अनुपम मिश्र की स्मृति में :
गांधी की बेदख़ली वाले समय में
एक अनुपम गांधीवादी का स्मरण
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| विनोद तिवारी |
बीसवीं शताब्दी जहाँ आर्थिक संरचना के
स्तर पर ‘पूंजीवाद’, राजनीतिक-सामाजिक संरचना के स्तर पर ‘समाजवाद’ और सांस्कृतिक विकास के स्तर
पर ‘परंपरा व आधुनिकता’ के विचारों, बहसों और संघर्षों की सदी रही
है, वहीं इक्कीसवीं शताब्दी ‘पर्यावरण संकट’ पर विचारों, बहसों और संघर्षों की सदी होगी
। इसकी चिंता भूमंडलीय स्तर पर बीसवीं सदी के आखिरी एक-दो दशकों से दिखने लगी थी ।
सम्मेलनों, प्रदर्शनों, धरनों,
स्वयंसेवी समूहों आदि के द्वारा बहसों,
चर्चाओं, सिद्धांतों, नियमों, का विश्वव्यापी विस्तृत ‘एक्शन प्लान’ बनाया गया, पर ठोस जमीन पर नतीजा सिफ़र रहा
। पर्यावरण संबधी हर साल की चेतावनी भरी रपटों से इसे जाना जा सकता है । ये भयानक
रपटें बहुत डराती हैं । परिस्थितिकी संकट पर काम करने वाले प्रसिद्ध विद्वान रणधीर
सिंह ने ‘नेचर’
पत्रिका की के हवाले से एक ऐसी ही रिपोर्ट का उल्लेख अपनी पुस्तक ‘Contemporary Ecological Crisis : A Marxist View
- 2009’ (जिसका हिन्दी अनुवाद ‘पारिस्थिकी संकट और समाजवाद का
भविष्य’ नाम से श्री जीतेंद्र गुप्ता
ने किया है) में किया है – “अगले 50 वर्षों में जिस तरह से पर्यावरणीय परिवर्तनों
की संभावना है, उससे एक चौथाई जंगल और
जीव-जन्तु नष्ट हो जाएँगे । धरती पर वर्ष 2050 तक दस लाख से ज्यादा प्रजातियाँ
विनष्ट हो जाएँगी ।...ग्लोबल वार्मिंग के समकालीन परिदृश्य के परिणामस्वरूप दूसरी
विध्वंसक समस्याओं के बीच एक समस्या समुद्र के जल स्तर का बढ़ना भी है (अनुमान यह
है कि वर्ष 2100 तक समुद्र का जल स्तर 15 से 59 सेंटीमीटर बढ़ जाएगा) । आर्कटिक और
अंटार्कटिक, दोनों में ही जिस तरह से बर्फ
पिघल रही है, उसी गति से पहाड़ी ग्लेशियर भी
पिघल रहे हैं । वेनिस तो वास्तव में एक भूतहे शहर में तब्दील हो गया है, यहाँ केवल वे ही लोग रह रहे
हैं जिनका संबंध पर्यटन और व्यापार से है । बांग्लादेश,
मालदीव, दक्षिण-पूर्व एशिया और प्रशांत
महासागर के द्वीप-समूहों के निम्न-सतह के इलाके समुद्री सतह के ऊपर बढ्ने से
सर्वाधिक असुरक्षित माने जा रहे हैं । सूखे और अर्द्ध सूखे इलाकों का मरूस्थलीकरण
बहुत तेज़ी से हो रहा है जिससे कृषि उत्पादकता निरंतर घटती जा रही है ।...कज़ाकिस्तान
के आधे से ज्यादा बड़े घास के मैदान नष्ट हो चुके हैं जिंका दोबारा अस्तित्व में
आना नामुमकिन है ।” पानी का बढ़ना और पानी का विलुप्त हो जाना दोनों ही खतरनाक होते
हैं । सोचिए, जहाँ एक ओर पारिस्थतिकी
असंतुलन से समुद्र का तल बढ़ता जा रहा है,
ग्लेशियर पिघल रहे हैं,
कई सभ्यताओं और संस्कृतियों का अस्तित्व खतरे में हैं,
वहीं दूसरी ओर पानी के खत्म होते जाने से जो सामाजिक असंतुलन पैदा हो रहे हैं वह
कम खतरनाक नहीं हैं । रणधीर सिंह ने अपनी उपर्युक्त पुस्तक में एक अन्य रिपोर्ट के
हवाले से उन खतरों की ओर इशारा किया है - “ब्रिटेन स्थित विकास संस्था ‘टियरफंड’ द्वारा जारी की गयी एक रिपोर्ट
‘रनिंग ऑन इंपटी’ का कहना है कि ईस्वी सन् 2025
तक दुनिया में तीन में से दो व्यक्तियों को पानी की कमी का सामना करना पड़ेगा और
धीरे-धीरे हम, ‘जल विस्थापित’ जैसी एक बिलकुल नयी परिघटना के
गवाह होंगे, जहाँ दसियों लाख लोगों को पीने
के पानी की तलाश में बेघरबार होना पड़ेगा ।” स्पष्ट है कि,
अब तक जो विस्थापन की धारणा थी,
वह जल को रोककर बांध बनाए जाने या हर साल बाढ़ आने के चलते वह इलाका छोड़कर चले जाने
वालों के साथ परिभाषित होती थी,
लेकिन जल की कमी के कारण लोग उसकी तलाश में अपना घरबार छोड़कर निकल पड़ें तो क्या
स्थिति होगी । कल्पना कीजिये कि सब तरह की सुख-सुविधाओं से लैस ‘स्मार्ट सिटीज’ पर पानी के संकट से विस्थापित
जनता अगर पानी के लिए हमला बोल दे तो फिर कैसी स्थिति उत्पन्न होगी इसका अनुमान
लगाया जा सकता है ।
इन बेहद डराने वाली भयानक चेतावनियों
के बावजूद हमारी असीमित उपभोक्तावादी प्रवृत्ति पर कोई असर नहीं है । भूमंडलीय
बाज़ार ने इसको आज और बेलगाम बनाया है । नाज़-नखरे के साथ इसे इतना रिझाऊ बनाया गया
है कि आप इसके चंगुल से बच नहीं सकते । उपभोक्तावाद का इतना महिमामंडन और उसका
इतना पसारा पहले कभी नहीं था । आज जब कोई आदमी इस कंजूमरिज़्म के विपरीत अपने को
बचाकर अपनी धुन और ज़िद के साथ सहज,
सरल और सादा जीवन को महत्व देता है तो सच में विश्वास करना मुश्किल हो जाता है कि
ऐसे समय में, क्या ऐसा भी कोई आदमी हो सकता
है ? पर,
अभी भी कुछ लोग हैं । अनुपम मिश्र एक ऐसे ही आदमी थे । सरल, सादे,
विनम्र, हँसमुख, पोर-पोर खाँटी मनुष्य । उनके
खुरदुरे चेहरे पर स्निग्ध उज्ज्वल चमक पानी की ही तरह बिना भेद-भाव किए सबके लिए
अगाध आत्मीयता साथ मौजूद रहती थी । इस दौर में भी उनका मोबाइल, टीवी,
मोटरकार आदि से कोई रिश्ता कायम न हो सका था ।
गांधी को अपने आचरण में इस कदर जीने वाले अनुपम मिश्र के असमय चले जाने से बहुत
कुछ अधूरा रह गया जिसे वे ही पूरा कर सकते थे । अनुपम मिश्र भूमंडलीकरण के इस
हाहाहूती छल और विकार को,
उसके मनुष्य-विरोधी जंजाल को,
उसकी चकाचौंध को,
उसकी निर्बाध लूट को ‘देश
में ही विदेश’ विकसित होने की तरह देखते थे ।
वे लिखते हैं – “देश में क्या पानी की कमी है?
हर साल भयंकर बाढ़ आती है और भयंकर सूखा पड़ता है ।
प्रकृति तो अपना हिसाब-किताब बराबर रखती है,
आर्द्रता और शुष्कता का । यह विडम्बना क्यों घटित होती है जब कि हमें इतना पानी
मिलता है । संकट प्राकृतिक नहीं मानवीय है । मानवीय शब्द गलत नहीं, अचकचा लगता हो तो व्यवस्थात्मक
कर लीजिये । संकट मूलत: औपनिवेशिक दासता की प्रवृत्ति का है । दासता की मनोवृत्ति
आत्मावमानना की होती है । दासता अपनी हर चीज से घृणा करती है या उसकी अवमानना करती
है। अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपने इतिहास, अपनी चमड़ी के रंग से भी । वह
उद्धार केवल मालिक की तरह बनने या होने में देखती है । इसीलिए जागरण और स्वाधीनता
का आन्दोलन आत्मविश्वास को जगाने के स्वर में फूटता है । यह आत्मविश्वास
अन्धराष्ट्रवाद में भी बदल सकता है । बदल जाता है । हमारे देश में अंग्रेजी राज, अंग्रेजी शिक्षा ने कुछ अच्छा
भी किया है, स्वार्थानुरोध के कारण, किन्तु उन्होंने हमारी अपनी
देसी वैज्ञानिक उपलब्धियों और चेतना को दीर्घकाल के लिए कुंठित कर दिया है । यह
क्रम अभी खत्म नहीं हुआ है। यह विचारणीय है कि राजनैतिक दृष्टि से आज़ाद होने के
बाद भी हम मानसिक तौर पर पहले से अधिक स्वतंत्र हुए हैं या अधिक परमुखापेक्षी हुए
हैं । विचार करते समय यह याद रखें कि तथाकथित विकसित देश कच्चा माल ले कर सिर्फ
डिब्बाबंद माल ही बेचकर हमारा शोषण नहीं करते,
वे जानकारी संकलित करके हमारे देश में डिब्बाबंद
विचार, वैचारिक, सैद्धांतिक समीकरण भी पाटते
हैं। साहित्यिक विचार, दर्शन, स्वास्थ्य, भोजन,
संस्कृति, मनोरंजन, खेलकूद,
सबसे ज्यादा शिक्षा के क्षेत्र में । हम अपनी ही
जानकारी से अपनी परिस्थितियों में अनुकूल न विचार बना पाते हैं, न तकनीक । वैज्ञानिकता-विज्ञान
के क्षेत्र में बढ़ी हुई चामत्कारिक जानकारी का उपयोग हम अपनी जरूरतों के अनुसार
नहीं करते । उसका उपयोग दूसरे लोग - देश के बाहर कैसे होता है, इसके लिए हम अपने आपको
परिवर्तित करने का ढोंग रचते हैं । इससे भयंकर सामाजिक विषमता पैदा होती है । देश
में विदेश पैदा होता है ।”
दुनिया भर में पर्यावरण से उत्पन्न संकट से दुनिया को बचाने के लिए जब यह कहा जा रहा था कि, “इस संकट से बचने के लिए आधुनिक विज्ञान और तकनीकी को पारंपरिक ज्ञान और तरीकों से जोड़ने की अधिक जरूरत है”, उसके पहले से अनुपम मिश्र सुरक्षा और संरक्षा की अत्याधुनिक तकनीकी के बरक्स पारंपरिक ज्ञान और तरीकों से ही यह काम कर रहे थे । अनुपम मिश्र पिछले चार दशकों से पानी को अपने अंदर जी रहे थे, उसके बढ़ने-घटने को तौलते हुए उसको संतुलित कर रहे थे । उनकी पुस्तकें – ‘आज भी खरे हैं तालाब’, ‘राजस्थान की रजत बूंदें’, ‘तैरने वाला समाज डूब रहा है’ उनकी चिंता और कर्म की बेमिसाल दुनिया रचती हैं । हम हिंदी वालों के लिए चिंतन और ज्ञान की अमूल्य थाती । हम अनुपम जी को इसलिए भी अपने बहुत नजदीक पाते हैं कि उन्होंने अपना सारा लेखन हिंदी में किया, उस हिंदी में जिस पर हर छोटा-बड़ा बेहिचक यह आरोप लगाने से नहीं चूकता कि हिंदी चिंतन और ज्ञान की भाषा नहीं है । उत्तरी बिहार में हर साल बाढ़ के चलते भीषण तबाही होती है, पर आज तक उससे निपटने का कोई माकूल उपाय नहीं किया जा सका है । परस्पर, एक-दूसरे पर आरोप मढ़ने के अलावा कुछ करने की पहल हो, अब तक ऐसा नहीं देखा गया । अनुपम मिश्र अपनी पुस्तक ‘तैरने वाला समाज डूब रहा है’ में जिस समझ के साथ इस त्रासदी को पैदा करने वाली कमियों को रखते हैं वह कोरा सिद्धान्त नहीं है, वरन् विकास के उस मॉडल की पोल खोलने वाला एक सटीक विश्लेषण है जिस पर देश को आगे बढ़ाने का जुमला उछाला जाता है – “पिछले सौ-डेढ़-सौ साल में हमारे समाज ने ऐसी बहुत सारी चीजें की हैं जिनसे उसका विनम्र स्वभाव बदला है और उसके मन में थोड़ा घमंड भी आया है । समाज के मन में न सही तो उसके नेताओं,
के योजनाकारों के मन में यह घमंड आया है । समाज ने पीढ़ियों से, शताब्दियों से, यहां फिसलगुंडी की तरह फुर्ती से उतरने वाली नदियों के साथ जीवन जीने की कला सीखी थी, बाढ़ के साथ बढ़ने की कला सीखी थी। उसने और उसकी फसलों ने बाढ़ में डूबने के बदले तैरने की कला सीखी थी। वह कला आज धीरे-धीरे मिटती जा रहीसदियों से ऐसी मान्यता है कि मनुष्य जाति का विकास मीठे जल-स्रोतों के मुहानों पर ही हुआ। जीवन के राग-विराग मनुष्य ने वहीं पर सीखे, लेकिन विकास की अंधी होड़ में मनुष्य के चारों ओर अंधेरा बढ़ता जा रहा है। इस अंधेरे की बाती को हम सब तथा हमारी तरह-तरह की नीतियाँ-प्रणालियाँ दिन-ब-दिन बुझाने की कोशिश में लगी हुई हैं । देश के अधिकतर लेखक तथा प्रकाशक पुस्तकें न पढ़ने वाले पाठकों का रोना रोते हैं। पर वे शायद ये भूल जाते हैं कि पुस्तकों का सच्चा अर्थ समाज के नाम लिखा प्रेम-पत्र होता है । और कितनी पुस्तकें ऐसी होती हैं, जिनमें समाज के लिए प्रेम भरा होता है? श्री अनुपम मिश्र की इस कृति ने यही काम किया है । 'आज भी खरे हैं तालाब' पुस्तक न केवल धरती का, बल्कि मन-माथे का अकाल भी दूर करती है ।”
पूरी दुनिया में पर्यावरण को लेकर जो
चिंता बढ़ी है, उस चिंता को लेकर जहाँ कुछ लोग
दुबले हो रहे हैं,
वहीं उसका धंधा कर उससे अधिक लोग मोटे हो रहे हैं । सरकारी नियोजन और ढेर सारी
स्वयंसेवी संस्थाएं,
इसका उदाहरण हैं । प्रभाष जोशी ने एक ऐसी ही स्वयंसेवी संस्था के एक व्यक्ति
द्वारा अनुपम जी को काम के बदले हर महीने सात हज़ार रुपये देने के प्रस्ताव और
अनुपम जी द्वारा उसे नकार दिये जाने का ज़िक्र किया है – “अनुपम ने कहा, विदेशी पैसा है, मैं जानता हूँ इफरात में मिलता
है, इसे लेने वालों का पतन मैंने
देखा है । अपने देश में काम हम दूसरों के पैसे से क्यों करें ? अगर आप अनुपम को जानते हों तो
उसका संकोच एकदम समझ में आ जाएगा । नहीं तो उसके मुंह पर तारीफ और पीठ पीछे बुद्धू
कहने वालों में आप भी शामिल हो सकते हैं ।” अनुपम मिश्र को एक बार नहीं अनेकों बार
ऐसे लोभ-लाभ के प्रस्ताव मिलते रहे होंगे पर उन्होंने सब कुछ को नकार कर चुपचाप
अपना पूरा जीवन पानी और पर्यावरण को समर्पित कर दिया । इंफोसिस ने उन्हें बुलाया कि,
वे आएँ और इंफोसिस फाउण्डेशन के लिए पानी और पर्यावरण का काम देखें । अनुपम जी
बेंगलुरु गये पर उन्होंने विनम्रता से इंफोसिस के लिए कार्य करने से मना कर दिया
और नन्दन नीलकेणि से कहा कहा कि,
‘आपके पास पैसा भले
बाहर का है लेकिन दृष्टि भारत की रखियेगा ।’ पर्यावरण के सिद्धांतकार के रूप
में दुनिया में भले ही उनसे बड़े-बड़े नाम मिलेंगे पर प्रकृति और पर्यावरण की मूल
रहन को समझने, जीने और बरतने वाले मनुष्य, उनके जैसे कम ही मिलेंगे । वे साफ तौर पर कहा करते थे कि, "केवल पर्यावरण की संस्थाएं खोल देने से
पर्यावरण नहीं सुधरता । वैसे ही जैसे सिर्फ थाने खोल देने से अपराध कम नहीं हो
जाते ।" वे सही अर्थों में मनुष्यता के हित में प्रकृति और
पर्यावरण को बनाए-बचाए रखने वाले एक सच्चे कर्मयोगी थे ।
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| अनुपम मिश्र |
चाहे मृत्यु को गाओ चाहे जवानी को
चाहे माटी को गाओ चाहे पानी को
तरल रखो प्राणों को सरल रखो बानी को ।
पुत्र
ने पिता की इस सीख को अपना जीवन बना लिया । स्कूली शिक्षा के दौरान रहीम का यह
दोहा मन और दिमाग में नाचता रहता था : ‘रहिमन
पानी राखिए बिन पानी सब सून/पानी गए न उबरे मोती मानुष चून ।’ अनुपम जी को मैंने जो भी दो-तीन बार देखा और जितना
भी पढ़ा उनमें इस दोहे की जीवित अर्थ-छवि पाया । अनुपम जी अक्सर राजनीति के गिरते
स्तर की तुलना पानी के घटते स्तर से करते थे । अब तो हाल यह है कि, यह गिरावट इतने निम्न स्तर तक पहुँच गयी है कि, पता नहीं उसका शोधन-संशोधन हो पाएगा या नहीं । जिस
समय-समाज और उसका नेतृत्व करने वाले लोगों में इतिहास बनाने का धीरज न हो, जो एक झटके में इतिहास बन जाने की कुत्सित कामना
में सब कुछ को बेदखल कर रहे हों,
नायकत्व की ऐसी लालसा वाले समय में,
अनुपम दा आप थे तो झूठ के खिलाफ सत्य के पक्ष में आवाज़ उठाने की हमारी हर छोटी-बड़ी
कोशिश को संबल मिलता था । आज अप नहीं हैं, पर आपका जिया हुआ जीवन और किया हुआ कार्य हमें
संबल देता रहेगा । आप ने पानी के ही उदाहरण से एक शिक्षा दी थी –“पानी जब बहता है
तो वह अपने सामने कोई बड़ा लक्ष्य नहीं रखता कि, मुझे तो बस महासागर से ही मिलना है । वह बहता चलता
है । सामने छोटा सा गड्ढा आ जाये तो वह पहले उसे भरता है, बच गया तो आगे बध चलता है । छोटे-छोटे ऐसे अनेक
गड्ढों को भरते-भरते वह महासागर तक पहुँच जाय तो ठीक । नहीं तो कुछ छोटे गड्ढों को
भरकर ही संतोष पा लेता है । ऐसी विनम्रता हम में आ जाय तो शायद हमें महासागर तक
पहुँचने की शिक्षा भी मिल जाएगी ।”



