शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी |
उत्तर प्रदेश सूबे के प्रतापगढ़ जिले में 1935 में पैदा हुए उर्दू ज़बान और अदब के नामवर आलोचक, दास्तानगोई के उस्ताद और कवि जनाब शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी का 85 साल की उम्र में इंतक़ाल हिन्दुस्तानी साहित्य और अदब की दुनिया के लिए एक बड़ा नुकसान है. फ़ारुकी साहब ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से 1955 में एम. ए. किया और ताजीवन वहीं के होकर रह गए. वे भारतीय डाक सेवा में मुख्य पोस्ट-मास्टर जनरल रहे. पेंसिलवेनिया यूनिवर्सिटी में साउथ एशियन रीज़नल सेंटर में प्रोफ़ेसर रहे. फ़ारूक़ी साहब में एक बौद्धिक तीखापन (शार्पनेस) था. अपने इस तीखेपन के चलते वे अदब की दुनिया में हमेशा सरगर्म अमल रहे. लोग इसे फ़ारूक़ी का गुरूर समझते थे पर दरअस्ल यह उनका एतमाद, उनकी स्टाइल थी जो एक जीनियस की पहचान होती है.
तीन खंडों में प्रकाशित उनकी आलोचना पुस्तक ‘शेर-शोर-अंगेज़’ (1973) मशहूर शायर मीर पर अन्यतम किताब है. इस किताब में जब उन्होंने मीर को लेकर जिस जदीदियत का परचम बुलंद किया उससे उर्दू अदब में जोरदार बहसों का आगाज़ हो गया. उनकी अन्य रचनाओं में 'शेर, ग़ैर शेर और नस्र (1973)', 'गंजे-सोख़्ता (कविता संग्रह)', 'सवार और दूसरे अफ़साने (फ़िक्शन)' और 'जदीदियत कल और आज (2007)' शामिल हैं. उन्होंने 1966 में इलाहाबाद से ‘शबखून’ नामक रिसाले का सम्पादन प्रकाशन किया जिसकी तेज़-तर्रार बहसों से उर्दू अदब में धूम मच गयी थी. फ़ारूक़ी साहब को साहित्य अकादेमी (उर्दू) और सरस्वती सम्मान से सम्मानित किया गया था. उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री सम्मान से और पाकिस्तान सरकार की ओर से ‘सितारा-ए-नवाज़ सम्मान’ से नवाज़ा गया था. वे इलाहाबादी अदब और तहज़ीब की एक मुकम्मल पहचान थे, उसकी शान थे. उनके होने से इलाहाबाद पूरा होता था. इलाहाबाद ही नहीं उनके जाने से हिन्दुस्तानी अदब का एक रौशन चिराग बुझ गया. अलविदा फ़ारूक़ी साहब. आइये पढ़ते हैं फ़ारूक़ी साहब के मशहूर नावेल 'कई चाँद थे सरे आसमां' पर यह लेख :
विनोद तिवारी
वक़्त के चेहरे को आईना-ए-हुस्न में देखना[1]
विनोद तिवारी
“पुराने लफ़्ज़ों को नए लफ़्ज़ों में बयान किया जा सकता है, बस हमआहंगी और हमअगोशी चाहिए . ”
वसीम जाफ़र (कई चाँद थे सरे-आसमां के एक किरदार)
वसीम जाफ़र अपने पिता के पक्ष से मशहूर शायर दाग़ देहलवी के दूर के रिश्ते में आते थे. इनके दादा उर्दू के मशहूर अदीब, आलोचक और अरूजी सलीम जाफ़र वज़ीर खानम की मास्टर्न ब्लेक से पैदा हुयी बेटी सोफिया उर्फ बादशाह बेगम के पोते थे. और वसीम जाफ़र इन्हीं सलीम जाफ़र के पोते थे. इस लिहाज से वसीम जाफ़र का एक दूर का रिश्ता वज़ीर खानम से बनता था. वैसे भी हिंदुस्तान में खासकर मुसलमान घरानों में रिश्ते और नातेदारियों की दाग-बेल बहुत दूर तक गहरे लगी पसरी होती थीं. वसीम जाफ़र के पिता शमीम जाफ़र ने एक एंग्लो-इंडियन लड़की पर्डिटा मार्टिमर से निकाह किया था जिसके पिता उस समय पूर्वी पाकिस्तान में किसी चाय बागान में मैनेजर थे. शमीम जाफ़र के इंतकाल के बाद पर्डिटा अपने बेटे वसीम जाफ़र और बेटी के साथ लंदन आ गयी. वसीम जाफ़र की शिक्षा-दीक्षा लंदन विश्वविद्यालय के मशहूर संस्थान ‘स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़’ में हुयी.
वसीम जाफ़र ने अपनी माँ के मंसूबों के खिलाफ खुद को अपने दादा सलीम जाफ़र की साहित्यिक और सांस्कृतिक अदबी रवायत से अपने को जोड़ना पसंद किया. सलीम जाफ़र को इस इल्म का बहुत गुमान था कि वे मशहूर शायर दाग़ देहलवी के रिश्तेदार हैं. उन्होंने दाग़ साहब की वालिदा वजीर खानम के बहुत से हालात किताबों, बुजुर्गों के संस्मरणों और बड़े-बूढ़ों से पूछ-पूछ कर जमा किए थे. वसीम जाफ़र ने यहाँ-वहाँ से वज़ीर खानम के बारे में सुने किस्सों और अपनी दादा की विरासत के आधार पर वज़ीर खानम के खानदान, उनके तौर तरीकों, उनकी बुलंदी और मशहूरियत के बारे में दरियाफ्त करते रहते. इस काम में उन्हें और सहूलियत हो गयी जब वे ‘विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूज़ियम’ के हिन्दुस्तानी चित्रकला विभाग में असिस्टेंट कीपर की नौकरी में लग गए.
यहाँ वे अपनी फुर्सत का ज्यादातर वक़्त ‘इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी’ में 18 वीं और 19 वीं सदी के दस्तावेज़ उलटने-पलटने में गुजारते. इन कागजातों में वे उस जमाने के ऐसे कुछ खानदानों और घरानों के हालात ढूँढने में मशरूफ़ रहते, गरज यह कि, ऐसी शख़्सियतों को जो अपने जमाने में तो बहुत मशहूर थे, लेकिन वक़्त ने उन्हें पन्नों के ढेर में दाब दिया था, तलाश कर बाहर निकाला जाय. इस खोज़बीन में वसीम जाफ़र कई बार कई तरह के सवालातों से रूबरू होते. कई बार वे खुद से पूछते थे-
“…क्या सियासी वज़ूहात को अनदेखा करके भी नए हिंदुस्तान की तरक़्क़ी में उन लोगों का पतन लाज़मी था, और अब हम लोग उनसे जितनी दूरी पर हैं, वहाँ से ये लोग कैसे नज़र आते हैं. आज उनके बिंब पर गुजरे जमाने केई स्याह धुंध है या तमन्ना की गुलाबी धुंध ? ये लोग अपने बारे में क्या सोचते थे ? वो खुद को क्या समझते थे और अपने दौर को किस रौशनी में देखते थे ? क्या उन्हें कुछ अंदेशा या ख़्याल था कि उनकी तहजीब की चादर इस तरह चीथड़े-चीथड़े होने वाली है कि उनके मूल्यों की व्यवस्था जलते हुए मुल्क का गाढ़ा धुआँ बनकर समंदर में घुल जाएगी और उससे जो अलगाव पैदा होगा उसकी खाई में यादें तबाह हो जाएंगी और गुम हो जाएंगी ?”
वसीम जाफ़र को यक़ीन था कि वो अपने सवालों के जवाब पा सकेंगे. शायद उन्हें मिला भी जिसे उन्होंने एक किताब की शक्ल दिया और यही किताब लंदन से एक वसीयतनामे के साथ आँखों के डॉक्टर और नस्साब[2] डॉ. खलील असगर फ़ारूक़ी को भेज दिया. आप कह सकते हैं कि ये जनाब आँखों के डाक्टर और नस्साब कोई और नहीं खुद शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ही हैं.
यह नॉवेल वसीम जाफ़र की किताब में दर्ज़ और डॉ. खलील असगर फ़ारूक़ी की याददाश्तों के सहारे वक़्त के उन्हीं दबे हुये पन्नों से जल्वाफ़रोज होते हुए किशनगढ़ (राजस्थान) से बजरिए कश्मीर, दिल्ली आ बसे मियां मख्सूसुल्लाह के परिवार की एक लाडली, मुहम्मद युसूफ़ सदाक़त की बेहद खूबसूरत (जिसकी तुलना किशनगढ़ शैली में प्रसिद्ध राधा के चित्र ‘बनी-ठनी’ से की गयी है), अदब और फन में बेहद ज़हीन बेटी वज़ीर खानम की मुहब्बत, फन, और जिंदगी की तलाश की एक ऐसी दर्द भरी दास्तान बनकर सामने आता है जो अब तक के उर्दू नॉवेल में बेजोड़ है.
शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी की हमआहंगी और हमअगोशी का एक बेहतरीन नमूना है ‘कई चाँद थे सरे-आसमां’. उर्दू दास्तानगोई और उसके उरूज़ की एक नायाब मिसाल. उर्दू में सन 2006 में जब यह उपन्यास पेंगुइन इंडिया से छपकर आया तो धीरे-धीरे इसकी चर्चा ने हिंदो-पाक की अदबी दुनिया में हलचल मचा दी. यह कहा गया कि इस हलचल के मुक़ाबले मिर्ज़ा हादी ‘रुस्वा’ का उमराव जान ‘अदा’ ही ठहरता है. [3] कोई इसे 21 वीं सदी की ही नहीं उर्दू फ़िक्शन की बेहतरीन किताब कहता है[4] तो कोई इसे एक बहुश्रुत, अद्भुत ऐतिहासिक उपन्यास (An erudite, amazing historical novel)[5] कहता है, किसी ने इसे ‘भारतीय उपन्यास के कोह-ए-नूर’[6] से नवाजा है. ईस्वी सन 2010 में इसी नाम से इसका हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुआ जिसे अनूदित किया है नरेश ‘नदीम’ ने. इसका अंग्रेजी अनुवाद सन 2013 में ‘The Mirror of Beauty’ के नाम से छपकर आया. अनुवाद खुद शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने किया है.
‘कई चाँद थे सरे-आसमां’ वज़ीर खानम नामक एक ऐसी ‘स्त्री’ की दास्तान है जो कोई ‘फिक्शनल कैरेक्टर नहीं, एक रीयल लाइफ की लड़की’[7] थी, जो किसी बड़े घराने की नहीं थी और जिसे ताजिंदगी ‘स्थायित्व की तलाश रही थी और जो चाहने से ज्यादा चाहे जाने वाली बनकर रहना चाहती थी’.[8]
एक महाकाव्य की तरह से यह उपन्यास वज़ीर खानम के इर्द-गिर्द ही घूमता है. अपने वजूद के साथ जहां-जहां वज़ीर खानम जाती हैं उपन्यास भी वहीं-वहीं चलता चला जाता है. उपन्यास के शुरुआत में उन तारीखों और तवारीखों का जिक्र हुआ है जहाँ से वज़ीर खानम के खानदान का नाभि-नाल जुड़ा हुआ है. वस्तुतः वज़ीर खानम के पूर्वज राजस्थान के किशनगढ़ के रहने वाले थे. किशनगढ़ कलम के मशहूर चित्रकार मख्सूसुल्लाह मियां इस खानदान के परदादा थे. मियां मख्सूसुल्लाह हिंदू थे या मुसलमान, यह उनका असली नाम था या उनका कोई और नाम था, साफ तौर पर किसी को मालूम नहीं. अगर मख्सूसुल्लाह मियां से वज़ीर खानम का रिश्ता जोड़ा जाय तो वे वजीर खानम के पिता मुहम्मद युसुफ सदाकत के परदादा थे. मियां मख्सूसुल्लाह के बेटे मुहम्मद याहया बड़गामी से दो बेटे हुये–मुहम्मद दाऊद बड़गामी और मुहम्मद याक़ूब बड़गामी.
मुहम्मद युसुफ सदाकात मुहम्मद याक़ूब बड़गामी के बेटे थे जिन्होंने फ़र्रुखाबाद की एक डेरेदारनी अकबरी बाई की बेटी असगरी से निकाह किया. इन्हीं असगरी बाई से मुहम्मद युसुफ सदाकार की तीन बेटियाँ हुईं– अनवरी खानम (छोटी बेगम), उम्दा खानम (मँझली बेगम) और वज़ीर खानम (छोटी बेगम). इस तरह से वज़ीर खानम उर्फ छोटी बेगम का रिश्ता जहां एक तरफ कश्मीर से था वहीं दूसरी ओर राजपूताने से भी था. मियां मख्सूसुल्लाह ‘1719-1748 में किशनगढ़ राज के एक छोटे से गाँव हिंदलवली का पुरवा में आबाद थे. ’[9]
इस गाँव का नाम ‘हिंदलवली का पुरवा’ इसलिए था कि यहाँ के लोग चिश्तिया सिलसिले के महान सूफी संत मुईनुद्दीन चिश्ती को बहुत प्यार करते थे, उनका सम्मान करते थे और राजपूताना ही नहीं पूरा हिंद ही मुईनुद्दीन चिश्ती को ‘हिंदलवली’ के नाम से नवाजता था. “क्या मुस्लिम, क्या गैर मुस्लिम सब ‘हिंदलवली’ का नारा लगते और अक़ीदा रखते कि ख़्वाजा कवाब भी देते हैं और खुश होकर करम भी फरमाते हैं. पहले तो एक ही गाँव था, जो अजमेर शरीफ़ से कुछ दूर ख़्वाजा साहब का चिल्ला नाम की बस्ती के करीब ‘हिंदलवली का पुरवा’. ”[10] बाद में तो कई गांवों ने इस मुबारक गाँव की तर्ज़ पर अपने गाँव का नाम रख लिया. मख्सूसुल्लाह का गाँव ‘हिंदलवली का पुरवा’ भी इनमें से एक था. इस गाँव में तीन घरों को छोड़कर बाकी की आबादी गैर-मुस्लिम थी. एक-दो पंडितों के, पाँच-सात घर राजपूतों के बाकी मुख्तलिफ़ कारीगरों के. चित्रकारी उनकी रोजी का जरिया था.
माना जाता है कि किशनगढ़ कलम की मशहूर तस्वीर ‘बनी-ठनी’ मियां मख्सूसुल्लाह ने ही बनाई थी. अंजाने में बनाई किन्तु दुर्भाग्य से यह तस्वीर महरावल के जमींदार गजेंद्रपति सिंह की बेटी मनमोहनी से हू-ब-हू मेल खाती थी. बस क्या था गजेंद्रपति सिंह के कानों तक यह खबर पहुँचते ही वह आग-बबूला हो उठा और मख्सूसुल्लाह को मारने के लिए ‘हिंदल का पुरवा’ को घेर लिया पर मियां को इसका अंदेशा था इसलिए वह पहले ही पुरवा छोड़कर जा चुका था. गजेंद्रपति सिंह ने मनमोहनी से हर तरह से पूछ-ताछ की, कि बताओ वह तुमसे कब कैसे कहाँ मिला था. पर वह चुप. सच में वह मिला हो तब तो उसे बताए. क्रोध से पागल गजेंद्रपति सिंह ने सरेआम मनमोहनी को मौत के घाट उतार दिया.
उधर मियां मख्सूसुल्लाह अपनी जान बचाकर एक काफिले के साथ जगह-जगह की धूल फाँकते श्रीनगर होते हुये बारामूला पहुँच गया. अब किशनगढ़ के इस कलाकार की कारीगरी और फ़न की नुमाइश अब झीलों और चीनारों के बीच होना था. अब कश्मीर ही मियां का घर हो गया और कश्मीरी कलम की कारीगरी और नक़्क़ाशी उसका फ़न.
“मियां ने काग़ज़ और लकड़ी पर बेल-बूटे बनाने का और मीनाकारी का फ़न सीख लिया और दो ही एक बरस में वो इन हुनरमंदियों का मर्दे-मैदान माना जाने लगा. उसकी फ़नकारी के आगे लोग उसके लहजे, उसकी सूरत-शक्ल, उसकी चाल-ढाल सबकुछ भूलकर उसे कश्मीर का ही बेटा समझ लेते.”[11]
मियां अब चितेरा से नक़्क़ाश बन गया. उसने बड़गाम की रहने वाली लड़की सलीमा से शादी कर ली और वहीं जा कर बस गया. सलीमा बेगम से ही मुहम्मद याहया बड़गामी का जन्म हुआ. नाम, शोहरत सबकुछ था पर मियां मख्सूसुल्लाह को किशनगढ़ नहीं भूलता, ‘बनी-ठनी’ चित्त से नहीं उतरती.
इन्हीं यादों को सँजोने के लिए उसने कांगड़ा कलम में किशनगढ़ कलम को मिलाकर हाथी दाँत पर ‘बनी-ठनी’ का एक सुंदर चित्र बना लिया. यह चित्र उसने अपने घर में एक ताक पर रख दिया था और हर शाम वहाँ एक चिराग जलाता था. जब कोई पूछता की यह किसका चित्र है तो वह साफ टाल जाता था. बाद में यही तस्वीर मियां के पोते– दाऊद और याक़ूब के लिए ऐसा सबब बनी जिसके चलते उन दोनों ने कश्मीर छोड़ दिया और राजपूताने में भटकते हुए फ़र्रुखाबाद होते हुए देहली आकर बस गए जहां वजीर खानम पैदा हुईं. आप सोच रहे होंगे कि वज़ीर खानम और उनके खानदान की जन्म-पत्री के तार सुलझाने और उन्हें जोड़ने के लिए मैंने इतनी लंबी कहानी पेश कर दी. पर विश्वास कीजिये बिना इस जन्म-पत्री को जाने आप इस उपन्यास में भटकाव के शिकार हो जाएँगे. यही कारण है कि उपन्यासकार खुद जब भी अवसर आता है एक नस्साब की तरह एक-एक चीज़ की दारियाफ़्त करते हुए रिश्तों की दग-बेल को स्पष्ट करता चलता है. इसमें उसे महारत हासिल है. वरना, इतनी लंबी नातेदारी को तरतीब दे पाना मुश्किल काम है. पर एक नस्साब के लिए यही मुश्किल उसका शौक है.
इस उपन्यास को पढ़ते हुए आपको बराबर यह लगेगा कि शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी एक बेहतरीन नस्साब ही नहीं अव्वल दर्जे के नक़्क़ाश भी हैं. शब्दों की नक़्क़ाशी भी एक कला है. उपन्यास में जो वर्णन हैं उनको पढ़ते हुए आप को ऐसा एहसास होगा कि एक-एक चीज जैसे नक़्श होकर सामने आ रही हो. एक उपन्यासकार के लिए इन दोनों चीजों का होना बहुत जरूरी है वरना किस्सागोई का मजा ही न आए. बहुतों को उपन्यास के लंबे-लंबे वर्णनों और ब्यौरों से उकताहट हो सकती है. वह ऊब सकता है, पर अगर कथानक की तारीख़ी और अदबी जरूरत के लिहाज से देखा जाय तो इस ऊब और उकताहट का कोई अर्थ नहीं. कारण कि, उपन्यास का कथानक काल्पनिक नहीं वरन वास्तविक किरदारों से बुना गया है. बहादुर शाह ज़फ़र, मिर्ज़ा ग़ालिब, दाग़ देहलवी, मलिका ज़ीनत महल, जैसे वास्तविक किरदार.
अर्नेस्ट हेमिंगवे ने लिखा है कि, “सचाई के साथ कहा गया किसी भी व्यक्ति का जीवन उपन्यास हो सकता है.”[12] ‘कई चाँद थे सारे आसमां’ उपन्यास में वज़ीर खानम का जीवन ऐसी ही कहन का नायाब नमूना है. वज़ीर खानम बचपन से ही अपनी सीरत और सूरत में अन्य दो बहनों से बिलकुल ज़ुदा थी. सात या आठ बरस की थी जब उसे अपने हुस्न और उससे बढ़कर उस हुस्न की कुव्वत और उस कुव्वत को बरतने के लिए अपनी बेजोड़ ताक़त का एहसास हो गया था. नौकर-चाकर, बाजारी, फेरीवाले, भिश्ती-सक़्क़े, फूलवाले, गाड़ीवान, व्यापारी यहाँ तक कि माँ-बाप तक को वह उँगलियों पर नचाती थी. उसके पिता मुहम्मद याक़ूब बड़गामी तो उसके इन लच्छ्नों को देख-देख कर हैरान होते, डरते और सोचते कि बड़ी होकर यह डोमनी क्या गज़ब करेगी. दस बरस की उम्र से ही उसका ज़्यादा वक़्त नानी के ऐशखाने में गुजरता. वहाँ उसने थोड़ा बहुत गाना-बजाना जरूर हासिल किया, वर्ना वहाँ उसकी असल तामील उन बातों की हुयी जिनको सीख समझकर औरत जात मर्दों पर राज करती हैं. ग्यारह बरस का होते-होते वह सारे कूचा रायमान क्या, आसपास के कूचों, गलियों और दरवाजों में मशहूर हो गयी कि लोग बहाने करके उसे देखने आते. शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने जिस दिलचस्पी और महारत के साथ इस चरित्र को तैयार किया है, जिस नक़्क़ाशी से, जिस हुनर से इसे उभारा है- उसके दौलते-हुस्न को, उसकी जहीनियत को, उसकी रंगत को, उसके नाक-नक़्श से लेकर पहनने-ओढ़ने के अंदाज तक- मशाअल्लाह वह बेहद उम्दा बन पड़ा है.
कहीं-कहीं तो फ़ारूक़ी साहब इन वर्णनों में इस कदर मशरूफ़ हो जाते हैं कि उन्हें इस बात का ख्याल ही नहीं रहता कि कलम भी थक गयी होगी, अब उसे थोड़ा सुस्ताने दिया जाय. पर नहीं, उन्हें तो वजीर खानम को ऐसा उभार देना है कि जो उसे देखे ‘वो अपने कपड़े फाड़ कर दीवाना हो जाय या फिर सर को दरबान की मेहरबानियों का अहसानमंद बनाकर उसके दरवाजे पर पड़ा रहे.’ जब भी इस तरह का अवसर उपस्थित होता है वे तीन-तीन, चार-चार पेज में वज़ीर खानम के दौलते-हुश्न की नक़्क़ाशी करते चले जाते हैं. यहाँ उनमें से कोई भी उद्धरण देने का मतलब है तीन-चार पेज़ सर्फ़ हों. पर वज़ीर खानम जैसी हुस्न की शहज़ादी के हुश्न और उसके नक़्क़ाश की नक़्क़ाशी की बानगी भी न दी जाय यह कुफ्र होगा. इसलिए बानगी के तौर पर इस वर्णन का एक अंश, जो कि, केवल जूतियों और पाज़ामे वाला ही अंश है ( क्योंकि, यह पूरा नख-शिख वर्णन चार पेज का है, जिसे दे पाना यहाँ संभव नहीं ) –
“वज़ीर खानम ने उस दिन तुर्की तर्ज़ के कपड़े पहने थे. पाँव में आसमानी रंग की काशानी मखमल और हिरन की खाल की नोकदार शीराज़ी (ये देहली में बनती थीं लेकिन शीराज़ी कहलाती थीं) जूतियाँ, बहुत पतली एड़ी और लंबी दौड़, दीवार बिलकुल न थी और न अड्डी ( जूती का पिछला हिस्सा जो एड़ी को ढकता था). एड़िया खुली हुयी थीं. जूतियों की नोकें भी शकरखोरे की चोंच की तरह बहुत लंबी और ऊपर उठी हुयी थीं और उनके सिरे पर जंगली मुर्गे के सुर्ख बीर-बहूटी जैसे पर के तुर्रे थे. जूतियों के हाशियों पर बारीक बेल थी जिसमें सफ़ेद और सुनहरे पुखराज टंके हुये थे. आदमी जूतियों की छब देखे तो देखता रह जाय. लेकिन उसके आगे का मंजर देखने के लिए शेर का कलेजा और तेंदुए की बेहयाई दरकार थी. ढाके के मलमल का पाजामा, इस कदर बारीक कि कूल्हों के गोले और रानों की लकीरें साफ़ नुमायां थीं. देखने वाले को मौका मिलता या हिम्मत जुटाकर वह कुछ देर खड़ा रहता तो दो काले सूरजों के बीच की लकीर की भी झलक वह कभी-कभी देख सकता था. लेकिन नहीं, अगर यह पाजामा इस कदर बदन को दिखाने वाला था तो फिर सामने वाले को पेडू का उभार और मीठे पानी के कुएं पर संदल की पट्टी यानी कोहे-ज़हरा का उभार और भी नाजुक ढलान की झलक मारती नजर आ सकती थी. लेकिन सामने का मंजर तो बिल्कुल समतल नजर आता था, सिर्फ पेट, जिसे मखमली आसमान या मिथुन का नक्षत्र कहें, जरा एक हल्के से इशारे की तरह कौंध जाता . ”[13]
इस दौलते-हुस्न के साथ-साथ वज़ीर खानम को अदब, शेरो-शायरी और संगीत में भी ख़ासा दिलचस्पी थी. उसने दिल से इन्हें सीखा भी. गला उसका शुरू से ही अच्छा था. उसे यमन, बसंत, बहार, बागेश्री, दादरा, चैती, बनारसी, ठुमरी इन सब पर दखल था. शायरी के मैदान में उसे ‘ज़ोहरा’ का तख़ल्लुस अपने उस्ताद मियां शाह नसीर से मिला था. शाह नसीर साहब उन दिनों रेख़्ता के शायरों में सबसे मशहूर शायर माने जाते थे. गुलिस्ताँ, बोस्ताँ, सादी की ग़ज़लें, हाफ़िज़ शीराज़ी का कलाम, खुसरो की ग़ज़लें, फ़ैज़ी की मसनवियाँ, मुहम्मद अफजल सरखुश और शाह नूरूल एन वाक़िफ़ के दीवान, रूमी की मसनवी, हज़रत मिर्ज़ा मज़हर ज़ाने-जानां का दीवान और उसके अध्ययन में शामिल थे. देहली के अक्सर उस्ताद, खासकर मियां मुहम्मद ताकी मीर, मिर्ज़ा सौदा, शेख जुरअत और मियां मुस्हफ़ी का बहुत सा कलाम उसका देखा हुआ था.
नए शायरों में वह मिर्ज़ा नौशा (मिर्ज़ा ग़ालिब) मियां ज़ौक़ और शेख नासिख़ को पसंद करते थी. ऐसी शख़्सियत थी वज़ीर खानम की फिर भला वह क्यों न अपना एक वजूद रखे. यही कारण है कि उपन्यास में इन सब बातों से ऊपर उपन्यासकार ने वज़ीर खानम के ‘स्त्री’ को, उसके वजूद और उसकी दृढ़ता को जिस ढंग से पेश किया है वह बेहद काबिले-गौर है. जिन समाजों में यह रिवाज एक सचाई की तरह लोगों के दिलों-दिमाग पर इस कदर काबिज़ हो चुका हो जिसमें एक एक स्त्री का वजूद बिना किसी मर्द के साये के कोई मानी नहीं रखता. पर वज़ीर खानम सदा से ही इस खयाल की थी कि उसे किसी मर्द के साथ साधारण स्त्रियों की तरह बंधकर गुजर-बसर करते हुये ज़िंदगी नहीं काटनी है. अपनी दोनों बड़ी बहनों से शादी के मसले पर वह बार-बार इस बात को रखती है -
“सुनिए, मैं शादी-वादी नहीं करूंगी. वज़ीर ने समझाने वाले लहजे में कहा. ‘क्यों? क्यों नहीं करेगी शादी ? और न करेगी तो क्या करेगी ? लड़कियां इसीलिए तो होती हैं कि शादी-ब्याह हो, घर बसे. . . ’. ‘. . . बच्चे पैदा करें, शौहर और सास की जूतियाँ खाएं, चूल्हे-चक्की में जल-पीसकर वक़्त से पहले बूढ़ी हो जाएँ’, वज़ीर ने मखौल उड़ाने के अंदाज में कहा . ”[14] x x x “मैं नहीं बनती किसी की पुतला-पुतली. मेरी सूरत अच्छी है, मेरा ज़हन तेज़ है, मेरे हाथ-पाँव सही हैं. मैं किसी मर्द से कम हूँ ? जिस अल्लाह ने मुझमें ये सब बातें जमा कीं उसको कब गवारा होगा कि मैं अपनी काबिलियत से कुछ काम न लूँ, बस चुपचाप मर्दों की हवस पर भेंट चढ़ जाऊँ ?”[15]
उसे मालूम था कि ‘बीबियाँ सब बीबियाँ हैं. हिंदू या मुसलमान, कम जात या ऊंची जात, पढ़ी-लिखी या दस्तकार, ऐसी कोई कैद नहीं, न तादाद की कोई शर्त. ’वह इस खयाल की थी कि मर्द के साये की ज़रूरत दरकार होने पर भी वह अपनी शर्तों पर किसी मर्द से जुड़ेगी या‘ अपनी शर्तों के सरासर नहीं तो कम से कम कुछ अहम शर्तों को मंजूर कराये बगैर वह किसी की पाबंद होना तो क्या, किसी से जुड़ने पर भी तैयार न थी . ’
“उसे अपने मुकम्मली के लिए मर्द की जरूरत न थी, मर्द के जरिये वह अपनी शख्सियत और वजूद की पुष्टि चाहती थी. उसका गुमान था कि अगर दुनिया में मुहब्बत कहीं है तो वह औरत के लिए है. यानी औरत चाहे, और अपनी मर्ज़ी के अलावा किसी की पाबंद न हो. वह कहती थी मर्द चाहते नहीं हैं वे चाहे जाने के एहसास के दीवाने हैं. अगर उनको चाहे जाने में लुत्फ आने लगे तो यही गोया उनका चाहना है. असल चाह तो औरत की होती है . ”[16]
वज़ीर खानम को ‘औरत’ पर मर्दों की दया और उनका अधिकार दोनों बेहद नापसंद थे. उपन्यास के आखिरी हिस्से में एक वाकये को लेकर ऐसे ही किसी प्रसंग में अपने बेटे मियां नवाब मिर्ज़ा दाग देहलवी के दया और अधिकार का एहसास जताने की खुशफहमी को वह सिरे से झटकार कर तार-तार कर देती है – “आप मेरे जिगर के टुकड़े हैं लेकिन आप अव्वल और आखिर मर्द हैं. मर्द जात समझती है कि सारी दुनिया के भेद और तमां दिलों के छुपे हुये कोने उस पर ज़ाहिर हैं या गर नहीं भी हैं तो न सही लेकिन वह सबके लिए फैसला करने का हकदार है. मर्द ख्याल करता है कि औरतें उसी ढंग और मिजाज की होती हैं जैसा उसने अपने दिल में, अपनी बेहतर अक्ल और समझ के बल पर गुमान कर रखा है. . . . इस पर तिलमिलाकर जब नवाब मिर्ज़ा यह कहता है कि, ‘लेकिन. . . लेकिन. . . शरीअत भी तो कहती है कि मर्द औरत से बरतर है. . . . हमारी किताबें तो यही कहती हैं, हमारे बुजुर्ग तो यही सिखाते हैं . ’
इस पर जिस तल्खी के साथ वज़ीर ने जवाब दिया वह 18वीं-19वीं सदी की स्त्री के लिए, उसके हक़ में दिया गया जवाब नहीं है वरन एक ‘स्त्री’ द्वारा दुनिया भर की उन स्त्रियों के हक दिया गया जवाब है जिन्हें समाज, नीति, नियम, कायदे, कानून, संहिताएँ सब मिलकर मर्दों के रहमों-करम पर स्त्री के गुजारे की बात करती हैं –
“आपकी किताबों के लेखक मर्द, आपके काज़ी, मुफ्ती-बुजुर्ग भी कौन, सबके सब मर्द. मैं शरई हैसियत नहीं जानती, लेकिन मुझे बाबा फरीद साहब की बात याद है कि जब जंगल में शेर सामने आता है तो कोई यह नहीं पूछता कि शेर है या शेरनी. आखिर हज़रत राबिया बसरी भी तो औरत ही थीं.”[17]
वज़ीर खानम का यह मजबूत इरादा ताज़िंदगी बना रहा. यह दीगर बात है कि ‘मुहब्बत और ज़िंदगी की तलाश में मारे-मारे फिरना ही शायद उनका मुकद्दर था, वज़ीर खानम ने एक नहीं चार-चार मर्दों को अपनी शर्तों पर अपनी ज़िंदगी का नायाब हिस्सा बनाया. सबसे पहले अंग्रेज़ अधिकारी मास्टर्न ब्लेक जिनसे एक बेटा और एक बेटी हुये. फिर नवाब अहमद खां बख्स के बेटे नवाब शम्सुद्दीन अहमद खां जिनसे नवाब मिर्ज़ा दाग देहलवी का जन्म हुआ. बाद इसके रामपुर रियासत के एक ओहदेदार आगा मिर्ज़ा मौलवी तुराब अली से उनका निकाह हुआ. और सबसे अंत में वज़ीर खानम मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ज़फ़र के शाहज़ादे मिर्ज़ा फ़त्हुलमुल्क की मलिका बनीं.
बहादुर शाह ज़फ़र से ‘शौकत महल’ की उपाधि मिली. पर बदनसीबी ने उन्हें कहीं भी स्थायी न रहने दिया. एक स्थायी पुरसुकून ज़िंदगी जीने का ख़्वाब उनके लिए ख़्वाब ही रहा. मास्टर्न ब्लेक जयपुर रियासत के साथ अंग्रेजों के बुरे बर्ताव के चलते एक बलवे में मारा गया. छोटी बेगम वहाँ से दिल्ली आ गईं. दिल्ली उनका अपना शहर. कुछ दिनों के बाद वे नवाब शम्सुद्दीन अहमद खां की नज़र में आयीं और उनकी अविवाहित बेगम बनकर रहीं. पर अंग्रेजों और खुद अपने ही घर और खानदान की सियासी रणनीतियों के चलते उनपर एक अंग्रेज़ अधिकारी विलियम फ्रेज़र की हत्या का मुकदमा चला और फांसी पर लटका दिया गया. दरअसल यह सियासी खेल कम विलियम फ्रेज़र की अपनी निजी अदावत अधिक थी. वह वज़ीर खानम को अपनी चाहतों का खिलौना बनाने के मंसूबे रखता था और उसे इसका गुमान भी था कि एक अंग्रेज़ रेजीडेंट अधिकारी को भला कोई स्त्री कैसे माना कर सकती है. पर वज़ीर खानम ने उसे छोड़कर शम्सुद्दीन अहमद खां को अपनाया. अपने इस अपमान को फ्रेज़र पचा नहीं सका. वह शम्सुद्दीन अहमद खां को नीचा दिखाने, बदला लेने का कोई अवसर जाने न देता. उसके इस करतब में कहते हैं कि शम्सुद्दीन के अपने लोगों ने भी उसका साथ दिया जो किसी न किसी कारण से उससे से खफा थे.
खुद मिर्ज़ा ग़ालिब ने भी, जिनसे शम्सुद्दीन अहमद खां का घरेलू रिश्ता था. उसकी चचेरी बहन मिर्ज़ा ग़ालिब से ब्याही गयी थीं. मिर्ज़ा ग़ालिब की छवि इस उपन्यास में बहुत अच्छी नहीं है. एक मशहूर शायर के रूप में तो ठीक है पर एक व्यक्ति के बतौर उनकी जो छवि है वो अपने स्वार्थ और लोभ के लिए सियासी तिकड़में करने वाले एक व्यक्ति के बतौर चित्रित है. वह चाहे वजीफे का मुआमला हो चाहे शम्सुद्दीन अहमद खां का. अपने वजीफे को लेकर मिर्ज़ा ग़ालिब को शम्सुद्दीन अहमद खां के बाप अहमदबख्श खां से शिकायत थी.
“उसकी कहानी लंबी है और लब्बे-लुबाब उसका यह कि मिर्ज़ा ग़ालिब के घर वालों के लिए अहमदबख्श खां ने अंग्रेजों की हिदायत पर अपनी तियासत से जो पाँच हज़ार रुपया सालाना वज़ीफ़ा बांधा था, वह बक़ौल मिर्ज़ा ग़ालिब बहुत कम था. मिर्ज़ा साहब का यह भी कहना था कि इस छोटी रकम में भी नवाब अहमदबख्श खां ने ख़्वाजा हाजी नामी एक पगले आदमी को दो हज़ार सालाना का हिस्सेदार बना दिया था. मिर्ज़ा असदुल्लाह खां का कहना था कि यह इंसाफ की बात न थी क्योंकि ख़्वाजा हाजी का कोई खानदानी ताल्लुक ग़ालिब के बाप या चचा से न था. और शादी पर आधारित ताल्लुक था भी तो वो बहुत कमजोर था. . . . मिर्ज़ा ग़ालिब ने इस मामले में कलकत्ता तक जाकर अपील की. . . . हज़ार कोशिश के बाद भी उनकी अपील खारिज हो गयी . ”[18]
शम्सुद्दीन अहमद खां जब अपने पिता के बाद नवाबी संभाली तो ‘ग़ालिब ने ख़त लिखा कि अब तो नीच लोगों का बाज़ार और छिछोरों के हंगामे गर्म होंगे.’ उपन्यासकर ने तो शम्सुद्दीन अहमद खां की फाँसी दिये जाने वाले मसले में भी यह लिखा है कि ‘उन्होने (मिर्ज़ा ग़ालिब ने) कलकत्ते में अपने जान-पहचान के पैरवीकारों को यह लिख भेजा था कि वे कंपनी बहादुर की मदद करें.’ फ़ारूक़ी साहब ने लिखा है–
“शम्सुद्दीन अहमद खां से ग़ालिब की चिढ़ उनकी उस ज़माने की तहरीरों से भी साफ़ ज़ाहिर है. मशहूर शायर शेख़ इमामबख़्स नासिख़ के नाम एक खत में ग़ालिब ने शम्सुद्दीन अहमद खां को ‘काफिरे-नेमत-दावरकुश’ (नेमत को झुठलाने वाला, इंसाफपरस्त का हत्यारा) लिखा और ख़त में फ्रेज़र के कातिल को बद्दुआ दी कि वह ‘सितमगर ना-ख़ुदातरस अज़ाबे-अबदी में गिरफ्तार हो (वो बेरहम ज़ालिम हमेश-हमेशा के अज़ाब में रहे)". [19]
खैर, बात दूसरी ओर झुक गयी. अपने सभी चाहने वालों में वज़ीर खानम ने शम्सुद्दीन अहमद खां को सबसे अधिक चाहा था, पसंद किया था. उनके जाने को वह कभी भुला नहीं पायी. उनके शोक के काफी लंबे समय के बाद मँझली बेगम उम्दा खानम की ज़ोर-ज़बरदस्ती पर वज़ीर एक बार फिर आगा मिर्ज़ा मौलवी तुराब अली के साथ निकाह में बंधीं कि नवाब मिर्ज़ा दाग देहलवी की परवरिश ठीक-ठिकाने से हो जाएगी. पर तक़दीर ने एकबार फिर वज़ीर के साथ दगा किया. तुराब अली ठगी के शिकार हुये और ठगों के गिरोह के द्वारा मारे गए.
उन दिनों भारत के कई इलाकों में ठगी का भयावह दौरा-दौर था. कर्नल स्लीमन का नाम इतिहास में ठगी प्रथा के खत्म करने वाले के रूप में लिया जाता है. उपन्यास में फ़ारूक़ी साहब ने इस प्रथा की सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं को बड़े विस्तार के साथ विश्लेषित किया है. उस विस्तार में जाने का यहाँ अवसर नहीं. भाग्य ने एक बार फिर वज़ीर खानम को रामपुर से कूचा-ए-देहली ला पटका जहाँ वो शाहज़ादे मिर्ज़ा फ़त्हुलमुल्क द्वारा चाही गईं और ‘शौकत महल’ की पदवी पर आसीन हुईं. पर उनकी बदनसीबी या कहिए कि अब पूरे हिंदुस्तान की बदनसीबी ने ऐसा घेरा कायम किया कि वज़ीर खानम को फिर से अकेलापन ही हासिल हुआ.
दिल्ली के भयानक हैज़े ने वलीअहमद फ़त्हुलमुल्क तक को नहीं छोड़ा. आम जनता की तो बात ही अलग है. फिर, क्या सम्राट की सबसे प्रिय बेगहम जीनत महल ने अपने कुचक्रों के सहारे शौकत महल उर्फ छोटी बेग़म उर्फ वज़ीर खानम को महल से निकाल बाहर किया. उनके बेटों दाग़ देहलवी, मिर्ज़ा आगा और मिर्ज़ा अबुबक्र ने उन्हें अपने हक़ की लड़ाई लड़ने और महल न छोड़ कर जाने की बात की क्योंकि, वह शाहज़ादे मिर्ज़ा फ़त्हुलमुल्क की ब्याहता बीबी थीं. पर, नहीं उन्हें महल, महल के अंदर की टुच्ची सियासी कार्यवाहियाँ और लोग पसंद न थे. इन सबसे ऊपर यह था कि अब वह निराश और टूटी हुयी भी महसूस कर रही थीं. इसीलिए उन्होने फैसला किया कि महल छोड़कर वह पुनः नवाब शम्सुद्दीन अहमद खां द्वारा नज़्र की गयी कोठी में लौट जाएँगी और पुरानी यादों के साथ ज़िंदगी गुजार देंगी. वह खुद से कहती हैं ‘मैं तो अकेले ही रहने के लिए बनी हूँ. यह ज़माना क्या है, कयामत का हंगामा है, हर एक को अपनी पड़ी है, कोई किसी का होने वाला नहीं.’ रही बात हक़ की तो वह मिर्ज़ा अबुबक्र से कहती हैं-
“हक़ क्या चीज़ है साहिबे आलम .. . . सारी ज़िंदगी मैं हक़ की ही तलाश में रही हूँ वह पहाड़ों के किसी खोह में मिलता हो तो मिलता हो, वरना इस आसमान तले तो कहीं देखा नहीं गया.”[20]
वज़ीर खानम का यह कथन वह उस ‘स्त्री’ का ऐसा दर्दे-बयां है जिनसे होकर वह शिम्तों-शिम्तों में पूरी ज़िंदगी गुजारती रहती है. देखा जाय तो वज़ीर खानम पूरी ज़िंदगी ‘तिलक कामोद’ राग में बजती रही. उपन्यास के एकदम आखिर में यह कथन वज़ीर खानम के साथ-साथ औरत की कायनात को, उसकी हस्ती के भरम को खोलकर सामने रख देता है. जिस औरत ने दस-ग्यारह साल की उम्र से यह तय किया था कि वह किसी की बाँदी होकर जीवन नहीं गुजारेगी अपने आज़ाद वजूद और अपनी शर्तों पर वह अपनी ज़िंदगी जिएगी. उसने यह किया भी, पर जिसे सुकून कहते हैं वह उसे हासिल न हुआ. आखिरी पड़ाव पर खुद से वज़ीर खानम का यह पूछना कि -
“…क्या मेरे ज़िंदगी की तमाम कहानी खोये हुओं और गुजरे हुओं की तलाश या उनकी यादों में ही तमाम हो जाएगी ? उसके दिल में खौफ़ भर उठा. उसने सुना था कि कुछ लोग ऐसे होते हैं जो शुरू करते हैं लेकिन खत्म नहीं कर सकते. . . मैं उन्हीं में से तो नहीं हूँ ? लेकिन हम लोग खत्म करने वाले कौन और सच पूछो तो शुरू भी करने वाले कौन हैं ? चाहते हैं सो आप करे हैं, हमको अबस बदनाम किया.”[21]
खुद से किया हुआ यह सवाल, खुद ही में ढूँढा जा रहा हुआ इसका जवाब और एक अबस अकरणीयता क्या यही वज़ीर खानम उर्फ छोटी बेगम उर्फ शौकत महल की ज़िंदगी का हासिल है ? क्या यही वह तलाश थी ? प्राकारांतर से इसे बहुत सुंदर ढंग से उपन्यासकार ने गोल्ड स्मिथ के ‘दि ट्रेवेलर’ की इन पंक्तियों के साथ जोड़ते हुये उपन्यास को यूं ख़त्म किया है –
My prime of life in wandering spent and care
Impelled with steps unceasing to pursue
Some fleeting good that mocks me with the view
(मेरी जवानी के दिन दरबदरी में गए और परेशानी और दुख में,
न थमने वाले कदमों के साथ किसी दूर-दूर भागने वाली अच्छाई का पीछा करने पर मज़बूर
जो अपनी झलक दिखा-दिखाकर मेरा मुंह चिढ़ाती रहती है)
वस्तुतः यह उपन्यास हुस्न और फन की मलिका वज़ीर खानम की ज़िंदगी की दास्तान के सहारे हिंदुस्तान में मुग़लिया सल्तनत के गिरते इकबाल, बेनूर होती शानो-शौकत और जर्जर हुकूमत के दौरा-दौर की कहानी बयां करता है. पर, यह कहानी उस ‘ओरिएंटल’ नजरिए से भिन्न है जिसे उपनिवेशवादी अंग्रेज़ इतिहासकारों ने अपने ब्यौरौं में दर्ज़ किया है. एक तरह से उनके बनाए इतिहास के सामानांतर एक अन्य पाठ. दरअसल, उपन्यास का ढाँचा ही ऐसा होता है कि, इसमें जीवन के सभी प्रकार के जटिल और विस्तृत संबंधों व परिस्थितियों को चित्रित किया जा सकता है. साहित्यिक विधाओं में देखा जाय तो उपन्यास सामाजिक और ऐतिहासिक अंतर्विरोधों का सूत्रीकरण करने वाली सबसे सशक्त और कारगर विधा है.
यह उपन्यास औपनिवेशिक ज्ञान-गरिमा के गुमान और वर्चस्व के प्रतिउत्तर में एक नया सामाजिक और सांस्कृतिक ‘पाठ’ तैयार करता है. स्मृति और आख्यान विरोधी उस उत्तर-आधुनिकतावादी ‘पाठ’ के बरक्स जदीद-ए-आब-ए-हयात का एक महाख्यान बहुत ही संजीदगी से एहतियातन यह उपन्यास हिन्दुस्तानी कला, संगीत और अदबी रवायतों के पक्ष में औपनिवेशिक तारीख के समानान्तर एक अलग तरह की अदबी-तारीख से पाठकों को रूबरू कराता है. एहतियातन इसलिए कि खुद शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के सामने यह बड़ी चुनौती थी कि कैसे उस वक़्त को इतिहास के उन स्याह पन्नों से निकालकर एक नयी रौशनी में पेश किया जाय. वे कहते हैं –
“सारा मामला यह है कि हम लोगों ने वो कल्चर अपने हाथों से गँवा दिया. खासकर सन 1857 के बाद से लोग बिलकुल भूल गए कि उस जमाने में प्रेम करना कैसे होता था, कलाकार की वैल्यू क्या थी, उठने-बैठने के तरीके क्या थे, शायरी से लोग क्या अपेक्षा करते थे, दुनिया को किस नजरिए से देखते थे– ये बातें किसी को नहीं मालूम. अब सिर्फ एक बात मालूम है कि, ‘साहब वो दिल्ली वाले बड़े गधे, बेवकूफ, नालायक थे. कभी पतंग उड़ा रहे हैं तो कभी बटेर लड़ा रहे हैं. उनको क्या पता था कि कल्चर क्या चीज होती है. इसीलिए दिल्ली का पतन हो गया. ’ लेकिन मैं पूछता हूँ कि क्या यही था बिल्कुल, अगर नहीं तो फिर क्या था वो ? हम कहते हैं कि हम देश-दुनिया से बहुत अवगत थे. लेकिन हकीकत है कि उस जमाने में भी लोग अवेयर थे. जब मीर कहते हैं कि, ‘रफ्ता-रफ्ता शेर मेरा हिंदुस्तान से ईरान गया – तो उन्हें इस बात का इल्म था वो जो शेर कह रहे हैं वो चल रहा है जो लाहौर जाएगा, अफगानिस्तान जाएगा, लोग सुनेंगे पढ़ेंगे. लेकिन उस जमाने के लोगों को लेकर अभी भी लोग केवल कयास लगाते हैं. मैंने केवल यही करना चाहा है कि जो पास्ट हमसे खो गया है (हालांकि, कई लोग तो मानते ही नहीं कि उनका कोई अतीत था) उसे लोगों के सामने ले आऊँ. अंग्रेजों ने जो कहानी हमें सुनाई हमने उस पर यकीन कर लिया. आज तक लोग मुझसे पूछते हैं कि ये क्या आपने रंडी-वंडी के बारे में लिख दिया, इससे क्या फायदा हुआ. कोई कैसे समझाये कि वज़ीर खानम एक रीयल लाइफ की लड़की थी जो किसी बड़े घराने की नहीं, जिसे कोई सपोर्ट भी नहीं वो दुनिया के सामने आ जाती है कि ‘मैं हूँ’ और फिर अपनी तरह से जीने की कोशिश करती है. इसका मतलब उस जमाने में कुछ न कुछ लोग ऐसे भी थे. वो लोग कौन थे, क्या करते थे, जिंदगी के बारे में उनके ख्याल क्या थे. ऐसी चीजें जिन्हें हम अपने ख्याल में पूरी तरह नेस्तनाबूद कर चुके हैं, उसे ही दिखाने की कोशिश है ‘कई चाँद थे सरे-आसमां’. ”[22]
निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि, इस महाकाव्यात्मक उपन्यास में शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने 18 वीं–19 वीं सदी के हिंदुस्तान, यहाँ के लोग, यहाँ की हिंदो-इस्लामी तहज़ीब, रहन-सहन के तौर तरीकों, उनकी जहीनियत, उनके राग-रंग, उनकी दिल-पसंदगी और उनके मन-मिजाज को जिस कल्चरल लगाव और मानी के साथ चित्रित किया है उससे उस प्रचारित और प्रचलित ओरिएंटल इतिहास-दृष्टि पर प्रश्नचिन्ह लगता है जिससे साम्राज्यवादी औपनिवेशिक मानसिकता पोषित और संरक्षित होती रही है. इस लिहाज से यह उपन्यास हिंदुस्तान पर ब्रितानी हुकूमत के औपचारिक रूप से काबिज होने (ईस्वी सन 1858) के ठीक पहले के हिंदो-इस्लामी अदब और कल्चरल तहजीब को उसके औपनिवेशिक ‘पाठों’ और ‘संकेतों’ से बाहर निकाल कर उसे एक ऐसे औपन्यासिक-सत्य (fictional-truth) के रूप में सामने लाता है जिसे पढ़ते हुए लियो ताल्स्ताय के उपन्यासों की याद ताज़ा हो जाती है. जेहन में ओरहान पामुक उभर आते हैं– खासकर उनका उपन्यास ‘बेनिम आदिम क़िरमिज़ी’ (My Name is red). और भी दुनिया के बड़े और महान उपन्यास (The Great Epic Novel) याद आते हैं.
इस उपन्यास की कहानी ठीक गदर के कुछ ही महीनों पहले आकर खत्म हो जाती है. जहाँ से हिंदुस्तान का मुस्तक़बिल महारानी विक्टोरिया के रहमों-करम पर निर्भर हो जाता है. “शाही सिक्कों का ढलना तो मुद्दतों से बंद था, ग्वालियर, और इलाहाबाद की टकसालों में शाह आलमी सिक्के ढलते थे, लोग उन्हीं से काम चलाते थे. कंपनी बहादुर के सिक्के भी रोज-बरोज ज़ोर पकड़ते जाते थे. कंपनी अंग्रेज़ बहादुर ने मुद्दतों पहले से अर्काट, सूरत और मुर्शिदाबाद के कई शाही टकसालों में सिक्के ढालने शुरू कर दिये थे लेकिन उनपर शाह देहली का नाम होता था. फिर 1835 के सिक्कों पर बादशाह देहली की बजाय अंग्रेज़ बादशाह विलियम चतुर्थ का नाम और चेहरा दिया गया और 1840 के सिक्कों पर मालिका विक्टोरिया नमूदार हुईं . ”[23]
अभी ऊपर इस लेख में ही वज़ीर खानम के संदर्भ से राग तिलक कामोद का ज़िक्र आया है. मुकम्मल तौर पर अगर यह कहा जाय कि ‘कई चाँद थे सरे-आसमां’ का भी राग तिलक कामोद ही है तो बेजा न होगा.
‘तिलक कामोद’ इस उपन्यास का केंद्रीय राग है. यह एक ऐसा राग है जिसमें गुजरती हुयी रात का दर्द और भूले हुये लम्हों की कसक और आने वाली सुबह का खौफ होता है, जब शमएं बुझा दी जाएंगी, जब चिरागों के लवों के सर कलम होंगे. देहली के साथ क्या होने वाला है कैसे-कैसे मंजर से देहली गुजरने वाली है इसका एहसास लोगों को होने लगा था–
“हिंद के कोने-कोने से अंग्रेज़ बहादुर की मनमानियों की खबरें आती रहती थीं. 1856 का साल शुरू होते-होते सबसे बड़ी घटना सल्तनत अवध के खात्मे की थी. 7 फरवरी 1856 को अंग्रेज़ फ़ौजें लखनऊ में दाखिल हो गईं, बादशाह को हथियारबंद मुहाफ़िज़ों के घेरे में बड़ी तकलीफ़ों के साथ पहले इलाहाबाद फिर कलकत्ता ले जाया गया. अपदस्थ बादशाह ने अपने मस्नवी ‘हुज्न-ए-अख्तर’ में अपना हाल लिखा और अवध के खिलाफ फिरंगी साहबों की रिपोर्ट ‘ब्लू बुक’ का जवाब भी फारसी, हिंदी व अंग्रेजी ज़बानों में लिखवकार प्रकाशित करया. लेकिन देहली की अलीवहदी और शाही की तरह यहाँ भी फैसले पहले ही हो चुके थे, तक़दीरें पहले ही लिखी जा चुकी थीं . ”[24]
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संदर्भ व टिप्पणियाँ :
[1] कल फ़िराक़ मैंने वक़्त के चेहरे को
आईना-ए-हुस्न-ए-दोस्त में देखा है . - फ़िराक़ गोरखपुरी
[2] नस्साब उसे कहा जाता है जो पुराने खानदानों के हालात मालूम करने, उनके शिजरे बनाने और दूर-दूर के घरानों की कड़ियाँ मिलाने का बेहद शौक़ रखता हो .
[3] मुद्दतों बाद उर्दू में एक ऐसा उपन्यास आया है जिसने हिंदो-पाक की अदबी दुनिया में हलचल मचा दी है . क्या इसका मुक़ाबला उस हलचल से की जाय जो उमरा जान ‘अदा’ ने अपने वक़्त में पैदा की थी . - इंतज़ार हुसैन
[4] असलम फ़ारूक़ी
[5] ओरहान पामुक
[6] मोहम्मद हनीफ़
[7] बी.बी.सी. हिंदी संवाददाता अमरेश द्विवेदी द्वारा लिए गए शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के एक इंटरव्यू से उद्धृत .
लिंक देखें : http://www.bbc.com/hindi/india/2014/01/140114_shamsur_rehman_faruqi_ivakd
[8] कई चंद थे सरे-आसमां - शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी (हिंदी अनुवाद- नरेश ‘नदीम’),पेंगुइन बुक्स इंडिया प्रा. लि., नयी दिल्ली, सं. 2010 p.733.
[9] वही, p.42.
[10] वही, p.42.
[11] वही, p.55.
[12] Death in the Afternoon – Ernest Hemingway, Charles Scribner’s Sons, New York, U.S.A.
[13] कई चंद थे सरे-आसमां - शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी (हिंदी अनुवाद- नरेश ‘नदीम’),पेंगुइन बुक्स इंडिया प्रा. लि., नयी दिल्ली, सं. 2010 p.268.
[14] वही, p.143.
[15] वही, p.143.
[16] वही, p. 500.
[17] वही, p.561.
[18] वही, p.222-23.
[19] वही, p.415-16.
[20] वही, p.738.
[21] वही, p.701.
[22] बी.बी.सी. हिंदी संवाददाता अमरेश द्विवेदी द्वारा लिए गए शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के एक इंटरव्यू से उद्धृत .
लिंक देखें : http://www.bbc.com/hindi/india/2014/01/140114_shamsur_rehman_faruqi_ivakd
[23] कई चंद थे सरे-आसमां - शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी (हिंदी अनुवाद- नरेश ‘नदीम’),पेंगुइन बुक्स इंडिया प्रा. लि., नयी दिल्ली, सं. 2010 p. 723.
[24] कई चंद थे सरे-आसमां - शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी (हिंदी अनुवाद- नरेश ‘नदीम’),पेंगुइन बुक्स इंडिया प्रा. लि., नयी दिल्ली, सं. 2010 p. 727.
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