राही मासूम रज़ा
शक !
डर !
इन्हीं तीन डोंगियों पर हम आज
की नदी पार कर रहे हैं । यही तीन शब्द बोये और काटे जा रहे हैं । यही शब्द दूध
बनकर माँओं की छातियों से बच्चों के हलक़ में उतर रहे हैं । दिलों के बंद किवाड़ों
की दराजों में यही तीन शब्द झांक रहे हैं । आवारा रूहों की तरह ये तीन शब्द आँगनों
पर मंडरा रहे हैं, चमगादड़ों
की तरह पर फड़फड़ा रहे हैं और रात के सन्नाटे में उल्लुओं की तरह बोल रहे हैं ।
कुटनियों की तरह लगाई-बुझाई कर रहे हैं और गुंडों की तरह ख्वाबों की कुंवारियों को
छेड़ रहे हैं और भरे रास्तों से उन्हें उठाए लिए जा रहे हैं । तीन शब्द ! नफ़रत, शक, डर ।
तीन राक्षस ।”[1]
तीन राक्षस ।”[1]
राही मासूम रज़ा |
नफरत और हिंसा ने इस देश की हवाओं को में इस कदर गरम कर दिया है कि
बिना किसी चिनगारी के भी आग पर आग लगाई जा रही है और एक कौम के लोग बेवजह उसमें
झुलस रहे हैं । उनकी गलती यही है कि वे मुसलमान हैं और यहाँ हिंदुस्तान में उन्हें
क्योंकर होना चाहिए । ऐसे में राही मासूम रज़ा जैसे रचनाकार बहुत सिद्दत से याद आते
हैं । आज किसी खास धर्म और समुदाय के खिलाफ़ दूसरे धर्म के संप्रदायवादी सांगठनिक
लोगों और उनके द्वारा उत्प्रेरित उन्मादी भीड़, कभी ‘लव जेहाद’ के
नाम पर तो कभी ‘गौ-कशी’ के नाम पर तो
कभी ‘बीफ’ के नाम पर बात-बात में
इकट्ठा हो जाती है । अपने दिलों में अकारण पैदा किए गए गुस्से और नफरत को हिंसक
रूप देकर सरेआम किसी की हत्या करती है और अपने इस कथित ‘महान’ कृत्य का बेखौफ वीडियो बनाती है । खुश हो-होकर, जब-जब
जरूरत पड़ेगी, तब-तब ऐसा करने का हुंकार भरते हुए कभी केसरिया
पताका लेकर तो कभी तिरंगा लेकर आइएस आएइस (ISIS) की तरह उन
सड़कों से, उन गली-मुहल्लों से गुजरती है जहाँ एक खास मज़हब के
लोगों के दिलो-दिमाग में दहशत और खौफ़ भरा जा सके । सांस्कृतिक सूत्रीकरण और
धार्मिक शुद्धता के नाम पर बने इन सांप्रदायिक संगठनों के नेता जहां अप्रत्यक्ष
रूप से ‘हत्यारों’ के इस कृत्य पर न
केवल उनकी पीठ ठोंकते हैं बल्कि उन्हें हर तरह की मदद भी करते हैं, वहीं प्रत्यक्ष रूप से यदा-कदा किसी मंच से उनका स्वागत करते हुए उनके
गले में फूलों का हार पहनाते हैं । इस तरह से ‘सिस्टम’ के भीतर से उनके इस कृत्य को भरपूर समर्थन हासिल होता है । हालाँकि, यह कहना भी भोलापन होगा कि उन्हें समर्थन हासिल होता है, बल्कि सचाई तो यह है कि यह सब कुछ उसी ‘सिस्टम’ की परियोजना का उन्हीं के लोगों द्वारा संचालन और नियोजन है । और यह नया
नहीं है, यह बहुत पुराना खेल है । क्योंकि सांप्रदायिकता की
राजनीति करने वाली सांप्रदायिक ताकतें हमेशा से ही राष्ट्र को एक संकीर्ण ‘राष्ट्रवादी’ पहचान और परिभाषा में बांधने और
प्रस्तुत करने की कोशिश करती रही हैं । या, इसे यों भी कह
सकते हैं कि ‘राष्ट्रवाद’ में अलग से सांप्रदायिकता
के तत्व और चिन्ह ढूँढने की जरूरत ही नहीं है, वह तो उसमें ‘इनबिल्ट’ होता है । मैं, उन
लोगों से सहमत नहीं हो पाता जो लोग यह कहते हैं कि हत्या और दहशतगर्दी की
कार्यसंस्कृति हिंदू धर्म और संस्कृति का हिस्सा नहीं और उन लोगों से भी नहीं जो
यह धारणा बनाकर मान चुके हैं कि इस्लाम अपने मूल में ही हिंसा, आतंक और दहशतगर्दी को जीने और बढ़ाने वाला धर्म है । इस संदर्भ में दो
तथ्यों की ओर आपका ध्यान ले जाना चाहूँगा । पहला तथ्य हिंदू महासभा के अध्यक्ष रहे
विनायक दामोदर सावरकर से संबन्धित है और दूसरा आर.एस.एस. के ‘थिंक टैंक’ और लंबे समय तक उसके प्रमुख रहे माधव
सदाशिव गोलवलकर से संबंधित है । आनंद पटवर्धन इन दोनों तथ्यों का हवाला देते हुए
लिखते हैं – 1) “सावरकर ने 1937 में बतौर हिंदू महासभा अध्यक्ष ‘राजनीति का हिंदूकरण और हिन्दुत्व में सशस्त्रीकरण’
का नारा दिया ।”[3]
2) “रामचंद्र गुहा लिखते हैं, 6 दिसंबर 1947 को (गांधी की
हत्या से दो महीने पहले) गोलवलकर ने दिल्ली के करीब गोवर्धन शहर के पास आर.एस.एस.
कार्यकर्ताओं की एक बैठक बुलाई । पुलिस की रिपोर्ट के अनुसार इस बैठक में इस बात
पर चर्चा हुई कि किस तरह कांग्रेस के प्रमुख व्यक्तियों की हत्या की जाए ताकि जनता
के मन में खौफ पैदा किया जाय और उन्हें अपने शिकंजे में लिया जाय ।”[4] इन
उद्धरणों में अंतर्निहित ‘इंटेंट ऑफ मिलिटेंसी’ को कोई कैसे झुठला सकता है । इसलिए कोई भी मजहब अपने मूल चरित्र में मानव
विरोधी नहीं हो सकता, कारण कि खुद मनुष्य ने ही एक
सामाजिक-सांस्कृतिक अंतःसूत्र तलाशने और उसमें अपने को सांझा करने और अपने होने-पाने
की आकांक्षा के लिए धर्म का ईज़ाद किया था । पर दुर्भाग्य से उसे उसी मनुष्यता के
खिलाफ खड़ा कर राजनीतिक स्वार्थ के लिए उसका दुरुउपयोग किया जाने लगा । यह समझ भुला
दी गयी कि, धर्म केवल आस्था और विश्वास की वस्तु नहीं है, मानवीय समाज में मनुष्य के बुद्धि और विवेक से उसका गहरा रिश्ता होता है
। वह सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण की निर्मिति का एक महत्वपूर्ण अंग होता है ।
लेकिन जहां धर्म को अपने सियासी फायदे नुकसान का खेल बनाकर,
उसे सांप्रदायिक रंग में रंग कर सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण को बिगाड़ने की
परियोजना पर लगातार कम किया जाता हो वहाँ मानवीय बुद्धि और विवेक की चिंता किसे है
। ‘टोपी शुक्ला’ उपन्यास में टोपी अपने मित्र इफ़्फ़न से खीझते हुए कहता है, “धर्म में भी साली पॉलिटिक्स घुस आई है । धर्म सदा से ही पॉलिटिक्स ही का
एक रूप रहा है । न सोमनाथ का मंदिर तुम बनवा सकते हो और न दिल्ली का जामा मस्जिद
मैं । इफ्फ़न की आवाज़ में एक तलही थी ।”[5] राही मासूम
रज़ा का इशारा साफ है । हम सब जानते हैं कि सोमनाथ का मंदिर कैसे कांग्रेस के अंदर
हिंदुत्ववादी धड़े के नेता लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल, (जिन्हें
भारतीय जनता पार्टी की सरकार आज अपना आदर्श मान रही है और गुजरात में उनकी प्रतिमा
बनवा रही है । कहा जा रहा है कि यह दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा होगी और इसके लिए
पूरे देश के किसानों से लोहा दान में देने की अपील की गयी है) की पहल पर निर्मित
हुआ । आज़ादी के तीन महीने बाद दीपावली के दिन (12 नवंबर,
1947) गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल पूजा-अर्चन के लिए उपस्थित हैं, पूजा-अर्चन के बाद अपने सम्बोधन में वह सोमनाथ मंदिर के भव्य मंदिर बनाए
जाने की घोषणा करते हैं । 5 साल में जन-धन और सेठों-साहूकारों के सहयोग भव्य मंदिर
बन कर तैयार हो गया । प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से असहमत होते हुए, उनकी इच्छा के विरुद्ध तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद मंदिर
में प्राण-प्रतिष्ठा के मौके पर यज्ञ-अनुष्ठान में उपस्थित हुए और सरदार पटेल की खूब तारीफ की और
सोमनाथ के इस भव्य मंदिर को हिंदू श्रद्धा और संस्कृति का एक स्मारक बताया ।
यह तो कांग्रेस की राजनीति है । जिन राजनीतिक संगठनों की बुनियाद
ही में ‘धर्म’ की राजनीति हो, जिनको अपने फलने-फूलने के सारे
पौष्टिक आहार धर्म से ही मिलते हो वह क्यों नहीं इसको और-और पुख्ता करने का प्रयास
करेंगे । इसलिए हम आप जिसे सांप्रदायिकता कहते हैं वह उनके लिए सत्ता में आने और
सत्ता में लंबे समय तक बने रहने का ‘ट्रम्प कार्ड’ है । राजनीतिक निरंकुशता और शह के इस भयानक सांप्रदायिक माहौल में आज
राही मासूम रज़ा से एक नए ढंग से बतियाने, उनसे अपना दर्द, अपनी पीड़ा सांझा करने, उनके दर्द और उनकी पीड़ा को
नए सिरे से महसूस करने और इस महादेश को सांप्रदायिकता की आग से बचाने के उनके प्रयासों
को एक बार फिर से याद करने और सामने लाने की जरूरत है । राही मासूम रज़ा इस महादेश
की अदबी क़ौमियत के एक विश्वसनीय रचनाकार हैं । उनका समूचा लेखन, वह चाहे उपन्यास हों, चाहे जीवनी हो, कविता, नज़्में और गज़लें हों,
चाहे सिनेमा और टी. व्ही. के लिए लिखे गए स्क्रिप्ट, संवाद
और गीत हों, हमें एतबार से भर देते हैं । दुनिया भर में हिंदी लिखने-पढ़ने और बोलने-समझने वाले लोगों के
बीच राही मासूम रज़ा जहां एक ओर अपने उपन्यास ‘आधा-गाँव’ और ‘टोपी शुक्ला’ के लिए पसंद
किए जाते हैं वहीं दूसरी ओर उन्हें एक समय में अत्यंत लोकप्रिय टी.वी. धारवाहिक ‘महाभारत’ के संवाद
लेखन को लेकर याद किया जाता है वहीं बहुत से लोग उन्हें ‘गोलमाल’,
‘कर्ज’, ‘लम्हें’, ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ जैसी सुपरहिट फिल्मों की
वजह से जानते हैं । एक जमाने में एक पूरी पीढ़ी ‘नीम का पेड़’ धारावाहिक
के टाइटिल गीत ‘मुँह की बात सुने हर कोई, दिल के दर्द को जाने कौन’ और ‘हम तो हैं परदेश में देश में निकाला होगा चाँद’ की
दीवानी थी ।
राही
मासूम रज़ा बीसवी शताब्दी के तीसरे दशक में पैदा हुए, जब आज़ादी की लड़ाई एक
शक्ल अख़्तियार कर रही थी । 1947 में, 20 साल के एक नौजवान जो
नाम से ही मासूम था, के लिए,
हिंदुस्तान की आज़ादी जिस कीमत पर मिली, जिस कीमत की वसूली कर
अंग्रेज़ इस देश से जाने को राज़ी हुए वह कोई सामान्य नहीं बल्कि समूचे जातीय
ताने-बाने और भाईचारे के वजूद को झकझोर कर तहस-नहस कर देनी वाली घटना थी । एक तो
वतन और मिट्टी का बँटवारा और दूसरे सांप्रदायिक हिंसा का जलजला । पर उस नौजवान को
लगा था कि शायद यह स्थिति तात्कालिक-प्रतिक्रिया भर है,
लोगों के जख्म भर जाएंगे तो माहौल धीरे-धीरे बदल जाएगा । पर उसका यह आकलन गलत होना
था और हुआ भी । आज़ाद हिंदुस्तान में 1961 ईस्वी में भड़के जबलपुर के पहले
सांप्रदायिक दंगे से राही मासूम रज़ा का दिल बैठ जाता है, वे लिखते
हैं - “सन इकसठ के दंगों के बाद मैं इस सोच में पड़ गया कि इस मुल्क में केवल
हिन्दू-मुसलमान ही बसते हैं, या कोई हिन्दुस्तानी भी है ।...मेरा
दिल बहुत दुखता है, जब मेरे नाम की वजह से कोई मुझ पर शक
करता है । नाम ? मासूम रज़ा । काम ?
पाकिस्तान की जासूसी । नाम अब्दुल हमीद । काम ? पाकिस्तान की
जासूसी । कोई पटियाले के अजायब सिंह और कानपुर के अगरवाल से यह सवाल नहीं करता
(इनमें से के पाकिस्तान के लिए जासूसी करते पकड़ा गया और दूसरा पाकिस्तान को फौलाद
भेजने के जुर्म में) ! कोई उन लोगों से कुछ नहीं कहता जो दिन-रात मुझे आभारतीय
कहते रहते हैं । परंतु मेरे गीतों को नज़रअंदाज़ करके सब मेरे नाम को पकड़ लेते हैं ।
किसी की समझ में यह नहीं आता कि मैं केवल एक नाम नहीं हूँ,
मैं एक आदमी और एक परंपरा भी हूँ ।...मैंने और मेरे जैसे करोड़ों लोगों ने, जिनके नाम अरबी भाषा में हैं, इसी देश में जन्म
लिया । हमने यहीं ख़्वाब देखना सीखा । हमारे ख़्वाब यहीं टूटे और यहीं पूरे हुए ।
हमारे बदन में इस मिट्टी की सोंधी महक उसी तरह है, जिस तरह
किसी संस्कृत नामवाले की । इसीलिए राउरकेला और जमशेदपुर के बलवों के जमाने में
मुझे एक कविता लिखनी पड़ी । वह यूं है -
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग
लगा दो
मेरे उस कमरे को लूटो जिसमें मेरी
बहनें जाग रही हैं
और मैं जिसमें तुलसी की रामायण से
सरगोशी करके
कालीदास के मेघदूत से यह कहता हूँ
मेरा भी एक संदेश है।
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग
लगा दो
लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी
दौड़ रहा है
मेरे लहू से चुल्लू भर महादेव के मुँह
पर फेंको
और उस योगी से कह दो-महादेव
अब इस गंगा को वापस ले लो
यह
जलील तुर्कों के बदन में गढा गया
लहू बनकर दौड़ रही है ।”[6]
अपने उपन्यास ‘टोपी शुक्ला’ में इस मुस्लिम शिनाख्त और उसके प्रति जड़ जमा
चुकी नफरत और हिंसक प्रवृत्ति को जिस शिल्प की सफाई और संवेदना की ऊंचाई के साथ
ट्रेन की एक मर्माहत कर देने वाली घटना के सहारे राही ने चित्रित किया है वह हिंदुस्तान
के लिंचिस्तान में बदलते जा रहे वर्तमान माहौल को बड़े ही प्रतीकात्मक ढंग से खोलता
है । बलभद्र नारायण शुक्ल उर्फ टोपी शुक्ला अपनी काली शेरवानी में साज-धजकर अलीगढ़
से अपने गाँव गाजीपुर जा रहा है । ज्यों ही ट्रेन के डिब्बे में सवार होता है और
एक सीट की ओर बढ़ता है तो पाता है कि एक पंडित जी खाना खा रहे हैं, वह पंडित जी से गुजारिश करता है कि खाली
सीट पर थोड़ा सा खिसक जाएँ तो वह भी बैठ जाय । बाबा नहीं खिसकते हैं और खाना खाते
रहते हैं । तब तक सामने वाली सीट पर से आवाज आती है, “तुम यहाँ बैठ जाओ बेटा, वहाँ क्यों बैठ जाऊँ? तब तक एक तोंदवाले सज्जन पूरे तैश में आ जाते हैं और कहते हैं ‘अरे तो क्या बाबा के सिर पर बैठोगे?’ टोपी बर्थ की
लकड़ी बजाकर कहता है ‘यह बाबा का सिर है?’ इस तरह ऐंठना हो तो पाकिस्तान जाओ । तोंद बोली । बात टोपी की समझ में आ
गयी । वह हँस पड़ा । माफ कीजिएगा । बाबा से माफी मांग कर वह सामने वाली बर्थ पर बैठ
गया ।...पंडित जी का खाना खत्म हुआ तो तोंदवाला पंडित जी से बातें करने लगा ।
धीरे-धीरे आसपास के लोग भी बातों में शामिल हो गए । आस-पास वालों में एक मुसलमान
भी था । मगर सेठ साहब ! उस मुसलमान ने कहा, अगर मैं मुसलमान
हूँ तो इससे यह कहाँ साबित होता है कि मैं पाकिस्तानी हूँ या यह कि मैं हिन्दुस्तानी
बनकर इस मुल्क में रहने को तैयार नहीं हूँ ? आप इन्हीं
श्रीमान को देखिए, तोंद ने टोपी की तरफ इशारा किया, ‘यह देख रहे थे कि बाबा भोजन कर रहे हैं किन्तु...।
‘मैं हिंदू हूँ’ टोपी ने कहा । मैं
बलभद्र नारायण शुक्ला हूँ, और चलिए मान लिया कि मैं शेख सलामत
हूँ तो क्या हुआ ? ये बेंचें यात्रियों के बैठने को लगी हैं
। मैं बाबा का खाना छीन तो नहीं रहा था । आप ही लोग मुसलमानों को भारत-विरोधी दल
में धकेल रहे हैं । क्या यह शेरवानी मुसलमान है? यह तो
कनिष्क के साथ आई थी । यह पायजामा भी कनिष्क ही का है ।...हिंदू–मुसलमान का भेदभाव झूठा है बेटा ! पंडित जी ने कहा । यह तो भगवान की लीला
है...। भगवान बेचारे को क्यों घसीट रहे हैं पंडित जी! मैं हिन्दू हूँ परंतु कहीं
मुझे एक नौकरी नहीं मिलती, क्योंकि मैं मुस्लिम यूनिवर्सिटी
में पढ़ता हूँ । मुझे आप अपने साथ नहीं बैठने देते क्योंकि मैं शेरवानी पहने हुए
हूँ । और यह तोंदवाले श्रीमान तो मुझे पाकिस्तान भेजे दे रहे हैं । अरे बाबा, यदि मैं मुसलमान रहा होता तो तुम्हें खाता देखकर खुद ही दो कदम पीछे हट
गया होता । अब यह मुसलमान ही तो हैं, कैसे बैठे माफी मांग
रहे हैं, मुसलमान होने की । यह बेचारे आप से यह नहीं कह सकते
कि तुम होते कौन हो मुझ पर शक करने वाले ! मैं भी एक भारतीय नागरिक हूँ । इनके दिल
पर तो आज डर की एक और तह जम गयी होगी । अब यह सफर करेंगे तो किसी ऐसे डिब्बे में
बैठेंगे जिसमें दस-बीस मुसलमान भी बैठे हों ।”[7]
सन’
61 में जबलपुर में भड़के सांप्रदायिक दंगे के बाद तो कभी न खत्म होने वाली नफ़रत और
दहशतगरदी का अन्तहीन सांप्रदायिक सिलसिला थमने का नाम ही नहीं लेता । 1964 ईस्वी में राउरकेला का दंगा,
1967 ईस्वी में रांची दंगा, 1969 में अहमदाबाद
का दंगा, 1970 में भिवंडी दंगा, 1979 में
जमशेदपुर दंगा, 1980 में मुरादाबाद दंगा, 1983 में असम के नेल्ली का दंगा, 1984 में सिख विरोधी
दंगे, 1984 में भिवंडी दंगा, 1985 में
गुजरात के दंगे, 1986 में अहमदाबाद के दंगे, 1987 में मेरठ के दंगे, 1989 में भागलपुर के दंगे,
1990 में हैदराबाद के दंगे, 1992 में मुंबई,
अलीगढ़ और सूरत के दंगे, 1992 में बाबरी
मस्जिद प्रकरण, गोधरा प्रकरण और 2002 के
गुजरात के दंगे और अब 2014 से लगातार हो रहे दंगे यह बतलाते हैं कि सांप्रदायिकता
का धर्म से कोई वास्ता नहीं है । यह पूरी तरह से राजनीतिक खेल है, जिसमें ‘स्टेट’ भागीदार होता
है । सबसे गौर करने वाली जो बात है वह यह है कि इन दंगों में सबसे अधिक मारी जाने
वाली आबादी मुसलमानों की होती है । 2001 में किए गए एक
अध्ययन से पता चला कि, यद्यपि मुसलमानों का देश की आबादी में
हिस्सा मात्र 12-13 प्रतिशत है तथापि दंगों में मारे जाने
वाले लोगों में 80-90 प्रतिशत मुसलमान होते हैं । तथ्य और
विवरण के साक्ष्य और भी बहुत कुछ कहते हैं । यहाँ उन तफ़सीलों में जाने का अवसर
नहीं है । फिर भी अगर आप एक झलक देखना चाहें तो इस लिंक[8] पर जाकर इस देश में मुसलमानों
के सूरते-हाल को देख सकते हैं ।
राही
मासूम रज़ा की कलम में, अंतर्धारा की तरह सांप्रदायिकता का, बँटवारे का दर्द आपको हर जगह हमें मिल जाएगा । ‘आधा-गाँव’ में तो इसे साफ-साफ पढ़ा गया है, ‘टोपी शुक्ला’ और ‘ओस की बूंद’ में भी अंडरकरेंट की तरह यह मौजूद है । ग़ज़लों,
नज़मों और कविताओं तक में इस दर्द की मौजूदगी मिलेगी । ‘मर्सिया’ शीर्षक से यह नज़्म या ‘हम तो हैं कंगाल’ शीर्षक से उनकी यह कविता इस पीड़ा और दर्द और उममीद की एक अंतहीन कहानी हैं
:
एक
चुटकी नींद की मिलती नहीं
अपने ज़ख़्मों पर छिड़कने के लिए
हाय हम किस शहर में मारे गये
घंटियाँ बजती हैं
ज़ीने पर कदम की चाप है
फिर कोई बेचेहरा होगा
मुँह में होगी जिसके मक्खन की ज़ुबान
सीने में होगा जिसके इक पत्थर का दिल
मुस्कुरा मेरे दिल का इक वरक़ ले जाएगा
अपने ज़ख़्मों पर छिड़कने के लिए
हाय हम किस शहर में मारे गये
घंटियाँ बजती हैं
ज़ीने पर कदम की चाप है
फिर कोई बेचेहरा होगा
मुँह में होगी जिसके मक्खन की ज़ुबान
सीने में होगा जिसके इक पत्थर का दिल
मुस्कुरा मेरे दिल का इक वरक़ ले जाएगा
x x x
हम तो हैं कंगाल
हमारे पास तो कोई चीज़ नहीं
कुछ सपने हैं
आधे-पूरे
कुछ यादें हैं
उजली-मैली
जाते-जाते
हमारे पास तो कोई चीज़ नहीं
कुछ सपने हैं
आधे-पूरे
कुछ यादें हैं
उजली-मैली
जाते-जाते
आधे-पूरे
उजली-मैली सारी यादें
हम मरियम को दे जाएंगे
गंगोली के कच्चे घर में उगने वाला सूरज
आठ मुहर्रम की मजलिस का अफसुर्दा-अफ़सुर्दा हलवा
गंगोली के कच्चे घर में उगने वाला सूरज
आठ मुहर्रम की मजलिस का अफसुर्दा-अफ़सुर्दा हलवा
आँगन वाले नीम के ऊपर
धूप का एक शनासा टुकड़ा
गंगा तट पर
चुप-चुप बैठा
जाना-पहचाना इक लम्हा
बिस्मिल्लाह खाँ की शहनाई
अहमद जान के टेबल की चंचल पुरवाई
खाँ साहिब की ठुमरी की कातिल अंगड़ाई
रैन अँधेरी
डर लागे रे
मेरी भवाली की रातों की ख़ौफ़ भारी लरज़ाँ तन्हाई
छोटी दव्वा के घर की वो छोटी सी सौंधी अँगनाई
धूप का एक शनासा टुकड़ा
गंगा तट पर
चुप-चुप बैठा
जाना-पहचाना इक लम्हा
बिस्मिल्लाह खाँ की शहनाई
अहमद जान के टेबल की चंचल पुरवाई
खाँ साहिब की ठुमरी की कातिल अंगड़ाई
रैन अँधेरी
डर लागे रे
मेरी भवाली की रातों की ख़ौफ़ भारी लरज़ाँ तन्हाई
छोटी दव्वा के घर की वो छोटी सी सौंधी अँगनाई
अम्मा जैसा घर का आँगन
अब्बा जैसे मीठे कमरे
दव्वा जैसी गोरी सुबहें
माई जैसी काली रातें
सब्ज़ परी हो
या शहज़ादा
सबकी कहानी दिल से छोटी
फड़के
घर में आते-आते
हर लम्हे की बोटी-बोटी
अब्बा जैसे मीठे कमरे
दव्वा जैसी गोरी सुबहें
माई जैसी काली रातें
सब्ज़ परी हो
या शहज़ादा
सबकी कहानी दिल से छोटी
फड़के
घर में आते-आते
हर लम्हे की बोटी-बोटी
मेरे कमरे में नय्यर पर हँसने का वो पहला दौरा
लम्हों से लम्हों की क़ुरबत
लम्हों से लम्हों की दूरी
गंगोली की
गंगा तट की
ग़ाज़ीपुर की हर मजबूरी
मेरे दिल में नाच रही है
जिन-जिन यादों की कस्तूरी
धुंधली गहरी
आधी-पूरी
उजली-मैली सारी यादें
मरियम की हैं
जाते-जाते
हम अपनी ये सारी यादें
मरियम ही को दे जाएँगे
अच्छे दिनों के सारे सपने
मरियम के हैं
जाते-जाते
मरियम ही को दे जाएँगे
मरियम बेटी
तेरी याद की दीवारों पर
पप्पा की परछाई तो कल मैली होगी
लेकिन धूप
आधी-पूरी
उजली-मैली सारी यादें
मरियम की हैं
जाते-जाते
हम अपनी ये सारी यादें
मरियम ही को दे जाएँगे
अच्छे दिनों के सारे सपने
मरियम के हैं
जाते-जाते
मरियम ही को दे जाएँगे
मरियम बेटी
तेरी याद की दीवारों पर
पप्पा की परछाई तो कल मैली होगी
लेकिन धूप
तिरी आँखों के
इस आँगन में फैली होगी ।
इस आँगन में फैली होगी ।
इस
देश की दो क़ौमों हिंदू और मुस्लिम के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन,
रहन-सहन, रीति-रिवाज और धार्मिक आचरण व व्यवहार के ताने-बाने
और उसकी ‘बॉंडिंग’ की जितनी सुलझी हुई
साफ समझ राही मासूम रज़ा की है वह हिंदी में कम लोगों के यहाँ है । अपनी इसी समझ के
चलते वे सांप्रदायिकता को फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, सहादत हसन मंटो आदि
की तरह इन दोनों देशों – भारत और पाकिस्तान – के आम लोगों पर थोपी गयी एक राजनीतिक
परियोजना की तरह देखते हैं और उसकी चालाक स्वार्थों की बेबाकी से आलोचना करते हैं
। अपनी समझ और बेबाकी के चलते हिंदी में सांप्रदायिकता की क्रिटिक रचने वाले वे
अन्यतम लेखक हैं । उनके पूरे रचनात्मक लेखन से गुजरते हुए आप देखेंगे की कैसे वे
सांप्रदायिकता की वास्तविक पहचान से अपने पाठकों को रु-ब-रु कराते हैं । जो लोग
इतिहास, राजनीति और समाज विज्ञान के विद्यार्थी नहीं है, जिस सामान्य पाठक को सांप्रदायिकता के सैद्धान्तिक विचार और धारणा की कोई
समझ नहीं है वह राही मासूम रज़ा के उपन्यास पढ़ कर यह समझ विकसित कर सकता है । इसी
अर्थ में उपन्यास को केवल एक साहित्यिक पाठ या ‘लिटररी
कंस्ट्रक्ट’ भर नहीं माना जाता है वह अपने समय और समाज का एक
सोशल और पोलिटिकल कंस्ट्रक्ट भी होता है । राही की स्पष्ट मान्यता है कि सांप्रदायिकता
को हमेशा ही एक परियोजना की तरह काम में लाया जाता है । कभी वह साम्राज्यवादी
शक्तियों की औपनिवेशिक ख़्वाहिश को पूरा करने का जरिया बनकर पैदा होती है तो कभी ‘राष्ट्र-राज्य’ की शक्ति और व्यवस्था को अपरिहार्य
बनाए रखने की रणनीति के तहत पैदा की जाती है तो कभी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक स्तर
पर आहत जातीय भावना के नाम पर महानता और गौरवशाली अतीत के पुनर्बहाली या
पुनरुत्थान के लिए संस्कृति की रक्षा का नारा बुलंद करके लायी जाती है तो कभी धर्म
की मूल भावना के विरूद्ध धर्म को ही खतरे में बताकर धर्म और उसके प्रतीकों, चिह्नों और आदर्शों की रक्षा के नाम पर सांप्रदायिकता की खेती की जाती है
। इस परियोजना को लागू कराने के लिए राष्ट्रवाद से लेकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तक
का वृहद मैदान है जिसमें भोली-भाली क़ौमें कभी भूगोल के नाम पर तो कभी जाति के नाम
पर तो कभी भाषा के नाम पर, कभी धर्म के नाम पर तो कभी
संप्रदाय के नाम पर सहज शिकार बनती रही हैं, बन रही हैं । बहुत
पहले की तारीख़ में न जाएँ, आधुनिक इतिहास की गवाही को ही लें
तो ‘राष्ट्र राज्य’ द्वारा अपने लिए
तैयार किए गए और विकसित सांस्थानिक रूपों में सांप्रदायिकता को भी सदा से ही एक
राजनीतिक परियोजना की तरह जीवित और विकसित किया गया और आज भी समय-समय पर ‘स्टेट’ द्वारा इसे प्रायोजित और नियोजित किया जाता
है । ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने भारतीय उपमहाद्वीप में अपने औपनिवेशिक हितों के लिए सांप्रदायिकता
की राजनीति को एक सांस्कृतिक रणनीति के तहत जिस तरह से प्रायोजित किया नतीजतन इज़राइल
की तरह सांप्रदायिकता के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ । इसलिए हमें अभी भी
अपने को दुरुस्त कर लेना चाहिए की पाकिस्तान का निर्माण सांस्कृतिक और धार्मिक
कारणों से नहीं हुआ, पाकिस्तान के बनने के पीछे राजनीतिक महत्वाकांक्षा
का ज़ोर अधिक था धार्मिकता का नहीं । यह वैसे ही है जैसे ऊपर से देखने पर यह बात
उचित प्रतीत होती है कि हिंदू और मुस्लिम संप्रदायवादी एक दूसरे की कट्टर दुश्मन
हैं । पर अगर बुनियादी तौर से आप समझने की कोशिश करेंगे तो तो आपको पता चलेगा कि
अपने निहित स्वार्थों और महत्वाकांक्षाओं में दोनों एक दूसरे के गहरे दोस्त हैं । वर्तमान
सरकार की इधर अरब इस्लाम और इजरायल के साथ बढ़ती दोस्ती को आप इसके उदाहरण के रूप
में पेश कर सकते हैं । अफगानिस्तान में जो कुछ अमेरिका के द्वारा किया गया, ईरान और इराक के साथ जो उसकी अलग-अलग रणनीति है, ये
सब उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किए जा सकते हैं । एक बात और है, आज जिसे भूमंडलीकरण कहा जा रहा है उसने धर्म के बाज़ार को फलने-फूलने और
फैलने का एक नया आयाम दिया है । अब इसकी सीमाएं किसी भूगोल कि मोहताज नहीं है
इंटरनेट की सवारी कर वह क्षितिज को छू रही हैं । भूमंडलीकरण की बाजारवादी
प्रतिस्पर्द्धा की प्रकृति के अनुसार हर तरह के वैविध्य को समाप्त कर समरूपीकरण की
जो राजनीति है उसने धर्म को भी नहीं छोड़ा है । इस संबंध में प्रसिद्ध
राजनीतिविज्ञानी और मानवशास्त्री व धार्मिक संस्थाओं और परियोजनाओं पर शोध-अध्ययन
करनी वाली शैल मायराम का यह कथन इस पूरी सच्चाई को सामने रखता है – “विविधताओं पर
समरूपीकरण के आयाम आरोपित करने के संदर्भ में धर्म का भूमंडलीकारण पहले भी था, लेकिन तब इसकी सीमाएँ उपनिवेशवाद, फौजी आक्रमणों और
राष्ट्र-राज्य के दायरों में रहती थीं । परंतु, अब वित्तीय
पूंजी के नए रूपों, उपभोक्ता समाज की रचना और संचार क्रान्ति
के माध्यम से हो रहे भूमंडलीकरण ने धर्म के इस आयाम को एक नया उछल दे दिया है । भूमंडलीकरण
के मौजूदा दौर ने धर्म में एक नया आवेश भर दिया है जिससे वह समाज और व्यक्ति को
बदलने की एक गैबी ताकत से लैस हो गया है ।”[9]
सांप्रदायिकता की इस परियोजना की बुनियादी समझ रखने वाले और उसके
प्रतिरोध को अपनी रचनात्मकता में वास्तविक संवेदना के साथ अभिव्यक्त करने वाले
लेखक-रचनाकार कम हैं । राही मासूम रज़ा का नाम इसीलिए सबकी जुबान पर चढ़ा हुआ है कि
वे सांप्रदायिकता के मूल चरित्र को जानने-पहचानने और और समझदारी के साथ रचने वाले
रचनाकार हैं । ‘आधा-गाँव’ इस विषय का एक नायाब क्लैसिक है । मुल्क बँटवारे को लेकर जो बड़े पैमाने
पर सांप्रदायिक हिंसा हुई ‘आधा गाँव’ उसको जिस संवेदना
के साथ रचता है वह अलहदा है । ‘आधा गाँव’ के फुन्नन मियाँ
जैसा कैरेक्टर फिर बाद में हिंदी उपन्यास को न मिल सका । यह फुन्नन मियाँ हैं
कौन, क्या कोई बड़े ज्ञानी, विद्वान, समाज-सुधारक या नेता हैं ? नहीं साहब फुन्नन मियाँ यह नहीं है, फुन्नन मियाँ तो वह हैं जिनके पास इखलाकों, फलसफाओं
और तारीखों का कोई जखीरा नहीं । वे पढ़े-लिखे नहीं है, देश-दुनिया की बहुत नहीं जानते हैं, हिंदुस्तान में, हिंदू और मुसलमान दो क़ौमें हो सकती हैं इस बात का उन्हें रत्ती भर भी
इलहाम नहीं है । पाकिस्तान जैसा कोई अलग देश बनने की मांग ज़ोर पकड़ रही है इससे
उनका कोई वास्ता नहीं है, उनके लिए तो अपनी गंगौली, वहाँ के लोगों और साल में एक बार आने वाले मोहर्रम के अलावा कुछ नहीं पता
। फुन्नन मियां इन तीनों से खूब प्यार करते हैं । इनसे छूटना या इनको छोड़ने की वे
कल्पना भी नहीं कर सकते हैं । लेकिन गंगौली में भी धीरे-धीरे मुसलमानों के लिए एक
अलग राष्ट्र पाकिस्तान बनने की बातें अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले
गाँव के कुछ नौजवानों के जरिए आने लगी हैं । यह खबर फुन्नन मियां के कानों तक भी
पहुँचती है । वह ठट्ठा मारकर सिरे से इस खबर को नकार देते हैं और तो और जो लोग यह
खबर फैला रहे हैं उनका मजा भी लेते हैं । एक दिन गाँव में अनवारुल हसन राकी के
बेटे और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले नौजवान व अखिल भारतीय मुस्लिम
स्टूडेंट फेडरेशन के उपसभापति फ़ारुक को देखते ही फुन्नन मियां उसे छेड़ते हैं:
“ए भैया, तोरे पाकिस्तान का का तो हाल है ?”
“वह तो बन रहा है ।”
“काहे न बनिहे भैया ! तू
कहि रइयो तो जरूर बनिहे । बाकी ई गंगौली पाकिस्तान में जइहे कि हिंदुस्तान में
रइहे ?”
“…ए भाई,
बाप दादा कि कबर हियाँ है, खेत बाड़ी हियां है । हम कोनो
बुरबक हैं कि तोरे पाकिस्तान जिंदाबाद में फँस जाएँ ।”
“अंग्रेजों के जाने के बाद
यहाँ हिंदुओं का राज होगा !”
“हाँ-हाँ त हुए दा । तू त
ऐसा हिंदू कहि रहियो जैसे हिंदुआ सब भूकाऊँ हैं कि काट लिहयन । अरे, ठाकुर कुँवरपाल सिंह त हिंदुए रहें ।
झींगुरिओ हिंदू है । ए भाई, ओ परशुरमवा हिंदुए न है कि जब
शहर में सुन्नी लोग हरमजदगी किहिन कि हम हज़रत अली का ताबूत न उठे देंगे, काहे को कि ऊ में शीआ लोग तबर्रा पढ़त हएँ, त
परशरमुवा ऊधम मचा दिहीस कि ई ताबूत उट्ठी और ऊ ताबूत उट्ठा । तोहरे जिन्ना साहब
हमारा ताबूत उठवाए न आए !”[10] यह
भावना अकेले फुन्नन मियाँ की ही नहीं है पूरे गंगौली की है और गंगौली जैसे उन सभी
गाँवों की है जहां एक नहीं अनेकों धर्म, जाति और रोजी-रोजगार
के लोग अमन-चैन से एक साथ ख़ुशदिल जी रहे हैं । तभी तो जब छिकुरिया चमार को
चंदन-तिलक लगाए पढे-लिखे एक मास्टर साहब यह समझाने की कोशिश करते हैं कि, “मुसलमानों ने इस देश की संस्कृति और धर्म को नष्ट कर दिया, इन मलिच्छों ने भारतवर्ष को तहस-नहस कर दिया है । मंदिरों को तोड़-ताड़कर
मस्जिदें बनवा ली हैं इन पापियों ने । ...औरंगजेब बादशाह एक दो मस्जिद को भ्रष्ट
किहिस है का ?”[11] इस पर छिकुरिया का जो जवाब है वह देखने लायक है: “हम औरंगजेब के ना जानी
ला ! छिकुरिया ने कहा, बाकी हम ज़हीर मियाँ और अनवारुल हसन
राकी के जानी ला । हम न मानब आप की बात । और जेकर आप नाम लेत बाड़ी, ऊ सार होई कौनों बदमास । ‘और ई जौन पाकिस्तान बनवा
रहे हैं सब ।” मास्टर साहब ने फिर उकसाया । ‘हम कौनों
महापुरुष ना हईं, किसान हईं । हम आकिस्तान-पाकिस्तान ना जानी
ला । खेत बाड़ी क बात समझी ला ।”[12]
छिकुरिया ने बहुत ही बेलाग जवाब दिया । गाँव में अकेले फुन्नन मियाँ या छिकुरिया
ही नहीं सभी की यही भावना है । मुस्लिम लीग के लिए वोट मांगने अलीगढ़ से आए दो
नौजवानों जब कमालूद्दीन जैदी उर्फ कम्मो को आज़ादी के बाद हिंदुओं का डर दिखाकर
उकसाने कि कोशिश करते हैं तो उनसे कम्मों की यह भिड़ंत यह एक खुले जलसे में दूसरे
विश्व युद्ध से सही सलामत अपने गाँव लौटे मेजर हसन उर्फ तन्नू की तल्खी देखिये:
“हमरी माँ-बहिन को कउन बहनचोद
निकाल कर ले जा सकता है जी । कम्मो का बदन गुस्से से थर-थर काँपने लगा, आप लोग जउन एह बखत हमरे दरवाजे पर ना होते, त टंगिया चीर देते धर के आप लोगन की । सामने से हाथ में मिट्टी के तेल की
बोतल लटकाए एक चमार जा रहा था । कम्मो की आवाज सुनकर वह रुक गया । सुन रहा तै !
कम्मो ने उससे पूछा । का बात हौ मियाँ ? उसने पूछा । ई लोग
अलीगढ़ से हम्मे ई बताए आए हैं कि जब हिंदुस्तान आज़ाद हो जइहें, त तू लोग (हिंदू लोग) हमरे लोगन की माँ-बहिन को निकाल ले जइहो । अरे
राम-राम ! चमार बिलकुल घबरा गया । वह अलीगढ़ वालों की तरफ मुड़ा, आप लोग त लिक्खल-पढ़ल बुझाताड़ीं । तनी सोचीं कि हमनी के जीयत कोई मियाँ
लोगन की बहन-मतारी की तरफ देख सकेला का ।”[13]
x x x x
“आप लोगों ने तो उर्दू को भी
मुसलमान कर लिया । मगर खुदा की कसम, जो
जबान इस वक्त मैं बोल रहा हूँ वह मेरी मादरी जबान नहीं है । मेरी मादरी जबान तो
वही है जिसमें मुमताज़ ने मरते वक्त अपनी माँ को पैगाम भेजा था । यह उर्दू बोलने पर
तो हम्मद-दा पूरे गाँव में नक्कू बने हुए हैं । पाकिस्तान बनने के बाद आप इस उर्दू
को यहीं छोड़ जाएंगे या अपने साथ ले जाएंगे ? देखिए मैं कोई
सियासी आदमी नहीं हूँ । लेकिन मैंने लड़ाई का मैदान देखा है । लड़ाई में मरने वाले
बड़ी बेकसी की मौत मरते हैं । मारने वाला भी बड़ा बदसूरत हो जाता है । क्योंकि जान
बचाने के लिए वह सामने वाले को दुश्मन मानने और उससे नफरत करने पर मजबूर होता है ।
मुमकिन है कि अगर उनमें से कोई मुझे यहाँ, गंगौली में मिलता
तो मैं उसे सिगरेट पिलाता, गन्ने का रस पिलाता, उसे अपने तालाब में नहाने की दावत देता और फिर रात को उसके लिए किसी ढ़ोल
की तरह खींचे हुए पलंग पर नर्म और और गर्म
बिस्तर लगवाता और उसके मुल्क की बातें करता...और उसे अपने मुल्क की बातें सुनाता ।
लेकिन वहाँ मैंने उसे मार डाला क्योंकि अगर मैं उसे न मारता तो वह मुझे मार डालता
। इसलिए मैं डरता हूँ । आप जान का डर पैदा कर रहे हैं । डर की यह फस्ल हमीं को
काटनी पड़ेगी । इसलिए मैं बहुत डरता हूँ ।...जो कुछ मैंने देखा है वह आपने नहीं
देखा है । इसलिए जो कुछ मैं देख सकता हूँ वह आप नहीं देख सकते । नफरत और खौफ की
बुनियाद पर बनने वाली कोई चीज मुबारक नहीं हो सकती । पाकिस्तान बन जाने के बाद भी
गंगौली यहीं हिंदुस्तान में रहेगा । और गंगौली फिर गंगौली है । तब अगर गयवा अहीर, लखना चमार और छिकुरिया भर ने आपसे पूछा कि उन्होने तो कभी आपसे दुश्मनी
नहीं की थी फिर आपने पाकिस्तान को वोट क्यों दिया, तो आप
क्या जवाब देंगे ?”[14]
इन
तकरीरों के इतने लंबे-लंबे उद्धरण देने के पीछे गरज इतनी सी है कि न फुन्नन मियां,
न छिकुरिया, न कम्मो, न मेजर तन्नू कोई
नहीं चाहता था कि उनके अपने वतन का बँटवारा मजहब के नाम पर किया जाय । क्योंकि ये
लोग अपने गाँव, अपनी जमीन, अपने वतन से
बेइंतहा प्यार करते हैं । इनको न कांग्रेस की राजनीति से कोई मतलब है न मुस्लिम
लीग की राजनीति से । ये लोग जिस तरह से सदियों से एक साथ भले-बुरे, सुख-दुख में जीवन गुजर-बसर करते आए हैं उस डोर को तोड़ना नहीं चाहते । पर
इनके चाहने से क्या होता है । आज भी दोनों मुल्कों की आम आवाम अमन-चैन ही चाहती है
। पर फिर वही सवाल खड़ा हो जाता है कि इनके चाहने से क्या होता है । सियासत न आज
ऐसा होने दे रही है न सियासत ने उस समय वैसा होने दिया । राही मासूम रज़ा हर जगह, अपनी हर रचना में इस सियासी सांप्रदायिक खेल के विरूद्ध कभी अपने पात्रों
के जरिए तो कभी खुद सामने आकर खड़े हो जाते हैं । ‘आधा गाँव’ के आखिर के पन्नों में, वीर अब्दुल हमीद की जीवनी ‘छोटे आदमी की बड़ी कहानी’ में वह खुद आते हैं और बड़े
ही जोरदार ढंग से यह तकरीर रखते हैं : “जनसंघ का कहना है कि मुसलमान यहाँ के नहीं
हैं । मेरी क्या मजाल की मैं उसे झुठलाऊँ ! मगर यह कहना ही पड़ता है कि मैं गाजीपुर
का हूँ । गंगौली से मेरा संबध अटूट है । वह एक गाँव ही नहीं है, वह मेरा घर भी है । घर ! यह शब्द दुनिया की हर बोली और भाषा में है और हर
बोली और भाषा में यह उसका सबसे खूबसूरत शब्द है । इसलिए मैं उस बात को फिर दोहराता
हूँ । क्योंकि वह केवल एक गाँव ही नहीं है । क्योंकि वह मेरा घर भी है । ‘क्योंकि’ – यह शब्द कितना मजबूत है । और इस तरह के
हजारों-हज़ार ‘क्योंकि’ और हैं और कोई
तलवार इतनी तेज़ नहीं हो सकती कि इस ‘क्योंकि’ को काट दे । और जब तक यह ‘क्योंकि’ ज़िंदा है मैं सय्यद मासूम रज़ा आब्दी गाजीपुर ही का रहूँगा, चाहे मेरे दादा कहीं के रहे हों । और मैं किसी को यह हक़ नहीं देता कि वह
मुझसे यह कहे कि ‘राही तुम गंगौली के नहीं हो, इसलिए गंगौली छोडकर, मिसाल के तौर पर, रायबरेली चले जाओ’ । क्यों चला जाऊँ साहब मैं ? मैं तो नहीं जाता ।”[15]
या “हिंदुस्तानी मुसलमान की मिट्टी यहाँ की है और धर्म भी सौ फीसदी हिंदुस्तानी है
। हमें पाकिस्तान से क्या लेना-देना । मैं ताजमहल, लालकिला
और खयाल गायकी और क़लमी आमों की दुहाई नहीं देना चाहता,
क्योंकि नवाब जूनागढ़ के कुत्तों के साथ मैं अपने बेटों को छोड़कर पाकिस्तान नहीं
गया था ।...और मैं मासूम रज़ा हूँ । मुझे ताजमहलों और कुतुब साहब की लाट की
सिफ़ारिशों की जरूरत नहीं है, क्योंकि मैं अपने देश के लिए
जीने और उसके लिए मर जाने की काला जानता हूँ । मुमकिन हो कि ओक साहब का ख्याल सही
हो और ताजमहल कोई हिंदू महल ही रहा हो । लेकिन यह बात तो यकीनी है कि मेरे बदन की
मिट्टी गंगा के पानी में गूँधी गयी है और यह भी यक़ीनी है मेरा पुतला गाजीपुर की
सुबह की हवा में सुखाया गया है । और यह भी सही है कि फिर वह पुतला हिंदुस्तानी जेठ
की धूप के आवें में पकाया गया है । मैं गिरा हूँ तो हिंदुस्तान की धूल ने मुझे
अपनी गोद में उठा लिया है और मेरे बदन से रिसते हुए खून पर उसने अपने होंठ रख दिए
हैं । मैं गाजीपुर की सड़कों को जानता हूँ । मुझे लाहौर की सड़कों से क्या लेना-देना
? इसलिए कहता हूँ कि अगर मेरे ही एक रूप अब्दुल हमीद को
परमवीर चक्र मिला तो इतना जोश में आने की क्या जरूरत है ?
क्या यह बात बड़ी हैरतनाक है कि एक भारतीय देश की आन पर मर मिटा ? क्यों वीरों और महावीरों की यह जन्मभूमि कारों का घर बन गयी है कि किसी
की बहादुरी देखकर चिल्ला पड़ी ? या आप यूँ सोच रहे हैं कि एक
भारतीय मुसलमान पाकिस्तान के खिलाफ लड़ते हुए मारा क्यों गया ? इसी लड़ाई में कर्नल तरपुरावला ने भी परमवीर चक्र पाया । उनका नाम कोई
क्यों नहीं लेता ? मुझे ऐसा लगता है कि अगर हमीद हिंदू रहा
होता तो हमने अब तक उसे भुला दिया होता ।...क्या हमीद को यह आदर इसलिए दिया जा रहा
है कि वह मुसलमान था ? यह तो उसकी शहादत की तौहीन है । मैं
उन तमाम लोगों को सलाम करता हूँ जो वतन की हिफाजत में लड़ते हुए मारे गए ।
हिंदुस्तान के सारे शहीद एक से हैं । मैं उन्हें हिंदू-मुसलमान के खाने में बाँट
कर उनकी हतक नहीं कर सकता । क्या उनके मर जाने की वजह से हमें यह हक़ मिल गया कि हम
उन्हें हिंदुस्तानी शहीद न कह कर हिंदू-मुसलमान कहें और यूँ उन्हें जलील करें ? भारतीय मुसलमानों को भारतीय साबित करने की कोशिश करना उनकी तौहीन है । वे
भारतीय होने के सिवा और हो क्या सकते हैं ? अगर गुरुजी
गोलवलकर और श्री अटल बिहारी बाजपेयी का भारतीय होना मशकूक नहीं है तो मेरा भारतीय
होना भी मशकूक नहीं है । मैं भी यहीं पैदा हुआ हूँ और यहीं मरूँगा । पहले गुरुजी
अपना हिंदुस्तानी होना साबित करें, फिर मुझसे सवाल करें ।”[16]
इसलिए आज, जनसंघ
की बुनियाद पर बनी पार्टी की सरकार और अपने को उसकी सांस्कृतिक रीढ़ मानने वाला
संगठन व उसके 50 से अधिक छोटे बड़े संगठनों के नुमाइन्दों से लेकर उनके कार्यकर्ताओं
की जो भाषा बनी है वह नई नहीं है । शुरू से ही इनके लिए मुसलमान और ईसाई बाहरी हैं, विदेशी हैं । वे चाहे जो जतन कर लें पर भारतीय नहीं हो सकते । भारतीयता
की इनकी समझ सांप्रदायिक और संविधान विरोधी तो है ही वह भारतीय जीवन पद्धति और
उसकी जैविकता की भी विरोधी है । क्योंकि, न अब यहाँ रहने और
वाले ईसाई बाहरी हैं न मुसलमान । वे उतने ही भारतीय हैं जितना कि यहाँ दूसरे धर्म
और समुदाय के लोग । उनको भारतीय जीवन-व्यवहार और यहाँ संस्कृति की जैविक-संरचना से
कैसे अलग किया जा सकता है । इस संबंध में प्रसिद्ध समाजशास्त्री श्यामचरण दुबे का यह
कथन उल्लेखनीय है - “भारतीय समाज के
ताने-बाने को समझने के लिए हमें इस देश में ईसाई धर्म और इस्लाम की लंबी उपस्थिती
पर भी ध्यान देना होगा । इन दो में से ईसाई धर्म भारत में पहले आया लेकिन बाद में
आने वाले इस्लाम ने समाज पर अधिक प्रभाव डाला । दोनों ने पहले शांतिपूर्ण तरीकों
से भारत में प्रवेश किया । हालाँकि बाद में शासक ताकतों का समर्थन मिल गया ।
सामान्यतः दोनों धर्म समाज की विशिष्ट प्रकृति से प्रभावित हुए और दोनों ने समाज
पर कुछ प्रभाव डाला । भारतीय परिवेश में ईसाई और इस्लाम दोनों धर्मों ने कुछ
विशेषताएँ अर्जित कीं । अतः उन्हें भारतीय समाज में विदेश या बाहरी तत्व नहीं माना
जा सकता, वे इसके जैविक अंग
हैं ।”[17] लेकिन इस समझ को, कभी नफ़रत और घृणा के औनिवेशिक ‘पाठ’ के तहत, तो कभी ‘सर्वधर्मसमभाव’ के नाम पर समन्वय की भावना के तहत तो आज कट्टर ‘हिन्दुत्व’ के नाम पर टाला, दबाया और झुठलाया गया/जा रहा है । तभी
तो इस महादेश के बँटवारे के समय फुन्नन मियाँ अपने को जितना तन्हा महसूस करते हैं
उनकी नस्लें आज भी उतनी ही बल्कि उससे भी कहीं अधिक तन्हा और डरी हुई हैं । फुन्नन
मियाँ आज भी गंगौली की उस टूटी हुई मध्ययुगीन मुगलिया समाधि और उजड़े हुए आधुनिक
ब्रिटिश कारखाने के बीच किसी किसी उजाड़ ठीहे पर तन्हा बैठे सोच रहे हैं, “बँटवारे की शर्त पर जो आज़ादी मिली । उसने बहुतों को अकेला कर दिया ।
फुन्नन मियाँ उतने अकेले तब नहीं हुए थे जब दूसरे विश्वयुद्ध में लड़ते हुए उनका
बड़ा बेटा इम्तियाज़ मारा गया था । वह तब भी उतने अकेले नहीं हुए थे जब उनका दूसरा
बेटा मुमताज़ सन बयालीस के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में कासिमाबाद थाने पर ब्रितानिया हुकूमत की गोली से शहीद हुआ था ।
फुन्नन मियाँ उसी दिन से तन्हा होने लगे थे जिस दिन कासिमाबाद थाने पर शहीदों की
समाधि स्मारक का उदघाटन हुआ था, पर स्मारक पर मुमताज़ का नाम
नहीं था । लेकिन वे पूरी तरह से तन्हा तब हुए जब इस देश का बँटवारा हुआ, एक दूसरा मुल्क पाकिस्तान बना । उनके लिए “...कायनात भाँय-भाँय करने लगी, जैसे दूर-दूर उनके सिवा कोई मौजूद ही न हो...गरज कि आज़ादी के साथ कई तरह
की तन्हाइयाँ भी आयीं । बिस्तर की तनहाई से लेकर दिलों की तनहाई तक । उत्तर-और
दक्खिन-पट्टी में हर फर्द यकलख़्त अकेला हो गया । बुढ़ापा,
जवानी और बचपन, सुहाग और बेवगी,
दोस्ती-दुश्मनी और पट्टीदारी ! हर कैफ़ियत अकेली थी । हर जज़्बा तनहा था । दिन से
रात का और रात से दिन का ताल्लुक टूट चुका था ।...जिस तअल्लुक और बाहमी रिफ़ाकत और
दोस्ती पर मुआशरे की बुनियाद थी वह तअल्लुक टूट रहा था। वह रिफ़ाकत ख़त्म हो रही थी
और एतमाद की जगह दिलों में एक खौफ और एक गहरा शक परवरिश पा रहा था ।”[18]
आखिर, यह
खौफ़, यह गहरा शक सचमुच क्या दूर हो पाएगा ? क्या एक कौम के खिलाफ दूसरी कौम के दिलों में जो पागलपन है वह ख़त्म हो पाएगा
? शायद नहीं,
शायद हाँ, । हाँ, का मतलब यह कि
हिंदुस्तान की ‘संवैधानिक’ सर्वोच्चता
और उसमें अंतर्निहित नियमों, विचारों और भावनाओं को ‘स्टेट’ सही ढंग से लागू करे,
उसकी ‘धर्मनिरपेक्ष’ धारणा की संरक्षा
में किसी तरह का राजनैतिक हस्तक्षेप और दबाव न बनाए । इस देश के सेक्युलर मिजाज को
अधिक से अधिक संरक्षित करे । अगर यह आदर्श की बातें प्रतीत होती हैं तो फिर सही
मायनों में अब यह भी समझ विकसित कर लेने का वक्त आ गया है कि ‘सर्वधर्मसमभाव’ का उन्नत आदर्श भी अब आदर्श मात्र ही
है उससे धर्मनिरपेक्षता का काम नहीं चलेगा । क्योंकि,
धर्मनिरपेक्षता का विचार अपने मूल में ही इस बात का का विरोधी है कि हम किसी के
निजी चुनाव या मत को प्रभावित करें या सभी धर्मों को मिलाकर पूरी दुनिया में ‘एक धर्म’ का राज्य कायम कर दें । जो नास्तिक हैं, किसी धर्म में जिनका विश्वास नहीं, उनके नागरिक हक़
का क्या होगा? हर नागरिक वह चाहे धार्मिक हो या गैर-धार्मिक
हो उसको यह पूरी आज़ादी होनी चाहिए की वह अपने संविधान प्रदत्त नागरिक अधिकारों के
साथ जीवन जी सके । इसलिए सच्ची धर्मनिरपेक्षता समन्वय,
समावेशन, सम्मिलन जैसे समाहारी विचारों का समर्थन नहीं कर
सकती । यही पर हमें लेनिन का वह महत्वपूर्ण विचार ध्यान में आता है जिसमें वह कहता
है, “धर्म से राज्य का कोई संबंध नहीं होना चाहिए और धार्मिक
संगठनों और सोसाइटियों का भी सरकार और उसके सत्ता-तंत्र से किसी तरह का सरोकार
नहीं होना चाहिए । हर आदमी को इस बात की पूरी आज़ादी होनी चाहिए कि वह चहाए तो किसी
धर्म को माने, न चाहे तो किसी धर्म को न माने अर्थात नास्तिक
हो, जो आम तौर पर हर समाजवादी होता है । धार्मिक श्रेणियों
और मान्यताओं के आधार पर नागरिकों के साथ भेदभाव किया जाना बेहद असहनीय है ।
सरकारी कागजों में निस्संदेह मागरिकों के धर्म का उल्लेख नहीं किया जाना चाहिए ।”[19] राही
मासूम रज़ा जीवन भर इसी मूल भावना को बनाए जाने की लड़ाई अपनी कलम से लड़ते रहे । आज
साहित्य, संस्कृति के क्षेत्र मेन और अन्य दूसरे सामाजिक
मोर्चों पर काम कर रहे लोगों को अधिक से अधिक ‘धर्म’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ के मूल
मंतव्य को लोगों तक ले जाने के लिए वृहत्तर सामाजिक-सांस्कृतिक परियोजना बनानी
होगी । जिसे के. एन. पणिक्कर जैसे इतिहासकार ‘धर्म-निरपेक्ष
जनमत’ बनाना कहते हैं । वे लिखते है – “संस्कृति के क्षेत्र
में धरनिररपेक्ष हमला अब भी, अतीत की सांझा संस्कृति को
उभरने से आगे नहीं जा सका है, इसका असर बहुत सीमित ही रहा है
। तत्काल जरूरत इस बात की है कि धर्मनिरपेक्ष सांस्कृतिक दायरे का विस्तार करने की
चौतरफा कोशिश की जाए और धर्म निरपेक्ष जनमत बनाया जाय ।”[20] यह
काम राही मासूम रज़ा जैसे लेखकों और संस्कृतिकर्मियों द्वारा पहले भी किया जाता रहा
है और आज भी समाज में विवेकवादी-तर्कवादी लोग यह काम कर रहे हैं । इसलिए वो निशाने
पर हैं । उनकी हत्या तक की गयी है । दाभोलकर, पानसरे, कुलबुर्गी, गौरी लंकेश अपने इसी काम को अंजाम देते
हुए मारे गए । कभी अपने किसी बयान में बलराज मधोक ने राही मासूम रज़ा को पागल कह
दिया था । इस पर राही मासूम रज़ा के अंदर का जो दर्द है, जो
तल्खी है, वह देखने लायक है, “हाँ मैं
पागल हूँ, मगर जी चाहता है कि सारा हिंदुस्तान मेरी ही तरह
पागल हो जाय । हिंदुस्तान को श्री बलराज मधोक से ज्यादा राही मासूम रज़ा जैसे
पागलों की जरूरत है । मुझसे एक बार किसी ने कहा था, ‘तुम तो नमाज़ रोज़ा
करते नहीं, धर्म को मानते नहीं, तुम मुसलमानों के लिए क्यों बिलखते हो ?’ मैंने जवाब दिया था, ‘मगर मेरे पिता जी
नमाज़ रोज़ा करते हैं । मेरे बहनें मुसलमान हैं और मैं नहीं चाहता कि सती सावित्री
जैसी मेरी बहनें और मेरी भांजियाँ बलवाइयों के हाथों पद जाएँ । और चूंकि मैं अपनी
बहनों की यह दुर्गत बनते देखना नहीं चाहता इसीलिए हर बहन मेरी बहन है, हर बहन मेरे लिए सुरैया, अफ़सरी, मुन्नी, बाजी और बड़ी बाजी है । हर भांजी मेरे लिए शक्को, सब्बो और निगार है । मैं न मुग़ल बादशाह हूँ और
न आर. आर. एस. का सिपाही । ये बहनें और भांजियाँ तीर्थ-स्थान हैं और मैं इन
तीर्थ-स्थानों की तबाही नहीं देख सकता । मैं पाकिस्तानी हिंदुओं के लिए भी बिलखता
हूँ । मैं हर कातिल को बुरा कहता हूँ और तुम सिर्फ हिन्दू कातिलों को । तुम उस
बंगाल से आने वाले हिंदू को ‘रिफ़्यूजी’ कहते हो और वहीं से
पिट-पिटाकर आने वाले शीआ मुसलमानों को ‘इनफ़िलट्रेटर’ । मैं नमाज़ नहीं पढ़ता लेकिन मैं यह कहता रहूँगा कि भारतीय मुसलमानों को
अपनी मस्जिदें आबाद रखने का और पाकिस्तानी हिंदुओं को अपने मंदिर आबाद रखने का हक़
मिलना चाहिए । मैं आदमी और उसके हक़ के बारे में सोचता हूँ । मुझे हिंदुओं या
मुसलमानों में कोई दिलचस्पी नहीं है । मैं परेशान हूँ हिंदुस्तान के लिए । मैं
हिंदुओं या मुसलमानों के लिए परेशान नहीं हूँ ।”[21] इस देश में लगातार होने वाले दंगों से राही
मासूम रज़ा बार-बार आहत होते रहे बार-बार टूटते
रहे । 1984 के सिख विरोधी दंगे और 1987 के मेरठ के दंगे की नफ़रत और हिंसा को देखकर
वे हारते हुए से, टूटते हुए से, एकतरह से नाउम्मीद होकर, अपने दोस्त और हिन्दी के मशहूर कथाकार ‘कितने पाकिस्तान’ के लेखक कमलेश्वर से एक चिट्ठी में
पूछते हैं,
‘यार कमलेश्वर यह मौसम कब बदलेगा’ ? उनका यह सवाल आज भी उसी तरह हम सबके सामने अपना
जवाब मांगते हुए डरा सहमा सा खड़ा है - यार
ये मौसम कब बदलेगा ? जवाब नहीं है । पर जवाब तो ढूँढना पड़ेगा
। समय रहते जवाब न ढूंढ लिया गया तो कहीं बहुत देर न हो जाए ।
संदर्भ व टिप्पणियाँ :
[8] http://www.hindi.indiasamvad.co.in/viewpoint/who-is-the-real-enemy-of-muslims-in-india-22345
[17] भारतीय
समाज – श्यामचरण दुबे (हिंदी अनु. वंदना मिश्र), नेशनल बुक ट्रस्ट,
इंडिया,
दिल्ली, पहला
संस्करण, 2001, पृ.16
[20] सांप्रदायिकता और संस्कृति के सवाल – के. एन. पणिक्कर (संपा.), सहमत, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित पुस्तक में ‘सांप्रदायिकता के सांस्कृतिक प्रतिरोध की जरूरत’
शीर्षक के. एन. पणिक्कर का लेख ।
[यह लेख 'आलोचना' पत्रिका के अंक 59, जनवरी-मार्च 2019 में प्रकाशित है और 'आलोचना की पक्षधरता' पुस्तक में संकलित है]
बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब लिखा आपने सर। राही मासूम रज़ा को लेकर सबसे बेहतर लेखों में से एक। लेख कई मानसिक सलवटें खोलता है।
जवाब देंहटाएं