सात
आसमान
लिखता है दस्ते-ग़ैब कोई इस किताब में
विनोद
तिवारी
रात दिन
गर्दिश में हैं सात आसमान
हो रहेगा कुछ – न - कुछ
घबराएँ क्या ?
हो रहेगा कुछ-न-कुछ घबराएँ क्या ? पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है, कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या ? ग़ालिब के उपर्युक्त शे’र के बाद मेरे ज़ेहन में ‘सात आसमान’ की एक अलग अर्थ-छवि (अपने नाम के कारण) असगर वजाहत के 1996 ई. में प्रकाशित उपन्यास के रूप में बनी रही है । पर, जब यह लेख लिखा जा रहा है तब पापुलर ढंग से ‘सात आसमान’ शब्द 600 करोड़ रुपये की कमाई करने वाली, सलमान खान के लिए इरशाद कामिल लिखित; सुखविंदर सिंह/शादाब फरीदी के सुरों में एक हिंदी फिल्म ‘सुल्तान’ के हेरोइक-गीत (Title Song) - ‘सात आसमां चीरे, अब सात समंदर पी रे, चल सात सुरों में कर दे ये ऐलान...रे सुल्तान !’ - के रूप में आस-पास गूँज रहा था । इरशाद की छू लेने वाली कलम और सुखविंदर की नायाब गायकी के कुछ ही खराब गानों में से एक यह भी है । सलमान खान अभिनीत फ़िल्में बॉक्स ऑफ़िस पर किन कारणों से करोड़ों की कमाई करतीं हैं उसका हवाल अलग ही है । बहरहाल... कुरआन में इस बात का कई जगह जि़क्र हुआ है कि आसमान सात हैं । मसलन, कुरआन की 67वीं सूरह, अल-मुल्क पारा 29 की तीसरी आयत, ''जिसने (अल्लाह ने) एक के ऊपर एक सात आसमान बनाये । तुम रहमान (दयावान प्रभु) की आफर्निश (रचना) में कोई क़सर न देखोगे ।”[1] पहले आसमान का नाम रफ़ीअ है और उसका रंग पानी व धुएँ की मानिंद है । और दूसरे आसमान का नाम क़ैदूम है उसका रंग तांबे की मानिंद है । तीसरे आसमान का नाम मादून है उसका रंग पीतल की मानिंद है । चौथे आसमान का नाम अरफ़लून है उसका रंग चाँदी की मानिंद है । पाँचवें आसमान का नाम हय्यून है उसका रंग सोने की मानिंद है । छठे आसमान का नाम उरूस है उसका रंग याक़ूत सब्ज़ की मानिंद है । सातवें आसमान का नाम उज्माअ है उसका रंग सफेद मोती की मानिंद है । इस्लाम की तरह हिंदू धर्म में भी सात आसमानों की बात की गई है । हिंदू धर्म में सात आसमान का मतलब सात लोकों से है । इन सात लोकों के नाम हैं - भू लोक, भुवःलोक, स्वःलोक, महर्लोक, जनलोक, तपलोक और सत्यलोक ।[2] भू लोक, भुवःलोक और स्वःलोक, ये तीन कृतक लोक हैं माने गए हैं और महर्लोक, जनलोक, तपलोक व सत्यलोक ये चार अकृतक लोक । ईसाई धर्म में भी सेवन हैवन्स[3] की कल्पना की मिलती है । लीजिए, मैं भी ‘सात आसमान’ की बात आते ही किस तरंग में किधर जाने लगा । धार्मिक-दार्शनिक धारणाओं, मान्यताओं और रहस्यों का वर्णन इस लेख का लक्ष्य नहीं है । असगर वजाहत का ‘सात आसमान’ उपन्यास इस लेख की विषय-वस्तु है ।
‘सात आसमान’ कोई धार्मिक या दार्शनिक उपन्यास नहीं है यह एक लेखक की, अपने पुरखों या नवासों पर लिखा गया काल्पनिक संस्मरण (fictitious memoir) है, जिसमें कहीं-कहीं इतिहास भी है । पर, ‘सात आसमान’ ऐतिहासिक उपन्यास भी नहीं और न ही औपन्यासिक इतिहास (novelistic history) । हर लेखक का अपने जीवन में एक ऐसे प्रोजेक्ट का सपना होता है कि वह अपने कुल, खानदान, वंश का इतिहास कहीं न कहीं दर्ज़ करे और अगर कुल-खानदान का इतिहास सचमुच गौरवपूर्ण और खानदानी हो तो फिर क्या । उपन्यास में नैरेटर के अब्बा मियाँ को जितना अपने खानदानी और ईरानी नस्ल का होने पर फख्र है उससे कम खुद नैरेटर को नहीं । उपन्यास में नैरेटर (असगर वजहत) ने अपने खानदान को ईरान के शिया खानदान के मशहूर ‘सूफी सिपाही’ सैयद इकरामुद्दीन के खानदान से जोड़ा है जिनका परिवार हुमायूँ के साथ तेहरान के पास के एक गाँव ‘खाफ़’ से चलकर हिंदुस्तान आया था – “सैयद इकरामुद्दीन मुग़ल बादशाह हुमायूँ के साथ ईरान से हिंदुस्तान आए थे । कहते हैं कि, अफगानों से हारने के बाद जब हुमायूँ ईरान पहुँचा वौर वहाँ के शहंशाह से मदद मांगी तो उसके सामने ये शर्त रखी गई थी कि वह अगर शिया हो जाय तो मदद दी जाएगी । हुमायूँ ने शर्त कुबूल कर ली थी ।”[4] वस्तुतः, चौसा, बिलग्राम और कन्नौज में अफगानों और शेरशाह सूरी से लड़ी गई लड़ाईयों में एक पर एक हुयी पराजय से हुमायूँ के पैर उखड़ गए और हुमायूँ को हिंदुस्तान छोडकर भागना पड़ा । 1540 से 1555 तक हुमायूँ ने लगभग 15 वर्ष तक घुमक्कड़ों जैसा निर्वासित जीवन व्यतीत किया । इस निर्वासन के समय ही हुमायूँ ने अपने छोटे भाई हिन्दाल के आध्यात्मिक गुरु फ़ारसवासी शिया मीर बाबा दोस्त उर्फ ‘मीर अली अकबरजामी’ की पुत्री हमीदा बेगम से 29 अगस्त, 1541 ई. को निकाह कर लिया, कालान्तर में हमीदा से ही अकबर जैसे महान सम्राट का जन्म हुआ । इस विवाह से हुमायूँ को ईरान और शिया मुसलमानों की हमदर्दी और उनका सहयोग मिला जिससे हुमायूँ एक बार फिर अपने खोये हुये राज्य को पा सका ।
‘सात आसमान’ सोलहवीं शताब्दी के छठवें दशक से लेकर बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक तक लगभग 400 सालों की लंबी अवधि को अपनी किस्सागोयी का विषय बनाता है । इतनी लंबी कालावधि में एक ही कुल-परिवार की चार-पाँच पीढ़ियों के लोग ‘पात्र’ के रूप में एक साथ चित्रित होते हैं । मुग़ल-काल के समय के कथा-वृत्त की तुलना में अठारहवीं शताब्दी का ‘कथा-वृत्त’ उपन्यास में अधिक आया है । लखनऊ और इलाहाबाद जैसे अवध के सूबे कथा के संदर्भ में हैं । इलाहाबाद और कानपुर के बीच के उस समय के एक चकले की जमींदारी और बाद में (1826 में) जिला बन जाने वाला फ़तेहपुर इस उपन्यास के कथा-वृत्त का लोकेल है । फ़तेहपुर असग़र वजाहत का अपना जिला है, इसी जगह की उनकी पैदाइश है । अवध के दोआब इलाके की यह जमींदारी ज़ैनुल आब्दीन खाँ को लखनऊ के नवाब आसिफ़ुद्दौला से मिली थी । ज़ैनुल आब्दीन खाँ सैयद इकरामुद्दीन के बड़े बेटे अलीकुली खाँ के परपोते मुहम्मद तकी खाँ (जो शाहजहाँ के जमाने में मनसबदार थे) के बेटे थे । औरंगजेब और दाराशिकोह के बीच की लड़ाई में मुहम्मद तकी खाँ ने अपने को राजकाज से एकदम से अलग-थलग कर लिया था । औरंगज़ेब तक तो सब कुछ किसी तरह चलता रहा । “औरंगजेब के मरने के बाद दिल्ली के हालत बिगड़ते-बिगड़ते इतने बिगड़ गए कि सिपाही तलवारें और ढाले बेचने लगे और किसी तरह के रोजगार की सूरत न रह गयी तो सबकी तरह मुहम्मद तकी खाँ के लड़के ज़ैनुल आब्दीन खाँ ने लखनऊ का रुख किया । ये नवाब आसिफ़ुद्दौला का ज़माना था ।”[5] नैरेटर का कुल-खानदान इन्हीं पुरखों से जुड़ा हुआ है । जैनुल आब्दीन को जो जमींदारी मिली थी वह किसी न किसी तरह उनके वंशजों द्वारा हिंदुस्तान की आज़ादी तक उनके कब्जे में रही । अंग्रेजों के चले जाने और बाद में जमींदारी प्रथा के समाप्त हो जाने से बुरा इस परिवार के साथ और कुछ न हो सकता था । इन दोनों के प्रति इस परिवार के लोगों की अटूट और अगाध आस्था थी कि और कुछ भी हो जाय पर इस देश से ये दो चीजें कभी नहीं समाप्त हो सकतीं । अंग्रेज़ किसी हालत में यहाँ से चले भी गए पर जमींदारी यहाँ से नहीं जा सकती । सत्तन मियाँ (नैरेटर के अब्बा के अबा मियाँ) का यह कथन देखना चाहिए - “जहाँ तक जमींदारी का सवाल है, ये बाबा आदम के जमाने से है और ताक़यामत कायम रहेगी । मियाँ जमींदारी न रहेगी तो पूरा निज़ाम दरहम-बरहम हो जाएगा । लगान कौन वसूलेगा ? गाँवों के लुच्चे-लफंगों और बदमाशों को काबू में कौन रखेगा ? सरकारी खजाना खाली हो जाएगा और सरकार ही नहीं रहेगी । मियाँ, यहाँ जो भी हुक्मरान आया उसने जमींदारी को जारी रखा । बिल्फ़र्जे-मोहाल अंग्रेज़ चले भी गए तो जमींदारी नहीं जा सकती ।”[6] जो जमींदारी एक ऐसे सदाबहार पेड़ की तरह था जिस पर जब लठियाँ मारो पैसा झड़ता था, उसके खत्म होने की बात भए कोई कैसे सोच सकता है । पर नहीं जमींदारी भी जाती है और साथ-साथ उसको भोगने वाले जमींदार भी । फिर धीरे-धीरे उनकी शोहरत, उनके ताल्लुकात, उनकी इज्ज़त, उनका दर्ज़ा, उनका वक़ार, उनका रुतबा, उनका इक़बाल, उनकी पहुँच, कामयाबी और इख्तियारात सब फीके हो जाते हैं । अगर, इस उपन्यास को जमींदारी प्रथा और सामंती मानसिकता की बुराइयों का उद्घाटन करने वाला उपन्यास माना जाता है तो मैं इस सहमत नहीं हो सकता । उपन्यास में इस प्रथा या मानसिकता का कहीं कोई क्रिटिक नहीं मिलता । इस बिन्दु पर इस उपन्यास का कथानक अत्यंत कमजोर है या यह कहा जाय कि कथानक है ही नहीं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । दरअसल, इस उपन्यास में कोई एक मुकम्मल कथा बनती ही नहीं, कथा किसी एक-सूत्र[7] में विकसित ही नहीं होती है तो कथानक कहाँ से बनेगा । यह स्मृतियों का एक कोलाज है । लगभग 400 सालों के लंबे कालखंड को यह उपन्यास अपनी कल्पनाशक्ति और किस्सागोयी का विषय बनाता है । इतनी लंबी कालावधि में एक ही कुल-परिवार की चार-पाँच पीढ़ियों के लोग ‘पात्र’ के रूप में एक साथ चित्रित होते हैं पर दुर्भाग्यवश एक भी ‘पात्र’ ‘चरित्र’ नहीं बन पाता ‘औपन्यासिक चरित्र’ तो और । जबकि, अब्बा मियाँ, अब्बू साब जैसे कई पात्रों में इसकी संभावना नज़र आती है । शायद, इसमें वास्तविक पात्रों को ‘औपन्यासिक चरित्र’ बनाने की मुश्किलें उपन्यासकर के सामने रही हों । लेखक छोटे-छोटे संस्मरणों को इतिहास की छायाभासी स्मृतियों के सहारे रेखाचित्रों में टुकड़े-टुकड़े कहता चला गया है; बस । चरित्र प्रस्तुत भर किए गए हैं निर्मित नहीं किए गए हैं । जबकि, एक उपन्यास में पहले पात्रों/चरित्रों का निर्माण किया जाता है तब, उनका चित्रण । उपन्यासकार भले ही यह कहता हो कि, “पात्र न तो उसके बनाए हुये हैं न और न उसके वश में हैं” पर ऐसा होता नहीं है । उपन्यासकार कठपुतली का नाच दिखाने वाले उस कलाकार की भाँतिति होता है जिसकी हरेक हरकत से कठपुतलियों का तार जुड़ा होता है ।
उपन्यासकारों के बारे में यह कहा जाता है कि वह अपनी ‘आत्मकथा’ नहीं लिखते हैं या बहुत कम उपन्यासकर होंगे जिन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी होगी । क्योंकि यह माना जाता है कि एक उपन्यास में बहुत हद तक उपन्यासकर अपनी आत्मकथा लिखता चलता है । यह एक हद तक सच भी है । इस उपन्यास में उपन्यासकार ने अपनी आत्मकथा तो नहीं लिखी है पर अपनी स्मृतियों के सहारे अपने ऐतिहासिक कुल-परिवार के अन्या-अन्य चरित्रों और परिस्थितियों के अनेकश: संस्मरणात्मक रेखाचित्र खींचे हैं । इस चित्रण और वर्णन में काल्पनिक वृत्तान्तों, निजी गढ़ंत और आभासी इतिहास जैसे ‘गल्प-तत्वों’ का इस्तेमाल उपन्यासकार ने अत्यंत कुशलता से किया है । अब्बा मियाँ, अब्बू साब, अब्बा, नैरेटर इन चार-पाँच पीढ़ियों के लोगों के फ़न और हुनर का वर्णन करते हुये बीच-बीच में उपन्यासकार ने उपन्यास में बार-बार जिस एक चीज को ‘फ्लैश’ करते रहने की कोशिश की है वह है – ख़त्म होती सामंती ठसक और टूटती जमींदारी प्रथा । इसे ही उपन्यास का ‘विषय’ माना गया है पर इसे ‘कथा-वस्तु’ नहीं माना जा सकता । कथा-वस्तु उपन्यास के कथानक का हासिल होता है, जिससे कोई भी उपन्यास ‘उपन्यास’ बनता है । अगर उपन्यास में ‘कथानक’ नहीं है या कमजोर है तो उपन्यास में ‘कथा’ तो होगी, ‘कथारस’ भी होगा पर ‘कथा-वस्तु’ गायब होगी । इस संबंध में नित्यानंद तिवारी का यह कथन देखना चाहिए - “समूचे आदिकालीन साहित्य में कथा होते हुए भी कथानक क्षीण है, सारी भक्ति कविता में सशक्त कथानक है, लगभग सारा रीतिकालीन साहित्य कथानक का निषेध करता है और आधुनिक साहित्य कथानक के आधुनिक विन्यास की विशेष चिंता के कारण सार्थक लगता है । तो क्या कथानक, शिल्प तकनीक और भाषा की समस्या मात्र न होकर वास्तविकता और अनुभूति की समस्या है ? जिसे मात्र कला के क्षेत्र में नहीं सुलझाया जा सकता ? क्या उसे पूरे युग, जीवन, व्यक्ति और समाज की क्रिया-प्रतिक्रिया के संबंधों-अंत्स्संबंधों में उभरते हुये पहचानना होता है ? एक रचनाकार शिल्प, तकनीकि और भाषा की व्यंजना क्षमता को तो शायद अपनी व्यक्तिगत सामर्थ्य से उत्पन्न कर सकता है लेकिन कथानक उत्पन्न नहीं कर सकता । क्या कथानक के सूत्र-संकेत युग और समाज के ह्रासोन्मुख और गतिशील शक्तियों के संघर्ष बिन्दु में निहित होते हैं जो रचनाकर की सृष्टि न होकर इतिहास की सृष्टि है ? युग और सामाज में चल रहे इस संघर्ष में यदि रचनाकर शामिल होता है तो किसी न किसी शक्ति की पक्षधरता उसे बरतनी पड़ती है, उसके व्यवहार का स्पष्ट और निश्चित विन्यास होता है, उसकी बोली का एक अर्थ होता है । उसकी बोली का एक अर्थ उसके जीवन मरण का प्रश्न होता है मात्र कलात्मक प्रश्न नहीं । क्या कथानक ऐसी बेचैनी से ही पैदा होता है ?”[8] पर पूरे उपन्यास में ऐसी किसी बेचैनी का, तनाव का कोई हवाला नहीं है । चार सौ सालों के लंबे कालखंड में मुग़ल काल से लेकर अंग्रेजों की साम्राज्यवादी औपनिवेशिक व्यवस्था के तहत बनने और विकसित होने वाली ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवर्तनों के साथ लोगों के ‘वास्तविक और स्वाभाविक देशकाल’ और ‘वातावरण’ के संघर्षों, तनावों, युग-संधि के सकारात्मक-नकारात्मक पहलुओं का चित्रण उपन्यास में नहीं के बराबर है, है भी तो उनका जिक्र भर है । बल्कि, सच तो यह है कि अपनी सामाजिक-निर्मिति और प्रकृति में ही नहीं बल्कि अपनी साहित्यिक-अर्थवत्ता में भी उपन्यास अपने समय के इतिहास और समाज के ‘इंप्रिन्ट्स’ को ले आने की कोशिश करता है । इसलिए देखा जाय तो एक कथाकार अपनी तात्कालिक सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों में रहते हुए – रचते हुए भी सदैव एक ‘प्राकृतिक- देशकाल’ रचने की कोशिश करता है जो सार्वभौम होता है | परन्तु, यह ध्यान रहे कि यह प्राकृतिक-देशकाल कोई पारलौकिक संकल्पना नहीं और न ही काल्पनिक कथा-वृत्त है वरन, उपन्यास सभ्यता के विकास में मानव विरोधी परिस्थितियों, जटिलताओं और सभी तरह की प्रगतिरोधी संकल्पनाओं, विचारों, प्रथाओं का एक समानांतर विकल्प है | ............................................................................................................
संदर्भ और टिप्पणियाँ :
[1] पवित्र क़ुरआन : (अनु.) मौलाना मुहम्मद फ़ारूक़ खाँ - अरबी से उर्दू, डॉ. मुहम्मद अहमद – उर्दू से हिंदी, प्रकाशक- मधुर संदेश संगम, ई-20, अबुल फ़ज़ल इंक्लेव, ज़ामिया नगर, नयी दिल्ली, p. 895
[3] https://en.wikipedia.org/wiki/seven_havens : Each of the seven heavens is depicted as being composed of a different material, and Islamic prophets are resident in each. The first heaven is depicted as being made of silver and is the home of Adam and Eve, as well as the angels of each star. The second heaven is depicted as being made of gold and is the home of John the Baptist and Jesus. The third heaven is depicted as being made of pearls or other dazzling stones; Joseph and Israel are resident there. The fourth heaven is depicted as being made of white gold; Enoch and the Angel of Tears resides there. The fifth heaven is depicted as being made of silver; Aaron and the Avenging Angel hold court over this heaven. The sixth heaven is composed of garnets and rubies; Moses can be found here. The seventh heaven, which borrows some concepts from its Jewish counterpart, is depicted as being composed of divine light incomprehensible to the mortal man. Abraham is a resident of the seventh heaven.
[4] सात आसमान – असग़र वजाहत, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपर बैक संस्करण : 2009, p.52
[5] वही, p. 54
[6] वही, p. 152
[7] एक तरह से इस उपन्यास को शास्त्रीय परिभाषा के अंतर्गत भी नहीं रखा जा सकता क्योंकि इसमें वह एकसूत्रता नहीं है जो प्रायः उपन्यासों में होती है । - ‘सात आसमान’ के बैक कवर से उद्धृत
[8] आधुनिक साहित्य और इतिहास-बोध - नित्यानंद तिवारी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, p. 67
(साभार : बनास जन )
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