गुरुदेव और महात्मा
विनोद तिवारी
प्रिय महात्मा जी,
...हमें समझना चाहिए कि सफल होना नैतिक विजय नहीं है और
असफलता इसे इसकी गरिमा से वंचित नहीं कर सकती । जो लोग आध्यात्मिक जीवन में निष्ठा
रखते हैं वे नहीं जानते कि अनैतिक भौतिक शक्तियों के विरुद्ध लड़ाई अपने आप में
विजय है, विरोध के बावजूद यह एक आदर्श के प्रति
निष्ठा की विजय है । मैंने सदा यह महसूस किया है और तद्नुसार कहा है कि स्वाधीनता
की महान भेंट जनता को दान में कभी नहीं मिल सकती । हमको इसे उपलब्ध करने के लिए
जीतना हो और भारत को इसे जीतने का अवसर तब आएगा जब यह सिद्ध कर देगा कि चारित्रिक
रूप से वह उन लोगों से श्रेष्ठतर है जो विजेता होने के अधिकार से उस पर शासन करते
हैं । अपनी इस कष्टपूर्ण तपस्या को स्वेच्छा से स्वीकार करना होगा, यह तपस्या महानता का भूषण है । अपनी अच्छाई की परम निष्ठा के बल पर उन
घमंडी शक्तियों का अदम्य साहस के साथ मुक़ाबला करना है जो आत्मिक शक्ति का तिरस्कार
करते हैं । आप अपनी मातृभूमि के पास ऐसे समय पधारे हैं जब उसे उसके लक्ष्य को याद
दिलाने की, उसे विजय के असली रास्ते पर ले जाने की और आजकल
की राजनीतिक कमजोरी से मुक्ति दिलाने की आवश्यकता है जो यह मान बैठी है कि उसने
अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया है जबकि वह उधार की कूटनीतिक बेईमानी में अकड़कर चल
रही है ।[1]
(05 अप्रैल, 1919 के गांधी जी के पत्र के जवाब में
जलियाँवाला बाग नरसंहार की पूर्व संध्या पर 12 अप्रैल, 1919
का टैगोर के पत्र का अंश)
प्रथम
विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटेन की सरकार ने युद्धकालीन परिस्थितियों की
समीक्षा के लिए ब्रिटिश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सर सिडनी रॉलट की अध्यक्षता
में एक सेडिशन समिति गठित की । इस समिति को यह निर्देश था कि युद्धकालीन
क्रांतिकारी गतिविधियों एवं आतंकवाद के संबंध में लागू ‘भारता रक्षा
कानून’ के संबंध में अपना स्पष्ट मत दे । समिति ने अपना मत देते हुए यह कहा कि ‘भारत रक्षा
कानून’ के कारण ही युद्धकालीन गतिविधियों पर काबू पाया जा सका था, पर उनके पुनः
भड़कने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता । अतः दंडात्मक और निरोधात्मक उपाय
जारी रखना चाहिए । इस रिपोर्ट के आधार पर फरवरी 1919 को दो बिल सेंट्रल एसेंबली
में पेश किए गए । इस बिल के तहत नागरिक अधिकारों पर लगे युद्धकालीन प्रतिबंधों को
स्थायी रूप दिया गया । तमाम संवैधानिक विरोधों के बावजूद यह बिल पास किया गया । रॉलट
समिति के सुझावों के बाद स्थायी बना दिये गए उक्त कानून के विरोध में गांधी जी ने
सत्याग्रह की घोषणा की और विरोध के लिए 06 अप्रैल 1919 की तारीख निश्चित किया ।
अपने इस संघर्ष और सत्याग्रह की स्वीकृति और उसके समर्थन में संदेश पाने के लिए
गांधी गुरुदेव को 05 अप्रैल, 1919 को बंबई से पत्र लिखते हैं :
प्रिय गुरुदेव,
...मैं आपसे संदेश भेजने के लिए कहने का साहस कर रहा हूँ । यह संदेश उन लोगों के लिए जो अग्नि में कूदने जा रहे हैं, आशा और प्रेरणादायक होगा । मैं ऐसा इसलिए कर रहा हूँ कि आपने मुझे पहले भी भेजा था । जब मैंने संघर्ष का श्रीगणेश किया था । जो शक्तियाँ मेरे विरूद्ध व्यूह रचना कर रही हैं; जैसा कि आप जानते हैं कि वे बड़ी विकराल हैं । मैं उनसे भयभीत नहीं हूँ क्योंकि मेरा अदम्य विश्वास है कि वे असत्य को समर्थन दे रही हैं और यदि सत्य में हमारी पर्याप्त निष्ठा है तो यही निष्ठा हमें उन पर विजय प्राप्त करने में सहायक होगी । लेकिन सभी शक्तियाँ मानव के माध्यम से कार्य करती हैं, इसीलिए मैं इस महान संघर्ष का जो लोग अनुमोदन कर सकते हैं उनका उदात्त सहयोग एकत्र करने के लिए उत्सुक हूँ । देश के राजनैतिक जीवन को पवित्र करने वाले इस प्रयास के बारे में जब तक आपकी विचारपूर्ण सम्मति मुझे नहीं मिलेगी, तब तक मुझे संतोष नहीं होगा । यदि आपने ऐसा कुछ देखा है जिससे आप इसके बारे में अपनी पहली सम्मति को बदलना चाहते हैं तो मुझे आशा है कि आप उसे बताने में हिचकिचाएँगे नहीं । मैं मित्रो की प्रतिकूल सम्मतियों का भी आदर करता हूँ, क्योंकि यद्यपि वे मुझे मेरे रास्ते से विचलित नहीं कर पाएंगी फिर भी वे उन बहुत सारे प्रकाश स्तंभों की भाँति हैं जो जीवन के तूफानी रस्तों में आने वाले खतरों से सावधान करती हैं ।[2]
उपर्युक्त दोनों पत्रों के कुछ अंशों को यहाँ उद्धृत करने
का उद्देश्य स्पष्ट है । हम सब जानते हैं कि महात्मा गाँधी और गुरुदेव रबीन्द्रनाथ
टैगोर में वाद-विवादपूर्ण संबंध जीवन भर चलता रहा । दोनों के बीच महत्वपूर्ण
राष्ट्रीय प्रश्नों और समस्याओं तथा उनको हल करने की क्रियाविधि में असहमतियाँ थीं
परंतु अपने समय की इन दो महान आत्माओं की मैत्रीपूर्ण घनिष्ठता और मानव कल्याण की
आकांक्षा में उत्तम सामंजस्य एक दुर्लभ चीज है । दोनों के बीच हुए पत्राचार इसकी
गवाही देते हैं । गुरुदेव को लिखे अपने पत्र में गाँधी किसी अन्य पत्र के हवाले से
जिस बात की ओर संकेत कर रहे हैं कि ‘यदि आपने ऐसा कुछ देखा है
जिससे आप इसके बारे में अपनी पहली सम्मति को बदलना चाहते हैं तो मुझे आशा है कि आप
उसे बताने में हिचकिचाएँगे नहीं’ उस पत्र में गुरुदेव की
सत्याग्रह संबंधी गाँधी के विचार को सही मानने के पक्ष में नहीं हैं – “सत्याग्रह
अपने आप में निश्चित रूप से नैतिक बल नहीं है । इसका प्रयोग सत्य के विरोध में
किया जा सकता है और सत्य के पक्ष में भी ।”[3] वे सत्याग्रह के लिए आमरण अनशन
के माध्यम को उचित नहीं मानते थे । उनको इस बात की आशंका थी कि छुटभैये किस्म के
नेता इसको छोटी-छोटी निरर्थक बातों को मनवाने का एक सुलभ हथियार बना लेंगे । गुरुदेव
लिखते हैं – “छुटभैये लोग, छोटे-छोटे कामों के लिए अनशन का
सहारा लेना शुरू कर देंगे । इससे आत्म-संताप के गहन गर्त में गिरने का आसान और
निरर्थक रास्ता खुल जाएगा ।”[4] बावजूद इस आशंका और असहमति के
गुरुदेव महात्मा गाँधी के आत्मबल और ईमानदारी की प्रशंसा मुक्त कंठ से करते हैं ।
गाँधी स्वयं अपनी आश्वस्ति के लिए अपने प्रत्येक कार्यक्रमों के लिए कवि का
आशीर्वाद चाहते हैं । गाँधी ने ऊपर जिन ‘विकराल शक्तियों’ का जिक्र किया है उनसे हम सब परिचित हैं । हम सब जानते हैं कि रॉलट
सत्याग्रह शुरू करने की तैयारी के समय गाँधी को किन-किन मुश्किलों का सामना करना
पड़ा था । ‘होमरूल’ को आजमा चुकीं एनी
बेसेंट ने तो यहाँ तक कहा कि ‘गाँधी अभी राजनीतिक बच्चा है ।’ परंतु इतिहास की इच्छा तो कुछ और ही थी । 1857 के पश्चात अखिल भारतीय
स्तर पर रॉलट सत्याग्रह सबसे बड़ा जन-आंदोलन सिद्ध हुआ ।
दरअसल, महात्मा और कवि के बीच राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक
मुद्दों पर कई सारी असहमतियों के बावजूद मानसिक साहचर्य का कोई ऐसा अटूट विश्वास
था जो दोनों को परस्पर जोड़े रहा और जीवन पर्यंत मर्यादित सम्मान के साथ बना रहा ।
सव्यसाचि भट्टाचार्य ने उचित ही लिखा है कि “संकट की घड़ी में एक तरह के मानसिक
साहचर्य की खोज में गाँधी और टैगोर एक दूसरे के साथ हो जाते थे ।”[5] हम सबको विदित है कि गाँधी और
टैगोर में सबसे तीखा विवाद चरखा कार्यक्रम को लेकर हुआ था । टैगोर गाँधी के इस ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ और जनता में उससे विकसित आर्थिक
क्षमता और बदलाव को लेकर सशंकित थे । उन्होंने ब्रह्म समाज की पत्रिका ‘प्रबासी’ में 1921 में बांग्ला में एक लेख लिखा जो ‘माडर्न रिव्यू’ में अँग्रेजी अनुवाद के साथ प्रकाशित
हुआ । ‘सत्य का आह्वान’ शीर्षक इस लेख
में टैगोर ने गाँधी की अर्थशास्त्र में ‘नैतिकता’ संबंधी विचार की कटु आलोचना की । उन्होंने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में
लिखा – “किसी विशेष वस्त्र निर्माता का कपड़ा पहनना या न पहनना, यह प्रश्न अर्थशास्त्र का है, अतः अर्थशास्त्र की
भाषा में ही इस प्रश्न पर हमारे देश में चर्चा होनी चाहिए थी । यदि वास्तव में देश
में बुद्धि से काम लेने की आदत छूट गयी है तो सबसे पहले इस घातक आदत के विरुद्ध
हमें लड़ाई लड़नी चाहिए और स्थायी तौर पर अन्य काम छोड़ देने चाहिए । यही आदत हमारा
मौलिक अपराध है और इसी से सारी बुराइयाँ पैदा हो रही हैं । लेकिन इसके विपरीत हम
उस जादुई फार्मूले को प्रश्रय दे रहे हैं कि विदेशी कपड़ा ‘अपवित्र’ है । अर्थशास्त्र को धता बताकर उसकी जगह झूठे नैतिक उपदेश को घसीटा जा
रहा है ।”[6] इस लेख के जवाब में गाँधी ने ‘यंग इंडिया’ के जून 1921 के अंक में ‘कविवर की चिंता’ शीर्षक लेख लिखा । उसके बाद 13
अक्टूबर, 1921 के ‘यंग इंडिया’ के अंक में ही ‘महान प्रहरी’
शीर्षक से दूसरा लेख लिखा । इस लेख में वे लिखते हैं – “चरखे को उसके महत्वपूर्ण
स्थान से विदेशी वस्त्रों के प्रति हमारे आकर्षण ने ही दूर किया है । इसलिए मैं
विदेशी वस्त्र पहनना पाप मानता हूँ । मैं अर्थशास्त्र और नीतिशास्त्र में बहुत
ज्यादा या तनिक भी फर्क नहीं करता । जो अर्थव्यवस्था व्यक्ति या राष्ट्र की
नैतिकता को चोट पहुँचाती है, वह अनैतिक है और इसलिए पापपूर्ण
है । इसलिए जो अर्थव्यवस्था एक देश को दूसरे देश को लूटने की छूट देती है वह
अनैतिक है ।”[7]
‘नैतिकता’ बनाम ‘अर्थशास्त्र’ की बहस बहुत दिनों तक चली । कई नेता, चिंतक, लेखक और संपादक इसके पक्ष-विपक्ष में खड़े हुए । असहयोग आंदोलन के दौरान
मार्च 1922 में महात्मा गाँधी की गिरफ्तारी और 1924 में जेल से उनकी रिहाई के बीच
गुरुदेव और महात्मा के बीच यह बहस बंद रही । जेल से गाँधी के रिहा होते ही टैगोर
ने गाँधी को तार से संदेश भेजा :
सेवा में,
महात्मा गाँधी
ससून अस्पताल, पूना
हमें खुशी है । - रबीन्द्रनाथ
जेल से रिहा होने के बाद गाँधी ससून अस्पताल, पूना में स्वास्थ्य लाभ ले रहे होते हैं । उपर्युक्त तार के बाद गुरुदेव
उनको एक पत्र लिखते हैं, जिसमें वह उनकी सेवा और देखभाल के
लिए सी. एफ. एण्ड्र्युज को भेजने की प्रार्थना करते हैं – “कुछ लोग बेधड़क, आज़ादी से आपके स्वास्थ्य और मानसिक शांति का सत्यानाश कर रहे हैं । यह
देखकर मैं शांत और निश्चेष्ट नहीं बैठ सकता । इस संकट के समय मैं इतनी सेवा तो
आपकी कर ही सकता हूँ कि चार्ली को आपके पास रहने और सहायता करने भेजूँ क्योंकि वे
ही जानते हैं कि प्रेमपूर्वक काम कैसे किया जाता है ।”[8]
राजनीतिक और
आर्थिक मुद्दों पर परस्पर मतभेद होने और असहमति दर्ज़ करने वाले कटु लेखन के बावजूद
पारस्परिक सद्भाव और मैत्री का यह मर्मस्पर्शी भाव ही इन दोनों विभूतियों को महान
बनाता है । 1925 में, स्वास्थ्य लाभ करने के बाद गाँधी
शांति निकेतन पधारे । गाँधी ने गुरुदेव के प्रति अपनी श्रद्धा अर्पित की । चरखा संबंधी
आर्थिक बहस को गुरुदेव पुनः शुरू करते हैं और बांगला पत्रिका ‘सबुज पत्र’ में चरखा शीर्षक से लेख लिखा जिसका
अनुवाद तुरंत सितंबर 1925 में ‘माडर्न रिव्यू’ में ‘दि कल्ट ऑफ चरखा’ शीर्षक
से छपा । इसके जवाब में गांधी ने ‘यंग इंडिया’ में दो लेख लिखे – ‘कविवर और चरखा’ (नवंबर, 1925) और ‘कविवर और
चक्र’ (मार्च, 1926) ।
उत्तर-प्रत्युत्तर वाले इन लेखों की तल्खी और व्यंग्य, इनका
आलोचनात्मक तेवर देखने लायक है । कविगुरु टैगोर स्वराज्य को चरखे से जोड़कर देखने
के बिलकुल खिलाफ हैं । वे मानते हैं की चरखे से स्वराज्य की प्राप्ति एक बचकाना
प्रयास है । लिखते हैं – “बंगाल में एक नर्सरी का गीत है जिसमें बच्चे को बहलाया
जाता है कि यदि वह अपने हाथ घुमाएगा तो उसे लॉलीपॉप मिलेगा । लेकिन क्या यह
संभाव्य नीति है सयाने लोगों को आश्वस्त करने की, उन्हें यह
कहना कि वे स्वराज्य प्राप्त करेंगे अर्थात सम्पूर्ण निर्धनता से छुटकारा पाएँगे, बावजूद अपनी सामाजिक रूढ़ियों के, जो चिरस्थायी
अड़चनें हैं और मानसिक आदतों के, जो बुद्धि और इच्छाशक्ति को
निष्क्रिय बनाती हैं । यह संभव होगा केवल उनके हाथों को घुमाने से नहीं । बाहर
दिखाई देने वाली इस निर्धनता से यदि हमें छुटकारा पाना है बुद्धिमत्ता के आंतरिक
बल को जाग्रत करना होगा जो भाईचारे और आपसी विश्वास के आधार पर सहयोग की भावना
पैदा करेगा ।”[9]
महात्मा गाँधी अपने लेख ‘कवि और चरखा’
में जिस ढंग से टैगोर को गुरुदेव या कविगुरु के सम्बोधन से अलग ‘सर रवीन्द्रनाथ’ कहकर संबोधित करते हैं वह अत्यंत
व्यंग्यपूर्ण है । इस व्यंग्य का एक नमूना देखना प्रीतिकर होगा – “कवि में जो कुछ
है, उसका एक अंश भी मुझमें नहीं है । उनकी महत्ता को पा सकने
की आकांक्षा मेरे मन में कभी नहीं आ सकती । वे अपनी महत्ता के निर्विवाद अधिकारी
हैं । आज संसार में कोई दूसरा कवि उनकी बरबारी नहीं कर सकता । वे अपने क्षेत्र में
जिस निर्विवाद स्थिति के अधिकारी हैं उससे मेरे ‘महात्मापन’ का कोई संबंध नहीं है । यह बात समझ लेनी चाहिए कि हमारे कार्य-क्षेत्र
अलग-अलग हैं और वे कहीं भी एक दूसरे से नहीं टकराते । कवि लोग अपनी ही कल्पना के
भव्य लोक में, अपनी विचारों की दुनिया में रहते हैं, जबकि मैं किसी दूसरे की बनाई चीज चरखे का गुलाम हूँ । कवि अपनी बंसी के
तान पर अपनी गोपियों को नचाता है और मैं पानी प्यारी सीता – चरखे के पीछे भटकता
फिरता हूँ और उसे दैत्य दशानन से – जापान, मैनचेस्टर, पेरिस इत्यादि से – मुक्ति दिलाने का प्रयास करता हूँ । कवि नया आविष्कार
करता है । मैं तो केवल शोधक हूँ और इसलिए एक वस्तु का शोध कर लेने पर मुझे तो उसी
को पकड़ कर बैठे रहना है । कवि दिन-प्रतिदिन दुनिया के सामने नयी और मोहक चीजें
रखता है । मैं तो सिर्फ पुरानी, बल्कि जीर्ण-शीर्ण वस्तुओं
में छिपी संभावनाओं को ही दिखा सकता हूँ । नई-नई और चमत्कृत कर देने वाली चीजें
पेश कर देने वाले जादूगर को संसार में बड़ी आसानी से गौरव का स्थान प्राप्त हो जाता
है किन्तु मुझे तो अपनी जीर्ण-शीर्ण चीजों के लिए इस विस्तृत संसार में एक छोटा सा
कोना हासिल करने के लिए भी घोर परिश्रम करना करना पड़ता है । इसलिए हम दोनों में
कोई स्पर्द्धा ही नहीं है । लेकिन मैं पूरी नम्रता के साथ इतना कह दूँ कि हमारे
कार्य और व्यापार एक दूसरे के पूरक हैं ।”[10] असहमति के सर्वोच्च बिन्दु तक
जाकर भी दोनों में एक दूसरे के प्रति एक अतिशय विनम्रता का,
परस्पर स्वीकृति का जो भाव था वह अद्भुत था । इसी भाव ने भाषा की व्यंग्यात्मकता, कटुता और तल्खी के बावजूद दोनों को एक दूसरे से जोड़े रखा । अन्यथा, इस तरह की सोच कि - “यदि कवि भी रोजाना आधा घंटा चरखा काटें तो उनकी
कविता और निखरेगी, कारण, तब उनकी कविता
में गरीबों के दुःख-दर्दों का आज की अपेक्षा कहीं अधिक सशक्त चित्रण हो सकेगा”[11]- आज के किसी भी लेखक मित्र से
जीवन भर भर संबंध खत्म कर देने के लिए काफी है । असहमति के बावजूद, यह जानना महत्वपूर्ण है कि गांधी के अतिशय आग्रह पर टैगोर ने ‘चरखा कार्यक्रम’ पर हस्ताक्षर किया था और खादी आश्रम
जाकर भाषण भी दिया था किन्तु चरखा को आत्मशुद्धि, पवित्रता
और स्वराज्य प्राप्ति का हथियार बनाए वाले गाँधी के तर्क से वे कभी सहमत नहीं हो
पाए । इस मत भिन्नता के पीछे का का एक कारण दोनों के संस्कार और निर्माण की वह
प्रक्रिया है जिसके बारे में, गाँधी के आश्रम और टैगोर के
शांतिनिकेतन में काफी समय बिताने वाली अंग्रेज़ लेखिका मार्जोंरी साइकस[12] ने लिखा है – “गाँधी और टैगोर
के स्वभाव में जो भिन्नता थी वह उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि और परंपरा द्वारा
संचालित थी । टैगोर के परिवार में व्यक्तिगत स्वतंत्रता,
व्यक्तिगत निर्णय लेने की और उद्यमशीलता की परंपरा थी । बचपन से ही टैगोर का का
नियमों के प्रति विरोध था और समाज के द्वारा माने जाने वाले रीति-रिवाजों और
रूढ़ियों के प्रति विद्रोह था । गाँधी का परिवार पारंपरिक,
गंभीर रूप से सामाजिक रीतियों और उत्तरदायित्व को मानने वाला और व्यवस्था को
स्वीकार कर चलने वाला था । टैगोर का अव्यक्त सरोकार था व्यक्तिगत काम की ईमानदारी
की सुरक्षा । गाँधी का ध्यान इस बात की व्यवस्था की ओर था कि किस प्रकार ईमानदारी
के साथ राष्ट्रीय स्तर विशेष कार्यक्रम चलाया जाय ताकि उसका देशव्यापी प्रभाव हो
।”[13] साइकस की बात एक हद तो ठीक हो
सकती है परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राजा राममोहन राय द्वारा चलाए जा रहे
आंदोलनों और समाज-सुधार कार्यक्रमों से टैगोर के परिवार का गहरा रिश्ता था । टैगोर
स्वयं ‘ब्रह्म समाज’ के सदस्य रहे और
उसकी प्रगतिकामी और सुधारवादी नीतियों से सहमति प्रकट की है ।
गाँधी जी के
कार्यक्रमों में धर्म की पवित्रता, नैतिकता, भारतीय जनमानस में व्याप्त अंधविश्वास को व्यावहारिक कुशलता के साथ
तात्कालिक राजनीतिक परिस्थितियों के के लिए किसी भी तर्क से उपयोग में लाए जाने को
टैगोर स्वीकार नहीं कर सके । वे किसी भी तरह की राजनीतिक अथवा प्राकृतिक घटना को
ईश्वरीय नियति और विधान से जोड़कर देखने के खिलाफ थे । ईस्वी सन् 1934 में बिहार
में आए भयंकर भूकंप को लेकर गाँधी जी का अखबारों में यह वक्तव्य छपा कि ‘बिहार का यह अनर्थकारी भूकंप अछूत जातियों के प्रति हो रहे अत्याचारों और
पापकर्मों का ईश्वरीय दंड है ।’ गाँधी जी के इस वक्तव्य पर
टैगोर, 28 जनवरी 1934 को उन्हें एक पत्र लिखते हैं, जिसमें वे लिखते हैं – “मेरे लिए इस पर विश्वास करना मुश्किल है । लेकिन
वास्तव में आपका यदि यही विचार है तो मेरे विचार से इसका प्रतिरोध होना चाहिए ।”[14] महात्मा गाँधी ने टैगोर के इस
असहमति और प्रतिरोध वाले पत्र को 16 फरवरी 1934 के ‘हरिजन’ में प्रकाशित किया । ‘बिहार का भूकंप’ शीर्षक इस पत्र-लेख में गुरुदेव ने गाँधी के वक्तव्य को अवैज्ञानिक, विवेकहीन मानते हुए ब्रह्मांड संबंधी घटनाओं को पाप-पुण्य के
नैतिक-अनैतिक सिद्धांत से जोड़ने वाले एक अंधविश्वासी के रूप में उनकी आलोचना की –
“हम लोग जो महात्माजी की अद्भुत प्रेरक कर्मण्यता के अत्यंत आभारी हैं कि उन्होंने
देशवासियों के मन को भय और दुर्बलता से मुक्त किया है और अब उन्हीं लोगों के बीच
स्वयं महात्माजी अपने मुख से अविवेकपूर्ण बातों का महत्व दर्शाते हैं, तो हम गंभीर से आहत महसूस करते हैं । अविवेक, जो
सभी अंध-शक्तियों का आधार है; जो हमें स्वाधीनता और
आत्मसम्मान के विरुद्ध प्रेरित करता है ।”[15] टैगोर के लिए आधुनिक सभ्यता
में प्रौद्योगिकी और विज्ञान विवेकपूर्ण मानवता के विकास के लिए अपरिहार्य है ।
विज्ञान के प्रयोग को वे मानव की विपन्नता से मुक्ति का साधन मानते थे । उनका
मानना था कि किसी भी तरह का अंधविश्वास देशवासियों को कमजोर बनाएगा । जब तक, ‘मानसिक स्वराज्य’ नहीं मिल
जाता तब तक वास्तविक आज़ादी नहीं प्राप्त होगी । गाँधी स्वयं इस ‘मानसिक स्वराज्य’ के पक्षधर थे, उन्होंने स्पष्ट कहा था कि “स्वराज्य आत्मा के लिए
होना चाहिए ।”[16]
रही बात अमानवीय प्रौद्योगिकी और मशीनों की दानवी शक्ति की,
टैगोर गाँधी के साथ थे – ‘जहाँ तक महात्मा गांधी की लड़ाई
विश्व को उत्पीड़ित करने वाली मशीनों की क्रूरता से है हम सब गाँधी के झंडे तले हैं
।’ टैगोर के दो नाटकों – ‘मुक्तधारा
(1922) और ‘रक्तकरबी’ (1926) में
विज्ञान के दुरुपयोग और यंत्रों की क्रूरता का रूपक मिलता है । गाँधी का ‘हिंद स्वराज’ तो इसका जबरदस्त क्रिटिक है ही । गाँधी
आधुनिक यांत्रिक सभ्यता की ‘सख्त टीका’
इस पुस्तक में करते हैं । लेकिन इसका यह तात्पर्य नहीं कि गाँधी मशीन और
कल-पुर्जों के विरोधी हैं और आधुनिकता में विश्वास नहीं करते । क्योंकि, वह गाँधी ही हैं जिनकी स्पष्ट मान्यता है कि ‘मैं
अपने घर के चारों ओर दीवार नहीं खड़ी करना चाहता और न इसकी खिड़कियों को बंद करना
चाहता । मैं चाहता हूँ कि सभी देशों की संस्कृतियों की हवा यथासंभव मेरे घर में
प्रवेश करे लेकिन किसी भी बाहरी शक्ति के द्वारा मेरे पैर लड़खड़ाएँ मैं बर्दाश्त
नहीं करूंगा’ । गाँधी के निजी सहायक महादेव देसाई ने दिल्ली
में सन् 1924 में रामचंद्रन से गाँधी की हुई एक बातचीत का उल्लेख किया है जिसमें
रामचंद्रन का सवाल है कि ‘क्या आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं?’ गाँधी जी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया – “मैं सभी यंत्रों के खिलाफ कैसे
हो सकता हूँ, जबकि मैं जानता हूँ कि यह शरीर भी एक बहुत
नाजुक यंत्र है । खुद चरखा भी एक यंत्र ही है । छोटी दाँत कुरेदनी भी एक यंत्र है
। मेरा विरोध यंत्रों के लिए नहीं, बल्कि यंत्रों के पीछे जो
पागलपन चल रहा है उसके लिए है । आज तो जिन्हें मेहनत बचाने वाले यंत्र कहते हैं, उनके पीछे लोग पागल हो गए हैं । उनसे मेहनत जरूर बचती है, लेकिन लाखों लोग बेकार हो, भूखों मरते हुए सड़कों पर
भटकते हैं । श्रम और समय की बचत तो मैं भी चाहता हूँ, परंतु
वह किसी खास वर्ग की नहीं, बल्कि सारी मानव जाति की होनी
चाहिए । कुछ गिने-चुने लोगों के पास संपत्ति जमा हो ऐसा नहीं हो, बल्कि सबके पास जमा हो ऐसा मैं चाहता हूँ । आज तो करोड़ों की गर्दन पर कुछ
लोगों के सवार हो जाने में यंत्र मददगार हो रहे हैं । यंत्रों के उपयोग के पीछे जो
प्रेरक कारण है वह श्रम की बचत नहीं है बल्कि धन का लोभ है । आज की इस चालू
अर्थव्यवस्था के खिलाफ मैं अपनी तमाम ताकत लगाकर युद्ध चला रहा हूँ ।”[17]
बहरहाल, लेख का सिरा दूसरी बहस में न चला जाय । गाँधी और गुरुदेव के बीच
उपर्युक्त चरखा और भूकंप संबधी तीखी असहमतियों और विरोध के अलावा और भी कई मुद्दों
पर दोनों में वैचारिक असहमतियाँ और विरोध मिलते हैं । गुरुदेव के गाँधी की
वर्णाश्रम व्यवस्था की हिमायत पर शिक्षा व्यवस्था संबंधी विचार और नीति से मतभेद
था । हम सब जानते हैं कि ‘जात-पाँत तोड़क मण्डल’ की ओर से संतराम बी.ए. के बुलावे पर भाषण देने के
लिए ‘The Annihilation of Cast’ शीर्षक से बाबा साहब भीमराव
अंबेडकर ने एक लिखित भाषण (यह और बात है कि यह भाषण दिया नहीं गया) तैयार किया था
। इसी लेख में वर्णाश्रम व्यवस्था पर तीखे सवाल उठाते हुए आंबेडकर ने गांधी से भी
पूछा है कि ‘कांग्रेस और गाँधी ने अछूतों के लिए क्या किया?’ गाँधी ने इसका जवाब देते हुए लिखा – “वर्णाश्रम धर्म का अनुपालन न करना
ही हमारे आध्यात्मिक व आर्थिक सर्वनाश के लिए जिम्मेदार है । निश्चिंत सुखी जीवन
और धार्मिक क्रियाकलाप के लिए वर्णव्यवस्था सबसे अच्छी व्यवस्था है, मैंने भगवद्गीता से यह परिणाम निकाला है ।...एक शूद्र जो ब्राह्मण के गुण
अर्जित कर लेता है इस जन्म में शायद ब्राह्मण न कहा जा सके और यह उसके लिए अच्छी
बात है, वह उस वर्ण को पाने का झूठा दावा न करे जिस वर्ण में
वह जन्मा ही नहीं ।”[18] जन्मना वर्ण व्यवस्था की
इस धारणा को टैगोर गलत मानते थे । इसके जवाब में उन्होंने ‘शूद्र
धर्म’ शीर्षक लेख लिखा जो बांग्ला में ‘कालांतर’ पत्रिका में छपा और बांग्ला से अँग्रेजी
में अनूदित होकर 1927 ईस्वी में ‘माडर्न रिव्यू’ में प्रकाशित हुआ । सव्यसाची भट्टाचार्य ने उक्त लेख को खंडन-मंडन की
व्यंग्यात्मक शैली के लेखन का सर्वोत्तम उदाहरण माना है ।
टैगोर और गाँधी
दोनों ही अपने-अपने स्तरों पर शिक्षा-व्यवस्था के औपनिवेशिक ढाँचे और पद्धति के
विपरीत शिक्षण-संस्थाएँ और उनमें लागू की जाने वाली पद्धतियों में लगे हुए थे ।
गाँधी और टैगोर का परिचय भी इसी संदर्भ में उस समय हुआ जब गांधी अपने फीनिक्स
स्कूल के छत्रों के साथ दक्षिण अफ्रीका से शांतिनिकेतन आए । माना जाता है कि इसी
मुलाक़ात में टैगोर ने गाँधी को ‘महात्मा’ और गाँधी ने टैगोर को ‘गुरुदेव’ कहकर संबोधित किया था जो बाद में दोनों की की उपाधि बन गए । महात्मा
गाँधी को टैगोर का लिखा पहला पत्र इसी
फीनिक्स स्कूल के छात्रों के बारे में है जिसमें वे लिखते हैं, “अपने छात्रों को हमारे भी छात्र
बनाने के लिए मैं आपको धन्यवाद ज्ञापन का यह पत्र लिख रहा हूँ, इससे हम दोनों के जीवन की साधना का जीवंत सूत्र निर्मित हुआ है ।”[19] कहना न होगा कि गाँधी और
टैगोर दोनों का ही शिक्षा के लिए ‘उपनिवेशीय साँचे में ढली
सरकारी शिक्षा पद्धति से भिन्न’ एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था पर
ज़ोर था जिसमें मातृभाषा पर बल हो, भारतीय जीवन पद्धति और
संस्कृति को महत्व दिया जाय और सृजनशील एवं उत्पादक गतिविधियों के द्वारा में
छात्रों का स्वनिर्भरता कि ओर समुचित विकास हो । सव्यसाचि भट्टाचार्य लिखते हैं –
“टैगोर द्वारा 1924 में शांतिनिकेतन में स्थापित ग्रामीण विद्यालय ‘शिक्षा सत्र’ में गाँधी 1925 में पधारे थे । इसके प्रधानाचार्य
ए. विलियम्स आर्यनायकम् को गाँधी ने 1934 में वर्धा में गांधीयन प्रणाली पर आधारित
प्रयोगात्मक विद्यालय का प्रमुख बनाने का आमंत्रण दिया था और इन्हीं आर्यनायकम् को
1937 में बेसिक शिक्षा पद्धति (बुनियादी तालीम) की रूपरेखा तैयार करने वाली समिति
का सचिव नियुक्त किया था । जब यह पद्धति, जो ‘वर्धा पद्धति’ के नाम से भी जानी जाती है, 1937 में ‘हरिजन’ में
प्रकाशित हुई और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अगली बैठक में चर्चित हुई । टैगोर
ने इसके बारे में कई सवाल उठाए । उनकी टिप्पणियाँ इस पद्धति के दो पहलुओं पर
केन्द्रित थीं । पहला प्रश्न, बेसिक शिक्षा पद्धति में
उत्पादक शारीरिक श्रम की उपादेयता को प्रमुखता देने के विषय में था, ‘जैसा कि यह पद्धति लिखित रूप में उपलब्ध है उससे
ऐसा लगता है कि इसमें व्यक्तित्व के विकास की अपेक्षा भौतिक उपयोगिता ही शिक्षा का
ध्येय है’ । दूसरा, टैगोर के लिए यह
विचार भी कष्टकर था कि निर्धन ग्रामीणों को अलग से एक विशेष प्रकार की शिक्षा दी
जाय जिसमें पहले से ही एक सीमित व्यवसाय निर्दिष्ट हो । टैगोर का प्रश्न था कि ‘क्या निर्धनों की शिक्षा उन लोगों से भिन्न प्रकार की होनी चाहिए जो धनवान
हैं ।’ टैगोर ने गांधी, मालवीय और कुछ
आर्यसमाजी लोगों के इस मत से भी असहमति जतायी कि पाठ्यक्रमों में धार्मिक शिक्षा
का भी स्थान हो ।”[20]
पर यह सक है कि अपने बीच तमाम मतभेदों के बावजूद इन दोनों
मनीषियों का एक दूसरे पर गहरा प्रभाव था । कई सारे विचारों और मुद्दों पर दोनों एक
दूसरे को आंतरिक सहमति और स्वीकृति देते थे । गाँधी की ‘राष्ट्रवाद’ संबंधी धारणा,
वर्णाश्रम व्यवस्था को सर्वोत्तम मनाने के बावजूद अस्पृश्यता निवारण के लिए उनकी
रचनात्मक कार्ययोजना और सांप्रदायिकता की समस्या और उसे हल करने की उनकी कोशिश से
टैगोर सहमत दिखाई देते हैं । गाँधी देश की स्वतंत्रता के लिए शुरू किए जाने वाले
किसी भी संघर्ष और आंदोलन से पहले टैगोर से सलाह और आशीर्वाद जरूर चाहते थे । जहाँ
टैगोर को लगता था कि गाँधी के कार्यक्रम में कुछ कमियाँ हैं वहाँ वे दो टूक शब्दों
में अपनी राय के साथ उनकी क्षमता की प्रशंसा करना नहीं भूलते । गाँधी के संघर्ष और
आंदोलन के कार्यक्रमों में ‘आत्मशुद्धि’ एक मुख्य आधार हुआ करता था । इसके लिए आमरण अनशन को वह एक प्रमुख हथियार
की तरह इस्तेमाल करते थे । टैगोर गाँधी के इस प्रयोग से शुरू से ही असहमत थे । यह
दीगर बात है कि इतिहास में यही गाँधी का सबसे कारगर और सफल हथियार साबित हुआ । टैगोर
की उक्त असहमति का उल्लेख इस लेख के शुरू में ही एक प्रसंग के सहारे हुआ है । ऐसा
ही एक प्रसंग यरावदा जेल में गाँधी के आमरण अनशन की प्रतिज्ञा का है । 2 मई 1933
को वे आधी रात को गुरुदेव को पत्र लिखते हैं :
प्रिय गुरुदेव,
अभी सबेरे के 1.45 बजे हैं और मैं आपके तथा कुछ अन्य
मित्रों के बारे में सोचता हूँ यदि संकल्पित उपवास के लिए आपका हृदय समर्थन करता है
तो मैं पुनः आपके आशीर्वाद का इच्छुक हूँ ।”[21]
टैगोर 9 मई 1933 को दार्जिलिंग से इस पत्र का जवाब लिखते
हैं । पत्र लंबा है । वे बार-बार गाँधी के इस तरह के उपवास के संकल्प के प्रति
अपनी असहमति प्रकट करते हैं । पत्र समाप्त करते हुए वे लिखते हैं – “मैं यह
विश्वास करने का प्रयास करूंगा कि आपका संकल्प सही है और मेरे आकांक्षाएँ मेरे
अज्ञान की भीरुता से उत्पन्न हुई होंगी । स्नेह और समादर सहित, रवीन्द्रनाथ टैगोर ।”[22] दो दिन बाद 11 मई 1933 को
पुनः वे गाँधी को लिखते हैं जिसमें उपवास के नैतिक पक्षों पर सवाल खड़े करते हुए
गाँधी के अमूल्य जीवन का हवाला देते हुए ‘लाखों देशवासियों
की खातिर’ ऐसा उपवास न करने का आग्रह करते हैं । परंतु गाँधी
इस आग्रह को अस्वीकृत कर देते हैं । बावजूद इसके वह बराबर मानते रहे कि “आप
(टैगोर) सदैव मेरे सच्चे मित्र रहे हैं क्योंकि आप स्पष्टवादी मित्र हैं और अक्सर
आपने अपने विचार जोरदार ढंग से मुखरित किए हैं । इस ओर अथवा उस ओर, मुझे आपकी राय का पक्का भरोसा है ।”[23] उक्त संकल्पित उपवास के एक
साल पहले भी, सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान ‘कम्यूनल अवार्ड’ में निहित भेद के आधार पर
सांप्रदायिक प्रश्नों को लेकर गाँधी यरवदा जेल में उपवास कर चुके थे । इस उपवास और
उसकी सफलता के लिए भी गाँधी ने टैगोर का आशीर्वाद लिया था । गुरुदेव ने महात्मा की
प्रशंसा करते हुए पत्र लिखा था – “महात्मा जी, छूआछूत के
विरुद्ध लड़ाई की अपेक्षा इसमें सफलता पाना अधिक कठिन है क्योंकि हमारे अधिकांश
लोगों में मुसलमानों के प्रति बहुत गहरी घृणा की भावना है और उन्हें हमारे प्रति
भी कोई खास प्रेम नहीं है । लेकिन आप जानते हैं कि हठी लोगों के दिल को किस तरह द्रवित
किया जाता है और मुझे विश्वास है कि केवल धैर्य पूर्वक प्रेम से जो घृणा सदियों से
घनीभूत हो गयी है उसे जीता जा सकता है । इसके राजनैतिक परिणामों की गणना करना मैं
नहीं जानता लेकिन मुझे विश्वास है कि उससे कीमती और कुछ नहीं है जिससे हम उनका
भरोसा जीत सकें और उन्हें आश्वस्त कर सकें कि हम उनकी मुश्किलों को और उनके
दृष्टिकोण को समझते हैं । तथापि, मैं आपको कोई सलाह नहीं
देना चाहता । मुझे पूरा भरोसा है कि आप अपनी समझ से सही रास्ता अपनाएँगे । मैं
केवल एक सुझाव देने का साहस करता हूँ कि आप ‘हिन्दू महासभा’ से अनुरोध करें कि वे दूसरे संप्रदाय के लोगों से सुलह का संकेत दें ।”[24]
इतिहास के गति
कुछ और ही होती है, उसकी स्वीकृति का ढंग भी निराला होता
है । बाद के दिनों में धीरे-धीरे टैगोर गाँधी के आत्मबल और उपवास की शक्ति को
महत्व देने लगे थे । सार्वजनिक रूप से बहुत सारे मुद्दों पर असहमति और वाद-विवादों
के बावजूद इन दोनों मित्रो में इस बाद की एक गहरी आंतरिक समझदारी थी कि ‘इस जीवन लक्ष्य का वास्ता केवल भारत की आर्थिक समस्या अथवा इसके
सांप्रदायिक धर्मों से नहीं है बल्कि अपने विस्तृत अर्थ में मानव के अन्तःकरण की
संस्कृति को समाहित करना है ।’ ‘महात्मा
और कवि’ के पत्रों को पढ़कर, महात्मा और
गुरुदेव के बीच के संवादों और बहसों को देखकर कभी-कभी यह संदेह होता है कि बीसवीं
सदी के इन दो महान व्यक्तियों का कार्यक्षेत्र
अलग होते हुए भी देश और समूचे विश्व के कल्याण के लिए इंका योगदान कितना
निःस्वार्थ और पवित्र है । हम देख सकते हैं कि भारतीय राष्ट्र के निर्माण में इन
दो महान विभूतियों की बहसों से निकले निष्कर्षों ने किस तरह से महत्वपूर्ण भूमिका
का निर्वाह किया है । गुरुदेव मानते थे और उनका अटूट विश्वास था कि गाँधी ही
एकमात्र ऐसा चमत्कारिक व्यक्ति है जो इस देश को वास्तविक ‘स्वराज’ के रास्ते पर ले जा सकता है – “बहुत दिनों तक हमारे नेताओं ने अँग्रेजी
शिक्षा प्राप्त लोगों के अतिरिक्त किसी की ओर दृष्टिपात नहीं किया उनके लिए ‘देश’ नाम की वस्तु वही थी जो अंग्रेजों की इतिहास की
पुस्तकों में मिलती है वह देश अँग्रेजी भाषा के वाष्प से निर्मित एक मरीचिका जैसा
था जिसमें वर्क ग्लडस्टन, मैजिनी,
गैरीबाल्डी आदि असपष्ट प्रतिमाएँ ही दिखाई देती थीं । उसमें आत्मोत्सर्ग अथवा देश
के लोगों के प्रति यथार्थ सहानुभूति जैसी कोई बात नहीं थी । ऐसे समय में महात्मा
गाँधी भारत के कोटि-कोटि गरीबों के द्वार
पर आकार खड़े हुए और उन्हीं की वेषभूषा में, उन्हीं की भाषा
में उनकी बातें कहीं । यह एक सत्य वस्तु थी और इसमें पुस्तकीय दृष्टांत नहीं थे ।
इसीलिए उन्हें जो महात्मा नाम दिया गया है वह सही नाम है ।”[25] टैगोर की मृत्यु के चार साल
बाद गाँधी आखिरी बार शांति निकेतन गए । वहाँ पर गुरुदेव की उपस्थिती का स्मरण करते
हुए उन्होंने कहा – “शुरू में मेरी प्रवृत्ति अपने और गुरुदेव के बीच संघर्ष खोजने
की थी लेकिन इसका अंत बड़ी शानदार खोज के साथ हुआ कि हम दोनों के बीच ऐसा कुछ था ही
नहीं ।”[26]
यह सही है कि
अपनी वैचारिक मान्यताओं में टैगोर ‘अत्यधिक आधुनिक और
प्रगतिशील’ थे । पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाना चहाइए कि
गाँधी अंधविश्वासी, दकियानूस और जड़ थे । टैगोर का कार्य
लेखन-सृजन व बौद्धिक-दार्शनिक विचार विनिमय का था जबकि गाँधी के समक्ष पूरी भारत की
निरक्षर, अंधविश्वासी, रूढ़िवादी जनता
थी जिसे गांधी को संबोधित करना था और अपना बनाना था । संभवतः, इसीलिए गाँधी को समय-समय पर उन मुहावरों की भी जरूरत पड़ी, जिनकी अवैज्ञानिकता से वे वाकिफ थे । टैगोर और गाँधी एक दूसरे की आत्मिक
शक्ति थे । एक तरह से टैगोर गाँधी के ‘सह-राजनीतिक’[27] गांधी इस बात
को पूरी विनम्रता के साथ स्वीकार करते हुए लिखते हैं – “हम दोनों एक दूसरे की
गतिविधियों के पूरक हैं ।”[28] जवाहर लाल नेहरू ने गुरुदेव
की मृत्यु पर 27 अगस्त 1941 को कृष्ण कृपलानी को एक पत्र लिखा जिसमें वे लिखते हैं
– “शायद किन्हीं दो व्यक्तियों में इतना मतभेद नहीं होगा
जितना गांधी और टैगोर में था । आश्चर्य की बात है कि बहुत सी समानताओं के बावजूद
इन दोनों के आचार-विचार और बुद्धिमानी की प्रेरणा का एक ही स्रोत होते हुए भी वे
एक दूसरे से कितने गंभीर रूप से अलग थे । मैं भारत की प्राचीन सांस्कृतिक प्रतिभा
के बारे में सोचता हूँ जो एक ही पीढ़ी में अपनी प्रकृति के अनुसार दो उत्कृष्ट
नमूने पैदा कर सकती है, जो उसकी बहुआयामी विशिष्टता के
अलग-अलग पहलू हैं ।”[29]
आज प्रबल रूप
से स्वाग्रही और अहमन्य संवादहीनता वाले इस खंडित समय में महात्मा और गुरुदेव के
बीच हुए हुए वाद-विवाद और बौद्धिक आदान-प्रदान संबंधी दस्तावेजों को खँगालने और उन्हें
पढ़ने और उन पर लिखने का कोई मानवीय और सामाजिक-सांस्कृतिक लक्ष्य हो सकता है तो
यही कि आधुनिक होने, मनुष्य होने,
बुद्धिजीवी होने, लेखक होने और इन सबके सम्मिलित योग से सभ्य
होने का कोई अर्थ निकलता है तो वह है पारस्परिक सम्मान और एक दूसरे की गौरव-गरिमा
की स्वीकृति के साथ परस्पर निष्कपट व्यवहार । इन दो महापुरुषों के पत्रों और
विचार-संवादों को पढ़ने के बाद लगता है कि वास्तविक मित्रता का मानसिक साहचर्य के
धरातल पर क्या मूल्य और महत्व होता है । अपने युग की इन दो महान विभूतियों के आपसी
संबंध बारे में सव्यसाचि भट्टाचार्य का यह निष्कर्ष उचित प्रतीत होता है – “गाँधी
और टैगोर के बीच बौद्धिक संवाद की अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह है कि राजनैतिक बहसों
को उन्होंने दार्शनिक ऊंचाइयों तक पहुँचा दिया । हद यह थी कि दोनों में से एक
राजनैतिक सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर था तो दूसरा बौद्धिक श्रेष्ठता की पराकाष्ठा
पर, फिर भी दोनों एक दूसरे से सीख लेने के लिए तत्पर रहते थे
। जब यह तथ्य हमारी समझ में आ जाता है तब महात्मा और कवि के बीच हुए बौद्धिक संवाद
की विचित्रता स्वतः स्पष्ट हो जाती है ।”[30]
[1] महात्मा और कवि, संकलन और संपादन (अंग्रेजी) – सव्यसाचि भट्टाचार्य, हिंदी अनुवाद – तालेवर गिरि, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, पृष्ठ – 50
[12] अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए टैगोर ने ‘छेलेबेला’ नाम
से बांग्ला में पुस्तक लिखी जिसका अंग्रेजी अनुवाद मार्जोंरी साइकस ने ही
शांतिनिकेतन में रहते हुए किया । ‘विश्वभारती’ त्रैमासिक में क्रमशः यह अनुवाद छपता रहा और बाद में ‘My Boyhood
Days’ नाम से प्रकाशित हुआ ।
[13] महात्मा और कवि, संकलन और संपादन (अंग्रेजी) – सव्यसाचि भट्टाचार्य, हिंदी अनुवाद – तालेवर गिरि, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, पृष्ठ – 27
इसे भी
देखें : “मैं विकास
चाहता हूँ, आत्मनिर्णय का अधिकार चाहता हूँ, लेकिन सबकुछ आत्मा कि खातिर चाहता हूँ । मुझे तो इसमें शक है कि मानव
सचमुच प्रस्तर युग से आगे लौह युग में बढ़ा है । मैं इस ओर से उदासीन हूँ । हमें
अपनी बौद्धिक शक्ति और अन्य सभी शक्तियों का उपयोग आत्मा के विकास के लिए करना है ।”
13 अक्टूबर, 1921 को ‘यंग इंडिया’ में छापे लेख ‘The Great Sentinel’ के हिंदी अनुवाद ‘महान
प्रहरी’ से ।
[17] देखें; नवजीवन ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित हिंद स्वराज की सन् 1938 में महादेव देसाई
द्वारा लिखित नयी आवृत्ति की प्रस्तावना ।
[18] महात्मा और कवि, संकलन और संपादन (अंग्रेजी) – सव्यसाचि भट्टाचार्य, हिंदी अनुवाद – तालेवर गिरि, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, पृष्ठ – 11
सव्यसाचि भट्टाचार्य के उक्त कथन के समर्थन के लिए इतिहासकर
ए. आर. देसाई का यह कथन देखें, : “सरकारी शिक्षा के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर आघात कर गांधी जैसे नेताओं
ने उस शिक्षा के प्रगतिशील तत्वों पर हमला किया । पाठ्यक्रम में धार्मिक शिक्षा का
भी स्थान हो, इस तरह का उनका सुझाव प्रतिक्रियावादी था ।
गांधी ने विद्यामन्दिर योजना को विकसित किया । । उन्होंने इसको शिक्षा की
बहुशिल्पीय योजना कहा । क्योंकि, इसमें व्यक्ति के सर्वांगीण
विकास के लिए सैद्धांतिक और प्रौद्योगिक शिक्षा दोनों का स्थान था । बहुशिल्पीय
शिक्षा का सिद्धान्त तो प्रगतिशील था लेकिन जब योरोप में इस शिक्षा का सिद्धान्त
निरूपित हुआ तो उसका अर्थ था आधुनिक सैद्धांतिक ज्ञान और आधुनिक उफयोग का समन्वय ।
लेकिन गांधी गांधी ने आधुनिक शिक्षा पर धर्म का मुलम्मा चढ़ाया और उस बीते हुए युग
के हस्तशिल्प से जोड़ दिया । आधुनिक शिक्षा आधुनिक सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में
जन्मी थी और उनका पाठ-प्रदर्शन कर रही थी । गांधी का प्रयोग पुरातन शिल्पों और
आधुनिक शिक्षा का एक अनैतिहासिक संयोग प्रस्तुत करता था । अवास्तविक और
अनैतिहासिकता पर आधारित ऐसी शिक्षा संबंधी योजनाओं को व्यापक समर्थन नहीं मिल सकता
था और न मिला । - ‘भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि’ : ए. आर. देसाई, हिंदी अनुवाद : प्रयागदत्त
त्रिपाठी, मैकमिलन प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ – 125
[21] महात्मा और कवि, संकलन और संपादन (अंग्रेजी) – सव्यसाचि भट्टाचार्य, हिंदी अनुवाद – तालेवर गिरि, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, पृष्ठ – 140
[27]
बेनदेतो क्रोचे द्वारा गढ़ा गया शब्द ।
देखें : बेनदेतो क्रोचे का ‘Un-political Man’ निबंध जो उनकी पुस्तक ‘My philosophy’ में संकलित है ।
(‘पश्चिम बंगाल’ पत्रिका में 2010 में प्रकाशित)
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