7 जून 2020

केदारनाथ सिंह की कविता 'महानगर में कवि' पर संजय कुमार का लेख


संजय कुमार
संजय कुमार 
केदारनाथ सिंह समकालीन भारतीय कविता में हिंदी भाषा के प्रतिनिधि कवि हैं । उनकी कविता पर खूब लिखा गया है । पिछले दिनों साखी और चौपाल दोनों ने विशालकाय अंक निकाले । इन दोनों अंको को देखकर यही कहने का मन करता है कि जो कुछ यहाँ है वह दूसरी जगह भी है और जो यहाँ नहीं है वह कहीं नहीं है  - यदिहास्ति तदन्यत्र, यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्'। बहरहाल, यहाँ हिंदी के महत्वपूर्ण आलोचक संजय कुमार, केदार जी की एक कविता महानगर में कवि का विस्तार से विश्लेषण करते हैं । इस कविता का विश्लेषण जिस ढंग से संजय कुमार ने किया है वह सघन पाठ (क्लोज रीडिंग) का एक सार्थक उदाहरण है । संजय कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं । समकालीन हिंदी कविता के साथ थियरीज की उनकी समझ और पकड़ बहुत अच्छी है । वह कम लिखते हैं, लेकिन जो लिखते हैं वह पूरी आलोचनात्मक ज़िम्मेदारी और अनुशासन के साथ । वह सोशल मीडिया पर होते हुए भी उसके पाश से मुक्त हैं । इसलिए विज्ञापन/आत्म-विज्ञापन से भी दूर हैं । उनके जीवन-व्यवहार और लेखन-कर्म में आपको किसी तरह का दोहरा मानदंड नहीं मिलेगा । द्विविधा जरूर मिलेगी पर दुचित्तापन नहीं । आइए, पढ़ते हैं पक्षधर के लिए केदार जी की कविता महानगर में कवि पर लिखा गया उनका यह लेख


कविता में बहुलार्थ की संभावनाएँ और समस्याएँ   

संजय कुमार 

मेरे जेहन में उस दिन का अनुभव आज भी ताजा है जब मैंने केदार जी की कविताएँ पहली बार पढ़ी थीं । सन्‌ 1988 में एक विद्यार्थी के रूप में जेएनयू आने के पूर्व हिंदी के एक महत्त्वपूर्ण कवि के रूप में केदार जी का नाम तो सुना था, पर कविताएँ नहीं पढ़ी थीं । इसलिए मैंने उन्हें अध्यापक के रूप में पहले जाना फिर धीरे-धीरे एक कवि के रूप में । सबसे पहले उनकी प्रतिनिधि कविताएँपढ़ीं । उनकी कविताओं का रचाव मुझे मोहक लगा । ऐसी सहज, सरल और बोलचाल की हिंदी, लेकिन अपनी तराश और चुस्ती के कारण इतनी विशिष्ट । भाषिक सहजता और कलात्मकता का ऐसा विलक्षण संयोग हिंदी में दुर्लभ है । काव्यभाषा का यह एक नया और मोहक अनुभव था । मुझे लगा हिंदी गद्य की दुनिया में जिस तरह का कलात्मक सौंदर्य निर्मल वर्मा रचते हैं, कुछ उसी तरह का सौंदर्य हिंदी कविता के संसार में केदारनाथ सिंह रचते हैं । फर्क यह जरूर है कि केदार जी की कविता में लोक और नागरता का जो सहज मेल दिखाई पड़ता है, वह निर्मल वर्मा में नहीं है। निर्मल वर्मा की सौंदर्याभिरुचि नागर किस्म की है ।

केदार जी की काव्यभाषा बोलचाल की हिंदी से बुनी गई है, इसलिए उनकी कविताएँ पढ़ने में सहज और सरल जान पड़ती हैं । पर वास्तव में अर्थ-बोध के मामले में ये कविताएँ सरल नहीं हैं । इनका रचाव अक्सर जटिल और बहुस्तरीय है । इन कविताओं में अगर मानवीय संवेदना की उष्मा है तो साथ-ही गहरी विचारशीलता भी । इसलिए इन कविताओं के साथ लंबी वैचारिक यात्रा की जा सकती है । एक ऐसी ही वैचारिक यात्रा का अनुभव मैं आपके साथ साझा करना चाहता हूँ ।

केदारनाथ सिंह की प्रतिनिधि कविताएँका द्वितीय संस्करण (1987) मैंने बाजार से खरीदा। 1988 की किसी एक शाम को मैं उसे पढ़ने बैठा। पर इस संग्रह की पहली ही कविता महानगर में कवि ने मुझे अर्थ-बोध के स्तर पर उलझा दिया। देर तक मेरे मन में उधेड़-बुन चलती रही... । कविता का पहला पैरा है –

इस इतने बड़े शहर में

कहीं रहता है एक कवि

वह रहता है जैसे कुएँ में रहती है चुप्पी

जैसे चुप्पी में रहते हैं शब्द

जैसे शब्द में रहती है डैनों की फड़फड़ाहट

वह रहता है इस इतने बड़े शहर में

और कभी कुछ नहीं कहता

ये पंक्तियाँ कविता की संपूर्ण संरचना के लिए जैसे आधार निर्मित करती हैं। इससे यह पता चलता है कि एक बड़े शहर अर्थात् महानगर में एक कवि रहता है और वह अमूमन चुप रहता है। पर उसकी चुप्पी निरर्थक नहीं होती, जैसे शब्दों के बीच का अंतराल बेमानी नहीं होता। अर्थ की अभिव्यंजना में शब्दों के बीच की चुप्पी की भी सार्थक भूमिका होती है। कवि कहना चाहता है कि चुप्पी के गर्भ से ही शब्दों का जन्म होता है। और शब्दों में क्रियाएँ होती हैं और क्रियाओं में बल होता है। क्रियामें निहित क्रियाशीलता और बल को व्यंजित करने के लिए डैनों की फड़फड़ाहटका प्रयोग बड़ा सटीक जान पड़ता है। फिर कवि लिखता है –

     सिर्फ कभी-कभी

     अकारण

     वह हो जाता है बेचैन

     फिर उठता है

     निकलता है बाहर

     कहीं से ढूँढ़कर ले आता है एक खड़िया

     और सामने की साफ चमकती दीवार पर 

    लिखता है ’  

कविता का यह दूसरा पैरा कवि की रचना-प्रक्रिया से संबंधित मालूम होता है। क्योंकि अकारणकुछ लिखने की बेचैनी’, एक कलाकार की रचनात्मक व्यग्रता का ही द्योतक है। अब यह छोटा-सा समूचे शहर में गूँजता है। “ माने क्या/ सारा शहर पूछता है। और कविता के अंत में—

और इस इतने बड़े शहर में

कोई नहीं जानता

कि वह जो कवि है

हर बार ज्यों ही

उठाता है हाथ

ज्यों ही उस साफ चमकती दीवार पर

लिखता है

कर दिया जाता है कत्ल !

बस इतना ही सच है

बाकी सब ध्वनि है

अलंकार है

रस-भेद है

मैं इससे अधिक उसके बारे में

कुछ नहीं जानता

मुझे खेद है।

यहाँ कविता के अर्थ में प्रयुक्त जान पड़ता है। पर प्रश्न यह उठता है कि कविता लिखते ही कौन कवि का कत्लकर देता है? क्यों कर देता है? जाहिर है यहाँ कवि भी व्यक्तिवाचक नहीं जातिवाचक संज्ञा है। इसलिए कविशब्द का अभिप्राय सिर्फ केदारनाथ सिंह नहीं है बल्कि कवियों की पूरी जाति है। कत्लभी यहाँ व्यंजक शब्द है, इसलिए इसे भी सिर्फ शारीरिक हत्या के अर्थ में नहीं लिया जा सकता। क्योंकि यहाँ कवि जब भी कविता लिखता है उसकी हत्या कर दी जाती है, किसी के शरीर की हत्या तो एक बार ही की जा सकती है, बार-बार नहीं। अतः यह मानसिक हिंसा का भी संकेतक हो सकता है। इसे कवि की संवेदनशीलता की हत्या के अर्थ में भी शायद लिया जा सकता है। या यह कविता लिखने में अंतर्निहित जोखिम का भी सूचक हो सकता है। क्या इस कत्लका संबंध कवि की रचना-प्रक्रिया से है? कविता के दूसरे अनुच्छेद का संबंध रचना-प्रक्रिया से है जिसकी चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। इस संदर्भ में पहले पैरा की संगति दूसरे पैरा के साथ स्पष्ट बनती हुई नजर आती है। पहले पैरा में चुप्पी एवं शब्द के बीच संबंध और उसकी सार्थकता का वर्णन तथा दूसरे पैरा में रचना-प्रक्रिया की चर्चा। दोनों पैरा की रचनात्मक संगति बहुत स्पष्ट है। तब क्या यह कत्लवास्तव में वह आत्मबलिदानहै जिसकी चर्चा टी. एस. इलियट ने अपने मशहूर लेख ट्रेडिशन एंड दि इंडिविजुअल टैलेंट में की है—“होता यह है कि क्षण विशेष में व्यक्ति स्वयं जैसा भी है उसका सतत समर्पण वह किसी मूल्यवान वस्तु के प्रति करता जाता है। एक कलाकार की प्रगति एक अनवरत आत्मबलिदान है, व्यक्तित्व का निरंतर निर्वापण।” पर इस कविता में कवि का कत्ल कोई और करता है, यह स्वैच्छिक आत्मबलिदान नहीं है। कहना चाहिए कि इस बिंदु पर पहुँचकर कविता में पहले अर्थ की निर्मित होती हुई संभावना समस्याग्रस्त हो जाती है। फिर क्या है इसका अर्थ? जाहिर है कवि ने किसी अर्थ के संप्रेषण के लिए ही इतनी मेहनत से यह कविता लिखी है। इसलिए अब दूसरे अर्थ की तलाश जरूरी हो जाती है। पर क्या इस कविता में दूसरे अर्थ की संभावना है? ध्यानपूर्वक पढ़ने पर एक अन्य अर्थ की संभावना फूटती हुई नजर आती है। अब जरा गौर से कविता के बीच के हिस्से को देखें –

        एक छोटा-सा

        सादा-सा

        देर तक गूँजता है समूचे शहर में

        माने क्या

         एक बुढ़िया पूछती है सिपाही से

         सिपाही पूछता है

         अध्यापक से

         अध्यापक पूछता है

         क्लास के सबसे खामोश विद्यार्थी से

         माने क्या

         सारा शहर पूछता है

इन पंक्तियों में पहले अर्थ के साथ-साथ दूसरे अर्थ की संभावना भी नजर आती है। अगर कविता का प्रतीक है तो उपर्युक्त पंक्तियाँ उस कविता की लोकप्रियता की सूचक हैं। दीवार पर खड़िया से कविता लिखे जाने के बाद, शहर के सभी लोग उस कविता के अर्थ की चर्चा करते हैं। लेकिन इन पंक्तियों का एक दूसरा अर्थ भी संभव है। प्रसंगवश मुक्तिबोध की लंबी कविता अँधेरे मेंका एक अंश याद आया—

         प्रश्न थे गंभीर, शायद खतरनाक भी;

         इसलिए बाहर के गुंजान

         जंगलों से आती हुई हवा ने

         फूँक मार एकाएक मशाल ही बुझा दी

         कि मुझको यों अँधेरे में पकड़कर

         मौत की सजा दी !

         किसी काले डैशकी घनी काली पट्टी ही

         आँखों पर बँध गई,

         किसी खड़ी पाई की सूली पर मैं टाँग दिया गया,

         किसी शून्य बिंदु के अँधियारे खड्डे में

         गिरा दिया गया मैं

         अचेतन स्थिति में !

कविता के इस बंद के ठीक पूर्व प्रश्नों की एक पूरी श्रृंखला है। अँधेरे मेंकविता के काव्यनायक के इन्हीं गंभीर और खतरनाक प्रश्नों के कारण उसे मौत की सजादी जाती है। यहाँ भी मौत की सजावास्तविक नहीं उसका अहसास भर है। यहाँ भी इसे अभिधा में नहीं व्यंजना में ग्रहण करने की जरूरत है। पर मुक्तिबोध की इस कविता में मौत की सजाका वस्तुगत संदर्भ अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट है। इसलिए अँधेरे मेंके काव्यनायक को मौत की सजा क्यों मिलती है? इस प्रश्न का उत्तर भी अधिक स्पष्ट है। असल में सत्ताया प्राधिकारी को प्रश्न पूछा जाना पसंद नहीं आता। विशेष रूप से ऐसे प्रश्न जो सत्ता के वास्तविक चरित्र और उसके षड्यंत्र को उद्‌घाटित करते हों। प्राधिकारी न सिर्फ ऐसे प्रश्नों को सख्त नापसंद करता है बल्कि प्रश्नकर्ता के खिलाफ दमन और उत्पीड़न का भी सहारा लेता है। इस काम के लिए पूरी सरकारी मशीनरी, सारे सरकारी संस्थान उसके पास होते हैं। सत्ता का तंत्र वास्तव में दमन और उत्पीड़न का भी तंत्र होता है। जबकि एक अच्छी कविता अक्सर सत्ता से कड़े सवाल पूछती है। रघुवीर सहाय ठीक कहते हैं, “…सत्ता की राजनीति और रचना का तो बिल्कुल छत्तीस का संबंध है। प्रत्येक रचना सत्ता के खिलाफ होती है।” (लिखने का कारण, पृ. 150) केदार जी की उपर्युक्त कविता सत्ता से सवाल ही तो पूछती है—माने क्या? यह कहा जा सकता है कि असल में कवि अपनी कविता के द्वारा अपने समाज में प्रचलित कायदे और कानून के खिलाफ एक गंभीर प्रश्न खड़ा कर देता है। यह सवाल लोगों को उचित और आवश्यक मालूम होता है, इसलिए लोकप्रिय हो जाता है। फिर यह सवाल पूरा शहर पूछता है—माने क्या? और चूँकि किसी समाज में प्रचलित कायदे और कानून आम तौर पर उस समाज में मौजूद सत्ता-व्यवस्था के हित में होता है; इसलिए कवि की कविता और उसमें उठाया गया प्रश्न शासकों को नागवार जान पड़ता है। ध्यान रहे कविता का शीर्षक है—महानगर में कवि। महानगर प्रायः सत्ता का केंद्र भी होता है। तो पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर? इसलिए कवि को प्रश्न पूछने का परिणाम भुगतना पड़ता है, उसका कत्ल कर दिया जाता है। अर्थातकवि जब भी कविता लिखता है उसे दमन और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है।

केदारनाथ सिंह

पर कविता में इस अर्थ को पाने के लिए पाठक को अतिरिक्त कोशिश करनी पड़ती है। उपर्युक्त अर्थ कविता का सहज संकेतित अर्थ नहीं है। इस अर्थ को प्राप्त करने के लिए पाठक को अपनी कल्पना-शक्ति और विवेक पर ज्यादा जोर डालना पड़ता है। ऐसा करने की आवश्यकता इसलिए पड़ती है, क्योंकि इस कविता का वस्तुगत संदर्भ स्पष्ट नहीं है। टी. एस. इलियट के शब्दों में कहना चाहे तो वस्तुगत सह-संबंध कमजोर है। इसलिए इस कविता में मौजूद अंतरालों (गैप्स) को भरने के लिए पाठकों को अपनी कल्पना और बुद्धि का विशेष उपयोग करना पड़ता है। अंतरालों को भरने का यह कलात्मक खेल पाठकों के लिए मजेदार भी हो सकता है। पर इसमें खतरा भी है। खतरा यह है कि पाठक अपने व्यक्तित्व और विचारधारा के अनुरूप अलग-अलग और मनमाना अर्थ निर्मित कर सकते हैं। अर्थ की अराजकता उत्पन्न हो सकती है। उस परिस्थिति में कविता के पाठके आधार पर यह तय करना मुश्किल होगा कि कविता का वास्तविक अर्थ क्या है। यह स्थिति उत्तर-संरचनावादियों के लिए तो सुखद हो सकती है, लेकिन जो पाठक जीवन और जगत, और इसीलिए कविता के प्रति भी वस्तुवादी दृष्टि का आग्रह रखते हैं उनके लिए यह स्थिति समस्याजनक है। सता-व्यवस्था भी ऐसी कविता को अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की कोशिश कर सकती है। दूसरा खतरा यह है कि जिन पाठकों के पास इस कविता को समझने के लिए अधिक धैर्य और समय नहीं होगा उनके लिए इसका अर्थ अस्पष्ट ही रह जाएगा। प्रसंगवश याद आता है कि डॉ. नामवर सिंह ने केदार जी के प्रथम काव्य-संग्रह अभी बिल्कुल अभीकी समीक्षा करते हुए इस बात का उल्लेख किया है कि कुछेक आलोचकों ने इस संग्रह की कविताओं पर अस्पष्टताका आरोप लगाया है। यह आरोप किन आलोचकों ने किन कारणों से लगाया इस बात की चर्चा नामवर जी ने नहीं की है। पर उनके विश्लेषण से यह जान पड़ता है कि पुरानी कविता के अभ्यस्त पाठक केदार जी की बिम्बधर्मी काव्य-चेतना को ठीक से समझ नहीं पाते और अपनी नासमझी को ही उनकी कविता पर आरोपित कर उसे अस्पष्ट मान लेते हैं। दूसरे केदार जी की कुछ कविताएँ जानबूझकर प्रश्न, संशय, दुविधा, अनिश्चय, अस्पष्टता आदि का मिला-जुला बोध जगाना चाहती हैं। नामवर जी ने इसे युग-बोध से जोड़ते हुए लिखा –  इतना तो स्पष्ट किया ही जा सकता है कि अस्पष्टता का बोध जगाना अस्पष्टता नहीं है। (विवेक के रंग, पृ. 115) कहने की जरूरत नहीं कि यहाँ इस लेख में हम एक भिन्न संदर्भ में सर्वथा भिन्न कारण से अस्पष्टता की चर्चा कर रहे हैं। यहाँ अस्पष्टता का कारण केदार जी की कुछ कविताओं की काव्य-संरचना में मौजूद अंतराल (गैप्स) हैं, जो अर्थ-बोध के रास्ते में बाधा उत्पन्न करते हैं।

          प्रश्न यह उठता है कि महानगर में कविमें ये जो अंतराल दिखाई पड़ते हैं, ये कवि के आलस या असावधानी के कारण हैं या कोई और वजह है? केदार जी की कविताओं पर गौर करने से पता चलता है कि महानगर में कविऐसी अकेली कविता नहीं है बल्कि कई और कविताओं के साथ यह समस्या दिखाई पड़ती है। दूसरे केदार जी काव्यभाषा के प्रति बहुत-ही सजग और सावधान कवि हैं। उनकी कविताएँ अपने युग की सबसे पॉलिश्ड काव्यभाषा से निर्मित हुई हैं। इसलिए कारण असावधानी में नहीं काव्यभाषा के सजग व्यवहार में निहित है। इस कविता के अंतिम हिस्से पर एक बार फिर से गौर करने से यह बात और भी अधिक स्पष्ट हो जाती है –

          बस इतना ही सच है

          बाकी सब ध्वनि है

          अलंकार है

          रस-भेद है

          मैं इससे अधिक उसके बारे में

          कुछ नहीं जानता

          मुझे खेद है।

कवि का यह कहना कि मैं इससे अधिक उसके बारे में/ कुछ नहीं जानता/ मुझे खेद है।कविता के कथ्य और उसकी अभिव्यक्ति के प्रति कवि की सावधानी और सजगता का ही सूचक है। असल में केदार जी यह मानते हैं कि काव्यभाषा को संकेतधर्मी और बहु-अर्थी होनी चाहिए। स्वभावतः ऐसी काव्यभाषा से निर्मित कविता भी बहुलार्थी होगी। एक कवि के रूप में वे अभिधापर बहुत कम विश्वास करते हैं। उनकी यह समझ है –

         मैं बहस शुरू तो करूँ

          पर चीजें एक ऐसे दौर से गुजर रही हैं

          कि सामने की मेज को

          सीधे मेज कहना

          उसे वहाँ से उठाकर

         अज्ञात अपराधियों के बीच में रख देना है

                                     (फर्क नहीं पड़ता)

इसलिए सीधे कथन की शैली वे कभी-कभार ही अपनाते हैं। वे अक्सर अपनी बात अप्रत्यक्ष ढंग से कहना पसंद करते हैं – कभी बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से, कभी किसी अप्रस्तुत विधान के द्वारा और कभी मिथक या आख्यान के सहारे। उन्हें किसी ओट से अर्थ-संकेतों के तीर चलाना अधिक पसंद है। जहाँ उन्हें सफलता मिली है वहाँ पाठक कविता के कथ्य के साथ-साथ उनकी काव्य-कला पर भी मुग्ध हो उठता है। जहाँ उन्हें पूरी सफलता नहीं मिली है वहाँ पाठक को महसूस होता है कि उसने कुछ अच्छा-सा पढ़ा है, पर अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता। कुछ अधिक कल्पनाशील पाठक अपने मन के अनुकूल अर्थ ढूँढ़ लेते हैं। यह भी एक प्रकार का कलात्मक आनंद है, पर इसके साथ समस्या भी है जिसका उल्लेख मैं ऊपर कर चुका हूँ। इसलिए यह कहा जा सकता है कि अपनी कविता में बहुलार्थ के आग्रह के कारण केदार जी जो शिल्प-विधान निर्मित करते हैं उसमें अंतरालों को छोड़ देना, ऐसे अंतरालों को छोड़ देना जिन्हें पाठक अपनी कल्पना और काव्य-विवेक से भरकर अपना अर्थ प्राप्त कर लेगा, उन्हें अनुचित नहीं जान पड़ता है। इस मामले में अपनी ही पीढ़ी के कवि रघुवीर सहाय से उनकी तुलना दिलचस्प हो सकती है। समकालीन होने के बावजूद दोनों कवियों का मिजाज बहुत भिन्न किस्म का है। स्वभावतः इस मसले पर भी रघुवीर जी का रवैया अलग है। उन्हें तो भाषा और कविता के बहु-अर्थी होने से भय लगता है –

           मैं सब जानता हूँ पर बोलता नहीं

           मेरा डर मेरा सच एक आश्चर्य है

           पुलिस के दिमाग में वह रहस्य रहने दो

           वे मेरे शब्दों की ताक में बैठे हैं

           जहाँ सुना नहीं उनका गलत अर्थ लिया और मुझे मारा

           इसलिए कहूँगा मैं

           मगर मुझे पाने दो

           पहले ऐसी बोली

           जिसके दो अर्थ न हों

                (दो अर्थ का भय)


उन्हें यह चिंता सताती है –

    हो सकता है कि यही मेरा योगदान हो कि

    भाषा का मेरा फल जो चाहे मेरी हथेली से खुशी से चुग ले।

    अन्याय तो भी खाता रहे मेरे प्यारे देश की देह

                                       (स्वाधीन व्यक्ति)

रघुवीर सहाय इस बात के प्रति बहुत सजग हैं कि सत्ता-व्यवस्था उनकी कविताओं का इस्तेमाल अपने पक्ष में न कर सके। वास्तव में उनकी कविताएँ, विशेष रूप से आत्महत्या के विरुद्धऔर हँसो हँसो जल्दी हँसोकी कविताएँ सत्ता-व्यवस्था के साथ एक खुले संघर्ष में नियोजित जान पड़ती हैं। इस संघर्ष में कवि कभी आशान्वित, कभी व्यथित और कभी निराश होता हुआ दिखाई पड़ता है। पर वह कभी अंतिम रूप से हारा हुआ नहीं दिखाई पड़ता और न कभी उसकी कविताओं की संघर्ष-धर्मी चेतना पूरी तरह लुप्त हुई है। दूसरी तरफ केदारनाथ सिंह अपने समय की सभ्यता और संस्कृति की अपने ढंग से आलोचना तो करते हैं, पर अन्यायी सत्ता-व्यवस्था के विरूद्ध सीधे मुठभेड़ में उनकी कविताएँ कभी सन्नद्ध नहीं दिखाई पड़तीं। स्वाभाविक है कि अन्यायी व्यवस्था द्वारा अपनी कविता के गलत इस्तेमाल के प्रति सजगता भी उनके यहाँ नहीं है।

          इस संदर्भ में एक अन्य प्रश्न भी उठ खड़ा होता है। क्या रघुवीर सहाय की कविताएँ अनिवार्यतः एकार्थी हैं। यह सच है कि रघुवीर जी की कविताओं से अर्थ की अस्पष्टता की शिकायत नहीं की जा सकती। वे आम तौर पर अपनी कविता में बिम्बों और प्रतीकों के प्रयोग से बचते हैं। फिर भी उनकी कविता सरल नहीं है। वहाँ भी सामान्यतः तहदार रचनागत सौंदर्य को देखा जा सकता है। उत्तर-संरचनावादियों से असहमति के बावजूद यह तो कहा जा ही सकता है कि एक कविता की कई व्याख्याएँ संभव हैं। फिर भी रघुवीर सहाय की कविताओं के संदर्भ में पोयम ऑन द पेजके वस्तुपरक विश्लेषण के माध्यम से किसी एक अर्थ पर आम सहमति बनना संभव है। पर यही बात केदार जी की सभी कविताओं के बारे में नहीं कही जा सकती। उनकी कुछ कविताएँ ऐसी हैं जिनमें छोड़ दिए गए अंतरालों के वे ग्रे एरियाज मौजूद हैं जहाँ किसी एक सुनिश्चित अर्थ का दावा नहीं किया जा सकता। वास्तव में भाषा स्वभाव से ही बहुलार्थी होती है। इसलिए दार्शनिकों की एक समस्या यह भी होती है कि कैसे भाषा के बहुलार्थी चरित्र को नियंत्रित कर के एक सुनिश्चित अर्थ का निर्माण किया जाए। ऐसा वे भाषा में मौजूद नाना प्रकार के अर्थ-संगतियों की खोज कर के अपना उदेश्य पूरा करने की कोशिश करते हैं। कवि-गण भाषा की शक्तियों का कलात्मक उपयोग करते हैं। वे बहुत बार एक ही कविता में अर्थों की बहुरंगी छटा निर्मित करते हैं। पाठक काव्य-कला के इस जादू से चम्तकृत हो उठते हैं। जहाँ यह कला सच्चे भावबोध से प्रेरित होती है वहाँ वह पाठकों के मन को भी गहराई से प्रभावित करती है और चमत्कार गौण हो जाता है। केदार जी हिंदी भाषा की शक्तियों से अच्छी तरह परिचित हैं। उन्होंने अपने युग की हिंदी काव्यभाषा को कलात्मक स्तर पर बहुत समृद्ध किया है। पर कविता की संरचना में ऐसे अंतरालों को छोड़ना जिससे अर्थ की अनिश्चयता और अराजकता उत्पन्न होती हो, प्रभावशाली कविता के निर्माण की दृष्टि से उचित नहीं जान पड़ता। ऐसी रचना-प्रविधि से निर्मित कविता प्रबुद्ध पाठकों को कलात्मक खेल का आनंद तो दे सकती है, किंतु सामान्य पाठकों के मन को गहराई से प्रभावित नहीं कर सकती।   

                                 

संपर्क : फ्लैट न.- 239, कनिष्क अपार्टमेंट, ब्लॉक – सी एवं डी, शालीमार बाग, दिल्ली – 110088  मो. – 9868465200. 

ई-मेल : sanjaykrsamyak@gmail.com

             


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