11 जुलाई 2020

मरण : स्मरण

 

ऋतेश पांडेय मूलतः नाट्यकर्मी हैं । नाटक और कविताएं भी लिखते हैं । अब तक दो नाटक प्रकाशित । अभिनय के साथ-साथ निर्देशन भी करते हैं । पाँच लघु फिल्मों और सात नाटकों का निर्देशन किया है । कोलकाता की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था नीलांबर’ के संस्थापक सचिव हैं । ऋतेश ने हिंदी सिनेमा के मशहूर हास्य-अभिनेता जगदीप को बहुत ही संजीदगी से याद किया है :


सूरमा भोपाली : बॉलिवुड का कैरिकेचर

फिल्म इंडस्ट्री लगातार अपने प्रियजनों को खोती जा रही है। सैयद इश्तियाक अहमद जाफरी उर्फ़ जगदीप साहब भी हमें छोड़कर जा चुके हैं। सोशल मीडिया पर उनके लिए बड़ी तादाद में शोक संदेश पोस्ट किए गए। यह देखकर अच्छा लगा। वे बेहतरीन कलाकार थे। लंबे समय से निष्क्रिय थे। बावज़ूद इसके वे लोगों को याद रहे। अधिकांश शोक संवेदनाओं में वे सूरमा भोपाली के तौर पर याद किए गए। सूरमा भोपाली शोले फिल्म में उनके द्वारा निभाया गया एक मशहूर चरित्र था। पर क्या वे केवल सूरमा भोपाली के रूप में ही याद किए जाने चाहिएँ?  क्या उनके भीतर का कलाकार केवल सूरमा भोपाली का ही अभिनय कर सकता था। उन्होंने और भी अनेकों बेहतरीन भूमिकाएँ की थीं। लेकिन शोले के बाद वे सूरमा भोपाली ही बनकर रह गए थे। 1975 के पहले और बाद के जगदीप एक दम अलग-अलग हैं। आज वे 1975 के बाद की अपनी भूमिकाओं के लिए ही जाने जाते हैं। वे सारी के सारी भूमिकाएँ सूरमा भोपाली के ही रंग ढंग की हैं। जगदीप साहब सहज, स्वतःस्पूर्त ताज़गी से भरे अभिनेता थे। बाद में वे बेढंगे ढंग में संवाद बोलकर, बेढंगी हरकतें कर दर्शकों को हँसाने की उबाऊ कोशिश करने वाले अभिनेता में परिवर्तित हो गए। उनका यह परिवर्तन हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के दुखद और त्रासद पहलू को सामने लाता है। जहाँ बड़े से बड़ा कलाकार अपने ही बनाए खास किस्म के इमेज में कैद हो जाता है। आजीवन उसमें छटपटाता है। पर मुक्त नहीं हो पाता।

 

1986-87 भारतीय फिल्मों की नगीना’ श्रीदेवी के साम्राज्य स्थापित होने का समय था। यही वीडियो का दौर भी था। फिल्म इंडस्ट्री वीडियो के आगमन और प्रसार से व्यावसायिक नुकसान का सामना कर रही थी। तब भी श्रीदेवी की फिल्में दर्शकों को सिनेमा हॉल तक खींच पा रही थीं। यह उनका कमाल था। उस समय हर हफ्ते मुहल्ले में कहीं न कहीं वीडियो फिल्म दिखाई जाती और हम वहीं फिल्में देखते रात बिताते। कभी-कभी इसके लिए घर में पिट भी जाते। नगीनाफिल्म उस समय बेहद लोकप्रिय थी। जहाँ भी वीडियो चलता नगीना फिल्म जरूर दिखाई जाती। बीसियों बार यह फिल्म देखी हमने। फिल्म तो श्रीदेवी के कारण ही देखने जाते। श्रीदेवी और अमरीश पुरी की टक्कर देखकर आने के बाद हम दोस्तों के बीच एक मजाकिया डायलॉग चलता- आपके खर्चे होंगे, हमारे चर्चे होंगे। यह डायलॉग फिल्म में मुंशी जी की भूमिका निभा रहे जगदीप ने कहे थे। जिन्हें फिल्म में अपनी बीवी और उसकी सात-सात बहनों से परेशान दिखाया गया था। मैंने जगदीप को पहली बार इसी फिल्म में देखा और पहचाना था। शोले बाद में देखी। शायद शाहशांह के भी बाद में। उस दौर में प्रायः हर फिल्म में जगदीप का अभिनय, उनका मैनरिज्म एक सा होता था जो बहुत ज्यादा नाटकीय और कभी-कभी उबाऊ हो जाता था।

उन दिनों कई सिनेमा घरों में पूरानी फिल्में भी री-रिलीज हुआ करती थीं। मैंने दिलिप कुमार और राजकपूर अभिनीत अंदाज़ सिनेमा हॉल में जाकर देखने का मौका पाया था। शोले भी वैसे ही देखने को मिली। इसी क्रम में मुझे भाभी फिल्म भी देखने को मिली। इस फिल्म में जगदीप ने मुख्य किरदार निभा रहे बलराज साहनी के चार भाइयों में से सबसे छोटे भाई की भूमिका की थी। यहाँ मैंने जगदीप को एकदम अलग पाया। बिल्कुल सहज। इस फिल्म में उनकी नायिका नंदा थीं। दो बीघा जमीन मैंने टी वी पर देखा। जब मैंने दो बीघा जमीन देखी तो अविश्वास से भर गया। स्क्रीन पर जो बाल-कलाकार दिख रहा था वह जगदीप की तरह लग रहा था। उसका अभिनय बिल्कुल चटक और सहज था। अपने समय से आगे का। आज की अभिनय कसौटी पर जिसे परफेक्ट कहा जा सके। दिमाग के बार-बार की गवाही के बाद भी मैंने सर्च किया और पाया कि वह जगदीप ही थे। दो बीघा जमीन में वे मुख्य किरदार नहीं निभा रहे थे लेकिन जब-जब परदे पर आते अपनी सहजता से प्रभावित करते। उनके सामने मुख्य चरित्र निभा रहा लड़का बासी जान पड़ता था। उसका अभिनय बनावटी लगता था जो उन दिनों प्रचलित शैली हुआ करती थी। जगदीप साहब की मृत्यु के बाद उनके बारे में जो खबरें पढ़ीं उसमें एक घटना का ज़िक्र बार-बार आया है। कहा जाता है कि हम पंछी एक डाल के फिल्म में जगदीप साहब के अभिनय से जवाहर लाल नेहरू बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने अपना एक कर्मचारी भी जगदीप के सहयोग के लिए उपहार स्वरूप भेज दिया था। हम पंछी एक डाल के नेहरु युग के स्वप्नों में रची-बसी बहुत ही सुंदर और प्रभावकारी फिल्म है। इस फिल्म में भी जगदीप केंद्रीय भुमिका में नहीं हैं। परंतु बीसों बच्चों से भरी इस फिल्म में वे अपने सहज अभिनय के कारण सबसे अलग नज़र आते हैं। आप यह फिल्म देखिए। इस फिल्म में उनके काम की तारीफ किए बिना आप रह ही नहीं सकते।

1974 में आई फिल्म बिदाईतक में जगदीप साहब जीतेंद्र के दोस्त की भूमिका में सहज अभिनय करते दिखते हैं। शोले के बाद वे सूरमा भोपाली के खोल में ऐसा समा गए कि फिर कभी उससे बाहर नहीं आ सके। उसके बाद वे सूरमा भोपाली ही बनकर रह गए। सूरमा भोपाली को ही दोहराते रहे।

भारतीय हिंदी फिल्म इंडस्ट्री जिसे बॉलिवुड के नाम से जाना जाता है वह लोकप्रिय चरित्रों को भुनाती है। यहाँ निर्देशक-निर्माता कलाकार की अभिनय क्षमता को डस्टबिन में डाल देते हैं और उसे एक ऐसे फ्रेम में बाँध देते हैं जिसे वह कभी तोड़ नहीं पाता। आप याद कीजिए केष्टो मुखर्जी को। बहुत अच्छे अभिनेता थे। ऋत्विक घटक ने उन्हें अपनी अधिकांश फिल्मों में कोई न कोई भूमिका जरूर दी। 1970 में केष्टो मुखर्जी साहब ने माँ और ममता में एक शराबी की प्रभावशाली भूमिका निभाई। उसके बाद बॉलिवुड ने उन्हें ड्रंक के किरदार में इतनी बार रिपीट किया कि वे सामान्य हिंदी फिल्म दर्शक के लिए बेवड़े की प्रतिछवि बनकर रह गए। ऐसे ही एक कलाकार हैं दिनेश हिंगू। 1983 में आई कालका फिल्म में दिनेश हिंगू ने नाकारात्मक भूमिका बखुबी निभायी। मतलब यह कि अलग-अलग चरित्र निभाने की उनमें क्षमता थी। लेकिन बॉलिवुड ने उन्हें एक खास शैली में गला खोलकर हँसने वाले पारसी में तब्दील करके रख दिया। उनके भीतर के कलाकार को कभी दूसरा कुछ करने का मौका ही नहीं दिया। यदि आप ठीक से ध्यान दें तो असरानी भी शोले के बाद अंग्रेजों के जमाने के जेलरकी कोट में ही समाए रह गए।

बॉलिवुड चरित्रों के साथ-साथ कलाकारों को भी टाइपकास्ट करने के लिए अभिशापित है। यहाँ चरित्र के अनुसार कलाकार का मैनेरिज्म नहीं बनता। कलाकार के अनुसार चरित्र का मैनेरिज्म तय होता है। यहाँ कलाकार कथा चरित्र के अनुसार अपनी भाषा, अपना अंदाज, अपना ढंग नहीं चुनता। यहाँ चरित्र कलाकार की इमेज के अनुसार व्यवहार करने लगता है। धनी हो, गरीब हो, ग्रामीण या शहरी, प्रोफेशनल हो नौकर हो या कुछ भी, कलाकार अपने ही मैनरिज्म के ढाँचे में अपना काम करता है; जिसे क्रमशः उसने विकसित किया है। जिसे दर्शक पसंद करता है। यहाँ बड़े से बड़ा कलाकार अपने अंदाज, अपनी अदा, अपने ढब के पिंजरे में कैद होता है। इसका बहुत बड़ा कारण दर्शकों का व्यवहार भी है। दर्शक अपने प्रिय कलाकारों के विशेष अंदाज पर फिदा होते हैं। उन्हें बार-बार वैसे ही देखना पसंद करते हैं। 90 के दशक के अंत तक दृश्य थोड़े बदलने लगते हैं। पिछले डेढ़-दो दशकों में मुख्यधारा की फिल्मों में भी बहुत कुछ परिवर्तन आया है। अब तो जिन्हें स्टार कहा जाता है उनमें भी कई अपने प्रयोग और विविधता के लिए जाने जाते हैं।

बॉलिवुड के बहुत से कलाकार ऐसे हैं जो अपनी विशेष अंदाज के लिए जाने जाते हैं। जिनमें बड़े-बड़े स्टार हैं। जिनकी फिल्में अच्छा बिजनेस करती हैं। वे दरअसल अपनी हर फिल्म में अपने को ही दोहराते से मिलते हैं। जैसे ही वे कुछ अलग-सा करते हैं दर्शक उनकी फिल्म को रिजेक्ट कर देते हैं। ऐसे में निर्माता-निर्देशक लोकप्रिय अदा, अंदाज और शैली को भुनाते रहते हैं। इस एंगल से देखें तो हास्य कलाकारों के साथ इंडस्ट्री और भी क्रूर रही है। जीविका चलाने के लिए कलाकार के पास भी कोई चारा नहीं होता। वह भी डिमांड की पूर्ति किए जाता है। कहना ना होगा कि बॉलिवुड की इसी खराब आदत ने जगदीप जैसे बेहतरीन कलाकार को एक कैरिकेचर में बदल दिया।

जगदीप साहब को अलविदा। नमन।

संपर्क : अरिहंत अपार्टमेंट, 71, बीरेश्वर चटर्जी स्ट्रीट, बाली, हावड़ा-711201 मो. 9874307700

14 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा लेख है। जगदीप के बहाने भारतीय फ़िल्म इण्डस्ट्री की एक बेहद कमज़ोर नस पर उँगली रख दी है। कलाकारों को एक ही अदा में बान्ध देने का ही यह असर होता है कि मैं बार-बार ख़ुद को दोहराने वाले अभिनेताओं की फ़िल्में नहीं देखता।

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  2. यहाँ आपने जिस खूबसूरती से फ़िल्म इंडस्ट्री के एक अलग किस्म के नेपोटिज्म को जगदीप तथा अन्य कलाकारों के माध्यम से दर्शाया है वह काबिले तारीफ है। यह नेपोटिज्म डिमांड और सप्लाई वाला नेपोटिज्म है जिसका शिकार प्रत्येक अभिनेता-अभिनेत्री हैं।

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  3. बहुत बढ़िया आलेख जगदीप को स्मरण करते हुए ।

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  4. बहुत ही सुंदर लेख जगदीप के याद में जो कि सदा सदा के लिए यादगार बना रहेगा ।

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  5. बहुत ही सुंदर लेख जगदीप के याद में जो कि सदा सदा के लिए यादगार बना रहेगा ।

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  6. रितेश भाई, बहुत ही बेहतरीन ढंग से आपने अपनी नज़र से जगदीप के फ़िल्मी जीवन को परखा और रखा। ये वाक़ई फ़िल्मी दुनिया की बड़ी कमज़ोरी रही थी कि वे कलाकार के एक क़िरदार के हिट होते ही उसे उसी क़िरदार में बांधकर उस कलाकार की नैसर्गिक कला को मार देती थी। यूँ भी 80 और 90 के दशक की फिल्में बेहद बदनाम रही। पुराने अच्छे कलाकारों से भी घटिया से घटिया रोल करवाया गया। चाहे मकसद,मास्टर जी का राजेश खन्ना हो, कुली, जादूगर,महान और भी बहुत के अमिताभ हों, मवाली और तोहफा के जितेंद्र हों लगभग उसी दौर में जगदीप से भी टाइप्ड क़िरदार ही लिए गए।
    प्रशांत विप्लवी : पटना

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  7. हिंदी फिल्म उद्योग की इसी ट्रेंड ने बहुत से प्रतिभाशाली कलाकारों को अँधेरे में धकेल दिया. कई कैरेक्टर आर्टिस्ट इसी के चलते गुमनाम भी हो गये उनकी अभिनय क्षमता का उपयोग सही से नहीं हुआ. मोहन चोटी, बीरबल भी ऐसे नाम हैं. ऐसे में कोई यह भी पूछ सकता है कि इन कलाकारों ऐसे किरदारों को क्यों निभाया बार-बार ? तो जवाब है जिन्दा रहने के लिए, परिवार और पैसे के लिए. राजकिरण के साथ क्या हुआ याद है किसी को आज ? ऐसे कई कलाकार हैं जिनके साथ हमारी फिल्म इंडस्ट्री ने इन्साफ़ नहीं किया है . आपने जगदीप के बहाने बहुत कुछ कह दिया है.

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  8. कलाकार को एक खोल में नही बंधना चाहिए!यह आलेख दर्शाती है इस बात को💐💐💐💐💐बहुत बढ़िया सर

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