है | एक जाति, एक धर्म, एक संस्कृति, एक विचार ये सबतानाशाही को बढ़ावा देते हैं | इसीअर्थ में वे देश
में ‘अनेकता’ के पक्षधर हैं नकी
किसी सांस्कृतिकराष्ट्रवाद के एकीकरण के | और अनंतमूर्ति ऐसी किसी भी तानशाही के विरुद्धजीवन भर सन्नद्ध रहे | अनंतमूर्ति की इस प्रतिरोधी साहित्यिक-सांस्कृतिकपरंपरा को जीना और बचाए रखना आने वाले समय की मांग बनकर
उठेगी | इसके लिएहम सभी लेखकों को
यू. आर. अनंतमूर्ति के इस अपील को जेहन में रखना चाहिए- ‘हमें सार्वजनिक विभूति बनने से बचना चाहिए अन्यथा हम केवल
अपनेप्रशंसकोंकी आशा-आकांक्षा के गुलाम बन कर रह जायेंगे | मुझे लगता है कि, यदि हम अपनीहर नयी पुस्तक के बाद अपने कुछेक प्रशंसक नहीं खोते हैं तो
जरूर ही हमलेखकोंके साथ कुछ गड़बड़ है | क्योंकि अन्यथा तो हम या तो अपना ही अनुकरण कररहे हैं याफिर अपने प्रति हमने अपनी जो सार्वजनिक छवि बना ली है उसी कोभुना रहे हैं | वक्तृता खतरनाक है, क्योंकि, यह सार्वजानिक
भावावेश को, भीड़के भावावेश को
उभारतीहै | झूठ सुनते हुए लोग सुरक्षित और निश्चिन्तता काअनुभव करना चाहते हैं लेकिन उनकी आत्माएं दरअसल सच सुनने को
व्याकुल रहतीहैं | निपट एकांत में
जिन चीजों के प्रति हमारी निष्ठा है उनके बारे मेंभरी सभा में कहने का साहस हमें नहीं खोनाचाहिए | अगर हम इस कदर भटक जाएँकि, खुद से ही झूठ बोलने लगें और उस झूठ परविश्वास भी करने लगें
हमें कोईनहीं बचा सकता | सार्वजनिक व्यक्तित्व या विभूति,राजनीतिक दलों के
प्रवक्ताऔर सत्तारूढ़ वर्ग के राजकवि होने के यही सब खतरे हैं |’
अनंतमूर्ति ताओ-ते-चिंग को बहुत पसंद करतेथे, उनके सूत्रों का अनुवाद कियाहै | अनंतमूर्ति को मौलाना रूमी भी बहुत पसंद थे| मेरे प्रिय लेखक औरविचारक को
श्रद्धांजलि के रूप में मौलाना रूमी की यह पंक्तियाँ :
मेरेमरने के बाद धरती पर मेरी कब्र न खोजना
मैं तोअपने आरिफ के दिलों में पाया जाउंगा |”
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इस अंतराल में एक-एक कर कई रचनाकार और
साहित्य-संस्कृतिकर्मी विदा ले हमसेदूर चले गए | गेब्रिअल गार्सिया मार्केस,नेल्सन मंडेला, अमरकांत, विजय दानदेथा, राजेन्द्र यादव, परमानंद श्रीवास्तव,खुशवंत सिंह, नामदेव ढसाल, ओमप्रकाश वाल्मीकि, हरिकृष्ण देवसरे, सुचित्रा सेन,नंदा, मन्ना डे, प्राण, विनोद रैना, नवारूण भट्टाचार्य, मधुकर सिंह, तेज़ सिंह, सभी को पक्षधर की
ओरसे विनम्र श्रद्धांजलि | एक साथ जल्दी-जल्दीइन सबका जाना निश्चित ही एकबड़ा खालीपन छोड़ जाता है | समय क्या इन्हें
भर पायेगा ?
इन दुखद विदा-गीतों में जो सबसे पीड़ादायी रहा वह रविशंकर
उपाध्याय जैसे एकहोनहार युवा का अचानक विदा ले लेना | रविशंकर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयमें मेरा छात्र रहे | रविशंकर ने बहुत
ही कम कविताएँ लिखी हैं | अभी तोउसने शुरू ही शुरू
किया था | रविशंकर की जो सबसे ख़ास भूमिका थी वह थी नए सेनए युवा लेखकों को पहचानना, उन्हें साहित्य के मंच पर एक साथ ले आना औरउनके बीच साहित्य के परस्पर संवादी रिश्तों को बनाने में सेतु का काम करना | रविशंकर बिन खाए -पिए दिन रात एक कर साहित्यिक आयोजनों में
रत देखा जासकता था | रविशंकर को चाहने
वाले उस पर मर मिटने वाले युवाओं की एक लम्बीफेहरिस्त है | सचमुच, रविशंकर का यूँ ही
शुरू-शुरू में ही चले जाना बेहदमार्मिक और दुखद
है |
पक्षधर का यह अंक गाजा में मारे गए उन अनाम बच्चों के नाम
जिन्हें अब कोई नाम नहीं मिलेगा |