कबीर, मीर और इश्क़
विनोद तिवारी
एक ऐसे समय में जब नफ़रत की विषबेल चारों
ओर रोप दी गयी हो, हवाओं में नफ़रती ज़हर घोल दिया गया हो, इश्क़ पर बात
करना कितना मौजूँ होगा, इसे सोचा जा सकता है । उसमें भी यह
बातचीत हमारे दो बड़े महबूब शायरों कबीर और मीर के हवाले से हो इससे ख़ास क्या हो
सकता है । कबीर और मीर, दोनों ही इश्क़ और मोहब्बत के बड़े
शायर हैं । दोनों ही की शायरी पूरी कायनात में नफ़रत की जगह मोहब्बत का पैगाम पहुँचाने
का काम करती है – मैं कहता सुरझावनहारी, तू राख्यो उरझाइ रे ! मीर की तो
पूरी शायरी ही एक महकाव्यात्मक प्रेमपत्र है । इस प्रेमपत्र में आशिक़ और माशूक़ के
जो बयानात हैं, वे जितने निजी लगते हैं, उतने हैं नहीं । उनमें अवाम की गूँजें-अनुगूँजें भी शामिल हैं । जब मीर
यह कहते हैं कि – शेर मेरे हैं गो ख़वास-पसंद/पर
मुझे गुफ़्तुगू अवाम से है – तो इसे केवल एक मुद्रा या
उनकी प्रतिक्रिया भर नहीं मानना चाहिए, बल्कि निजी तौर पर भी
और सामाजिक तकाजे के तौर पर भी इसके मानी बहुत गहरे हैं । मीर के सामने ही दिल्ली
कई बार लूटी गयी उजाड़ी गयी । नादिर शाह, अहमद शाह अब्दाली ने
दिल्ली को किस क़दर लूटा, तबाह किया हम सब उससे परिचित हैं ।
मीर हर बार टूटे, आहत हुए होंगे,
उन्होंने लिखा है – “एक दिन मैं सैर को निकला । मेरा गुज़र शहर के एक वीराने पर हुआ
। मैं हर कदम पर रोया और इब्रत (मानसिक पीड़ा) हासिल की । जब आगे बढ़ा तो हैरत बढ़
गयी क्यूंकि मैं उन मक़ामात को न पहचान सका । मुझे शहर के उस हिस्से का पता न चल
सका क्यूंकि न वहाँ इमारत थीं न रहने वाले । ढहे हुए घर,
टूटी हुई दीवारें, बेसूफ़ी की ख़ानकाहें,
बगैर सरापियों के भट्ठियाँ...बाज़ार कहाँ थे जिनका ज़िक्र करूँ...मोहल्ले बर्बाद, गलियाँ नपैद, हर तरफ़ वहशत के आसार ।” – फिर भी
दिल्ली उनसे छूटती नहीं, मरते दम तक दिल्ली आने की हसरत ज़िंदा रहती
हैं । जब दिल्ली छोड़कर उन्हें लखनऊ जाना पड़ा और वहाँ के लोगों का जो व्यवहार रहा, उस समय जो शेर पढ़ा था वह
कितना दर्दनाक है । उसका ज़िक्र रामनाथ ‘सुमन’ ने अपनी किताब ‘मीर’ में कुछ
इस अंदाज़ में किया है – “लखनऊ पहुँच कर, जैसा मुसाफ़िरों का
दस्तूर है, एक सराय में उतरे । मालूम हुआ आज एक जगह मुशायरा
है । रह न सके । उसी वक़्त ग़ज़ल और मुशायरे में जाकर शामिल हुए । इनकी वज़अ क़दीमाना
खिड़कीदार पगड़ी, पचास गज़ के घेरे का पाजामा, एक पूरा थान पिस्तौलिए का कमर से बंधा, एक रूमाल
पटरीदार तह किया हुआ...नागफनी की अनीदार जूती जिसकी डेढ़ बालिश्त ऊँची नोक कमर में
एक तरफ़ सैफ़ यानी सीधी तलवार, दूसरी तरफ़ कटा...गरज़ जब दाख़िल
महफ़िल हुए वहाँ शहर लखनऊ के नए अंदाज़, नयी तराशें बाँके-टेढ़े
जवान जमा । इन्हें देख कर सब हँसने लगे । मीर साहब बिचारे गरीबुल वतन, जमाने के हाथ पहले ही दिन शिकस्ता, और भी दिलतंग
हुए और एक तरफ़ बैठ गए । शमअ इनके सामने आई तो सबकी नज़र पड़ी और बा’ज़ अशख़ास से पूछा कि हुज़ूर का वतन कहाँ है ? मीर ने
तीव्र वेदना भरे स्वर में तब यह शेर पढ़ा ।” वह शेर है –
क्या
बूद-ओ-बाश पूछो हो पूरब के साकिनों
हम को
ग़रीब जान के हँस-हँस पुकार के
दिल्ली जो
एक शहर था, आलम में इंतिख़ाब
रहते थे
मुंतखब ही जहाँ रोजगार के
इसको फ़लक
ने लूट के वीरान कर दिया
हम रहने
वाले हैं उसी उजड़े दयार के ।
मीर यह जानते हैं कि ईंट-पत्थर से बनी इमारतें, तबाह होने के बाद भी बनाई जा सकती हैं, तरह-तरह के देवालय – मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर, गुरुद्वारे – फिर से खड़े किए जा सकते हैं, लेकिन दिल की बस्ती अगर उजाड़ दी गयी, तो फिर नहीं बसायी जा सकेगी –
दिल
वो नगर नहीं कि फिर आबाद हो सके
पछताओगे
सुनो हो ये बस्ती उजाड़ के ।
सुनो हो ! मीर के इस ‘सुनो हो’ में जितनी पीड़ा निजी है, उससे अधिक सार्वजनिक है ।
इसीलिए शायर की निजी पीड़ा, व्यक्तिगत नहीं होती बल्कि वह
निजी होकर ही सार्वजनिक होती है, अवाम को संबोधित होती है, उससे गुफ़्तगू करती है – सुखिया सब संसार है, खावे अरु सोवै/दुखिया दास कबीर है जागै अरु रोवै ।
मीर
ने अपने सावनेह उमरी (आत्मकथा) ‘जिक्र-ए-मीर’ में अपने वालिद के हवाले से लिखा है – “मेरे वालिद दिन रात तफ़क्कुर में
रहते थे और जब कभी होश में आते तो कहते- ‘मेरे बेटे !
मोहब्बत से ही ये दुनिया कायम है, मोहब्बत ही को अपनी हयात
समझ । मोहब्बत नहीं तो ये आलम नहीं । मोहब्बत बनाती भी है और जलाती भी है । इस आलम
में जो है वह इश्क़ ही का ज़हूर है । आग इश्क़ की जलन है, आब
इश्क़ की रफ़्तार है । मिट्टी इश्क़ का ठहराव है और हवा इश्क़ की बेकली । मौत इश्क़ की
मस्ती है और ज़िंदगी होश ।” इस मज़मून को मीर अपने एक शे’र में
कैसे बरतते हैं वह देखने लायक है –
इश्क़
ही इश्क़ है जहाँ में देखो, सारे आलम में फिर रहा है इश्क़
इश्क़ है
तर्जो-तौर इश्क़ के तईं, कहीं बंदा कहीं ख़ुदा है इश्क़ ।
कबीर और मीर दोनों ही के लिए इश्क़ वह
नेमत है जो सारे आलम को अपनी ख़ुशबू से सराबोर कर सकती है, बस उसके तर्जो-तौर के
तरीक़े आने चाहिए । इन दोनों ही शायरों की दुनिया इश्क़ के मस्तानों की दुनिया है – ‘हमन हैं इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या/…कबीरा इश्क़ का माता दुई को दूर कर दिल से/जो चलना राह नाज़ुक है
हमन सर बोझ भारी क्या’ । ‘दुई को दूर कर दिल से’ का मतलब साफ़ है । यह हर तरह
के द्वैत को, भेद-भाव को दूर करने की चाहत है । इसलिए, कबीर और मीर के यहाँ आध्यात्मिक और भौतिक, निजी और
सार्वजनिक का जो भेद दिखता है, वह है नहीं । कबीर पर हिन्दी
इतिहास और आलोचना में ख़ूब लिखा और कहा गया है । अपनी लोक पैठ में कबीर की जगह सभी
भक्त कवियों से जुदा है । वह सांसारिकता से मुक्त होकर निजी मुक्ति के भय से
ग्रसित कवि नहीं हैं, बल्कि सबकी मुक्ति में अपनी मुक्ति
पाते हैं, जिसका एक ही रास्ता है – प्रेम । यह तो ‘ज्ञानी’ और ‘पंडित’ लोगों से उन्हें और उनके संदेश को समझने में भूल हुयी है, वरना वह तो साफ़ तौर पर कहते हैं –
पोथी
पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित हुआ न कोय ।
एकै अच्छर
प्रेम का पढै सो पंडित होय ।।
कबीर
मूलतः और अंततः अहर्निश प्रेम के कवि हैं । पर ‘ज्ञान’ और ‘पंडिताई’ का बोझ देखिए कि उन्हें ज्ञानमार्गी, रहस्यवादी, गुह्य-साधनावादी,
सब कहा गया, पर कवि नहीं स्वीकार किया गया । सामान्य तौर पर
यह मान्य कर दिया जाता है कि ‘ज्ञान’
अपने स्वभाव में सहज, निर्मल और उदात्त होता है । प्राणियों
के भीतर सद-असद का विवेक उसी के द्वारा पैदा होता है । पर,
हम सब जानते हैं कि ‘ज्ञान’ की भी अपनी
एक तरह की सत्ता होती है । फ्रांसीसी दार्शनिक और इतिहासकार मिशेल फूको ने विस्तार
से इस पर बातचीत की है । ज्ञान अपनी सत्ता-संरचना के पसारे में धर्म, शास्त्र, शुचिता, सभ्यता, कुलीनता, विवेक, समझदारी आदि
का पाखंड भी तैयार करता है । वस्तुतः लंबे समय तक कबीर को कवि न माने जाने और
साहित्य की मुख्य धारा से बहिष्कृत किए जाने के पीछे ज्ञान निर्मित सत्ता को बनाए
रखने का सामूहिक समझदारी का यही पाखंड काम करता रहा । शास्त्र-निर्मित इस पूरे
तथाकथित शिष्ट परंपरा को, पोथी के पांडित्य को कबीर नकारते
हैं । यह नकार लोक का इतना दृढ़ आधार लिए हुए है कि किसी भी तरह के पाखंडी कागद
लेखी सत्य को आंखिन देखी के साक्ष्य पर, खंड-खंड कर देता है
। कबीर की कविता में जो नकार है, वास्तव में ज्ञान-सत्ता के
इसी छलावे और पाखंड का नकार है । इसी पाखंड के खिलाफ़ वह लोक को सावधान करते हैं –
लोका मति के भोरा रे ! विडंबना यह देखिए कि ऐसे लोकप्रिय लोकाश्रयी कवि को ‘इतिहास’ लिखते हुए ‘ज्ञानमार्गी’ धारा के कवियों के खाते में धकेल दिया गया । जबकि कबीर सिर से पैर तक
प्रेम के कवि हैं – ‘मलि-मलि धोई दाग न छूटै, ज्ञान क साबुन लाय पिया’ ।
उपर्युक्त ज्ञानाश्रयी शाखा का जो पांडित्य-पूर्ण विभाजन है, वह यहीं तक नहीं रुकता बल्कि वह प्रेम को भी बांटता है, विभाजित करता है – भारतीय प्रेम और आभारतीय प्रेम (अर्थात इस्लामी प्रेम) । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में लिखा है – “स्पष्ट है कि ज्ञान-मार्ग की बाते कबीर ने हिंदू साधु-संन्यासियों से ग्रहण कीं जिनमें सूफियों के सत्संग से उन्होंने प्रेमतत्व का मिश्रण किया और अपना एक अलग पंथ चलाया ।” मतलब यह कि जो ‘ज्ञान’ है वह भारतीय परंपरा से आया है और जो प्रेम है वह आभारतीय है, जो कि सूफियों के सत्संग से विकसित हुआ और जिसका आधार फ़ारसी परंपरा का इश्क़ है । ‘ज्ञान’ और ‘इश्क़’ की शुक्ल जी इस अंतर-दृष्टि के मानी साफ़ हैं । शुक्ल जी ने स्पष्ट तौर पर कबीर को ‘समाज सुधारक’ और उनकी वाणियों को ‘सांप्रदायिक शिक्षा’ के लिए ही उपयोगी मानते हुए न ही उन्हें कवि माना और न ही भक्त स्वीकार किया बल्कि योगियों की तरह तंत्र-मंत्र और गुह्य-साधना का का उपासक भर माना जिनमें कि – “मानव जीवन की वह विस्तृत व्यंजना नहीं है जो साधारण जन मानस को आकर्षित कर सके । इस प्रकार के संतों की परंपरा बराबर चलती रही थी और नए पंथ निकलते रहे पर देश के सामान्य साहित्य पर उनका कोई प्रभाव न पड़ा ।” पर कालांतर में शुक्ल जी का यह आकलन कितना सही साबित हुआ कितना ग़लत हम सब इससे वाकिफ़ हैं । असल में, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के लिए भक्तिकाल का एक ही कवि है जो उनके तथाकथित ‘साधारण जन मानस को आकर्षित’ कर सका, वह हैं तुलसीदास । तुलसीदास शुक्ल जी के वह लिटमस पेपर हैं जिसके द्वारा वह अन्य सभी कवियों का कवित्व जाँचते हैं, उसी रंग में उतरा तो साहित्य नहीं तो सांप्रदायिक शिक्षा । यहाँ, थोड़ा रुककर सोचना चाहिए कि क्या कबीर के जीवन का लक्ष्य ‘पंथ’ खड़ा करना और सांप्रदायिक शिक्षा देना था ? उनकी कविताई का लक्ष्य मानव-जीवन और लोकमंगल नहीं था ? क्या प्रेम उनके जीवन और उनकी कविता की चिंता की केंद्रीय धुरी नहीं है ? मानव से समूची मानवता से प्रेम, उनके श्रेय और प्रेय दोनों थे । उनकी कविता का मूल मर्म, आज की शब्दावली में कहें तो उनका आत्म-संघर्ष प्रेम ही है – ‘रामहि केवल प्रेम पियारा, जानि लेहु जो जाननि हारा’। अतः यह कहना अनुचित नहीं होगा कि कबीर को जानबूझकर प्रेमाश्रयी की जगह ज्ञानाश्रयी शाखा में तिरोहित कर के छुट्टी पा ली गयी ।
वस्तुतः यह लेख इस बात की पड़ताल करता है कि 15वीं शताब्दी के कबीर और 18वीं सदी के मीर के यहाँ जीवन और कविता में कोई फाँक नहीं है । उनके आत्म-संघर्ष और सामाजिक-संघर्ष में ‘दुई’ नहीं है, बल्कि असल में वे एक ही हैं । किसी भी बड़े कवि के यहाँ इन दोनों में अलगाव नहीं होगा, बल्कि परस्पर इनमें एकस्वरता होती है । इन दोनों के यहाँ ‘आत्म-संघर्ष’ किस तरह ‘सामाजिक-संघर्ष’ बनकर प्रेम को पाने और देने की अनथक तलाश बन कर बार-बार व्यक्त होता है, वह देखने लायक है -
प्रेमी ढूंढत मैं फिरौ प्रेमी मिलै न कोय ।
प्रेमी को प्रेमी मिलै तब सब बिष अमृत होय ॥
x x x
हरम
को जाइए या दैर में बसर करिए,
तिरी तलाश
में इक दिल किधर-किधर करिए ।
कबीर : साभार गूगल |
अति
सूधो सनेह को मारग ह्वै, जहं नेकु सयानप बाँक नहीं ।
घनआनंद
प्यारे सुजान सुनौ, यहाँ एक ते दूसरों आँक नहीं ॥
इसी को कबीर ने कहा है – ‘हमन हैं इश्क़ मस्ताना हमन
को होशियारी क्या’
। हिन्दी में घनानन्द और मीर की कविताई की तुलना करते हुए अध्ययन और शोध लगभग नहीं
हुआ है, अगर ऐसा
कोई शोध और अध्ययन किया जाय तो न केवल रूप बल्कि वस्तु के नज़रिये से भी महत्वपूर्ण
निष्कर्ष प्राप्त हो सकते हैं । कबीर ने एक नहीं अनेक साखियों में उक्त
बुद्धिमत्ता को, ज्ञानकांड और उससे संरचित पाखंडपूर्ण सत्ता
का नकार किया है । वे पढ़त को, पोथी को पंडितों और मुल्लाओं
के रचित शास्त्र को कोई महत्व नहीं देते, कारण कि उन्हें
दुनियाबी तजुर्बों ने यह ताक़त दी है कि वो इंसानियत को इंसानी हमदर्दी की शर्त पर
ही देख और बरत सकें । कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं :
पढ़ि
पढ़ि के पत्थर भया, लिखि लिखि भया जु ईंट ।
कहै कबीरा
प्रेम की लागी नेकु न छींट । ।
x x x
पंडित
मुल्ला जो लिखि दिया,
छाँड़ि सबै
हम कछु न लीया ।
x x x
खसम न
चीन्हें बावरी, का करत बड़ाई ।
बातन लगन
न होयंगे, छोड़ौ चतुराई । ।
x x x
साखी सबद
सन्देस पढ़ि, मत भूला रे भाई ।
सार-प्रेम
कछु और है, जो खोजा सो पाई । ।
‘सार प्रेम कछु और है’ मीर याद आ जाते हैं – ‘दिल की तह की कही नहीं जाती/नाजुक
है असरार बहुत/अंच्छर तो हैं इश्क़ के दो ही/लेकिन है विस्तार बहुत । अंच्छर, मतलब जादू जैसे बोल, मंत्र जैसा असर । कबीर के कुछ
पाठों में ‘ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होय’ मिलता है, जो कि ठीक नहीं है । यह बाद में सुधारित
किया हुआ मालूम होता है । यह विशुद्ध वर्णमाला का मेल और गणना भर है, जो कबीर के ‘एकै अच्छर’ के
व्यापक अर्थ को सीमित करता है । अक्षर का एक अर्थ होता है जो क्षरित न हो । कबीर
के लिए ‘प्रेम’ वह अक्षर है जो कभी भी
नष्ट नहीं होता, ख़त्म नहीं होता ।
2.
कबीर और मीर दोनों ही के यहाँ प्रेम को ‘ओन’
करने की जो काम-भावना है, उसके चलते उनके प्रेम को लौकिकता
से अधिक पारलौकिकता के धरातल पर व्याख्यायित किया गया है । ‘प्रेम’ और ‘काम’ के आपसी रिश्ते को
लेकर साहित्य, मनोविज्ञान, समाजविज्ञान, दर्शनशास्त्र आदि अनुशासनों में ख़ूब लिखा गया है । फिर भी इस मसले पर एक
राय नहीं । एक तरफ़ प्रेम में प्रेमी से दैहिक मिलन और एकत्व को प्रेम की
चरितार्थता मानने वाले लोग हैं तो दूसरी तरफ़ प्रेम में दैहिक मिलन से इतर भक्ति और
आस्था में सच्चे प्रेम की इयत्ता को मानने वाले लोग हैं । अतः प्रेम के वास्तविक
अभिप्राय का स्पष्ट और दृढ़ता के साथ बोधपूर्वक कथन संभव नहीं होता, इसलिए समाधान भी नहीं हो सका । 19वीं शताब्दी के रूसी चिंतक व्लादिमीर
सर्गयेविच सोलोव्येव, जो कि दोस्तोएवेस्की के घनिष्ठ मित्र
थे, ने अपनी पुस्तक ‘मीनिंग ऑफ लव’ में तो दैहिक-मिलन को स्वीकार करते हुए भी आध्यात्मिक स्तर पर उसे ‘समस्त एकत्व’ की दार्शनिक मनोभूमि के रूप में
निष्पन्न किया है – “ एक भावना के रूप में प्रेम का अभिप्राय और महत्ता यह है कि
वह वास्तव में, अपनी सम्पूर्ण इयत्ता के साथ हमें अन्य की
समकक्ष परम केन्द्रीय महत्ता को स्वीकार करने के लिए विवश कर देता है, जिसे अपनी अहंमन्यता की शक्ति के कारण, हम केवल
अपने में ही मानते हैं । प्रेम केवल एक भावना के रूप में नहीं, बल्कि जीवन के हमारे समस्त हेतु की अपने से अन्य में स्थापना, हमारे निजी जीवन के केंद्र के स्थानांतरण के रूप में महत्वपूर्ण है । यह
प्रत्येक प्रकार के प्रेम की चारित्रिकता है, पर दैहिक प्रेम
में यह सर्वाधिक प्रबल होती है, अन्य प्रकारों के प्रेम से
इसकी विशिष्टता अधिक तीव्रता, अधिक तल्लीनता और अधिक जटिल
व्यापक पारस्परिकता में होती है । केवल यह प्रेम ही दो जीवनों के वास्तविक और
अविच्छेद्य एकत्व की ओर ले जा सकता है, पवित्र बाइबिल में
इसी के बारे में कहा गया है – वे एक शरीर होंगे अर्थात एक वास्तविक अस्तित्व होंगे
।” अधिक तीव्रता, अधिक तल्लीनता और अधिक जटिल व्यापक
पारस्परिकता ये तीनों लक्षण कबीर और मीर दोनों के यहाँ मिलते हैं । कहा जाता है कि
इश्क़ में जिंसी वस्ल (दैहिक मिलन) की कामना बनी रहती है,
बिना इसके इश्क़ अधूरा माना जाता है । कबीर ने भी कहा है – एकमेक ह्वै सेज न
सोवौं, तब लगि कैसा नेह रे
! मीर की भी इच्छा है – ‘वस्ल ख़ुदा उसका नसीब करे । कबीर और
मीर दोनों के यहाँ इस जिंसी वस्ल की कामना के अनेक उदाहरण मिलेंगे । कबीरदास के एक
उत्तर-आधुनिक अथवा यों कहें फूकॉल्डियन अध्येता पुरुषोत्तम अग्रवाल ने अपनी किताब ‘अकथ कहानी प्रेम की’ में इसे कबीरदास की ‘राम भावना’ और ‘समाज भावना’ के साथ ‘काम भावना’ कह कर
विश्लेषित किया है । पर, उनके विश्लेषण से सहमत होना कठिन है
। उनके उक्त पांडित्यपूर्ण विश्लेषण में जाने पर बात कुछ की कुछ हो जाने का ख़तरा है, क्योंकि वह इतनी वैदुष्यपूर्ण किताब है कि डर लगता है, उससे आशनाई नहीं हो पाती । वह मीर ने ही कहा है – ख़ाक ही में मिलाये रखते हो/हो कोई तुमसे आश्ना
क्या ख़ाक ।
बहरहाल, कबीर के संबंध में उनकी
घर-फूँक-मशाल लेकर आह्वान की बात तो ख़ूब ही की गयी है, जो कि
सही ही की गयी है । परंतु, उनके प्रेम संबंधी साखियों और
पदों में ‘देह’ और ‘गेह’ की महत्ता का जो सांगरूपक रचा गया है, उस पर बात कम होती है । कबीर कहते हैं –
बालम आव
हमारे गेह रे ।
तुम बिन
दुखिया देह रे ।
सब कोई
कहै तुम्हारी नारी, मोकौ इहै संदेह रे ।
एकमेक
ह्वै सेज न सोवौं, तब लगि कैसा नेह रे ।
यह एकमेक होने की भावना, यह हमबिस्तरी की कामना
जितना पारलौकिक मानी में सत्य है, उतना ही इहलौकिक मानी में
भी । पर, मध्ययुगीनता के ही खाँचे-साँचे में ही नहीं, बल्कि आज भी हम सब इस इहलौकिक कामना पर कोई न कोई आवरण डालकर किसी न किसी
रूप में इसे सेंसर करते आए हैं, करते हैं । इसके पीछे सामाजिक-धार्मिक
संरचना और व्यवस्था के तहत ‘प्रेम प्रतीकवाद’ और ‘नैतिक मर्यादावाद’ के
साथ-साथ अकादमिक-पाठ और अर्थ जैसे कई तरह के कारण कार्य करते हैं । जब हम लोग पढ़ते
थे और आज जब पढ़ाते हैं तो इस तरह की भक्तिकालीन सभी कविताओं को ‘आत्मा’ और ‘परमात्मा’ की बाइनरी में ही पढ़ते-पढ़ाते हैं । वह ‘आत्मा’ जो अपने प्रियतम ‘परमात्मा’
से बिछड़ गई है, विरह में तड़प रही है,
उससे मिलन के लिए आतुर है, जब यह मिलन नसीब हो जाएगा तो ‘आत्मा’ और ‘परमात्मा’ दोनों एकमेक जो जाएंगे । यह विद्यार्थियों को दिया गया ऐसा लौह ढाँचा है
जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी बिना किसी जतन के
हस्तांतरित होता रहता है । मैंने, अध्यापन के दौरान इस ढाँचे
को जाँचने और ज़ाहिर है बदलने के प्रयत्न में कुछ प्रयोग किए हैं, करता रहता हूँ, जिसका नतीज़ा वही रहा जिसकी कल्पना
आप कर सकते हैं । एक बन रहे केंद्रीय विश्वविद्यालय के परास्नातक प्रवेश परीक्षा
में श्रीलाल शुक्ल के प्रसिद्ध उपन्यास ‘राग दरबारी’ का वह प्रेमपत्र मैंने व्याख्या के लिए पूछ लिया,
जिसे बेला ने रुप्पन के लिए हिन्दी फिल्मों के गानों के मुखड़ों को जोड़कर तैयार
किया है :
ओ सजना, बेदर्दी बालमा,
तुझको मेरा मन याद करता है । ...
तुम्हें क्या पता कि तुम्हीं
मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरे पूजा, तुम्हीं देवता हो ।
आप विश्वास नहीं करेंगे, सभी परीक्षार्थियों ने
इसकी व्याख्या उपर्युक्त ‘आत्मा’ ‘परमात्मा’ के बने-बनाए प्रदत्त
साँचे में ही लिखी – ‘इसमें जो बेदर्दी बालमा है वह परमात्मा
का प्रतीक है, उसका अंश आत्मा उससे दूर है, जिससे मिलने के लिए वह तड़प रही है...आदि, इत्यादि ।’ इसी तरह का एक दूसरा प्रयोग एक दूसरे विश्वविद्यालय की एम. ए. की कक्षा
में निराला की कविता ‘कुकुरमुत्ता’ के
इस अंश को लेकर किया था, जिसका अर्थ भी बने-बनाए प्रदत्त
खाँचे-साँचे का एक दूसरा ही पहलू सामने लाता है :
चली गोली आगे जैसे डिक्टेटर
बहार उसके पीछे जैसे भुक्खड़
फ़ालोवर ।
उसके पीछे दुम हिलाता टेरियर -
आधुनिक पोएट
पीछे बाँदी बचत की सोचती
केपीटलिस्ट क्वेट ।
विश्वास मानिए कि एक-आध को छोड़कर लगभग सभी
विद्यार्थियों ने इन पंक्तियों की अति क्रांतकारी व्याख्या की – ‘एक तानाशाह है, जो हमेशा गोली की तरह दगता रहता है, डराता रहता है । डर के मारे लोग उसके पीछे भुक्खड़ कुत्तों की तरह दुम
हिलाते चलते हैं...आदि, इत्यादि ।’ ‘भुक्कड़’ ‘फालोवर’ ‘टेरियर’ ‘केपिटलिस्ट’ आदि आए इन शब्दों के चलते उनके लिए
व्याख्या इतनी आसान हो गयी कि वह ये सोच ही नहीं पाये कि गोली और बहार दो लड़कियों
के नाम भी हो सकते हैं ।
मीर : साभार गूगल |
वैसे
ज़ाहिर का लुत्फ़ है छुपना
कम तमाशा
नहीं ये पर्दा कुछ ।
ख़ल्क़ की
क्या समझ में वो आया
आप से तो
गया न समझा कुछ ।
कुछ कहो
दूर है बहुत वो शोख़
अपने
नज़दीक तो न ठहरा कुछ ।
वस्ल उस
का ख़ुदा नसीब करे
'मीर' दिल चाहता है क्या क्या कुछ ।
वस्ल
उस का ख़ुदा नसीब करे/'मीर' दिल चाहता है क्या क्या कुछ । ‘दिल चाहता है क्या-क्या
कुछ’ का वज्न देखिए, उसमें अंतर्निहित भावना
और कामना देखिए । इस कामना में किस-किस तरह की चाहत की समायी है, क्या उसका बयान संभव है ? आरज़ू इतनी भर है कि – बस
ख़ुदा वस्ल नसीब करे । ख़ुदा का वस्ल नहीं बल्कि जिसकी चाहत है उस माशूक़ का वस्ल ख़ुदा
ही नसीब करे । मीर के तगज़्जुल का ज़ौहर है यह । शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी अस्करी साहब के
हवाले से लिखते हैं – “मीर का आशिक़ अपने माशूक़ से मुहब्बत का तलबगार नहीं है, और उसमें वो वक़ार है जो ख़ुद्दार इंसानों में होता है । वास्तविकता तो ये
है कि मीर का आशिक़ अपने माशूक़ से सिर्फ अफ़्लातूनी मुहब्बत (काल्पनिक प्रेम) नहीं
बल्कि हमबिस्तरी का तलबगार है ।” वस्ल की इस आरज़ू में,
हमबिस्तरी के लिए ख़ुदा से मन्नतें कबीर भी करते हैं :
वे
दिन कब आवेंगे माइ ।
जा
कारन हम देह धरी हैं, मिलिबौ अंग लगाइ ।
हौं जानूँ
जे हिलि-मिली खेलूँ तन मन प्रान समाइ ।
या कामना
करौ परपूरन, समरथ हौ रामराइ । ।
कबीर के ‘प्रेम’ और ‘काम’ संबंधी भावना के संबंध में प्रायः इस तरह की साखियों
और पदों का उल्लेख कम किया जाता है । ‘हम घर आए राजा राम
भरतार, हरि मोरा पिउ मैं राम की बहुरिया, दुलहा-दुलहिन मिलि गए फीकी परी बरात जैसी साखियों और पदों का उल्लेख
बार-बार किया जाता है ।
दरअस्ल, हमें यह समझना चाहिए कि
कवि अपनी शाइरी में एक प्रिय की या माशूक़ की रचना कर लेता है । उसको आप अलौकिक
मानें या लौकिक, इससे उसको बहुत फर्क नहीं पड़ता । इसे आप
संस्कृत, अरबी, फ़ारसी, हिंदी, उर्दू, अँग्रेजी सभी
काव्य-परंपराओं में ख़ोज सकते हैं । वस्तुतः यही ‘अन्य’ की ‘आत्म’ में और ‘आत्म’ की ‘अन्य’ में ख़ोज और स्थापना-प्रतिस्थापना है । कबीर, मीरा, महादेवी, आदि के यहाँ आप इसकी ख़ोज कर सकते हैं ।
फ़ारसी शायरी तो इसके बिना चल ही नहीं सकती । उर्दू में मीर के यहाँ, ग़ालिब के यहाँ इसकी शिनाख़्त की जा सकती है । इश्क़ में आत्म को अन्य के
जरिए व्यक्त करना, कला की खूबसूरती है । आशिक़ और माशूक़ तो इस
अभिव्यक्ति में असल होकर भी फ़िक्सनल किरदार की तरह नज़र आते हैं । मज़ा तो इसमें है
कि ‘अन्य’ कब ‘आत्म’ में और ‘आत्म’ कब अन्य में
समाता जाता है, इसका पता ही नहीं चलता । कब वस्ल है और कब
हिज़्र इसकी पहचान मुश्किल हो जाती है । इसलिए इश्क़ केवल एक भावना के रूप में नहीं
बल्कि जीवन के हमारे समस्त हेतु की अपने से अन्य में स्थापना है । अर्थात प्रेम वह
है जो, जीवन में हमारी समस्त रुचि को अन्य में केन्द्रित कर
देता है । इसे वही व्यक्ति कर सकता है, जो अहं को विलयित कर
सके । संभवतः इसीलिए भक्तों अथवा सूफियों की तल्लीनता और ख़ुदसुपुर्दगी के संदर्भ
से इसे जोड़कर देखा गया हो । इश्क़ की ख़ुदसुपुर्दगी में अना (स्व) सबसे बड़ा बाधक
होता है । कबीर की उस साखी की पंक्ति – सीस उतारे हाथ करि सो घर पैठे माँहि – का निहितार्थ
और कुछ नहीं, इसी अना को छोड़ना है । शीश अर्थात बुद्धि, होशियारी, चालाकी । गुणा-गणित, स्व, स्वार्थ सब को त्याग कर,
उतारकर आने पर ही इस घर में प्रवेश मिल सकता है । कबीर और मीर दोनों की शायरी में कई
चीजें एकसा हैं । मसलन, दोनों ही आमफ़हम बोली को सहजता और
सादगी से अपनी कविता में बरतते हैं । ‘लहजा-ए-आम’ दोनों की भाषा है ।
आलोचक गोपीचन्द नारंग ने तो मीर को ‘मौखिक परंपरा का अंतिम
कवि’ तक घोषित किया है – “मीर शाइरी के तहरीरी पहलू के नहीं
मौखिक पहलू यानी सुनने या सुनाने के अंदाज के प्रतिनिधि हैं । जगह-जगह उन्होंने
अपनी ‘बातों’ को ‘कहानी’ या ‘राम कहानी’ के रूप से ही परिभाषित किया है- फुर्सते ख़्वाब नहीं, ज़िक्रे बुतां से हमको/रात दिन राम कहानी सी सुना करते हैं ।” कबीर तो
अपनी कहने और सुनाने के लिए जाने ही जाते हैं – कहत कबीर सुनो भाई साधो । दूसरी
चीज जो कबीर और मीर में समान है, वह है इन दोनों का ख़ुद पर
हँसना और अपना ही मज़ा लेना । परंतु, इन दोनों में समानता के
धरातल पर जो एक चीज सबसे अधिक रेखांकित करने वाली है, वह है
इश्क़ में ख़ुदसुपुर्दगी (आत्मसमर्पण) और महवियत (तल्लीनता) । प्रेम में आत्मसमर्पण
और तल्लीनता दोनों में एक जैसी है । हमारे ये दोनों ही अदीब इश्क़ में जिंसी वस्ल
को ऐंद्रिक-पवित्रता की अप्रतिम ऊँचाई प्रदान करते हैं । वस्ल, हिज़्र और इंतज़ार में दोनों कहीं-कहीं अद्भुत रूप से एक जैसे हैं –
कै
बिरहिनि को मींच दै कै आपा दिखलाय ।
आठ पहर का
दाझना मो पै सहा न जाय । ।
x x x
ठहरा है
रोना आठ पहर का मिरा इलाज़
तस्कीने-दिल
है यानी कुछ इस दवा के साथ ।
कहने का अर्थ यह है कि जिस भक्तिकालीन
चौखटे में कबीर कविताई कर रहे थे, उसकी संरचना से वह छूट नहीं सकते थे । प्रेम और उस प्रेम में विरहातुर
मिलन की उद्दाम कामना की अभिव्यक्ति उस चौखटे, उसके शास्त्र
और व्याकरण से बाहर जाकर नहीं हो सकती थी, पर उन रूपकों, प्रतीकों और बिंबों का लोकपरक निहितार्थ तिरोहित नहीं किया जा सकता । अतः
कबीर के पदों का ‘प्रेम-प्रतीकवाद’ और ‘नैतिक-मर्यादावाद’ के तहत
आध्यात्मिक अर्थ निरूपण किया जाना महज़ इश्क़ के लौकिक रूप को एक आवरण के तहत, सेंसर के तहत स्थंतारित करना भर है । क्योंकि इश्क़ में वह ताक़त होती है, जिसके चलते पापबोध, चरित्रहीनता, सामाजिक-धार्मिक रूढ़िवाद, सामंती और शास्त्रीय
नैतिकता के नाम पर बनी धर्म, शास्त्र,
पंडित, मुल्ला, सुल्तान, सबकी सल्तनतें हिल जाती हैं । कबीर के बारे में प्रचलित तरह-तरह की
किंवदंतियों में से एक यह भी प्रचलित है ही कि कबीर का अपनी पत्नी लोई के अलावा एक
औरत से इश्क़ था । जिसकी पहचान एक नर्तकी के रूप में की गई है और जिसका नाम धनिया
या रमजनिया बताया जाता है । जिसके बारे में कहा जाता है कि वह अत्यंत ही रूपवान थी
। प्रभाकर माचवे ने कबीर पर साहित्य अकादमी के लिए लिखे मोनोग्राफ़ में लिखा है –
“सनातनी ब्राह्मणवादी कट्टरपंथियों ने कबीर को बदनाम करने के लिए एक बुरे चाल की
औरत से कबीर की ‘मिलाई’ की अफ़वाह
फैलाया ।” प्रभाकर माचवे ब्राह्मणवादी कट्टरपंथियों को कोस तो रहे हैं, पर क्या ख़ुद उनकी भाषा में जिसे ‘बुरे चाल की औरत’ कहा गया है, वह उनकी मानसिकता को ज़ाहिर नहीं करता ? मीर के संबंध में तो न उनके इश्क़ के न जाने कितने क़िस्से हैं । उनकी
शायरी में आशिक़ और माशूक़ का भेद अनेक जगहों पर मिट जाता है । कई जगहों पर तो इसका
मेल इतना गहरा है की उनको अम्रदपरस्त (समलैंगिक) तक कहा गया । फ़ारूक़ी ने अंदलीब
शादानी के एक लेख ‘मीर साहब का एक ख़ास रंग’ का इस संबंध ज़िक्र किया है । वह लिखते हैं – “मैं इस रुझान या आकर्षण का
बचाव नहीं करता न इसकी निंदा करता हूँ । मैं ये भी दावा नहीं करता की मीर यक़ीनन
अम्रदपरस्त थे और न फ़िराक़ साहब की तरह ये कहता हूँ कि दुनिया के अक्सर बड़े लोग
अम्रदपरस्त हुए हैं । शायराना इज़्हार की हद तक अम्रदपरस्ती के अशआर में मीर के
यहाँ ख़ुद पर व्यंग्य करते हुए, ख़ुद अम्रदों पर व्यंग्य करते
हुए और अम्रदों से दिलचस्पी पर आधारित हर तरह के अच्छे-बुरे शेर मिल जाते हैं ।” बहरहाल, कबीर और मीर दोनों के यहाँ ‘प्रेम’ और ‘काम’ में कोई भेद नहीं है
। उनके लिए काम का अर्थ प्रेम और प्रेम का अर्थ काम है । इस प्रेम और काम के लिए कबीर
के यहाँ भक्ति को ज़रिया मान सकते हैं । इसे प्रेम की भक्ति कहना हो तो कह सकते हैं, भक्ति जनित प्रेम नहीं और अगर ‘भक्ति-प्रेम’ कहे बिना काम न चले तो फिर उन्हें जयदेव की परंपरा में देखना चाहिए ।
कबीर ने एक साखी में जयदेव का उल्लेख इस तरह से किया है – गुरु परसादी जैदेव नामा, भगति प्रेम इनही है जाना । ‘भारतीय परंपरा’ में यदि ‘भक्ति’ ‘प्रेम’ और ‘काम’ को देखना-समझना हो तो उसके ब्रांड एंबेसेडर कालिदास और जयदेव होंगे । ‘गीत गोविंद’ के शुरू का एक श्लोक है –
यदि
हरि स्मरणे सरसं मनो ।
तद
विलास कलासु कुतूहलम ॥
मधुर
कोमलकान्त पदवालीम ।
ऋणु
तदा जयदेव सरस्वतीम ।।
इस श्लोक में जयदेव कहते हैं कि माँ
सरस्वती आपका ऋणी हूँ कि मधुर कोमलकान्त पदावली में, विलास कला कुतूहल के ब्याज से हरिसमरण सरस
और मनोरम बन सका । ‘विलास कला कुतूहल के ब्याज से हरिस्मरण’ । अब आलोचक इसे भक्त की अत्यधिक विनयशीलता, पामरपना
आदि कह सकते हैं । पर कबीर तो साफ़ तौर पर कह गए हैं – ‘काम
मिलावै राम कूँ जो कोई जाँणे राखि’ । यह गोस्वामी तुलसीदास
से भिन्न रामरति है । तुलसीदास एक कामी पुरुष की नारी के प्रति और लोभी की धन के
प्रति जो आसक्ति होती है, उसी से राम के प्रति आसक्ति की साम्यता
की बात करते हैं – ‘कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय
जिमि दाम/तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम’ । जबकि
कबीर के यहाँ काम, राम से मिलने का ज़रिया है, जो इसे जान गया वह पा गया । इसे आचार्य रजनीश ने आगे चलकर अपना दर्शन
बनाया । हिंदी के मशहूर कवि कुँवर नारायण कविता की एक परिभाषा रचते हुए कहते हैं –
“कबीर का ईश्वर ‘प्रेम’ है जो मनुष्य
के ‘अनुभव-ज्ञान’ का मूल तत्व है
।...उन्होंने मंदिर, मस्जिद में स्थापित ईश्वरोन से जुड़े झूठ
और पाखंड का कड़ाई से विरोध किया और ईश्वर के अर्थ को सबके प्रति ‘प्रेम-भावना’ से जोड़ा । कविता
कहीं मनुष्य की इस आत्म-संस्कृति को समृद्ध रखने की एक विनम्र चेष्टा है ।” इसलिए
कबीर के यहाँ जप, तप, साधना, अभिनय ये सब तो माशूक़ को मनाने और उसे पाने के लिए किए गए करतब हैं, जरिया हैं । मालिक मोहम्मद जायसी ने, जो कबीर से
थोड़े ही समय बाद पैदा हुए थे, कबीर को याद करते हुए
इशारों-इशारों में एक जगह लिखा है – ‘प्रेम तंतु नित
ताना-तनई/जप तप साध सैकरा भरई’ । प्रेम के लिए जप, तप, साधना सभी पानी भरते हैं । इसमें सबसे अधिक
ध्यान देने लायक पद है – ताना-तनई । इस ताना-तनई का जौहर देखिए, यह बुनकर कबीर के संबंध में ताना-बाना तो है ही,
लेकिन प्रेम के संबंध में इस तना-तनी की अर्थ-छटा ही निराली होती है । इश्क़ के
ताने-बाने में बिना इस तनातनी के वह कशिश और वह लज़्ज़त ही नहीं पैदा होती, जिसकी दरकार होती है । जिन्होंने इश्क़ किया है या करते हैं, वो इस ‘ताना-तनई’ से ज़रूर वाकिफ़ होंगे । जिन्होंने इश्क़ नहीं किया, ‘सीस उतार’ कर हाथ में रखने से डरते रहे, उनकी बदनसीबी पर मीर का ये शे’र अर्ज़ करता हूँ –
क्या
हक़ीक़त कहूँ कि क्या है इश्क़
हक़-शनासों
के हाँ ख़ुदा है इश्क़ ।
और तदबीर
को नहीं कुछ दख़्ल
इश्क़ के दर्द
की दवा है इश्क़ ।
इश्क़ है
इश्क़ करने वालों को
कैसा कैसा
बहम किया है इश्क़ ।
कौन
मक़्सद को इश्क़ बिन पहुँचा
आरज़ू
इश्क़ मुद्दआ है इश्क़ ।
कबीर के यहाँ एक पद आता है ‘मरजीवा’ । यह ‘मरजीवा’ कौन है ? यह वह आशिक़ है जो इश्क़ में जी-जी कर मरता है और मर-मर कए जी उठता है ।
ग़ालिब को याद करें, क्या ख़ूब कहा है – ‘मरते हैं आरज़ू में मरने की/मौत आती है पर नहीं आती’ । अतः इसे इश्क़ की ख़ूबी कहिए या कि ख़राबी, पर सच तो
यही है कि इश्क़ के बिना अदब कहाँ । मीर तो अपने बाद आने वालों के लिए कह गए हैं, कोई
तो हमारे बाद इस फ़न का माहिर आएगा :
बाद हमारे इस फ़न का जो कोई माहिर होवेगा
दर्द
अंगेज़ अंदाज़ की बातें अक्सर पढ़-पढ़ रोवेगा ।
सच तो ये है कि इश्क़ एकसाथ रहमत और और
अज़ाब दोनों है । शायद यही उसका सार है, यही उसकी ख़ूबसूरती, इसमें ही उसका नूर है ।
संदर्भित पुस्तकें :
1.
कबीर वचनावली : अयोध्या प्रसाद उपाध्याय ‘हरिऔध’ (संपा.) श्याम सुन्दर दास, नागरी प्रचारिणी सभा,
वाराणसी
।
2.
दीवान-ए-मीर : (संपा.) अली सरदार ज़ाफरी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली ।
3.
जिक्र-ए-मीर : मीर तक़ी मीर, आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली ।
4.
कबीरदास : (संपा.) हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली ।
5.
हिन्दी साहित्य का इतिहास : रामचन्द्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी ।
6.
तसव्वुफ़ और सूफ़ी मत : चन्द्र्बली पाण्डेय, सरस्वती मंदिर प्रकाशन, बनारस ।
7.
मीर की कविता और भारतीय सौंदर्यबोध
(शेर-ए-शोरअंगेज़ का हिन्दी अनुवाद) : शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी, अनु. – सुरेन्द्र राही, दीपक रूहानी, संपा. : कृष्णमोहन, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली
8.
Power/knowledge: Foucault, M., & Gordon,
C., Selected interviews and other writings, Pantheon
Books, New York.
9.
One hundred poems of
Kabir: Translated by Ravindranath Tagore, Assisted by Evelyn Underhill,
Macmillan, India.
10. मीनिंग ऑफ लव : व्लादिमीर सोलोव्येव : प्रेम का अभिप्राय (हिन्दी अनुवाद) – अनु. नंदकिशोर
आचार्य, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर ।
11. कबीर (मोनोग्राफ़) : प्रभाकर माचवे, साहित्य अकादमी, दिल्ली ।
12. दीवान-ए-ग़ालिब : (संपा.) अली सरदार ज़ाफरी, जिया प्रकाशन, दिल्ली ।
13. मीर : जीवन, समीक्षा, व्याख्या और काव्य : रामनाथ सुमन, काशी ।
14. उर्दू पर खुलता दरीचा : गोपीचंद नारंग, वाणी प्रकाशन, दिल्ली ।
15. दिल्ली था जिसका नाम : इंतिज़ार हुसैन, हिंदी अनु. : शुभम मिश्र, सेज (SAGE) पब्लिकेशन, इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली ।
(9 अक्टूबर, 2022 को कानपुर में ‘अकार’ पत्रिका की ओर से उक्त विषय पर आयोजित कार्यक्रम में टूटे-फूटे नोट्स के सहारे बोले हुए का संवर्द्धित, संशोधित और लिखित रूप ।)
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