सनातन नहीं सतत् आलोच्य और परीक्षणीय
“मैं अपने
आभ्यंतर का आलोचक (Critical Insider) हूँ । अपनी संस्कृति को अपनी ही दृष्टि से देखना, अनुमान
करना हमारे लिए महत्वपूर्ण है । हमारी परम्परा का विकास इसी कारण हुआ है । वेद की परम्परा आयी बुद्ध ने इस पर प्रश्न किया
। मैं भी उसी परम्परा का हूँ । साहित्य का हूँ, साहित्य में भी बसवण्णा, कनक दास,
कुमार व्यास, नवोदय लेखक, नव्य लेखकों की परम्परा का । कालानुक्रम में इसी साहित्यिक
परंपरा से प्रश्न करते, धक्का देते हुए, उसका विकास करते हुए हम आए हैं ।”[1]
“नारणप्पा
के शव-संस्कार का जब प्रश्न उठा तो उसका स्वयं समाधान करने की कोशिश मैंने नहीं की
। मैं परमात्मा पर भरोसा करता रहा; धर्मशास्त्रों के पन्ने उलटता रहा । लेकिन क्या
ठीक इसी उद्देश्य से हमने शास्त्रों का निर्माण नहीं किया है ? हमारे द्वारा किये
गए निर्णयों के और समूचे समाज के बीच गहरा सम्बन्ध होता है । अपनी प्रत्येक
प्रक्रिया में हम अपने पूर्वजों, अपने गुरुओं अपने देवी-देवताओं, अपने मानव संगी
साथियों को लपेट लेते हैं । अंतर का संपर्क इसी कारण पैदा होता है । जब मैं
चन्द्री के साथ सोया था, तो किसी ऐसे संघर्ष का भान हुआ था ? क्या उस बारे में
अपना निर्णय किसी विशेष नाप-तौल के बाद मैंने किया था ?”[2]
“सार्वजनिक जीवन रहना चाहिए । वाच्यार्थ स्पष्ट रहना चाहिए । ध्वन्यार्थ
भी स्पष्ट रहना चाहिए । लेकिन आज के कई राजनीतिज्ञों में ‘शर्म’ जैसी नैतिक भावना
भी नहीं है । राजनीति में हर अच्छे व्यक्ति
को लगना चाहिए । केवल चुनाव लड़ना ही राजनीति नहीं है । आम लोगों की समस्यायों को
हिम्मत से कहना अब आवश्यक बन चुका है ।”[3]
जो
सलीब अपनी कीलों से लिखती है :
धर्म और धर्माचरण आधारित साम्प्रदायिक-राजनीतिक शक्तियों के
प्रति आलोचनात्मक और अनासक्त नैतिक बोध रखने वाले, लम्पटता और
कट्टरता की समूहगत राजनीति को लगातार चुनौती देने वाले, परम्परा और संस्कृति को
निरंतर आलोच्य और परीक्षणीय बनाने की वकालत करने वाले लेखक और विचारक उडुपी
राजगोपालाचार्य अनंतमूर्ति आधुनिक भारतीय साहित्य में अपने लेखन और विचार के लिए
अलग से पहचाने जाते हैं । सार्त्र ने लिखा है कि, लेखकों को अपने घर ज्वालामुखी के
मुहाने पर बनाना चाहिए । अनंतमूर्ति जैसे
लेखकों ने अपने लेखक होने के उत्तरदायित्व को सचमुच ज्वालामुखी के मुहाने पर रहते
हुए निभाया । भारत में ही नहीं पूरे विश्व की साहित्यिक बिरादरी से अनंतमूर्ति को
जो प्रेम और सम्मान मिला वह उनके लोकप्रिय होने का प्रमाण है । अनंतमूर्ति की सोच, उनके विचार, उनका
सृजनात्मक-रचनात्मक कार्य उन्हें एक ऐसे भारतीय लेखक के रूप में स्थापित करता है
जो रूढ़िवादी, साम्प्रदायिक, कट्टरवादी, कुएँ के दादुर-शिशुओं के लिए निरंतर समस्या
पैदा करता रहेगा ।
अनंतमूर्ति के पूरे रचनात्मक व्यवहार में मनुष्यता की बेहतरी
के लिए धर्म, राजनीति, समाज, संस्कृति को लेकर जो निरंतर एक आलोच्य-भाव है वह किसी
प्रतिक्रिया में नहीं है न ही वह ‘यूरो-केन्द्रित’ आधुनिकता की दृष्टि का
प्राच्य-भाव ही है । वह ‘भारतीयता’ का इतना प्रामाणिक और असंदिग्ध आधुनिक पाठ है
जिसे अनंतमूर्ति को उनकी उसी ‘भारतीय’ परम्परा ने उपलब्ध कराया है, जिस भारतीय
परम्परा ने उनका विरोध करने वाले, उनके खिलाफ़ नफ़रत और घृणा फैलाने वाले, उनकी मृत्यु का
जश्न मनाने वालों को तंगनजरी दी है । कट्टर हिंदुत्ववाद की राजनीति करने वाले, ‘परम्परा’ को
हेरिटेज मानकर उसे सिर्फ गर्व और गौरव की महानता के अविवेकी शिखर से देखने वालों के
लिए अनंतमूर्ति का साहित्य हमेशा ही ‘देश-विरोधी’ लगेगा ? परंतु, जिस कट्टर हिंदुत्ववाद की राजनीति करने वाली पार्टी के लोगों
ने अनंतमूर्ति के मरने पर पटाखे फोड़े, उन्हें अनंतमूर्ति
का उपन्यास ‘बारा’ (1976) जरूर पढ़ना चाहिए । आपातकाल पर लिखे इस उपन्यास पर ‘सूखा’ नाम से फिल्म
भी बनी है । अनंतमूर्ति कैसी ‘भारतीयता’ की संकल्पना करते हैं, कैसा लोकतन्त्र
चाहते हैं, यह उपन्यास आपको बता देगा । अनंतमूर्ति इस बात को लगातार
दोहराते रहे, अपनी रचनाओं में रचते रहे कि, ‘यदि आपका परंपरा से कोई झगड़ा नहीं
होगा तो वर्तमान में आपसे कोई सृजन कार्य भी नहीं होगा । और यह झगड़ा बहुत बार ख़ुद
अपने आप से भी होता है । वे लिखते हैं –“परम्परा से मेरा झगड़ा किसी बाहरी व्यक्ति
का सा नाता नहीं रखता, बल्कि उसके भीतर बसे व्यक्ति का सा नाता है मेरा । इसलिए
मैं उसमें अपने आप को एक आलोचनशील अन्तर्वासी की तरह पाता हूँ । कन्नड़ साहित्य की
परम्परा से भी मुझे अपने इस प्रयत्न में मार्ग-दर्शन मिलता है । हमारे आदि कवि
पम्प स्वयं जैन होते हुए भी एक हिन्दू राजा के दरबार में रहे और कन्नड़ में महाभारत
की रचना की । पम्प के महाभारत के वास्तविक नायक अर्जुन या कृष्ण नहीं हैं वहाँ
वास्तविक नायक कर्ण है जो स्वयं कई तरह से वर्ण-व्यवस्था के ऊँच-नीच का शिकार हुआ
था । बारहवीं सदी के हमारे महान शिव-भक्त वचनकार संत कवि वर्ण-व्यवस्था की, वेद की
अपौरुषेयता को चुनौती देते हैं । उन्हीं दिनों महाकवि बासवण्णा ने ब्राह्मण कन्या
का विवाह एक अछूत से कराया था ।’’[4]
यू. आर. अनंतमूर्ति की समूची रचनात्मक-प्रक्रिया में धर्म,
जाति, लिंग, भाषा आदि के आधार पर बनायी गयी सामाजिक रूढ़ियों और असमानताओं के
विरुद्ध एक विद्रोही, मानवतावादी लेखक की रचनात्मक प्रक्रिया मिलती है | लोहियावादी
लोकतांत्रिक-समाजवादी विचारों, मानवतावादी-सिद्धान्तों, वास्तविक व तार्किक
सांस्कृतिक-मूल्यों पर अडिग रहने वाले वे एक ऐसे बेबाक और मुखर छवि वाले रचनाकार
थे जिनकी आवाज में कभी भी हकलाहट नहीं सुनायी पड़ी | उनका प्रतिरोधी-स्वर आख़िर तक
प्रभावी और निष्कंप बना रहा | अपने लेखन और विचार में वे मार्क्स, गांधी, सार्त्र,
लोहिया, जीद्दू कृष्णमूर्ति, बर्ट्रेंड रसेल, डी.एच. लारेंस आदि से प्रभावित रहे |
वे कन्नड़ भाषा के उन युगान्तरकारी रचनाकारों में थे, जिन्होंने
भारतीय चिन्तन धारा को नया उन्मेष दिया | अपनी रचनाओं में अनंतमूर्ति ‘भारतीयता’
को उसके न्यूनतम से लेकर महत्तम तक में एक ऐसे विचार के रूप में प्रस्तावित करते
हैं जिसमें उसकी पहचान को किसी ख़ास धर्म, सम्प्रदाय, परंपरा, साहित्य, भाषा, समाज,
जाति, वर्ण, रहन, रीति, रूढ़ि, पंथ, विचार या आस्था में नहीं परिभाषित
किया जा सकता | जब वे यह कहते हैं कि, ‘‘राम का जन्म अयोध्या में नहीं हुआ था, बल्कि जब गोड्से ने
गांधी को पिस्तौल से मारा था तब गाँधी के मुंह से जो राम निकला था वही असली राम
था’’[5] तो वह उस राम की बात नहीं करते जो अयोध्या के राजा दसरथ के
पुत्र राम हैं, वरन वह एक ऐसे राम को परिभाषित कर रहे होते हैं जिसका जन्म
किसी राष्ट्रवादी-पिस्तौल से नहीं वरन पीड़ा के उन महत्तम क्षणों में होता है जिसका
गान नरसी मेहता करते हैं, जिसका गान कबीर करते हैं और जिसका गान इस भारत देश की
लाखों करोड़ों जनता करती है | आज जब ‘भारतीयता’ को ‘हिन्दू और हिंदुस्थान’ वाले
कट्टर राष्ट्रवादी वैचारिकी के तंग दायरे में रिड्यूस करने के जो प्रयत्न शुरू
किये जा रहे हैं उसमें अनंतमूर्ति जैसे प्रतिरोधी लेखक को फिर से पढ़ना ज़रूरी हो
जाता है ।
आधुनिक लेखक होते हुए भी अनंतमूर्ति गांधी की ही तरह आधुनिकता
की लगातार गहन आलोचना करने से पीछे नहीं हटते | वह पूंजीवाद के नए माडल और विकास के रूप में भूमंडलीकरण को देखते और
पहचानते हैं | भूमंडलीकरण का जो सब कुछ को लील जाने और डकार जाने का डरावना रूप है
अनंतमूर्ति के यहाँ उसका बहुत ही गहरे प्रतिरोध के साथ नकार है | भूमंडलीकरण के
बरक्स वे ‘स्थानीयता’ को ‘आंचलिकता’ को उसके बहुसांस्कृतिक वैविध्य के साथ जीवित
और बचाए रखने की बात करते हैं | उनका दृढ़ मत है कि, आज इस भूमंडलीकरण अथवा
बाजारवाद के विरुद्ध कोई सही प्रतिरोधी ताकत निकलकर आयेगी वह ‘स्थानीयता’ के भूगोल
और संस्कृति से ही निकल कर आयेगी | भूमंडलीकरण के नाम पर जो एक तरह का स्वाद, एक
तरह की रूचि, एक तरह की रहन, एक तरह की संस्कृति और एक तरह का मिजाज बनाने और रचने
की कोशिश लगातार चल रही है, अनंतमूर्ति उसकी निरंतर आलोचना करते रहे हैं | वे मानते हैं
कि, ‘मेरे लिए यह कन्नड़ ही है जिसने मुझे लोक-स्मृतियों को, प्रतिरोध की
संस्कृतियों को जीवित रखा है | और ख़ुद हमारे समय में हमें पश्चिम के आप्लावाक
प्रभाव से उबरने और उसे पचाने का उपाय भी सिखाया है |’ अनंतमूर्ति की एक कहानी है
– सूरज का घोड़ा (सूर्यन कुदुरे) | इस कहानी में पूंजीवादियों की
सांस्कृतिक-राजनीति और चालबाजियों का, पलायनवादी-बुद्धिजीवियों का और नव-बौद्धिक
बेवकूफियों का व्यंग्यात्मक क्रिटिक रचा गया है वह अनंतमूर्ति की समझ को स्थापित
करती है | अंग्रेज़ी के अध्यापक होने और विश्व-साहित्य और विचार को अंगरेजी के
माध्यम से आत्मसात करने वाले, भारत में ही नहीं दुनिया भर में एक साहित्यिक और
विचारक के रूप में पहचाने जाने वाले अनंतमूर्ति ने हमेशा अपनी भाषा कन्नड़ में ही
सृजनात्मक लेखन करना जरूरी समझा | वे मानते थे कि, ‘उपनिवेशीकरण की राजनीति से
उपजी मानसिकता और रूचि से हमारी वैविध्यपूर्ण बहुसांस्कृतिक पहचान की रक्षा अपनी
भाषा के सृजन में ही संभव है | प्रतिरोध की प्रामाणिक अभिव्यक्ति जितने पुरजोर ढंग
से हम अपनी भाषा और संस्कृति में कर सकते हैं उतनी किसी उपनिवेशित भाषा में नहीं
|’ वैश्विक साहित्यिक-राजनीति वाली विरादरी में वे निरंतर भारत की सृजन-शक्ति की
रक्षा का वैचारिक संघर्ष करते दीखते हैं | वी. एस. नायपाल, एरिक एरिक्सन, चिनुबा
अचिबे जैसे लोगों ने अनंतमूर्ति की रचनाओं को इन्हीं मूल्यों के आधार पर
महत्वपूर्ण ढंग से रेखांकित किया है |
चिनुवा अचिबे[6]
के साथ उनकी एक बहुत ही दिलचस्प और महत्वपूर्ण बातचीत है | उपनिवेशवाद, आधुनिकता,
भूमंडलीकरण, सहित स्थानीयता के साथ अपनी जातीय पहचान और अस्मिता का संघर्ष, भाषा
और वर्चस्व की राजनीति आदि विषयों पर इस बातचीत में कई बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल
उभरकर आये हैं | बातचीत के एक क्रम में ‘उपनिवेशन’ और ‘आधुनिक बनाने’ की प्रक्रिया
के सम्बन्ध में अचिबे अपनी बात रखते हुए अनंतमूर्ति से पूछते हैं, “...अपने इतिहास
के आलोक में वैकल्पिक संस्कृति के निर्माण के लिए जूझने का तात्पर्य यह नहीं है कि
जो कुछ पश्चिम का है सबको ही आप तिलांजलि दे दें | वहां से हम बहुत कुछ ले भी सकते
हैं | यह तो सत्य है कि, यूरोप चाहे जितना भी सफल रहा हो पर सभी मामलों में उसे
सफलता मिली हो ऐसी बात नहीं है | इसलिए हम केवल यूरोप को ही माडल मानकर चलते हैं
तो हम एक तरफ मात्र अनुकरणशील बनाते हैं और दूसरी तरफ अपने आप को पूरी तरह पश्चिमी
यथार्थ-बोध से बाँध लेते हैं | आप देखें कि, लातिन अमेरिका, भारत, चीन जैसे देशों
ने हज़ारों वर्षों तक जो जीवन जिया है, उस जीवन-व्यवहार में जो दंतकथाएँ बनायी हैं,
उन दंतकथाओं में यथार्थ और आधुनिकता का जो लोक है उनके बारे में आप की क्या राय है
?”[7]
अनंतमूर्ति अपनी राय रखते हुए बताते हैं कि वे किसी भी तरह के इकहरे यथार्थ,
भाव-बोध, और विचार को आधुनिकता विरोधी मानते हैं | उनकी दृढ़ आस्था है कि, हमारी आधुनिकता इस
लोकतंत्रिक-प्रक्रिया और संघर्ष से निर्धारित होगी कि उसमें भिन्न धर्मों, भिन्न
समाजों, भिन्न-भिन्न विचारों, मान्यताओं और लोक-रीतियों के साथ विविध जातियों और वर्णों की
समाई कितनी है | एक जाति, एक धर्म, एक संस्कृति, एक विचार ये सब तानाशाही को बढ़ावा
देते हैं | इसी अर्थ में वे देश में ‘अनेकता’ के पक्षधर हैं न कि किसी सांस्कृतिक
राष्ट्रवाद के एकीकरण के | और अनंतमूर्ति ऐसी किसी भी तानशाही के विरुद्ध जीवन भर
सन्नद्ध रहे | इसके लिए हम सभी को यू. आर. अनंतमूर्ति के इस अपील को जेहन में रखना
चाहिए - “हमें सार्वजनिक विभूति बनने से बचना चाहिए अन्यथा हम केवल अपने प्रशंसकों
की आशा-आकांक्षा के गुलाम बन कर रह जायेंगे | मुझे लगता है कि, यदि हम अपनी हर नयी
पुस्तक के बाद अपने कुछेक प्रशंसक नहीं खोते हैं तो जरूर ही हम लेखकों के साथ कुछ
गड़बड़ है | क्योंकि अन्यथा तो हम या तो अपना ही अनुकरण कर रहे हैं या फिर अपने
प्रति हमने अपनी जो सार्वजनिक छवि बना ली है उसी को भुना रहे हैं | वक्तृता खतरनाक
है, क्योंकि, यह सार्वजानिक भावावेश को, भीड़ के भावावेश को उभारती है | झूठ सुनते
हुए लोग सुरक्षित और निश्चिन्तता का अनुभव करना चाहते हैं लेकिन उनकी आत्माएं
दरअसल सच सुनने को व्याकुल रहती हैं | निपट एकांत में जिन चीजों के प्रति हमारी
निष्ठा है उनके बारे में भरी सभा में कहने का साहस हमें नहीं खोना चाहिए | अगर हम
इस कदर भटक जाएँ कि, खुद से ही झूठ बोलने लगें और उस झूठ पर विश्वास भी करने लगें
हमें कोई नहीं बचा सकता | सार्वजनिक व्यक्तित्व या विभूति, राजनीतिक दलों के
प्रवक्ता और सत्तारूढ़ वर्ग के राजकवि होने के यही सब खतरे हैं |”[8]
रचनाकारों, साहित्यिकों और संस्कृतिकर्मियों को, अनंतमूर्ति की
इस प्रतिरोधी साहित्यिक-सांस्कृतिक परंपरा को जीना और बचाए रखना हमारे समय का एक
ज़रूरी कर्तव्य है |
बीसवीं शताब्दी का छठवां दशक ‘नव-लेखन’ की टेक पर देश भर की
लगभग सभी भाषाओँ में एक नए तेवर के साथ सामने आता है । हिन्दी में भी ‘नयी कविता’
‘नयी कहानी’ ‘नव-लेखन’ का यही दौर है | कन्नड़ में भी यह ‘नव्य आन्दोलन’ के नाम से
जाना जाता है | उसी ‘नव्य-आन्दोलन’ की वैचारिकी से निकले रचनाकार थे यू. आर.
अनंतमूर्ति | कन्नड़ में इस नव्य आन्दोलन के अगुआ थे विनायक कृष्ण गोकाक और गोपाल
कृष्ण अडिग | इस आन्दोलन ने अपने आलोचनात्मक तेवर और आधुनिकता के तकाजों के साथ
परम्परा के पुनर्मूल्यांकन, भाषा के नए प्रयोगों, सामजिक-सांस्कृतिक असमानताओं और
भेदों के चलते उस समय के सभी रचनाकारों को अपनी ओर आकर्षित किया | यू. आर.
अनंतमूर्ति, पी. लंकेश, शांतिनाथ देसाई, ए. के. रामानुजन, शंकर मोकाशी पुणेकर,
सुमतिन्द्र नाडिग, तिरुमलेश, चंद्रशेखर कम्बार, गंगाधर चित्ताल, गिरीश कर्नाड,
श्रीकृष्ण आलनहल्ली, राव बहादुर, पूर्णचंद्र तेजस्वी और निसार अहमद सभी इस
‘नव्य-आन्दोलन’ का हिस्सा बने | जिस अपनी एक रचना ‘संस्कार’ के चलते अनंतमूर्ति
कन्नड़ के अलावा भारत और भारत से बाहर चर्चित और प्रसिद्ध हुए वह इसी ‘नव्य
आन्दोलन’ की देन है |
‘संस्कार’ विश्व की किसी भी भाषा में जो
कुछ महत्वपूर्ण रचा गया है उससे होड़ लेने वाला एक ऐसा आधुनिक क्लासिक है जो धर्म,
धर्माचरण, वर्णव्यवस्था, जाति, समाज, परंपरा, नैतिकता, मूल्य सबमें अन्तर्निहित
पाखण्ड को उजागर करता है | कृत्रिम, बनावटी, अवास्तविक संरचनाओं को तार-तार करता
यह उपन्यास सही अर्थों में पतनशील हिंदू धर्म की ‘ब्राह्मणवादी-संरचना’ और
‘व्यवस्था’ का जबरदस्त क्रिटिक रचता है | अनंतमूर्ति अपने हाईस्कूल के दिनों की
याद करते हुए यह बताते हैं कि ‘संस्कार’ उपन्यास के बीज कहाँ और कैसे पड़े |
अनंतमूर्ति कट्टर ब्राह्मणवादी परिवार में जन्में माध्व ब्राह्मण थे | शिमोग्गा
जिला के तीर्थनहल्ली तालुका के एक संस्कृत पाठशाला में उनकी प्रारम्भिक
शिक्षा-दीक्षा हुयी थी । जिस दुर्वासापुर नामक अग्रहार को वे ‘संस्कार’
का लोकेल बनाते हैं वह इसी तालुका का एक गाँव है जिस तरह से मेलिगे नामक गाँव खुद
अनंतमूर्ति का गाँव है | ऐसे ही अग्रहार के दिनों की एक घटना का जिक्र करते हुए वे
वे बताते हैं कि, “एक बार कस्बे में प्लेग फ़ैल गया और टीका लगाने वाला जो डाक्टर
आया था वह गाँव के बाहर बसने वाले अछूतों की बस्तियों में गया ही नहीं | प्लेग से
हरिजन मरने लगे और इधर अग्रहार के कुछ दकियानूसी अन्धविश्वासी लोग उन हरिजनों की
मृत्यु के लिए उनके मंदिर प्रवेश के पाप को कारण बताने लगे |...उन्ही दिनों मैं
अग्रहार में एक हस्तलिखित पत्रिका निकालने लगा था और उसमें मैंने इसी विषय पर एक
कहानी लिखी | उस कहानी का सारांश यह था : हरिजन जब प्लेग से मरने लगे तब उनके
कुनबे की एक अत्यंत सुन्दर युवती घर से भाग निकली | मुझे पता था कि वह क्यों भागी
है | सिर्फ मैं ही यह रहस्य जनता था | अग्रहार में एक नौजवान था जो सेना में था |
युवती के साथ उसके अवैध सम्बन्ध थे | इसमें मुझे लगा कि, मत्स्यगंधा जैसी दिखने
वाली वह काली खूबसूरत औरत अपने बस्ती के दूसरे लोगों की तरह हाथ पर हाथ धरे मरने
के लिए कत्तई तैयार नहीं थी, क्योंकि उस अछूत को छुआ जा चुका था और इस स्पर्श ने
उसे जगा दिया था | बाद में हाईस्कूल के दिनों की लिखी इस कहानी को पुनः लिखने की
प्रक्रिया में मेरा उपन्यास ‘संस्कार’ बना |”[9]
इस निजी अनुभव की पूर्वकथा में बर्गमैन की फिल्म ‘दि
सेवेन्थ सील’ (1957) का प्रसंग भी शामिल है
। इस फिल्म को बर्मिंघम विश्वविद्यालय,
इंग्लैंड में अपनी अँग्रेजी की पी-एच. डी. करते हुए अपने शोध निर्देशक प्रसिद्ध
उपन्यासकार मॉल्कम ब्राएडबरी के साथ 1964 में देखा था । यह फिल्म 14 वीं शताब्दी
के एक स्वीडिश गाँव की कहानी को अपनी कथा का लोकेल बनाती है । ईश्वर,
धर्म, मृत्यु,
शुभ, अशुभ आदि की समस्याओं के साथ-साथ ईसाई
धर्म की रूढ़ मान्यताओं,
अंधविश्वासों और पाखण्डों को आलोचनात्मक रूप से रखने वाली इस फिल्म ने अनंतमूर्ति के अंदर वर्षों से दबी उस
कहानी को बाहर आने का अवसर प्रदान कर दिया जिसे उन्होंने हाईस्कूल के दिनों में हस्तलिखित
पत्रिका में लिखा था । 1965
ईस्वी में कन्नड़ में ‘संस्कार’ का प्रकाशन हुआ । गिरीश कर्नाड के
पहल से टी. पट्टाभि रामा रेड्डी के निर्देशन में इस पर फिल्म बनी । सेंसर बोर्ड ने
इस फिल्म पर बहुत दिनों तक रोक लगाए रखा । 1970 ईस्वी में यह फिल्म रिलीज हुयी जिसे
उस वर्ष का सर्वोत्कृष्ट कन्नड़ फीचर-फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला । इस फिल्म
को कई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुके हैं । फिल्म में गिरीश कर्नाड ने
प्राणेशाचार्य की भूमिका खुद निभाई है और निर्माता-निर्देशक पट्टाभि रामा रेड्डी
की पत्नी और स्वयं एक फिल्म निर्माता-निर्देशक स्नेहलता रेड्डी[10]
चंद्री की भूमिका में हैं । एक फिल्म के रूप में ‘संस्कार’ कैसे, किन प्रक्रियाओं में और किस तरह से आकार
लेता है इसका सिलसिलेवार वर्णन नंदना रेड्डी[11]
ने किया है । उपन्यास के प्रकाशन और उस पर बनी फिल्म को लेकर धर्मशास्त्रों
की स्वयं-सिद्ध प्रामाणिक मान्यताओं और नैतिकताओं वाली ‘ब्राह्मणवादी-संरचना’ और
‘व्यवस्था’ को संरक्षित-सुरक्षित करने वाले कट्टर हिंदुओं और उनकी राजनीति करने
वाले दलों ने इसे हिंदू
धर्म, आचरण, वर्ण और व्यवस्था की मुखालफत करने वाला ‘पाठ’ कह कर; इसके खिलाफ़ खूब विरोध-प्रदर्शन किया
। परंतु, अपने विषय-वस्तु और उसके
प्रस्तुतीकरण के तरीके के चलते धीरे-धीरे ‘संस्कार’ भारतीय भाषाओं में ही नहीं दुनिया
भर में इस तरह की विषय-वस्तु पर लिखे गए ‘पाठ’ की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण उपन्यास
के रूप में परिगणित है । 1976 ईस्वी में ए. के. रामानुजन द्वारा इस उपन्यास का अँग्रेजी
अनुवाद प्रस्तुत किए जाने के साथ ही यह पूरी दुनिया के पाठकों के बीच पहुँचा । ‘संस्कार’ ने दुनिया की कुछ अच्छी रचनाओं[12]
के प्रेरणास्रोत का काम किया है । अब तक दुनिया की अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद हो
चुका है । हिन्दी में इसका अनुवाद 1977 ईस्वी में चन्द्रकान्त कुसनूर ने किया है ।
कंदील की रोशनी, पोथियों के पन्ने और वेदान्त-शिरोमणि
प्राणेशाचार्य :
‘संस्कार’ उपन्यास इस वाक्य से शुरू होता है –
“भागीरथी की सूखी-सिकुड़ी देह को नहलाकर उन्होंने उसे कपड़े पहना दिए ।” भागीरथी कौन
? क्या गंगा? जिसका अवतरण धरती पर मोक्ष देने के
लिए हुआ, जो सबको धोकर-नहलाकर मोक्ष देती रही
है ?
किन्तु अब जो सूख चुकी है, सिकुड़ चुकी है, रुग्ण है, जिसे अब दूसरे नहला रहे हैं या वह भागीरथी
जो वेदान्त शिरोमणि प्राणेशाचार्य की पत्नी है जिसे नारणप्पा सूखी, सिकुड़ी रुग्ण देह मात्र कहता है और
जो प्राणेशाचार्य की तपश्चर्या और ब्रह्मचर्य की खराद पर चढ़ने वाली एक वस्तु मात्र
है ? स्पष्ट है कि, उपन्यास अपने पहले ही रूपकात्मक वाक्य
से – जो परस्पर विरोधी-अंतर्विरोधी भाव और विचार हैं और जिन्हें आगे चलकर उपन्यास
में विस्तार मिलता है – अपनी दिशा तय कर लेता है । उपन्यास के दूसरे भाग से, न चाहते हुये भी यह लंबा उद्धरण
यहाँ रख रहा हूँ – “जब उनका विवाह हुआ था तो वे सोलह वर्ष के थे और उनकी पत्नी
बारह वर्ष की । संसार के मायाजाल को त्याग कर संन्यासी बनकर रहने और आत्मदान का
जीवन बिताने की अपनी बचपन से ही उपजी चुनौती के समान इच्छा के कारण ही उन्होने
जानते बूझते हुये भी जन्म से पंगु और बीमार स्त्री से शादी कर ली थी । एहसानमंद
ससुराल में ही पत्नी को छोडकर उन्होने काशी जाकर खूब अध्ययन किया । वहाँ से ‘वेदान्त-शिरोमणि’ की उपाधि से भूषित होकर लौटे । निष्काम
कर्मों के द्वारा, निरासक्त रहते हुये जीवन-निर्वाह की
अपनी क्षमता उनमें पैदा हो गयी है या नहीं, इसकी कठोर परीक्षा के लिए प्रभु ने
मानों घर में ही इस निरीह रोगिणी को उनके हाथों सौंप रखा था । इसी भाव से प्रेरित
वे उसकी सेवा-शुश्रूषा में जुटे रहे । उसके लिए स्वयं रसोई पकाते, अपने हाथ का बनाया दलीय खिलाते, रोजाना लगन से पूजा-पाठ सम्पन्न
करके, रामायण, महाभारत, भागवत आदि पढ़ने और अन्य ब्राह्मणों के
लिए उनकी व्याख्या करते । जैसे कोई कंजूस एक-एक कौड़ी जोड़ता रहता है, वे अपने तप और पुण्यों को संचित
करते रहते ।”[13]
प्राणेशाचार्य
इस उपन्यास के नायक हैं । उनके चरित्र और व्यक्तित्व का चित्रण उपन्यास में कई एक
जगहों पर किया गया है । इस छवि वर्णन के एक-दो शब्द-चित्र देखने चाहिए – “हजारों
में कोई एक व्यक्ति ही उनके जैसा होता है । रोज शाम को पुरानों का पाठ करते हुए, श्लोकों के अर्थ करने की बड़ी आकर्षक
सहाइली है उनकी, जो बड़े-बड़े भागवतों, कथावाचकों को भी डाह से जला देता है
। कैसी होते है उनकी वाक्य रचना, हल्की, मधुर मुस्कुराहट और आँखों में बस
जाने वाला उनका वह रूप ! चोटी, भस्म, अक्षत और जारी का दुशाला – यह सब
केवल उनको ही सोभा देते हैं ।”[14]
ऐसे आकर्षक और रूपवान आचार्य अपने यम,
नियम, संयम, तप और त्याग के आत्मबल पर गीता के
कर्मयोग – ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्’ का दृढ़ आराधन करते हुए अपनी
जीवन-साधना में रत हैं । उनकी इस जीवन-साधना में किसी तरह का कोई व्यवधान नहीं है
-– “बीस वर्षों से लगातार एक ढर्रे में बंधा कार्यकलाप । सुबह का स्नान, रसोई, पत्नी की दवाई, फिर नदी के उस पार जाकर मंदिर में
हनुमानजी की पूजा – ऐसी बंधी दिनचर्या थी जिसमें कभी कोई चूक नहीं होती थी । प्रतिदिन
पुराणों की पुण्यकथाओं के अगले अंश को सुनने के लिए एक-एक कर अग्रहार के ब्राह्मण
घर के चबूतरे पर जमा होते । शाम को फिर स्नान, संध्यावंदन, पत्नी के लिए मांड़, दवा, रसोई, खाना और फिर चबूतरे पर बैठकर
ब्राह्मणों के सामने प्रवचन ।”[15]
ऐसी सधी हुई आत्मानुशासित दिनचर्या और शास्त्रानुमोदित कर्मविधान की प्रबल मान्यता
से संचालित ‘अपने भाग्य को पंचामृत की तरह पवित्र’ मानने वाले प्राणेशाचार्य एक दिन प्रातः
के समय के भोजन शुरू करने से पूर्व भोजन में से ‘गौ-ग्रास’ निकालकर उसे गाय को देकर भोजन करने
बैठने ही वाले हैं कि, उनके कानों में किसी स्त्री की आवाज
पड़ती है जो कातर होकर उन्हें ही पुकार रही है । ठीक से तजबीजने पर वे पहचान जाते
हैं कि, ‘यह नारणप्पा की रखैल रूपजीवनी चंद्री
की आवाज है ।’ चंद्री आर्त्र स्वर में नारणाप्पा
की मृत्यु की सूचना उन्हें देती है । अगर यह कहा जाय कि, यहीं से उपन्यास का ‘विषय-प्रवेश’ होता है उस समस्या में (या उन
समस्याओं में) जिसे ‘संस्कार’ जैसा उपन्यास सामने ले आने और उसका/उनका
पोस्टमार्ट्म करने का साहस करता है । नारणप्पा की मृत्यु की खबर पौराणिक महत्व की
नगरी दुर्वासापुर में धीरे-धीरे फैल जाती है । हर तरह से पतित और धर्मभ्रष्ट ब्राह्मण
नारणप्पा का अंतिम संस्कार आखिर कौन करेगा ? अग्रहार के सभी ब्राह्मण प्राणेशाचार्य
के घर के चबूतरे पर इकट्ठा होकर प्राणेशचार्य से नारणाप्पा का शव-संस्कार कैसे हो ? कौन करे ? इस पर बातचीत कर रहे हैं, कारण कि, “उसके (नारणाप्पा) द्वारा
ब्राह्मणत्व त्याग देने पर भी ब्राह्मणत्व ने उसे नहीं त्यागा । उसका बहिष्कार
नहीं किया गया । शास्त्रों के अनुसार चूँकि वह बिना बहिष्कृत हुये मरा है, इसलिए वह ब्राह्मण रहकर ही मरा है ।
देखा जाय तो जो ब्राह्मण नहीं हैं उनको उसके शव को छूने का अधिकार नहीं है । उनके
लिए उसके शव को स्पर्श करने को छोड़ देंगे तो हम अपने ब्राह्मणत्व की ही प्रवंचना करेंगे
।”[16]
अग्रहार के सभी ब्राह्मण ‘ब्राह्मणत्व की इस प्रवंचना’ से बचने का उपाय महातपस्वी, ज्ञानी, वेदान्त-शिरोमणि प्राणेशाचार्य को
ढूँढने का जिम्मा सौंपते है । क्योंकि,
पूरे दुर्वासापुर में ही नहीं दक्षिण के आठों मठों में उनके जैसा शास्त्रज्ञ और
तर्क-वितर्क करने वाला पंडित कोई दूसरा न था । प्राणेशाचार्य के लिए भी नारणप्पा
का शव-संकार एक ऐसी ज़िम्मेदारी है जिसे उन्हें पूरा करना ही है । आखिर, पत्नी भागीरथी प्राणेशाचार्य के लिए
जैसे उनके ब्रह्मचर्य के आदर्श को संरक्षित और सुरक्षित बचाए-बनाए रखने की
प्रयोग-भूमि में एक वस्तु की तरह थी उसी तरह नारणप्पा प्राणेशाचार्य के लिए, उनके सदाचार, उनकी धर्म-शास्त्र निर्धारित
मर्यादा, अनुशासन और नियंत्रण वाली
जीवन-चर्या और उससे भी अधिक ब्राह्मणत्व के आदर्श की संरक्षा और संसिद्धि वाली
प्रयोग-भूमि के लिए एक चुनौती की तरह था । नायक (प्राणेशाचार्य) का प्रति-नायक
नारणाप्पा । जिसे सुधारकर, सन्मार्ग पर ले आकर, प्राणेशाचर्य को जितना अपने को
सिद्ध करना था, उससे अधिक ब्राह्मणवाद की उस विजय
को सुनिश्चित करना था जिसके बल पर धर्म,
शास्त्र, परंपरा, संस्कार, मर्यादा, नैतिकता आदि का सदियों से चला आता
हुआ ‘पाठ’ अखंड रूप से जारी रह सके । पर, दुर्भाग्यवश प्राणेशचार्य को इन
दोनों ही प्रयोग-भूमियों में पराजित होना पड़ता है और वे खुद इस पराजय के कारणों की
तलाश करते हैं । इसकी चर्चा इस लेख के तीसरे हिस्से में की जाएगी ।
जो नारणप्पा जीते
जी अपने खान-पान, रहन-सहन के आचरण और व्यवहार से प्राणेशाचार्य के लिए एक चुनौती
था, मरकर भी उनके लिए और कठिन प्रश्न बनकर शव के रूप में अग्रहार
में पड़ा था । वेदान्त-शिरोमणि प्राणेशाचार्य इस शव संस्कार के लिए धर्मशास्त्र की हर
उस पोथी के पन्ने पलटते हैं जिनके ऊपर उनका यह अगाध विश्वास रहा है कि हर समस्या
का समाधान इन पोथियों में हैं इनसे बाहर कुछ भी नहीं । पर, यहाँ प्राणेशाचार्य
को कोई समाधान नहीं मिल रहा – “भोजपत्रों की सभी पोथियों का वे पूरी तरह अध्ययन कर
चुके थे । कोई समाधान नहीं मिला जो कि उनकी अंतरात्मा द्वारा भी स्वीकार्य हो ।
धर्मशास्त्रों में ऐसी शंका के हल का अभाव
होगा, प्राणेशाचार्य के लिए यह विचार भय का कारण बना हुआ था ।… सनातन शास्त्रों
में यदि इस प्रश्न का उत्तर नहीं है तो समझना चाहिए कि नारणप्पा की ही जीत हुयी और
मेरी हार । मूल प्रश्न था, नारणप्पा के जीवित रहते समय क्यों नहीं उन्होंने उसे समाज
बहिष्कृत किया ? क्या उसकी यह धमकी, कि वह मुसलमान बन जाएगा, ही उसका कारण
था ? उस धमकी से ही डरकर क्यों वे धर्मशास्त्र की अवहेलना कर चुके
थे ?... क्या उसके मुसलमान होकर अग्रहार में रहने की धमकी के कारण
ही उसका बहिष्कार नहीं किया गया था ? नहीं, उसके प्रति कुछ सहानुभूति भी थी । अपने हृदय में अपार करुणा
के ही कारण... । यह विचार आते ही उन्होंने सोचा, छी: छी: ये तो
अपने को धोखा देने के बराबर है । वह कलुषहीन करुणा नहीं थी । उसके पीछे भयंकर हठ
भी था । नारणप्पा के हठ से पराजित होने के लिए वे तैयार नहीं थे । उसे धर्म के
मार्ग पर लाकर ही छोड़ूँगा – अपनी पुण्य की शक्ति से, तप की शक्ति से, प्रति सप्ताह दो
दिन के उपवास[17] की
शक्ति से, उसमें सन्मति जाग्रत करूँगा - ऐसा था उनका अवश हठ ।”[18]
परंतु, अब प्राणेशाचार्य से सब कुछ छूटता जा रहा है, उन्हें सब कुछ
डूबता हुआ सा प्रतीत हो रहा है । यम, नियम, संयम तप सब कुछ । अब वे क्या करें ? सभी तरह के
भरोसे से मन डिगता जा रहा है, कहीं कोई राह नजर नहीं आती । किस भरोसे गांव वालों को वे अब
नारणप्पा का शव-संस्कार किए जाने की युक्ति दें ? गाँव वालों का
भी भरोसा उनके ऊपर से उठ जाएगा । अब तो बस ईश्वर ही कोई राह दिखाएँ तो दिखाएँ । अब
तो उन्हीं का एक भरोसा है – ‘एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास ।’ इसलिए, अगले दिन वे एकदम
सुबह ही स्नानादि से निवृत्त होकर अग्रहार से कुछ दूर हनुमान जी के मंदिर पहुँचते
हैं, कि अब सबके संकटमोचन हनुमान ही इस महासंकट से उन्हें मुक्त
करेंगे । पर, यहाँ भी पहर, दोपहर, शाम फिर रात होने को आई किन्तु हनुमान जी की ओर से कोई जवाब
कोई संकेत नहीं – न हाँ का न नहीं का । प्राणेशाचार्य यह चाहते हैं कि हाँ या ना
कोई भी तो संकेत मिले । वे याचना के स्वर में खाते हैं – “आपको न ही करनी है तो कम
से कम बाईं ओर से कर्णफूल का ही प्रसाद दे दो ।… हनुमान जी टस से
मस न हुए । न दायीं ओर का पुष्प गिरा न बायीं ओर का ।”[19]
प्राणेशाचार्य की आस्था पूरी तरह से चकनाचूर हो जाती है, वे अपने को
कोसते हैं कि शायद वही अपात्र हैं, हनुमान जी को भी फटकारते हैं कि मैं गाँव वालों के सम्मुख
कौन सा मुंह लेकर जाऊँ । याद आते हैं निराला, उनका उपन्यास ‘बिल्लेसुर
बकरिहा’ और उपन्यास के नायक मूर्तिभंजक बिल्लेश्वर उर्फ बिल्लेसुर जो
अपनी चरती हुयी बकरियों को हनुमान जी के जिम्मे सौंप कर इत्मीनान से घर चले जाते
थे और अपने दूसरे काम करते थे फिर शाम होने पर बकरियों को लौटा कर घर ले जाते थे ।
पर, एक दिन गाँव के ही कुछ शरारती नवयुवकों द्वारा एक बकरी को
चुरा लिए जाने पर बिल्लेसुर अपनी बकरियों का हिसाब हनुमान जी से हैं, कहाँ गयी मेरी
एक बकरी । तुम्हारे भरोसे छोड़कर गया था कि तुम तो सबके रखवाले हो इन बकरियों की
रखवाली कौन सी बड़ी बात है, पर तुम यह छोटा सा भी काम नहीं कर सके । बता कहाँ है वह बकरी
का बच्चा ? कोई जवाब क्यों नहीं देता ? थूथन सा मुंह
लिए खड़ा है ? बता ? कोई जवाब नहीं मिलता है बिल्लेसुर को, फिर क्या ‘महावीर जी के
मुँह पर वह डंडा दिया कि मिट्टी का मुँह गिल्ली की तरह टूटकर बीघे भर के फासले पर
जा गिरा’ । आस्था बिल्लेसुर की भी टूटी है और प्राणेशाचार्य की भी ।
पर दोनों की भग्न-आस्था की परिणति में अंतर है । बिल्लेसुर मूर्तिभंजक निराला के
प्रतिरूप हैं । धर्म और शास्त्र की रक्षा करने वाले प्राणेशाचार्य नहीं । बहरहाल, प्राणेशाचार्य
अब क्या करें ? कोई राह नहीं सूझ रही है । अनमने भाव से वे गाँव की ओर लौटते
हैं । इस वापसी में प्राणेशाचार्य जब लौट कर गाँव आते हैं तो वे वही प्राणेशाचार्य
नहीं होते हैं जो सुबह गाँव से हनुमान जी के मंदिर समाधान ढूँढने के लिए गए थे ।
खुले
पंखोवाले मोर की तरह अक्षय नक्षत्रों से भरी रात :
“कितने सौम्य, करुणार्द्र हैं वे ! नाटक में द्रौपदी के बुलाने पर हँसते
हुये मदद को आने वाले ज्य्योतिर्मय कृष्ण की तरह हैं बेचारे । उन्हें देह के सुखों
के बारे में शायद कुछ भी पता नहीं होगा । सूखी लकड़ी की तरह पड़ी रहती है उनकी अच्छी
स्त्री । फिर भी कितने सहनशील हैं वे ! कैसा तेजोमय चेहरा, सरल स्वभाव है
। एक दिन भी आँख उठाकर उसकी तरफ नहीं देखा । माँ कहा करती थी कि वेश्याओं को इसी
तरह के पावन-पूज्य लोगों से गर्भ धारण करना चाहिए – जैसा रूप और तेज इन आचार्य जी
में है । लेकिन ऐसे व्यक्ति का संग-सुख पाना भाग्य में लिखा हो तो न ... ।”[20]
अनायास ही उस दिन चंद्री को यह संग-सुख मिल जाता है और प्राणेशाचार्य को भी
देह-सुख का अनुभव होता है । जो प्राणेशाचार्य सदा ही इस बात पर गर्व करते रहे हैं
कि, जन्म से ही उनकी प्रकृति सात्विक रही है, उनकी रुग्ण
पत्नी उनके त्याग और उत्सर्ग की वेदी है, नारणप्पा उनके धर्म, कर्म और साधु-प्रकृति
की परीक्षा का साधन रहा है आज उन्हें अचानक क्यों यह लग रहा है कि, उनकी सारी
मान्यताएँ अस्त-व्यस्त हो गयी हैं और वे वहाँ लौट रहे हैं जहाँ से कि वे सोलह वर्ष
की उम्र में चले थे । ‘सही मार्ग कौन सा है ?’ वह खुद से पूछ
रहे हैं । क्यों उन्हें यह प्रतीत हो रहा है कि, जिस तरह से माँ
के पेट से चिपककर एक शाख से दूसरी साख पर छलांग लगते समय किसी बंदर के शिशु की पकड़
छूट जाये, अपने सारे संस्कारों और कर्मकांडों से एकाएक कट जाने पर ठीक
वैसी ही स्थिति मेरे हो गयी है । क्यों उन्हें अपने बचपन के मित्र महाबल की याद
आती है, नारणप्पा की याद आती है ? याद आता है नारणप्पा का उपहास से पगा हुआ वह कठोर वचन कि
आचार्य, “आप रस और कामाख्यानों से पूर्ण पुराणों का पाठ करते हैं, किन्तु उपदेश
देते हैं नीरस जीवन जीने का । लेकिन मेरे बातों का एक ही अर्थ होता है । स्त्री के
साथ सो जाने का अर्थ स्त्री के साथ सोना ही होता है और मछली खाने के लिए कहूँ तो
अर्थ मछली खाना ही होता है । मैं आप ब्राह्मणों को यदि कोई सलाह दे सकता हूँ
आचार्य जी, तो पहले आप लोग अपने तन और मन से रुग्ण पत्नियों को नदी में
धकेल दीजिये । अपने पुरानों के ऋषियों की तरह जीना सीखिए । मछली की स्वादिष्ट तरी
बनाने वाली किसी मत्स्यगंधा-सी-मछुआरिन को अपनाइए और उसकी बाँहों में लिपटकर सोइए
। आँख खुलने पर यदि आपको परमात्मा न दिखाई दे तो मेरा नाम नारणप्पा नहीं ।”[21]
नारणप्पा ने कभी प्राणेशाचार्य से तर्क-वितर्क करते हुए इस सिद्धान्त को समझाया था
कि, कैसे हमारे सभी कर्मों के परिणाम विपरीत निकलते हैं, आचार्य आपको
इसका एक दिन भान जरूर होगा । आप देखिएगा, जीत मेरी ही होगी आप पराजित होंगे । आज जब गाँव के लोग यह
जानने की उत्सुकता लिए कि, हनुमान जी ने आचार्य को शव-संस्कार के संबंध में क्या कोई
संकेत या आदेश दिया, धीरे-धीरे उनके दरवाजे पर एकत्र होते हैं तो अचानक प्राणेशाचार्य
अपने को भटका हुआ, हारा हुआ महसूस करते हैं और गाँव वालों से कहते हैं कि, “मैं भटक गया
हूँ, मैं हार गया हूँ । कोई भी आदेश देने के लिए मैं हनुमान जी को
माना न सका । मुझे कुछ भी नहीं मालूम । आप सब लोग वैसा ही करें जो आप अपने दिलों
में ठीक समझें ।”[22] क्या
सचमुच आज प्राणेशाचार्य पराजित हो गए हैं ? यह पराजय किससे, क्या धर्म से ? क्या कर्म से ? क्या नारणप्पा
से ? क्या ख़ुद से ? या इन सबसे ?
इस समय प्रणेशाचार्य के मन में संताप और आनंद का, सत् और असत् का, ग्लानि और
पश्चाताप का, पाप और पुण्य का, कर्म और अकर्म का,
जीत और पराजय का जो भीषण
अंतर्द्वंद्व मचा हुआ है, वह इसलिए कि, हनुमान मंदिर से लौटते समय जो किसी भी स्त्री, यहाँ तक कि अपनी
पत्नी तक के साथ अब तक नहीं हुआ वह उनके और चंद्री के बीच घटित हुआ । काम-भावना की
जिस ‘निरोध-वृत्ति’ के पथ पर ब्रह्मचर्य धर्म का अनुशासन मानते हुये वे चल रहे
थे, वह आज खंडित हो गया । खंडित भी हुआ तो चंद्री के साथ । वह
चंद्री जो अत्यंत रूपवती है जिसका यौवन किसी भी पुरुष को अपने आकर्षण में बांध
लेता है । प्राणेशाचार्य
का शिष्य श्रीपति (जो कि चोरी-छिपे शूद्र कन्या बेल्ली से मिलता है, सहवास करता
है) यह मानता है कि यह चन्द्रम्मा उर्फ चंद्री अनन्य रूपवती है । आसपास के सौ मील
के क्षेत्र में – चंद्री जैसी अन्य रूपवती कोई दूसरी स्त्री नहीं । अग्रहार के एक
मात्र स्मार्त ब्राह्मण दुर्गाभट्ट को तो वह वात्स्यायन द्वारा चर्चित चित्रिणी
जैसी लगती है – लंबी-लंबी उँगलियाँ, उन्नत उरोज । चंद्री को देखते ही, उन्हें अपने
शयन-कक्ष में लगे राजा रवि वर्मा के चित्र की याद हो आती है – झीने आँचल में से
उभरे कुच-युगल वाली मछुआरन का चित्र । वात्स्यायन की पोथी और राजा रवि वर्मा के
पेंटिंग से बाहर निकलकर यह स्त्री अमावस की उस रात हनुमान मदिर से जंगल के रास्ते
हताश-निराश गाँव की ओर लौटते हुए आचार्य शिरोमणि प्राणेशाचार्य के सामने आ जाती है
। ‘जंगल के अंधेरे
में इस तरह अपने को एकाएक एक स्त्री के सम्मुख खड़ा पाकर प्राणेशाचार्य को
विचित्र-सा लगा’ । चंद्री, नारणप्पा के
बचपन के मित्र और अग्रहार में उसके एकमात्र हितचिंतक आचार्य को अपने सामने पाकर
उनका आशीर्वाद लेने के लिए उनके पैरों पर झुकती है कि शायद आचार्य को शव-संस्कार
का कोई समाधान मिल गया है । वह उनके पैरों से लिपटकर अभिभूत होकर रोने लगती है ।
उसकी छाती आचार्य के घुटनों से छू जाती है । आचार्य करुणा के उद्रेक से भर उठते
हैं और उसके सिर पर हाथ फेरते हैं । उनके हाथ फेरने से चंद्री और अधिक आवेग में आ
जाती है और उनके दोनों हाथों को कस कर पकड़ के अपनी छातियों में दबा लेती है – “पुष्ट
वक्ष-स्पर्श से प्राणेशाचार्य नितांत अपरिचित थे । जैसे मदहोशी सी हुयी । जैसे
सपने में भी उनके हाथ उसके स्तनों को दबाते रहे । वे अब खड़े नहीं रह पा रहे थे ।
चंद्री ने आचार्य से लिपटकर उन्हें अपने पास समेट लिया । आचार्य जी को अभी तक अपनी
भूख महसूस नहीं हुयी थी । अब वह अचानक भड़क उठी ।”[23]
पुराणों और काव्यों में वर्णित
स्त्री-सौंदर्य को आज उन्होंने पा लिया था । जिनकी यह अगाध धारणा थी कि, सारा रति-सुख
कृष्ण के लिए है, आज वे खुद इस सुख का आनंद ले चुके हैं । वह आनंद जिसकी गंध
उनकी नासिका में बस गयी, जिसकी मिठास उनके खून में बहने लगी । इस आनंद की स्मृति जैसे
ही उभरती है वह फिर से उसकी कामना करने लगते हैं । एक बार फिर उनकी इच्छा होती है
कि उसी तरह चंद्री को आलिंगन में बांध लें । धर्मशास्त्रों की
स्वयं-सिद्ध प्रामाणिक नैतिकता को उसके सारे साक्ष्यों और प्रमाणों के साथ अपने
जीवन में एक-एक पल पूरी ईमानदारी के साथ जीने वाले पतित-पावन प्राणेशाचार्य
चन्द्री के संपर्क में आकर इस कदर अवश हो जाते हैं कि आगे उसी सुख की कामना के लिए चन्द्री को फिर-फिर
ढूँढने और पाने की कामना करते हैं । एक
तरफ ग्लानि और पश्चाताप, अब तक के सभी सद्कर्मों के नष्ट हो जाने की आत्म-भर्त्सना से
हताश-निराश वेदान्त शिरोमणि प्राणेशाचार्य हैं तो दूसरी ओर धर्मशास्त्रों, गुरु, अग्रहार और आसपास
के लोगों द्वारा दिये गए सभी तरह के ब्राह्मणत्व के उत्तरदायित्व से मुक्ति महसूस
करने वाला साधारण मनुष्य है । उपन्यासकार बोल उठता है – “आचार्य को न केवल किसी
तरह का पश्चाताप हुआ, बल्कि उनहोंने अपने मन में एक हलकापन सा महसूस किया, मानों कि अपनी
छीनी हुई स्वतंत्रता प्राप्त कर ली हो ।, मार्ग प्रदर्शन की ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गए गए हों । और सब
प्रकार के अधिकारों के बोझ से छुटकारा पा लिया हो । ‘मैं (प्राणेशाचर्य)
किस तरह का व्यक्ति हूँ ? मैं तुम लोगों जैसा ही हूँ – एक ऐसे अन्तःकरण वाला प्राणी
जिसे कि लालसाएँ और जुगुप्सा तुम्हारी ही तरह उद्वेलित करती हैं । विनय और दीनता
का यह पहला पाठ मैंने पढ़ा है । आओ चंद्री, आओ और इन लोगों
को अब कुछ बता दो । मुझ पर जो दायित्व और बंधन गुरुजी ने डाल रखे हैं, उनसे मुझे
भार-मुक्त करो । मन ही मन उन्होने ऐसा सोचा और चारों ओर देखा । नहीं वह नहीं थी ।
वह वहाँ कहीं भी नहीं थी । उर्वशी की तरह उन्हें छोड़कर वह जा चुकी थी । स्पष्टतः
उन्हें यह कहने में संकोच हो रहा था कि उन्होंने भी नारणप्पा के सुख-उल्लास में
हिस्सा बंटाया है । उनके हाथों से पसीना छूटने लगा और वे ठंडे हो गए । सामान्य
मनुष्यों की तरह पहली बार उनमें झूठ बोलने की चीजें छिपाने की और अपने ही हित की
रक्षा की बात सोचने की इच्छा जागी । इन लोगों (अग्रहार के लोगों) ने जो परम विश्वास किया है, उसे आघात
पहुंचाने का साहस वे नहीं जूता पा रहे थे । यह सब क्या है – अपने पर दया, स्वहित चिंतन, आदत, आलस्य या कि
मात्र प्रवंचना ? हर रोज याद से और मन की गहराईयों से जो मंत्रोच्चार किया
करते थे, वह अब उनके मन में गूंजने लगा : पापोहं, पापकर्माहं
पापात्मा पापसंभवः । नहीं, नहीं यह भी झूठ है । रटे हुए इन मंत्रों को भूलना होगा – मन
को किसी अबोध बाल-मन की तरह स्वतंत्रता से विचरने देना होगा ।”[24]
‘संस्कार’ उपन्यास जिस
बारीकी से धार्मिक पाखंड और शास्त्र-पुराण अनुमोदित तरह-तरह की रूढ़ियों और
अंधविश्वासों से लदे-फदे ब्राह्मणवाद को तार-तार करता है उतनी ही बारीकी से वह ‘काम’ संबंधी
पाप-पुण्य जनित भय की धारणाओं और वर्जनाओं का, दमित काम
इच्छाओं का मनोविश्लेषणात्मक चीर-फाड़ भी करता है । इड, ईगो, सुपर ईगो के
हवाले और ब्यौरे आपको उपन्यास में कहीं नहीं मिलेंगे परंतु, उपन्यास में मौजूद
चरित्रों के हवाले से आप इन्हें विश्लेषित कर सकते हैं । हम सब जानते हैं, जो सुपर ईगो है
वह ‘सेंसर’ का काम करता है । विधि-निषेध – यह करो यह न करो के आदेश यही
पारित करता है । इसीलिए, सुपर ईगो एक तरह के निरोध (resistance) का
कार्य भी करता है । इसलिए, उसका खुद से (इगो से) एक संघर्ष भी चलता रहता है । आत्म-संघर्ष
की इस प्रक्रिया में ही ‘लिविडो’ को समझने-जानने की प्रक्रिया अंतर्निहित है । यह उपन्यास
मनोविश्लेषणवाद के सिद्धान्त निरूपण का उपन्यास नहीं है परंतु मनुष्य की मानसिक
आवेग और निर्वेग को नियंत्रित करनी वाली संरचनाओं और उनकी जटिलताओं, परस्पर विरोधी
कामनाओं और इच्छाओं के दुविधा और द्वंद को मनोवैज्ञानिक स्तर पर विश्लेषित करने
वाला उपन्यास जरूर है । इस संबंध मेँ मीनाक्षी मुखर्जी का यह विवेचन निश्चित ही
गौर करने लायक है – “ संस्कार को सिर्फ रूढ़िवादी हिंदू धर्म की आलोचना की तरह पढ़ना
उसे बहुत संकुचित कर देना होगा । यह एक उल्लेखनीय उपन्यास सिर्फ इसलिए नहीं है कि
इसमें एक पतनशील मूल्य-व्यवस्था का नकार है बल्कि यह इसलिए भी उल्लेखनीय है
उपन्यास है कि इसमें भौतिक और आधिभौतिक, लौकिक और पारलौकिक तार परस्पर जुडते हैं, जिसमें एक
व्यक्ति की सामाजिक दुर्गति के आंतरिक पहलू को उसकी मनोवैज्ञानिक जटिलता के साथ
पकड़ा गया है और जिसमें समस्या – अनोखे ढंग से निजी समस्या होने के बावजूद – एक ऐसे
सभ्यता संकट को भी सामने लाती है, जिसमें सामूहिक नियमबद्धता की पीड़ादायक प्रक्रिया के बीच से निजी
चयन के लिए जगह बन रही है ।”[25]
यह जो निजी चयन की स्वतंत्रता है, वह इसलिए
मूल्यवान है कि, वह समाज में व्यक्ति-स्वातंत्र्य की पहचान कारती है । दुनिया के हर लोकतांत्रिक समाजों में सबको इस
चयन का अधिकार है । पर, दुर्भाग्य से जिन समाजों में इसे थोपने का प्रयास किया गया
है वहाँ तानाशाही बढ़ी है, फासीवाद का जन्म हुआ है । हम जिस दुनिया में रह रहें हैं
वह दुनिया अपने विचार, अपनी आस्था, अपनी राष्ट्रीयता, अपने अधिकार, अपनी
स्वतंत्रता, अपनी निजता और अपनी अस्मिता को बहुत गहरे तक जीने वालों की दुनिया है
। वह क्या लिखे, वह क्या पढ़े, वह क्या खाए, वह क्या पहने, वह कौन सा गीत-संगीत
सुनें, किससे प्रेम करे, किससे घृणा करे, इसके लिए उसने लंबा संघर्ष किया है । संघर्ष
की इस प्रक्रिया में ही ‘संस्कार’ के इस पाठ को लेना चाहिए । अनंतमूर्ति जिस तरह से इस उपन्यास
में परस्पर एक दूसरे के विरोधी लगने वाले किन्तु एक दूसरे के पूरक और समवर्ती (concurrent) विचारों, तर्कों, धारणाओं और
मान्यताओं को रचते हैं वह इस उपन्यास को संरचनात्मक ऊंचाई प्रदान करते हैं ।
स्त्री-पुरुष
के काम-सम्बन्धों में धर्म-शास्त्र द्वारा बनाए गए भय,पाप, दुराचार, अनैतिकता, स्वर्ग, नरक, आदि के
विधि-निषेध और तद्जनित उन ग्रंथियों और दमित इच्छाओं के परस्पर संघाती चित्र यह
उपन्यास बहुत ही तार्किकता के साथ पेश करता है । पौराणिक पोथियों के ‘पाठ’ में वर्णित
स्त्रियाँ व उनके सौन्दर्य का भोग-उपभोग करने
वाले ऋषि और उसके ठीक उलट उन्हीं पुराण-पोथियों से संचालित वास्तविक जीवन, दोनों में इस
कदर भेद क्यों ? भोग
और निरोध की जो मनःसंरचना है, पापाचार और सदाचार की जो पाप-पुण्य रचित भय जनित दुविधा है, उस भय और
दोहरेपन या द्विविधा ( ambiguity)
को यह उपन्यास,
नारणप्पा-चंद्री और प्राणेशाचार्य-चंद्री, श्रीपति-बेल्ली
के संबंध के सहारे बहुत गहरे तक विश्लेषित करता है । नारणप्पा चंद्री जैसी रूपवती
वेश्या को लाकर अपने साथ रखता है और अपनी भावना और कामना को उसके साथ खुल कर अकुंठ
और आकंठ जीता है । ब्राह्मण धर्म के सारे नीति-नियम, विधि-विधान की
धज्जियाँ उड़ाता है । अपने को चार्वाक का वंशज कहता है । निरोधमार्गी, निवृत्ति साधना
वाले हिंदू धर्म की ब्राह्मणवादी व्यवस्था व संरचना को भरसक तहस-नहस करता है । चंद्री
के साथ संसर्ग के बाद जिस पोथी, मंत्र, साधना, तप, त्याग आदि के प्रति प्राणेशाचार्य के मन में संदेह पैदा होता
है, जिसे वह कहते हैं की, ‘नहीं, नहीं, यह सब झूठ है’ उसे नारणप्पा कब
का झूठ और आडंबर कह कर हवा में उड़ा चुका है । दरअसल, प्राणेशाचार्य
का असल संघर्ष अपनी इसी प्रतिछवि नारणप्पा से है । दोनों दो विरोधी मतों और
मान्यताओं के अतिशय आग्रही है । एक बद्ध है और एक मुक्त । न पहले की बद्धता
सामाजिक है और न दूसरे की मुक्ति । नरणप्पा अनुकरणीय चरित्र नहीं है परंतु, प्राणेशाचार्य
फिर भी उससे हारा हुआ महसूस करते हैं, इसलिए कि वह हार उनकी खुद की उस प्रतिछवि की हार है जिसे
सायास वो दुराते रहे हैं । करुणा, मातृत्व और रत्यानंद के मिले जुले सुख से जंगल के घने अंधेरे
में
चंद्री की गोद में सो रहे प्राणेशाचार्य की नींद जब एक आनंदपूर्ण जागृति में टूटती
है, तो उनकी आँखें एक नयी दुनिया में खुलती हैं – “चारों
ओर आश्चर्य से देखा । खुले पंखों वाले मोर की तरह अक्षय नक्षत्रों से भरी रात थी ।
सप्तर्षियों का मण्डल, अगस्त्य के निकट सती स्त्रियों की आदर्श अरुंधति ! नीचे हरी
घास की गंध, नम और ठंडी
मिट्टी, विष्णुकांति
के नीले फूलों की बाढ़ और जंगली चिरायते की
घनी बेलें । एक स्त्री की स्नेह-सिक्त देह की गंध, अंधकार भरा
आकाश,
शांति
से खड़े वृक्ष । यह सब सपना भी हो सकता है, उन्होने अपनी आँखों को
हाथ से मला ।”[26]
अब उनकी आँखों के सामने यह जो सपने सी लगने वाली दुनिया है, उसमें उनकी
खुद की अपनी पूर्व-पहचान एक तरह से मिट गयी गयी है । सबकुछ को भूले हुये दिशाहारा
प्रणेशाचार्य के इस वाक्य – ‘मैं बिल्कुल भूल गया हूँ कि किस ओर से मैं यहाँ
आया हूँ, यहाँ से कहाँ
जाना है’ – का
निहितार्थ साफ है । उपन्यास के तीसरे और आखिरी हिस्से में जो प्राणेशाचार्य हैं, अब वही
प्राणेशाचार्य नहीं हैं । अब वे किसी के पथ-प्रदर्शक नहीं, खुद के भी नहीं । अब
वे पुराने पद-चिन्हों को छोड़कर, ‘नितांत स्वतंत्र होकर, घर-बार, सब क़र्तव्य, सब ऋण आदि
पीछे छोड़कर एक ऐसे रास्ते पर निकल पड़े हैं, जिसका गंतव्य किधर
है इसका पता नहीं । बस, पाँव जहाँ तक, जिस ओर ले जाएँ चलते
चले जाना है । इस नए प्रस्थान के वक्त प्राणेशाचार्य की द्विविधा (ambiguity) मिट चुकी है । वह, सत्-असत्, सार-निस्सार, विधि-निषेध,
काम्य-निष्काम्य, सुख-दुख, धूप-छांव सबकी स्वाभाविक प्रकृति और जरूरत को बहुत
गहरे तक जान चुके हैं । इस अनजान रास्ते पर खुद से ही उनकी यह बातचीत कितनी
प्राकृत है इसके सार को समझना चाहिए – “ मुझे अपने निर्णय के अनुसार चलते रहना
चाहिए – ऐसा सोचते हुए और मन में एक प्रकार के संतुलन को बनाए रख कर वे बढ़ते रहे ।
इससे पहले जब कभी उनका मन उद्विग्न होता था वे उसे एकाग्र करने के लिए ‘अच्युतानंदगोविंदा’ के नाम का
स्मरण करते थे । अब भी एक बार ऐसा करने की उनकी इच्छा हुयी । उन्हें योग के पहले
सिद्धान्त का स्मरण हो आया : ‘योग्श्चचित्तवृत्तिनिरोध:’, लेकिन नहीं, यह उनहोंने मन
ही मन कहा । मंत्र-जाप, नाम-स्मरण की झूठी सांत्वना को दूर कर दो, एकाकी अपने
पैरों पर खड़े रहो ! मन को प्रकाश और छाया के उन आकारों की तरह हो जाने दो जो कि
धूप के रूप में वृक्षों से छनकर आने से स्वाभाविक रूप से बन जाते हैं । आकाश में
प्रकाश, वृक्षों के
नीचे छाया और धरती पर आकार ! यदि सौभाग्य से पानी की बौछार हो जाये तो इंद्रधनुष
की मरीचिका भी । मनुष्य का जीवन इसी धूप के समान होना चाहिए । मात्र एक बोध –
मात्र एक विशुद्ध आश्चर्य – निश्छल और इस निश्छलता में तैरते हुये, जैसे कोई बड़े, फैले हुए
पंखों वाला पक्षी आकाश में तिरता है ।”[27]
प्रेतमय
पुराने चरण को पीछे छोड़कर :
अनंतमूर्ति ने अपने एक साक्षात्कार[28]
में इस बात का उल्लेख किया है कि, ‘संस्कार’ उपन्यास लिखे जाने के पीछे अन्य कई प्रेरक संदर्भों के साथ
गोपालकृष्ण अडिग की कविता ‘भूत’[29](Past) का विशेष योगदान है । अँग्रेजी में वह कविता है :
They haunt me,
the mysterious fetuses of the past
The stale air
of the sunken old well
Rises on all
fours crawling upside down
Entwining the
sunbeam that sings a lullaby
And charges
towards the basil bush.
The
stalk-detached navel- cord and
The severed
rat's tail quiver.
As I grope
peering in the darkness
Suddenly
flashes a line of golden ore
And a
wing-burnt star which is struggling.
[अतीत के रहस्यमय भ्रूण बेतरहा मुझे
परेशान करते हैं
पुराने सड़े कुएं की गंधाती हुयी
बासी हवा
ऊपर की ओर बढ़ती हुयी
चौक-चौबारों में पसर रही है
सूरज की किरणों को अपने आगोश
में भरकर लोरी सुना रही है
और तुलसी के झाड़ की ओर जाकर
आवेशित हो रही है
अपने नाभि-नाल से छिन्न-भिन्न
और
चूहे की कटी पूंछ की बेचैन
थरथराहट
जैसे ही अंधेरे में मैं कुछ
टोहता-टटोलता हूँ
अचानक चमकती है एक सुवर्ण-रेख
और दिखता है एक जले पंखों वाला
जुगनू, जो संघर्ष कर रहा है ]
इस कविता में संघर्षरत, जले पंखोंवाला
यह जुगनू कौन है ? नारणप्पा ? महाबल ? या स्वयं प्राणेशाचार्य ? महाबल तो
विद्याध्ययन के बाद, काशी छूटने के साथ ही छूट गया था और दुर्वासापुर में नारणप्पा
के रूप में सदैव प्राणेशाचार्य के समक्ष बना रहा, रही बात
नारणप्पा की तो ‘वह तो भूत बनकर निकल भागा है, जिसका संस्कार
नहीं हो सका । ब्राह्मणिक रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों के साथ नारणप्पा के शव के
अंतिम संस्कार का कोई उपाय न मिलने पर,
उसकी सड़ रही लाश; अपने अंतिम
संस्कार की प्रतीक्षा करते-करते अचानक गायब हो जाती है । श्रीपति, नागराज, बालविधवा
ब्राह्मणी लक्ष्मीदेवम्मा सबकी नजर में वह प्रेत बन गया है । दरअसल, प्राणेशाचार्य
के साथ-साथ चंद्री को भी प्राणेशाचार्य पर विश्वास था कि, वह कोई न कोई
समाधान निकाल लेंगे, पर जब उसका यह विश्वास टूटता है तो वह नारणप्पा की सड़ रही
लाश को किसी भी तरह अग्नि को समर्पित करने की बेचैनी लिए उस अमावस की रात के घुप्प
अंधेरे में सीधे छोटी जाति वालों की बस्ती की तरफ भागती है, जहाँ शूद्र शेषप्पा
से वह अनुनय-विनय करती है कि वह उसके पास जो कुछ है सारे गहने-आभूषण ले ले और
नारणप्पा के शव को अपनी बैलगाड़ी पर लादकर श्मशान ले चले और दोनों मिलकर उसका
अग्निदाह कर दें । परंतु, शेषप्पा माना कर देता है – “चंद्रम्मा यह
नहीं हो सकता । ब्राह्मण के शव को छू कर मैं नरक जाऊँ, क्या ऐसा चाहती
हो ? दुनिया भर के एश्वर्य का लालच भी दो तो भी यह संभव नहीं है ।
...चंद्री एक शब्द भी बिना बोले बाहर आ गयी । अब वह क्या करे ? एक खयाल उसके
मन में धू-धू कर जल रह था । वह वहाँ सड़ रह है जिसका पेट फूल गया है[30]
वह उसका प्रेमी नारणप्पा नहीं है ! वह ब्राह्मण भी नहीं है, शूद्र भी नहीं
है ! वह केवल एक शव है – सड़ता, गंधाता हुआ शव मात्र ।...वह सीधे मुसलमानों के हलके में आ
गयी । उनसे पैसे देने की बात कही मछलियों के व्यापारी अहमद बारी से मिली । एकबार
जब उसके पास पैसे नहीं थे तब बैल कहरीदने के लिए नारणप्पा ने उसे पैसे दिए थे । अहमद
बारी को वह घटना याद आयी, उसने चुपचाप अपनी बैलगाड़ी तैयार की । शव और लकड़ियों को एक
साथ ही लादकर, सबकी आँख बचाकर श्मशान की ओर ले गया । अंधेरे में ही लकड़ियों
में आग लगा दी ।”[31] इस
तरह एक मुसलमान अहमद बारी के हाथों नारणप्पा को मुखाग्नि मिली और उसका शव-संस्कार
हुआ । जो, नारणप्पा खुद ब्राह्मण होकर, मुसलमान हो
जाने की धमकी मात्र से, जीवन भर, ब्राह्मणवादी हिन्दू-धर्म की जन्म-मरण के आवागमन, पाप-पुण्य, स्वर-नरक, पुनर्जन्म आदि
के भाय से निर्भय, अग्रहार के ढ़ोंगी,पाखंडी, लोलुप ब्राह्मणों की छाती पर मूँग दलता रहा, सभी ब्राह्मण
उसकी इस धमकी से आतंकित होकर उसकी हर तरह की करतूतों को सहते रहे कि कहीं सचमुच
में वह अगर मुसलमान हो गया तो क्या होगा, उसी नारणप्पा का अंतिम संस्कार एक मुसलमान अहमद बारी द्वारा
किया जाता है, क्योंकि, ब्राह्मणवादी हिन्दू-धर्म को बचाए बनाने रखने वाली संरचना और
व्यवस्था के पास ऐसे शव के संस्कार के लिए कोई उपाय नहीं– शास्त्र, पुराण, देवी, देवता किसी के
पास नहीं । चंद्री जैसी लांछित स्त्री (वेश्या स्त्री) की साधारण सी समझ यह जान लेती है कि, नारणप्पा का शव
न ब्राह्मण है, न शूद्र ! वह केवल एक शव है – सड़ता, गंधाता हुआ शव
मात्र ।
नारणप्पा का शव जल कर भी प्रेत बनकर उस गाँव पर मँडरा रहा है
जिसे छोड़कर एक तरफ प्राणेशाचार्य यह कहते हुए जंगल के रास्ते एक नए प्राणेशाचार्य
की तलाश में निकल पड़ते हैं कि, ‘पाँव अब जहां तक ले जाएँ चलते चले जाना है’, तो दूसरी ओर
चंद्री, अपने गाँव कुंदापुर लौट जाने के लिए रात के अंधेरे में उसी रास्ते
पर चल पड़ती है जो जंगल में से होकर जाता है । गाँव की दशा तो अत्यंत ही भयावह और
आतंकित करनी वाली स्थिति में पहुँच गयी है – ‘दिन में कौवे और
गिद्ध मँडराते हैं और रात में प्रेत ।’ मीनाक्षी मुखर्जी[32]
ने
नारणप्पा के शव की तुलना ठीक ही
आइनेस्को के नाटक ‘अमेडी’ से की है, जिसकी मृत देह से जान छुड़ाना मुश्किल है । अपने अंतिम संस्कार
की प्रतीक्षा कर रही नारणप्पा की तो लाश ही गायब हो जाती है । उसके घर में ढूँढने
पर भी वह नहीं मिलती । वह प्रेत बन गया है । इस प्रेत से, अपनी खुद की पहचान
से, चंद्री के समागम के बाद जलकर भस्म हो चुके अपने सभी तरह के अब
तक के पाप-पुण्य के कर्मों से वे नितांत स्वतंत्र होकर घर-बार, सब कर्तव्य, सब ऋण ( गुरु
ऋण, पितृ-ऋण और देव-ऋण ) आदि पीछे छोड़कर चले आए हैं । एक तरह से
भाग आए हैं । उस भय से भाग आए हैं जो पूरे दुर्वासापुर गाँव पर पसरा हुआ है ।
प्राणेशाचार्य का दुर्वासापुर से यह निष्क्रमण इस उपन्यास को
उस ओर ले जाता है, जिस उद्देश्य के लिए इसकी रचना हुई है । त्याग और वंचना के
जड़, नीरस और बंजर जीवन व वातावरण से विपरीत एक दूसरी दुनिया में
जिसमें, मुर्गों की लड़ाई का खेल है, पुट्ट है, पद्मावती है, मेला है, बाइस्कोप है, पिपनियां हैं, पकौड़े हैं, मसाला डोसा है, काफी है और न
जाने क्या-क्या हैं । संस्कार उपन्यास जैसा कि, ए. के.
रामानुजन ने इसके अंग्रेज़ी अनुवाद के अंत में विस्तार से इस पर लिखते हुए इसे ‘समृद्ध रूपकों
वाला यथार्थवादी प्रकृति का उपन्यास’[33] कहा है । उपन्यास के तीसरे और अंतिम खंड में यह रूपकात्मकता
और प्रतीकात्मकता सर्वाधिक अर्थपूर्ण रूप में देखी जा सकती है । जो प्राणेशाचार्य
सबकुछ छोड़कर, हर तरह के कार्य-कारण संबंध से, हर तरह की
सांसारिकता से विरत, निर्बाध, स्वतंत्र जीवन जीने के लिए निकल भागते हैं, जब चलते-चलते थक
जाते हैं, भूख और प्यास महसूस होती है तो उनके पाँव उन्हें उस निर्जन, पथहीन वन के
रास्ते से बाहर निकाल कर एक बस्ती बस्ती के नजदीक खींचकर ले आते हैं । उपन्यासकार
ने, उनकी इस दशा को अत्यंत ही सधे ढंग से एक लोककथा के रूपक के
सहारे यहाँ चित्रित किया है – “ उनके (प्राणेशाचार्य) लोक की, उनके
स्वातंत्र्य की यही सीमा सीमा है । स्पष्ट है कि मानव संपर्क की परिधि से बाहर
नहीं रहा जा सकता । लोक कथाओं के विरत संन्यासी की कोपीन की तरह ही... । कोपीन को
चूहे न काटें, एक बिल्ली को पालना पड़ा । बिल्ली को दूध पिलाना होगा, एक गाय रखनी
पड़ी । गाय की देखभाल के लिए नारी की आवश्यकता महसूस हुयी और विवाह कर लिया । इस
कार्य-कारण के चक्कर में संन्यास धर्म को ही तिलांजलि देनी पड़ी ।”[34]
संसार से भागकर, कार्य-कारण के सम्बन्धों से मुक्त होकर अपने ‘स्व’ की तलाश पूरी
हो भी जाय तो उसकी गति उस संन्यासी की तरह ही होनी है । सांसारिक भौतिक समस्याओं
से मुक्त होने की कामना में संसार से भागकर रहस्यमय तरीके से अपने ‘स्व’ को किसी
आधिभौतिक संसार में ढूँढना और ‘मुक्ति’ पा लेना अनंतमूर्ति को गवारा नहीं तभी तो वे सचेत ढंग से खींचकर-खींचकर
प्राणेशाचार्य को – उपन्यास के पहले हिस्से में उसके विरोधी-स्व (anti–self)
नारणप्पा के साथ और इस आखिरी हिस्से में एक दूसरी विलोम-छवि (anti-thesis)
पुट्ट के साथ – सांसारिकता में संलिप्त करने के लिए ले आते हैं । वी. एस. नायपाल
के भारतीयता संबंधी विचार से, संस्कार और अनंतमूर्ति पर उनके लेखन से पूरी तरह सहमत नहीं
हुआ जा सकता, पर उपर्युक्त संदर्भ में उनकी यह बात ठीक लगती है कि, इस उपन्यास में ‘स्व’ की जो खोज है, वह भारतीय
विचार के करीब है जो किसी रहस्यमय लोक की सृष्टि किए बिना पूरी होती है ।[35]
यह भारतीय विचार क्या है, अनंतमूर्ति के यहाँ बहुत ही साफ और स्पष्ट है – “सभी
मनुष्यों को इस संसार में रहते हुए ही सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार करना पड़ता है
। किसी भी स्थिति में हमें इस दुनिया की समस्याओं से भागना नहीं है । किसी भी
अवस्था में इस सांसारिक स्थिति से हमारा छुटकारा नहीं । इसलिए, ‘सत्य को ही
भगवान मानने वाला मन धार्मिकता को आध्यात्मिकता में परिवर्तित कर देता है । ‘पंथों’ के कल्मषों को
खोकर ‘पथ’ की गवेषणा में मन लग जाता है ।”[36]
पुराने जड़ हो
चुके दक़ियानूस मान्यताओं और विचारों को छोड़कर, नए पथ की
गवेषणा ही प्रगति का लक्षण है । इस लिहाज से अनंतमूर्ति का नायक प्राणेशाचार्य एक
प्रगतिशील चरित्र है । नारणप्पा और पुट्ट और एक हद तक चंद्री भी, प्राणेशाचार्य को
उनके अंतर्विरोध और द्विविधा से मुक्त कर उन्हें सहज और प्राकृतिक और साधारण बनाने
वाले पूरक और परिपूरक चरित्र । रूपकात्मक चरित्र । पुट्ट तो जैसे, सचमुच ही उनको
उनकी महान और असाधारण व्यक्तित्व वाली सार्वजनिक छवि से बाहर निकाल कर साधारण, सहज और प्रकृत
मनुष्य की छवि में ले आने के लिए ही उपन्यास में उपस्थित होता है । जब, बस्ती में
ग्वाले से दूध और केले का आहार प्राप्त कर, प्राणेशाचार्य
पहचाने जाने और पकड़े जाने के भय के चलते – भीषण अंतर्द्वंद्व और संघर्ष की
मनःस्थिति में कि, आखिर कब तक वे अपने को इस झूठ से बाँधकर रखेंगे कि वे
प्राणेशाचार्य नहीं है, कब तक वे अपनी असलियत छिपाए रखेंगे ? क्या इस समस्या
का हल छिप कर भागते रहने से निकलेगा ?
– वे चलते चले जा रहे हैं, स्वयं से स्वयं
को निकालने और पाने का निर्णय लेते हुए कि, “किसी भी समस्या
से, उसके सिर के बालों को पकड़कर, उसकी आँखों में
आँखें डालकर, सुलटाना चाहिए । मूल में जो भी चीज है उसे जलाकर भस्म कर
देना चाहिए । वह चीज तो है नारणप्पा, जो कि जीवन भर ब्राह्मणत्व को लाट-पाँव मारता रहा । अभी तक
दाह-संस्कार की प्रतीक्षा में है – वैसे हर चीज की एक दिन अन्त्येष्टि होनी ही है”[37]
– तो उनका पीछा करता हुआ पुट्ट हाँफते हुए उनके उनके पास आकर उनके संग चलने लगता
है । और अत्यंत ही विश्वास के साथ बिना किसी झेंप के वह प्राणेशाचार्य से मुखातिब
होता है, जैसे उनको पहले से ही जानता हो – “ जब मैंने आपको पीछे से
देखा तो आपकी चाल से ऐसा लगा कि जैसे मैं आपको जानता हूँ । अब भी आपके चेहरे को
देख कर लगता है कि मैंने आपको पहले कहीं देखा है ।”[38]
पुट्ट, का यह कहना की वह पहले से उन्हें जानता है, भले ही बातचीत
शुरू करने की युक्ति लगे, पर अपने निहितार्थों में यह गहरे अर्थ देने वाला वाक्य है । क्योंकि, प्राणेशाचार्य
को अपने इस प्रतिरूप पुट्ट के साथ होकर ही बहुत कुछ देखना-समझना है, जिससे वे अब तक
अपरिचित रहे हैं । इसीलिए, उपन्यासकार ने साये की तरह पुट्ट को आचार्य के साथ लगा दिया
है । आचार्य हर तरह की कोशिश करते हैं कि इस बकबक करने वाले, हर चीज में राय
देने वाले, बेवजह हर जगह टाँग अड़ाने वाले मालेर ब्राह्मण युवक से पीछा छूटे
। पर, पुट्ट एक बार प्राणेशाचार्य के साथ हो लिया तो उनकी लाख
कोशिशों के बावजूद वह उनका साथ छोड़ने के लिए तैयार नहीं । वह ‘अतीत के उनके
किसी पाप की तरह’ उनसे चिपका रहा । बातें करते रहना और नए से नए व्यक्ति से
मिलना और उसे पसंद करना उसे बहुत अच्छा लगता है । वह आचार्य से कहता है – “आप भी
सोचते होंगे कि मैं इतना बोलता-बकता क्यों हूँ, कहते होंगे किस
तरह जोंक की तरह चिपट रहा है । मैं बताता हूँ कि क्यों ? आप ज्यादा नहीं
बोलते, लेकिन आपको भी लोगों की, समाज की, बातचीत की
जरूरत महसूस होती होगी । आप कुछ ज्यादा विनम्र स्वभाव के हैं ।”[39]
मेलिगे में
रथ-यात्रा उत्सव पर लगने वाला मेला इस उपन्यास का सबसे उम्दा रूपक है । यह मेला
औरों के लिए भले ही मात्र मेला भर हो, किंतु प्राणेशाचार्य के लिए यह मेला अनेक रंगों, अर्थों, छवियों वाली
वास्तविक दुनिया का एक ऐसा रूपक है, जिससे वे अब तक अपरिचित होने के नाते निर्लिप्त थे । पुट्ट, वाचाल पुट्ट, पहेलियों वाला
पुट्ट, परमार्थी पुट्ट अपनी बातों से प्राणेशाचार्य को हँसाते, मनाते, उलझाते उन्हें इस
मेले में ले आता है । इस समय प्राणेशाचार्य की स्थिति एक ऐसे व्यक्ति की तरह है जो
अपने अतीत से अपने को विरत कर के भी उसकी स्मृतियों से छुटकारा नहीं पा सका है, जो अपनी पहली
पहचान को खो चुका है किन्तु जिसकी कोई नयी पहचान अब तक नहीं बनी है, उसकी कोई स्वतंत्र गति नहीं है इसलिए अपने को वह
एक जड़-पदार्थ भर मानता है, पुट्ट क्या इस व्यक्ति के अंतःसंघर्ष को जान-समझ रहा है, तभी तो वह
खींचकर उसे मेले में ले आता है और दुनिया कैसी होती है, कम समय में
इसका अनुभव करने के लिए मेले से भी अच्छी जगह क्यी हो सकती है – “ इतनी भीड़ और
शोरगुल में, गुब्बारेवालों और पीपनियों की आवाजों में, सोडा खुलने और
मिठाई बेचने वालों की हाँक में, मंदिर के घंटा नाद में, स्त्रियाँ की
कलाइयों के लिए काँच की चूड़ियाँ बेचनेवाली दुकानदारिनों की तड़क-भड़क में, पुट्ट के
पीछे-पीछे जैसे सम्मोहित होकर प्राणेशाचार्य चले आ रहे थे । सभी जगह सतर्क और
उत्सुक आँखें दिखाई दे रही थीं, किसी न किसी दृश्य अथवा क्रिया-कलाप में व्यस्त । केवल
उन्हीं की आँखें थीं जो अनाविष्ट थीं, किसी भी दृश्य अथवा क्रिया-कलाप से संपृक्त नहीं थीं । पुट्ट
ठीक ही कहता था – ‘उसका इस तरह अचानक मिल जाना भी नियति का ही निर्देश है । अपने
निर्णय के पालन में मुझमें जीवन के प्रति आसक्त होने की कामना भी पैदा होनी चाहिए
। आसक्ति की यही दुनिया चंद्री की भी है ।”[40]
प्राणेशाचार्य के व्यक्तित्वांतरण के लिए यह मेला उपन्यास में लगाया गया है । एक
जगह पर, एक साथ तरह-तरह के अनुभवों से प्राणेशाचार्य यहाँ समृद्ध
होते हैं । यहाँ तक कि, अपनी कामना में जिस चंद्री की तलाश में वे कुंदापुर जाने के
लिए निकले थे वह भी तो पद्मावती के रूप में यहीं मौजूद है । कुंदापुर जाने के लिए
भाड़े की जरूरत होगी, इस उद्देश्य से जब सुनार के यहाँ अपनी सोने की अंगूठी बेचकर
आचार्य पुट्ट के साथ लौट रहे हैं तभी पुट्ट उनसे कहता है कि, उसे किसी से
अभी मिलने जाना है, वह भी उसके साथ आएँ । तत्पश्चात वहाँ से लौटकर मंदिर में
जाकर संध्या का भोजन करें । चलते-चलते बीड़ी सुलगाते हुए और हँसते हुए शरारत भरी
आवाज में पुट्ट आचार्य से पूछता है, जानते हैं हम लोग कहाँ जा रहे हैं ?, उसके इस पूछने
में जो गोपन अर्थ है, पाठक उसका संधान कर लेता है । ज्यों ही, वह पहुंचता है
और पुकारता है ‘पद्मावती’ और आई ! कहकर कुछ ही पल में एक स्त्री उपस्थित होती है, उस उपस्थिती के
आभास मात्र से आचार्य की जो दशा होती है, उसकी एक बानगी देखने लायक है – “ जैसे काले साँप की निगाह
में पड़ते ही पक्षी सुन्न हो जाता है, उसको होश नहीं रहता, कुछ वैसा ही
निष्क्रिय करने वाला भारी आतंक । उन्होंने घूमकर पीछे की ओर देखा । जो वे सोच रहे
थे, सत्य निकला । वे आँखें चोरी-छिपे उन पर टिकी थीं... शरीर को
एक आशा और संभावना ने बीच से चीरकर रख दिया ।...आचार्य उठकर खड़े हो गए, पद्मावती की
तरफ देखा । लंबी केश-राशि, स्नान के बाद अभी उनमें तेल भी नहीं डाला गया । गुदगुदे, मांसल अंग –
नितंब, वक्ष । लंबा छरहरा बदन । आँखों में एक चमक, एक उम्मीद एक
प्रतीक्षा । मासिक धर्म के उपरांत जरूर रीति के अनुसार नदी में स्नान करके आई होगी
। हर सांस लेने और छोड़ने के साथ छतियाँ उठती-गिरती हैं । यदि अंधेरे में उन्हें
दुलारा जाय तो उनके अग्रभाग कड़े हो उठेंगे । घास की जड़ों की जंगली चिरायते की गंध
! जुगनुओं की रोशनी में तैरते हुए रथों का आभास ! आग, आग, चिता की आग
लकड़ियों को लीलती चल रही है, हाथों और पाँवों की ओर बढ़ रही है, पेट को भूनते
हुए सीत्कार कर रही है, फूट रही है और हड्डियों को, कपाल को फोड़े
दे रही है – अग्नि की लपलपाती जिह्वाएँ मृत की छतियों तक पहुँच गईं । धू-धू करती
आग ! नारणप्पा का जीवनहीन शरीर अभी तक बिना क्रिया-कर्म के पड़ा है ।”[41]
आचार्य वहाँ से चल देते हैं, पद्मावती उनसे कहती है कि, आप मंदिर से
भोजन कर जल्दी ही लौट आएं मैं आपकी प्रतीक्षा करूंगी । वहाँ से, आचार्य तेजी से
निकले, गीले खेत को, उसकी बाड़ को, फिर बाँस के बने छोटे पुल को पार किया, सँकरी गली को
लांघ गए और पहुँच गए फिर उससी मेले की भीड़ और शोर के बीच । यहाँ मेले के जो व्यौरे
और वर्णन हैं उसकी गति और वैविध्य के जो चित्र हैं वह देखने लायक है । प्राणेशाचार्य
कहीं नहीं ठहरते हैं चले जा रहे हैं – “इन सबके बीच उन्हें अभी, इसी क्षण अपना
निर्णय ले लेना है । फैसला करना है कि, पच्चीस वर्षों की अनुशासन से पूर्ण, नियमों से
ब्नधी जिंदगी को क्या वे छोड़ दें और सामान्य दुनियावी आदमी की भांति बन जाएँ ? नहीं, नहीं । इन सबसे
पहले नारणप्पा के शव का संस्कार आवश्यक कर्तव्य है ।”[42]
अपने इसी कर्तव्यबोध के चलते वे यह निर्णय लेते हैं कि वे दुर्वासापुर जाएँगे और
अग्रहार के ब्राह्मणों को सब कुछ सच-सच बतला देंगे – “नारणप्पा की तरह ही जिसने
मंदिर के सरोवर से मछलियाँ पकड़कर समूचे अग्रहार को उलट-पलट दिया था, मुझसे भी
ब्राह्मणों के जीवन में आमूल परिवर्तन होने जा रहा है । उनकी आस्था को मुझसे बहुत
करारी चोट पड़ेगी । मैं उन्हें क्या बतलाऊंगा कि चंद्री के साथ मैंने संभोग किया था
? कि मैं अपनी पत्नी से घृणा करने लगा था ? कि मैंने बाज़ार
की एक चालू दुकान से मेले में कॉफी पी थी ? कि मैं मुर्गों
की वह भयावह, हिंसक लड़ाई देखता रहा ? कि मेरे भीतर
पद्मावती के प्रति कामुकता का भाव जगा ? कि शोक और सूतक की दशा में भी मंदिर में ब्राह्मणों की
पंक्ति में बौठकर मैंने पवित्र सहभोज किया ? कि मैंने एक
मालेर लड़के को मंदिर में अपने साथ आने और साथ भोजन करने का न्यौता दिया ? लेकिन यही मेरा
सत्य है । कुछ हो गयी भूलों की मात्र यह स्वीकारोक्ति नहीं है, किसी हुए पाप
का पश्चात्ताप भी नहीं, केवल सच्चाई भर है । मेरी अपनी सच्चाई । इसलिए यह मेरा
निर्णय है । अपने निर्णय से ही मैं अपने सम्पूर्ण अतीत को तिलांजलि दे रहा हूँ ।”[43]
वास्तव में अपने समूचे अतीत को तिलांजलि देकर, प्रेतमय पुराने
चरण को पीछे छोड़कर, मेले में तरह-तरह से भटककर, पुट्ट से और
उससे अधिक खुद के मन में मची हुई उथल-पुथल से, उसकी दुविधापूर्ण
यातना से, अपने दुचित्तेपन से, तरह-तरह के
मताग्रही साँचों से, उनकी वंचनाओं से लड़कर, प्राणेशाचार्य
को यह सच्चाई हासिल हुयी है । अपनी इस पायी हुई सच्चाई की दृढ़ भावना से बंधे वे निर्णय
लेते हैं कि उन्हें दुर्वासापुर लौटना होगा जहाँ एक शव अपने अग्नि-संस्कार के लिए
उनकी प्रतीक्षा कर रहा है । उनकी एक प्रतीक्षा तो कोई और भी कर रहा है – पद्मावती
के रूप में चंद्री । क्या इनकी प्रतीक्षाएं पूरी होती हैं ? क्या नारणप्पा
का शव-संस्कार पूरा होता है ? यह प्रश्न अब भी बना हुआ है ? मेरा मानना है
कि नारणप्पा का शव-संस्कार तो होना बचा ही है, प्राणेशाचार्य
का भी अभी पूरी तरह ‘संस्कार’ होना शेष है । जिस अंतिम वाक्य से यह उपन्यास खत्म होता है
कि, “प्राणेशाचार्य उत्सुकता से, उद्विग्नता से, आशा से उस घड़ी
की प्रतीक्षा कर रहे थे,”[44]
प्राणेशाचार्य की तरह पाठकों के साथ मुझे भी पूरी “उत्सुकता से, उद्विग्नता से, आशा से उस घड़ी
की प्रतीक्षा है ।
संदर्भ एवं टिप्पणियाँ :
[1] यू.
आर. अनंतमूर्ति, किस प्रकार की है यह भारतीयता - (संकलन व सम्पादन : नंदकुमार
हेगड़े, प्रो. नूरजहाँ बेगम), राधाकृष्ण
प्रकाशन प्रा.लि., दिल्ली, संस्करण (2004), पृ. X (भूमिका).
[2] यू. आर. अनंतमूर्ति, संस्कार, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली, पेपरबैक
संस्करण (2013), पृ.
126-27.
[3] यू. आर.
अनंतमूर्ति, किस प्रकार की है यह भारतीयता - (संकलन व सम्पादन : नंदकुमार हेगड़े, प्रो. नूरजहाँ
बेगम), राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., दिल्ली, संस्करण (2004), पृ. 135.
[4] वही, पृ. 75.
[5] वही , पृ.
134
(और
देखें: Kailash
C. Baral, D. Venkat Rao and Sura P. Rath (Editors), U.R. Ananthamurthy’s Samskar
: A Critical Reading, Pencraft
International New Delhi (2005).
[6] नाइजीरियाई
उपन्यासकार, कवि और आलोचक ।
इनके उपन्यास ‘Things
Fall Apart’
का असर ‘संस्कार’ पर दिखता है ।
[7]
आर. अनंतमूर्ति, किस
प्रकार की है यह भारतीयता – (संकलन व सम्पादन : नंदकुमार हेगड़े, प्रो.
नूरजहाँ बेगम), राधाकृष्ण
प्रकाशन प्रा.लि.,
दिल्ली, संस्करण
(2004), पृ.
34.
[8] वही, पृ. 77.
[9] वही, पृ. 74
-75.
[10] ‘संस्कार’ का हिंदी
अनुवाद स्नेहलता रेड्डी को ही समर्पित है । 1970 में जब इस उपन्यास की फिल्म बनाई
गई थी, तो उसकी नायिका
थीं स्नेहलता रेड्डी, जिन्हें इमेर्जेंसी के दिनों में उन पर किए गए अत्याचारों
के परिणाम स्वरूप प्राण गँवाने पड़े । यह हिंदी संस्करण उन्हीं की पुण्य-स्मृति को
समर्पित है ।
[11]
Nandana
Reddy, The
Controversial Bard: U.R. Ananthamurthy, Mainstream,
VOL LII, No 38, September 13, 2014, नंदना रेड्डी एक सामाजिक
कार्यकर्ता हैं जो पिछले 45 वर्षों से गरीब और निचले तबके के लोगों के लिए कार्य
करती हैं । नंदना PUCL की संस्थापक सदस्य रही हैं । वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बाल मजदूरी के
सवाल पर संघर्षरत हैं । International Working Group on Child Labour (IWGCL) की अध्यक्ष हैं । यह संस्था दो
बार (2012, 2013) नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित हो चुकी है ।
[12] सूडानी
उपन्यासकार तैयब सलीह के ‘Season of Migration to the North’ जैसे उपन्यास ।
[13] यू. आर. अनंतमूर्ति, संस्कार, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली, पेपरबैक
संस्करण (2013), पृ. 88.
[14] वही, पृ. 47.
[15] वही, पृ. 11.
[16] वही, पृ.
19.
[17] नारणप्पा को सुधार कर उसे धर्म के
रास्ते पर ले आने के अपने हठ के चलते प्राणेशाचार्य हफ्ते में दो दिन उपवास पर
रहते थे ताकि वह उसे सही रास्ते पर ला सकें ।
[18] यू. आर. अनंतमूर्ति, संस्कार, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली, पेपरबैक
संस्करण (2013), पृ.
56-57.
[19] वही, पृ.
73.
[20] वही, पृ.
55.
[21] वही, पृ.
35.
[22] वही, पृ.
91.
[23] वही, पृ.
75.
[24] वही, पृ.
90-91.
[25] Meenakshi
Mukherjee, Realism and Reality: The Novel and Society of India, Oxford
University Press, Delhi, (1985), p. 169.
[26] यू. आर. अनंतमूर्ति, संस्कार, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली, पेपरबैक
संस्करण (2013), पृ. 79.
[27] वही, पृ.
106.
[28] यू. आर. अनंतमूर्ति, किस प्रकार की है यह भारतीयता – (संकलन व सम्पादन : नंदकुमार
हेगड़े, प्रो. नूरजहाँ बेगम), राधाकृष्ण
प्रकाशन प्रा.लि., दिल्ली, संस्करण (2004), पृ. 41.
[29] M.
Gopalkrishna Adiga, Selected Poems : Gopalkrishna Adiga (Translated from
Kannada By Sumatheendra Nadig), Sahitya Academi, New Delhi (2005), p. 29.
[30] नारणप्पा की मृत्यु प्लेग से हुयी थी, शिवमोग्गा से
वह इस बीमारी के किटाणु लेकर दुर्वासपुर लौटा था, धीरे-धीरे इस
प्लेग की महामारी ने पूरे अग्रहार को अपना शिकार बनाना शुरू कर दिया ।
प्राणेशचार्य की रुग्ण पत्नी भागवती को भी इस बीमारी ने लील लिया – ‘उसके पेट के
निचले हिस्से की ओर एक गिलट निकल आई थी । क्या यह उसी प्रकार का ज्वर है जिसने
नारणप्पा के प्राण हर लिए थे’, (संस्कार, p. 99) । शूद्र बस्ती
में पड़ोसी पिल्य और उसकी बीबी को अचानक तेज ज्वर आया और उनकी आँखें एकबार बंद
हुयीं तो कभी न खुलीं । बेल्लि के माता-पिता इस भयानक बीमारी की भेंट चढ़ गए ।
अग्रहार में दासाचार्य को इस प्लेग ने अपने खूनी पंजे में दबोच लिया । गाँव में
चारो ओर हाहाकार मचा हुआ है । चूहे नाचकर-ऐंठकर तड़पते हुये मर रहे हैं । दुर्गंध
से हवा दूषित हो चली है । पूरी बस्ती के ऊपर हर तरफ कौवे और गिद्ध मँडराने लगे हैं
।
[31] यू. आर. अनंतमूर्ति, संस्कार, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली, पेपरबैक
संस्करण (2013), पृ. 82.
[32] Meenakshi
Mukherjee, Realism and Reality: The Novel and Society of India, Oxford
University Press, Delhi, (1985), p. 174.
[33] A. K.
Ramanujan, Samskara: A Rite for a Dead Man, Oxford University Press, New delhi
(1976), p. 139.
[34] वही, पृ.
106-07.
[35] V.S.
Naipaul, The IndianTrilogy, Panmacmillan (2016), p. 174.
[36] यू. आर. अनंतमूर्ति, किस प्रकार की है यह भारतीयता – (संकलन व सम्पादन : नंदकुमार
हेगड़े, प्रो. नूरजहाँ बेगम), राधाकृष्ण
प्रकाशन प्रा.लि., दिल्ली, संस्करण (2004), पृ. 21.
[37] यू. आर. अनंतमूर्ति, संस्कार, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली, पेपरबैक
संस्करण (2013), पृ. 111.
[38] वही, पृ. 119.
[39] वही, पृ. 130.
[40] वही, पृ. 133.
[41] वही, पृ. 142-44.
[42] वही, पृ. 146.
[43] वही, पृ. 152.
[44] वही, पृ. 159.
विनोद तिवारी
आलोचक, संपादक और अध्यापक ।
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली में हिंदी के प्रोफ़ेसर ।
हिन्दी-जनक्षेत्र में
बहुचर्चित और प्रशंसित ‘पक्षधर’ पत्रिका का सम्पादन-प्रकाशन कर रहे हैं ।
आलोचना के लिए देश भर
में प्रतिष्ठित ‘देवीशंकर आलोचना सम्मान (2013)
से सम्मानित ।
कथालोचना के लिए ‘वनमाली कथालोचना सम्मान (2016) से सम्मानित ।
सम्पर्क:
C-4/604, ऑलिव काउंटी, सेक्टर-5, वसुंधरा, गाज़ियाबाद-201012
मो. 9560236569 e-mail : tiwarivinod4@gmail.com
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