11 दिसंबर 2017

संपादकीय,पक्षधर-23

                                            मुक्तिबोध के सौ साल

                                    बहस छिड़ी है...
                                                   (मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि) 

यह साल गजानन माधव मुक्तिबोध की जन्म-शताब्दी का साल है । मुक्तिबोध की शताब्दी की धूम रही । मुक्तिबोध के प्रशंसकों और उनके निंदकों दोनों ने अपनी-अपनी तरह से मुक्तिबोध को याद किया । इस शताब्दी वर्ष में उन पर लिखा खूब गया । हिंदी की लगभग सभी पत्रिकाओं के मुक्तिबोध विशेषांक प्रकाशित हुए । देश के हर हिस्से में गोष्ठियों और समारोहों का आयोजन हुआ । मैं, उन आयोजनों या विशेषांकों का लेखा-जोखा यहाँ नहीं पेश करने जा रहा । पर, एक बात कहने का साहस जरूर करूंगा कि, जितना भी लेखन मेरे सामने से गुजरा है, अधिकांशतः उनमें दोहराव, नकल और पिष्टपेषण है । वास्तव में, मुक्तिबोध अपनी पढ़त में सरल नहीं हैं, वे न तो हिंदी के राष्ट्र–कवियों की तरह इकहरे अर्थागम में सहज उपलब्ध कर लिए जाने वाले कवि हैं और न ही चलताऊ नुस्खों के सहारे सनसनी पैदा करने वाली रिक्त-संवेदना के लोकप्रिय (पाप्युलर के अर्थ में) लेखक । वे अपने पढ़े जाने के लिए एक गहन, गंभीर व सजग पढ़त की माँग करते हैं । फिर भी जरूरी नहीं कि, उनको उनकी संपूर्णता में पा लिया जाय । फिर भी कम से कम इतना तो होता :
                                   जरा घूम-घाम आते, जरा भटक जाते तो –
                                   कुछ न सही, कुछ न सही
                                   गलतियों के नक्शे तो बनते,
                                   बन जाता भूलों का ग्राफ ही,
                                   विदित तो होता कि,
                                   कहाँ-कहाँ कैसे-कैसे खतरे,
                                   अपाहिज पूर्णताएँ टूटतीं !
मुक्तिबोध का सम्पूर्ण लेखन एक पूरी तैयारी का लेखन है, विवेक-च्युत भावुक-बहकाव की गुंजाइश उनके यहाँ कम से कम है । मुक्तिबोध के यहाँ ज्ञात-ज्ञेय-प्रमेय की तरह सबकुछ पूर्व सिद्ध नहीं है । उसकी सिद्धि के प्रयत्न इसी जीवन-जगत में करने होंगे और जो कठिन से कठिनतर है और जिसका रास्ता सरल नहीं बल्कि द्वंद्वात्मक (Dialectical) है । मुक्तिबोध के आलोचनात्मक गद्य की वैचारिक उधेड़बुन, तीखे किन्तु सटीक तर्क, उपपत्तियों और युक्तियों के दृढ़ सैद्धान्तिक आधार, पुराने टीकाकारों की अर्थ-क्रीड़ा और आधुनिक व उत्तराधुनिक संरचनावादियों/विखंडनवादियों की भाषा-क्रीड़ा से भिन्न पाठ की व्याख्या और उस व्याख्या के अंतर्गत जीवनपरक सौन्दर्य के विकसनशील संदर्भों, वस्तु-स्थितियों और मनस्तत्वों की संगति और संघात के द्वन्द्वात्मक रिश्ते को जानने-समझने की प्रक्रिया में हर कदम पर इस बात का एहसास होता है कि मुक्तिबोध अपनी कविताओं की तरह अपने आलोचनात्मक लेखन में भी गहरी छील-छाल और वस्तु-सत्य के उद्घाटन की प्रक्रिया अपनाते हैं । मुक्तिबोध की साहित्यिक पहचान भले ही एक कवि की हो पर मुक्तिबोध की रचनात्मक प्रकृति के केंद्र में आलोचना है । उनकी काव्यभाषा में काव्यात्मक वातावरण की जगह जो एक उघड़ा हुआ नीरंध्र, तिक्त आलोचनात्मक गद्य-संवेदन मिलता है, वह उनकी इस प्रकृति का सबल प्रमाण है । अगर यह कहा जाय कि, मुक्तिबोध के समूचे साहित्य-विचार-चिंतन की प्रक्रिया में आलोचना केंद्रीय स्थिति में है तो गलत नहीं होगा ।
    मुक्तिबोध की आलोचनात्मक-दृष्टि के मूल्यांकन के लिए उनकी चार आलोचनात्मक पुस्तकों – एक साहित्यिक की डायरी’, कामायनी एक पुनर्विचार’, नयी कविता का आत्मसंघर्ष और नए साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र के अतिरिक्त एक इतिहास की पुस्तक इतिहास और संस्कृति लिया जाता है । अब ये पाँचों पुस्तकें मुक्तिबोध रचनवाली के चौथे, पाँचवें और छठवें   खंडों में प्रकाशित हो चुकी हैं । मुक्तिबोध के जीवित रहते हुए, उनकी जो दो पुस्तकें – कामायनी एक पुनर्विचार और इतिहास और संस्कृति प्रकाशित हुईं वह आलोचना और इतिहास की पुस्तकें थीं । इन दोनों पुस्तकों को पढ़ने से पता चलता है कि मुक्तिबोध की आलोचना और इतिहास दृष्टि का परास (Dimensional strength) विश्व-बोध की व्यापक अंतर्दृष्टि से सम्पन्न और समृद्ध है । मार्क्सवादी दर्शन और विचार इस विश्वबोध के केंद्र में है ।
    ‘कामायनी एक पुनर्विचार मुक्तिबोध की पहली किताब है । सुनियोजित सिनाप्सिस के तहत मार्क्सवादी सिद्धान्त-दर्शन और विचार का एक ठोस प्रबंध । आलोचना की समाजशास्त्रीय अध्ययन-पद्धति का हिंदी में बेहतरीन नमूना । अक्सर यह प्रश्न किया जाता है कि, साहित्य में मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र का क्या अर्थ है? जिन लोगों को अब तक इसका उत्तर नहीं मिल सका है, उन्हें एकबार फिर से मुक्तिबोध की उपर्युक्त पुस्तक को इसी अर्थ की तलाश के लिए पढ़ना चाहिए । मुक्तिबोध कामायनी का अध्ययन न तो किसी प्रतीकात्मक प्रबंध-काव्य, न ही किसी महकाव्यात्मक रूपक और न ही मनोवैज्ञानिक विश्लेषण-विवेचन वाली आलोचना पद्धति के रूप में प्रस्तावित करते हैं । वे मानते हैं कि कामायनी में प्रयुक्त वैदिक-मिथकीय रूपक और प्रतीक प्रसाद जी ने जानबूझकर भटकाने के लिए तैयार किए हैं । मनु न मन का प्रतीक है न इड़ा बुद्धि का, श्रद्धा हृदय के प्रतीक के रूप में कुछ दूर तक चलती जरूर है पर वह भी दया-माया-ममता वाले भाव में ही रेड्यूस हो जाती है । मनु अगर किसी के मन का प्रतिनिधित्व करता है तो वह खुद जयशंकर प्रसाद के अपने मन का । मुक्तिबोध कामायनी की ही नहीं, किसी भी पुस्तक की केवल मनोवैज्ञानिक व्याख्या को एकांगी, अपूर्ण और असंगत मानते हैं । वह अपनी पुस्तक के शुरू में ही यह स्पष्ट करते हैं कि, “आलोचक का यह धर्म है कि वह कामायनी में उपस्थित जीवन-समस्या की, उस आवयविक रूप से संलग्न परिवेश-परिस्थिति की तथा इन दोनों के संबंध में कवि दृष्टि की, तथा उस जीवन-समस्या के कवि-कृत निदान की, समीक्षा करे”। (कामायनी एक पुनर्विचार, मुक्तिबोध रचनावली- 4, पृ.195) । यह कामायनी के समाजशास्त्रीय अध्ययन की प्रस्तावना है ।
    मुक्तिबोध कामायनी को एक विशाल फैंटेसी मानते हैं । एक ऐसी फैंटेसी जिसके द्वारा प्रसाद जी अपने वर्तमान युग-जीवन के आवर्तों को वैदिक काल में शिफ्ट कर देते हैं । “प्रसाद के पास ऐतिहासिक बुद्धि थी पर, कोई वैज्ञानिक इतिहास-दृष्टि न थी । वैदिक कथानक उनके लिए एक विशाल फैन्टेसी का काम करता है । जिसके द्वारा वे एक ओर आधुनिक जीवन-तथ्यों तथा स्वयं सोचे हुए उनके निष्कर्षों को चित्रात्मक पद्धति से उपस्थित करना चाह रहे हैं, तो दूसरी ओर वह फैन्टेसी उन चित्रों तथा निष्कर्षों की वर्तमानता को, अपने काल तथा स्थान से अलग हटाते हुए और इस प्रकार उन तथ्यों और निष्कर्षों को दूरी प्रदान कर, न केवल आकर्षक बना रही है, वरन वह फैन्टेसी अपने आकर्षण के द्वारा वर्तमान जीवन में प्राप्त उन तथ्यों की सप्रश्नता को मिटा रही है”। (कामायनी एक पुनर्विचार, मुक्तिबोध रचनावली-4, पृ. 203) ।
    साहित्य में भाव और विभाव पक्ष की बात संस्कृत काव्यशास्त्र के समय से चली आ रही है । आधुनिक हिन्दी आलोचना में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी सैद्धान्तिक रूप से रस-मीमांसा में और व्यावहारिक रूप से तुलसीदास के अध्ययन-विश्लेषण के संबंध में भाव और विभाव की बात की है । शुक्ल जी को भाववादी आलोचक कहा जाता है, पर शुक्ल जी भाव की तुलना में विभाव-पक्ष को अधिक महत्व देते हैं । वे विभाव को वस्तु-निर्देश का कारक मानते हैं, बिना विभाव के वस्तु-पक्ष गौण होगा । मुक्तिबोध को एक बार उनकी वैचारिक-सैद्धान्तिक दृष्टि को अलग रख कर, अगर केवल उनकी आलोचनात्मक पद्धति और प्रक्रिया की तुलना किसी हिन्दी के आलोचक से करनी हो तो मुझे लगता है वे आचार्य रामचंद्र शुक्ल ही हो सकते हैं । डॉ. के. डी. शर्मा ने तो, खसरा-खतौनी की पड़ताल करते हुए, मुक्तिबोध ने शुक्ल जी से क्या-क्या लिया है, इस पर एक लंबा लेख ही लिखा है । अच्छा और होता कि शर्मा जी शुक्ल जी के पूर्व की ख़सरा-खतौनी तलाशते । शुक्ल जी के भी रकबे की पैमाइश करते कि क्या चीजें कहाँ से ली गयी हैं । के. डी. शर्मा जी इसे अच्छे से कर भी सकते हैं । कामायनी संबंधी अपने अध्ययन-विश्लेषण में मुक्तिबोध जिस सरल और स्पष्ट तरीके से भाव और विभाव को समझाते हैं, वह उनको दुरूह मानने वाले लोगों को देखना चाहिए : “यथार्थवादी शिल्प के अंतर्गत यथार्थ के बिम्ब, यथार्थ के स्वरूप, और गति के नियमों में बंधकर, प्रस्तुत होते हैं । दूसरे शब्दों में, यथार्थवादी शिल्प के अंतर्गत विभाव-पक्ष (वस्तु-पक्ष) का चित्रण होता है और उस पक्ष के आधार पर ही भाव-पक्ष का उदघाटन होता है । इसके विपरीत, भाववादी रोमांटिक शिल्प के अंतर्गत भाव-पक्ष का ही चित्रण होता है और विभाव-पक्ष को नेपथ्य में डाल दिया जाता है अथवा उसे यत्र-तत्र सूचित कर दिया जाता है।” मुक्तिबोध यथार्थवादी शिल्प और यथार्थवादी दृष्टिकोण दोनों को एक नहीं मानते हैं । उसमें अंतर स्थापित करते हैं । वे कहते हैं, “यह बहुत संभव है कि यथार्थवादी शिल्प के विपरीत जो भाववादी शिल्प है – उस शिल्प के अंतर्गत, जीवन को समझने की दृष्टि यथार्थवादी रही हो । कवि के जीवन ज्ञान के स्तर पर और कवि-व्यक्तित्व की अनुभव संपन्नता के स्तर पर, उसकी दृष्टि पर यह निर्भर है कि वह कहाँ तक वास्तविक जीवन-जगत को, उसके सारे वास्तविक सम्बन्धों के साथ ग्रहण कर, उसे वस्तुतः समझता है । संक्षेप में कला के शिल्प और उसकी आत्मा में अंतर करना होगा” । (कामायनी एक पुनर्विचार’, रचनावली, 4, p. 196-97) वस्तु और रूप की जो मुक्तिबोध की समझ है वह साफ है । लेनिन ने टालस्टाय के लेखन की सराहना जीवन के प्रति लेखक के दृष्टिकोण को ही ध्यान में रख कर किया है ।
    जयशंकर प्रसाद ने कामायनी की कथा को आर्य-साहित्य की विरासत से प्राप्त वैदिक-इतिहास (वह इतिहास ही है’, ऐसी जयशंकर प्रसाद की धारणा है, देखें- कामयनी का आमुख) और मनु को ऐतिहासिक पुरुष मानकर आधुनिक, भौतिकवादी, यंत्र-युग की सभ्यता-समीक्षा के रूप में प्रस्तुत किया है । पर, प्रसाद जी इस सभ्यता-समीक्षा के साथ कहाँ तक न्याय कर पाये हैं, मुक्तिबोध अपने प्रबंध में इसकी गहन जांच-परख करते हैं । मुक्तिबोध यह खूब अच्छी तरह से जानते हैं कि, “सांस्कृतिक विरासत को हमेशा संबन्धित सामाजिक समूहों (वर्गों, जातियों आदि) द्वारा, सम्पूर्ण पीढ़ियों द्वारा और इससे भी व्यापक रूप में नयी सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं द्वारा उसके व्यावहारिक उपयोग के अवसरों की दृष्टि से देखा जाता है ।” (एलेजार बालेर, कम्युनिज़्म और सांस्कृतिक विरासत, पृ. 52) मुक्तिबोध यह मानते हैं कि, प्रसाद आधुनिक बोध वाले व्यक्ति थे । किन्तु उनकी आधुनिकता की समझ और निष्कर्षों से मुक्तिबोध असहमत होते हुए उसे दोषपूर्ण मानते हैं । उनका मानना है कि, कामायनी मेँ जिस भौतिकवादी (पूंजीवादी) सभ्यता का चित्र प्रस्तुत करते हैं और जिसे भयानक रूप से रोगग्रस्त कहते हुए उसकी आलोचना करते हैं उसी का हल किस तरह पेश करते हैं कामायनी मेँ, उसे देखा जाना चाहिए : “आपत्ति यह नहीं है की प्रसाद जी ने पूंजीवादी सभ्यता की आलोचना की । आपत्ति यह है कि उन्होने जिन धारणाओं के वशीभूत होकर अपनी सभ्यता-समीक्षा प्रस्तुत की, उसमें समाज के मूल सक्रिय द्वंद्व चित्रित न हो सके । यही नहीं, वरन यह कि उनकी धारणाएँ, अपने अंतिम निष्कर्षों मेँ, जन-विरोधी रहीं” । (कामायनी एक पुनर्विचार’, रचनावली, 4, p. 289) x x x “इड़ा सर्ग का विवेचन करते हुए प्रसाद जी की महत्ता इसी में है कि उन्होंने नवीन राष्ट्रीय पूंजीवादी यथार्थ के ह्रासगत स्वरूप की तीव्रतम शब्दों में भर्त्सना की । भारतीय समाज के अंदर मार्क्सवादी विचारधारा का उनके जमाने में कोई निर्णयाक प्रभाव न होने के कारण, तथा तत्कालीन समाज सामाजिक विकास-स्तर की सीमाओं से ग्रस्त होकर वे इस वर्ग-वैषम्यपूर्ण अराजक भयानकता के विश्व का कोई वैज्ञानिक विश्लेषण-निरूपण न कर सके । अतएव, प्रसाद जी की सभ्यता-समीक्षा में दो प्रधान दोष रह गए : (1) सभ्यता-समीक्षा एकांगी है, उसने केवल ह्रास को देखा, जनता की विकासमान उन्मेषशाली शक्तियों को नहीं देखा । (2) उनकी आलोचना अवैज्ञानिक है, वह समाज के मूल द्वंद्वों को नहीं पहचानती, मूल विरोधों को नहीं देखती । वह उन मूल कारणों और उनकी प्रक्रिया से उत्पन्न लक्षणों को एक साथ ही रखती है”। (कामायनी एक पुनर्विचार’, रचनावली, 4, p. 292)
    रेमंड विलियम्स ने अपनी पुस्तक कल्चर एंड सोसाइटी (1950) में समाज और संस्कृति के विभिन्न कलारूपों के विकास और उनके परस्परिक संबंधो के अध्ययन के लिए तीन आधारभूत बातें कही हैं :
1.  सबसे पहले यह देखा जाना चाहिए कि, मानव-मानस के विकास की अवस्थाएँ क्या रही हैं ।
2.  इस विकास की प्रक्रियाएँ अर्थात सामाजिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान की गतिविधियाँ किस तरह की रही हैं ।
3.  इन प्रक्रियाओं को पोषित करने वाला साहित्यिक-सांस्कृतिक वातावरण कैसा रहा है ।
रेमंड विल्यम्स की उपर्युक्त प्रस्तावना का, मुक्तिबोध अपने एक महत्वपूर्ण लेख मध्ययुगीन भक्ति-आंदोलन का एक पहलू और बाद में अपनी पुस्तक कामायनी एक पुनर्विचार में बखूबी इस्तेमाल करते हैं । वे लिखते हैं कि किसी भी साहित्य को हमें तीन दृष्टियों से देखना चाहिए :
1.  वह किन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शक्तियों से उत्पन्न है, अर्थात् वह किन शक्तियों के कारणों का परिणाम है, किन सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रियायों का अंग है?
2.  उसके प्रभाव क्या हैं किन सामाजिक शक्तियों ने उसका उपयोग या दुरुपयोग किया और क्यों ? साधारण जन के किन मानसिक तत्वों को उसने विकसित या नष्ट किया है ।
3.  उसका अंतःस्वरूप क्या है, किन प्रेरणाओं और भावनाओं ने उसके आंतरिक तत्व रूपायित किए हैं ।
मुक्तिबोध अपनी साहित्यिक समझ और दृष्टिकोण में स्पष्ट हैं । उनकी इस समझ में कि, किसी भी साहित्य का ठीक-ठाक विश्लेषण तब तक नहीं हो सकता जब तक हम उस युग की मूल गतिमान सामाजिक शक्तियों से बनने वाले सांकृतिक इतिहास को ठीक-ठीक न जान लें। भक्ति-आंदोलन संबंधी अपनी प्रस्तवाना और कामायनी के अध्ययन संबंधी अपनी थीसिस में भी इसी समझ और दृष्टि को सामने रखकर चलते हैं ।
    प्रायः यह माना जाता है कि, कवि जब आलोचनात्मक लेखन करता है तब वह न केवल अपनी यूटोपिया का आविष्कार करता है बल्कि अपनी डिस्टोपिया का बचाव भी करता है । परंतु, मुक्तिबोध आलोचना के क्षेत्र में अपनी किसी यूटोपिया के आविष्कार या डिस्टोपिया के बचाव के लिए नहीं आते हैं, यहाँ तक कि अपनी सर्वाधिक चर्चित और बहस-तलब पुस्तक एक साहित्यिक की डायरी में भी । एक साहित्यिक की डायरी आलोचना की कोई मुकम्मल थीसिस नहीं है पर हिंदी आलोचना की कई मुकम्मल किताबों से बहुत आगे की किताब है । मुझे इसके बराबर में, इस शैली की हिंदी में कोई किताब अब तक नहीं दिखी । अगर इसे किसी के बराबर रखना होगा तो अवार भाषी दागिस्तानी लेखक रसूल हमजातोव की किताब मेरा दागिस्तान को रखना पसंद करूंगा । ये दोनों ही पुस्तकें, एक व्यक्ति द्वारा, उसके अपने रचनाकर से और खुद रचनाकार के बतौर उस व्यक्ति से एक खुली आत्मीय बातचीत हैं । सृजन-प्रक्रिया पर, इतनी बारीकी से, इतने सलीके से और इतनी ऊँचाई से और इतने हुनर के साथ ये किताबें लिखी गयी हैं कि आप बार-बार इस पढ़ते हैं और हर बार कोई न कोई ऐसा सूत्र आपको मिल ही जाता है जिससे आप अर्थ-सम्पन्न होते हैं ।
    एक साहित्यिक की डायरी सृजनात्मक यातना और उसके एडवेंचर से उबरने के अनुभव-सत्यों से जिरह करने वाली एक ऐसी किताब है जिसे केवल साहित्यिक ही नहीं कला और सृजन की दुनिया में रचने-बसने वाले कोई भी व्यक्ति भी पढ़ सकता है । इस पुस्तक में मुक्तिबोध, कला के तीन क्षणों के सहारे अनुभव, शब्द, चित्र, भाव, बोध, उद्देश्य, आदि को समेटने और फिर उन्हें अभियक्ति के फार्म (फैंटेसी) में ले आने की जो पूरी रचनात्मक प्रक्रिया प्रस्तुत करते हैं, उससे एक रचनाकर की दीप्त मेधा का परिचय मिलता है । मुक्तिबोध गति को, परिवर्तन को, गति और परिवर्तन के विविध आयामों को किसी एक जगह पूरा हुआ मानकर विराम लेने वाले रचनाकार नहीं हैं । उनका मानना है की एक सातत्य की प्रक्रिया में लगातार परिवर्तन होते रहते हैं । यहाँ तक कि, सोचने-समझने की जो प्रक्रिया होती है वह भी परविवर्तनों के साथ गतिशील रहती है । कला के तीसरे क्षण, अभिव्यक्ति के क्षण में, दूसरे क्षण में जन्मी फैंटेसी थी वह भी अब पुरानी पड़ने लगती है, यथार्थ गतिशील होता है, फैंटेसी डाइनेमिक होती है, कलाकार को नए-नए अर्थस्वप्न मिलने लगते हैं और फैंटेसी और अधिक सम्पन्न, समृद्ध और सार्वजनीन हो जाती है । अपनी इस पुस्तक में मुक्तिबोध सौन्दर्य, सौन्दर्य प्रतीति की दृष्टि-चेतना, सौंदर्यात्मक-अनुभूति, काव्य-सत्य, कला की स्वतः सम्पूर्ण स्वायत्तता और कला की विलक्षण अद्वितीयता के नाम पर अभिव्यक्त होने वाले कंडीशंड साहित्यिक रिफ्लेक्सेज, आदि पर अपने ज्ञान और अनुभव के सहारे गहन-विश्लेषणात्मक बातचीत करते हुए जिस तरह से, कला को, सौन्दर्य को, सौंदर्यात्मक अनुभव को, रचनात्मक-प्रसव प्रक्रिया को व्यापकतर सत्य जनित विश्व-दृष्टि के आलोक में शोधित करते हैं वह उन्हें एकांगी और अतिवादी दोनों होने से बचाता है ।  जिस कंडीशंड साहित्यिक रिफ़्लेक्सेज़ की बात ऊपर उठाई गयी है, उसको मुक्तिबोध अपने एक वक्तव्य काव्य की रचना प्रक्रिया (जो इलाहाबाद में, 1957 में हुए ऐतिहासिक साहित्यकार सम्मेलन में पढ़ा गया था) में स्पष्ट करते हुए कहते हैं – “सामन्यतः, यह देखा गया है, कि कवि-व्यक्तित्व, अपनी प्रबल आंतरिक आवश्यकताओं के अनुसार, कुछ विशेष भाव-श्रेणियों को ही प्रकट करता रहता है, मानों वे उसकी जीवन के स्थायी भाव हों । उन्हें प्रभावोत्पादक रूप में प्रकट करने के उसके अनवरत परिश्रम और अभ्यास के फलस्वरूप, धीरे-धीरे, उसकी वे भाव-श्रेणियाँ और उनकी अभिव्यक्ति दोनों एक इकाई बनकर एक कंडीशंड साहित्यिक रिफ़्लेक्स का रूप धारण कर लेती हैं ।...जिस कवि में आत्म-निरीक्षण और आत्म-संघर्ष जितना तीव्र होगा, वह कंडीशंड साहित्यिक रिफ़्लेक्स से उतना ही जूझेगा । रचना प्रक्रिया का एक बहुत बड़ा अंग आत्मसंघर्ष है । रचना प्रक्रिया, वस्तुतः, एक खोज और एक ग्रहण की प्रक्रिया है ।” वे अपनी आलोचनात्मक दृष्टि को अधिक से अधिक वैज्ञानिक और मनुष्य केन्द्रित बनाने के लिए मार्कस्वाद के साथ-साथ मनोविज्ञान को भी शामिल करने करने से परहेज नहीं करते । और जो लोग यह मानते हैं ( और इसमें स्थूल दृष्टि वाले मार्क्सवादी भी शामिल हैं) कि मार्क्सवाद और मनोविज्ञान एक साथ नहीं चल सकते उन्हें एक साहित्यिक की डायरी की विश्लेषण-प्रणालियों को अत्यंत सूक्ष्मता से परखना चाहिए ।
    एक बात और जो कहना जरूरी है, कि जो लोग एक साहित्यिक की डायरी को रचना-प्रक्रिया की किताब मात्र मानते हैं, उन्हें ध्यान से उसे दोबारा एक बार और पढ़ना चाहिए कि कैसे बीसवीं सदी की नैतिक और ऐतिहासिक स्थितियों के साथ आधुनिकतवाद, मानवतावाद, आदि की बहसें अंतर्धारा के रूप में इस किताब में साथ-साथ चलती हैं । काई बार तो उनका विश्लेष्णात्मक आवेग इतना तीव्र हो जाता है कि, वह लावे की तरह पिघल कर पूरे वातावरण को अपने विचार-प्रावाह में बहा ले जाता है । डायरी में इस तरह के अनेक प्रसंग हैं । एक उदाहरण देखिए : “जमाने के साथ संयुक्त सामंती परिवारों का ह्रास हुआ । उन विचारों और संस्कारों के प्रति विद्रोह भी किया गया, जो सामंती परिवार में पाये जाते थे । लेकिन उसके बाद क्या हुआ । लड़के बाहर राजनीति या साहित्य के मैदान में खेलते और घर आकर वैसा ही सोचते या करते, जो सोचा या किया जाता रहा । समाज में बाहर धन या पूंजी की सत्ता से विद्रोह की बात की गयी । घर का संघर्ष कठिन था । उसमें भावनाओं की टकराहट उन्हीं से होती थी, जो अपने प्राण के अंश थे । इसलिए न केवल संघर्ष को टाल दिया गया, वरन एक अजीब ढंग समझौता कर लिया गया ।”
    मुक्तिबोध के आलोचनात्मक लेखन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा नयी कविता संबंधी उनका लेखन है । समय-समय पर लिखे गए इन लेखों को बाद में नयी कविता का आत्मसंघर्ष नामक पुस्तक में एक साथ संकलित कर प्राकाशित किया गया । नयी कविता से मुक्तिबोध का नाता, प्रशंसा और असहमति दोनों का है । नयी कविता की भावना के, भावनात्मक आक्रोश के वे प्रशंसक हैं, पर नए कवियों की नीयत और उनके पोस्चर पर उन्हें शक है । वे नयी कविता को संवेदनात्मक प्रतिक्रिया कहते हैं और संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएँ सम्पूर्ण वस्तु-सत्य नहीं हो सकतीं । नयी कविता की अंतःप्रकृत : वर्तमान और भविष्य शीर्षक अपने लेख में वे लिखते हैं – “आज के कवि के अन्तःकरण में जो कड़ुवाहट, द:खानुभव, आत्मग्लानि, सौंदर्यसक्ति, आलोचनशीलता आदि-आदि भाव हैं, वे सब आधुनिक समाजावस्था के अंतर्गत उपस्थित जीवन प्रसंगों में अर्थात वास्तविक और परस्थिति के प्रति संवेदनात्मक प्रतिक्रियाओं के पुंज हैं अथवा उनके आधार पर किए गए सामान्यीकरण हैं । उनमें जो भाव दृष्टि प्रकट होती है, वह भाव-दृष्टि उस संवेदनात्मक स्थिति में पड़े हुए मनुष्य की भाव-दृष्टि है । इसी को बहुत से लोग आधुनिक भाव-बोध भी कहते हैं ।” नए कवियों के इस आधुनिक भाव-बोध को वे अपने एक अन्य महत्वपूर्ण विनिबंध समीक्षा की समस्याएँ ( कहा जाता है कि, मुक्तिबोध अपने अंतिम दिनों में अपनी जिन दो रचनाओं कि काट-छाँट कर रहे थे, माँज-सँवार रहे थे, नोक-नुक्ते सही कर रहे थे, उनमें से एक यह 50 पृष्ठ लंबा विनिबंध था और दूसरी रचना अंधेरे में कविता थी) में इस आधुनिक भाव-बोध को उल्टा लटका देते हैं – “आधुनिक भाव-बोध का सिद्धान्त इसलिए बहुत ज़ोर-शोर के साथ प्रस्तुत किया गया कि उसमें ग्लानि, विक्षोभ, प्रेम, व्यंग्य-भावना आदि के लिए तो सथान है, किन्तु जनसाधारण के भयानक जीवन-संघर्ष, तद्जनित संताप और विरोधी भावनाओं का स्थान नहीं है । यह भावधारा कुछ इस प्रकार है : वर्तमान सभ्यता औद्योगिक सभ्यता है – चाहे वह साम्यवादी व्यवस्था क्यों न हो । उस व्यवस्था के अंतर्गत, व्यक्तित्व का समुचित विकास नहीं होता, व्यक्तित्व का नाश होता है । अतएव व्यक्ति-नाश प्रायः अवश्यंभावी है । अतएव जो कवि सामाजिक परिवेश के बारे में, सामाजिक अवस्था के संबंध में सोचते हैं, उन्हें यह जानना चाहिए कि वर्तमान समाज-रचना में, वर्तमान जगत में मानव-दु:ख अवश्यंभावी है । यह औद्योगिक सभ्यता का दोष है । यह उनकी (नये कवियों की) भाव-धारा ।  वस्तुतः यह भाव-पक्ष और विभाव-पक्ष वाली बात है, जिस पर शुरुआत में ही हम चर्चा कर चुके हैं । मुक्तिबोध, नई कविता के कवि-आलोचकों द्वारा प्रगतिशील आलोचना के विरोध में एक समानान्तरवादी आलोचना का जिक्र करते हैं और इस आलोचना पद्धति में जीवन-सत्य की जगह काव्य-सत्य, सामाजिक-नैतिकता की जगह व्यक्तिगत ईमानदारी, वर्ग-सत्य की जगह अनुभूत-सत्य आदि-आदि सत्यों को फ़्राड कहते हैं । मुक्तिबोध स्पष्ट तौर पर मानते हैं कि, “छायावादियों और प्रगतिवादियों की तरह नयी कविता के पास कोई दार्शनिक विचारधारा नहीं है ।..।अधिक से अधिक वे लोग मानवता में, मानवतावाद में अपनी आस्था प्रकट करते हैं, किन्तु उनके बौद्धिक विचारों की जांच की जाय तो आप पाएंगे कि मानवता की उनकी कल्पना अमूर्त और वायवीय है । मुक्तिबोध, हिन्दी आलोचना के इस सामान्यीकरण को कि, नयी कविता बौद्धिकता की कविता है, नकारते हैं । यहाँ, विस्तार से इन सबके विश्लेषण-विवेचन की प्रक्रिया में जाने का अवकाश नहीं है । वरना यह संपादकीय न रहकर एक प्रदीर्घ लेख बन जाएगा ।
    मुक्तिबोध जड़ीभूत-सौंदर्य के उपासक नहीं, विकसनशील सौंदर्याभिरुचि के मार्क्सवादी लेखक हैं । उन्होंने अपने आलोचनात्मक लेखन से हिन्दी आलोचना की मार्क्सवादी-दृष्टि और सौंदर्यशास्त्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । वह मार्क्सवादी डाइलेक्टिक्स से कहीं विपथगामी नहीं होते, परंतु जरूरत पड़ने पर उसी प्रक्रिया के रास्ते उसे प्रश्नाहत करते हैं और प्रश्नाहत होते भी हैं । कुछ लोग उनके इस आत्मद्वंद्व को उनका अंतर्विरोध मानकर उन्हें न जाने किन-किन कोटियों और दृष्टियों का अनुकर्ता घोषित करते हैं । पर ऐसे लोगों को यह जान लेना चाहिए यह मुक्तिबोध का अंतर्विरोध नहीं है, बल्कि समाज के अंतर्विरोध से व्यक्ति का वह द्वन्द्वात्मक रिश्ता है, जिससे उसे निकालने की, मुक्त करने की जद्दोजहद मुक्तिबोध के यहाँ दिखती है । अधिक से अधिक अगर इसे अंतर्विरोध के रूप में चिन्हित किए बिना आलोचना का कार्य नहीं चल सकता तो इसे उनकी द्वन्द्वात्मकता का अंतर्विरोध (Contradiction of Dialectics) ही कहना चाहिए । कई बार मुक्तिबोध मनुष्य-सत्ता से संबन्धित चरम अस्तित्ववादी प्रश्नों के हल ढूँढने और उनका उत्तर पाने की बेचैन कोशिश करते है । शायद अपनी इसी कोशिश में वे आलोचकों द्वारा रहस्यवादी, गैर-मार्क्सवादी, आध्यात्मवादी और न जाने क्या-क्या ठहराए जाते है । पर यह मुक्तिबोध द्वारा व्यक्ति और समाज के परस्परिक रिश्ते की, समता-विषमता की तलाश है ।  वे अपने एक लेख सौन्दर्य-प्रतीति और सामाजिक दृष्टिकोण में लिखते हैं –“हम जिस समाज, संस्कृति, परंपरा, युग और ऐतिहासिक आवर्त में रहते हैं उन सबका प्रभाव हमारे हृदय का संस्कार करता है । हमारी आत्मा में जो कुछ है वह समाज प्रदत्त है – चाहे वह निष्कलुष अनिंद्य सौन्दर्य का आदर्श ही ही क्यों न हो । हमारा सामाजिक व्यक्तित्व हमारी आत्मा है । आत्मा का सारा सार-तत्व प्राकृत रूप से सामाजिक है । व्यक्ति और समाज का विरोध बौद्धिक विक्षेप है, इस विरोध का कोई अस्तित्व नहीं । जहां व्यक्ति समाज का विरोध करता सा दिखाई देता है, वहाँ वस्तुतः समाज के भीतर की ही एक सामाजिक प्रवृत्ति दूसरी सामाजिक प्रवृत्ति से टकराती है । वह समाज का अंतर्विरोध है न कि व्यक्ति के विरुद्ध समाज का, या समाज के विरुद्ध व्यक्ति का ।...प्रश्न यह है कि अंतर्विरोधग्रस्त समाज की किन प्रवृत्तियों से आप तदाकार हैं । यह आपकी मानवीय सहानुभूति से कहीं अधिक आपकी ऐतिहासिक संवेदनातामक अनूभूति पर निर्भर है ।” (नयी कविता का आत्मसंघर्ष, मुक्तिबोध रचनावली-5, पृ. 188)
मुक्तिबोध का समूचा साहित्यिक-कर्म सुविधाभोगी मध्यवर्ग की आलोचना है । इसमें उनका आत्म-बिम्ब भी है, आत्मलोचन भी और कहीं-कहीं आत्मवंचना भी, जिसे प्रायः उनके अंतर्विरोध के रूप में चिन्हित किया गया है । मुक्तिबोध अपनी इस आत्मवंचना से लड़ते हैं, हारते हुए से दिखते हैं, पर हार नहीं मानते हैं । एक सच्चे लेखक का आत्मसंघर्ष यही तो है । इस सच्चे लेखक की पहचान मुक्तिबोध एक साहित्यिक की डायरी में कराते हैं – “एक सच्चा लेखक यह जानता है कि वह कहाँ कमजोर है, कि उसने कहाँ सचाई से जी चुराया है, कि उसने कहाँ लीपा-पोती कर डाली है, कि उसने कहाँ उलझा-चढ़ा दिया है, कि उसने वस्तुतः कहना क्या था और कह क्या गया है, कि उसकी अभिव्यक्ति कहाँ ठीक नहीं है । वह इसे बखूबी जानता है । क्योंकि वह लेखक सचेत है । सच्चा लेखक अपने खुद का दुश्मन होता है । वह अपनी आत्म-शांति को भंग करके ही लेखक बना रह सकता है । इसीलिए लेखक अपनी कसौटी पर दूसरों की प्रशंसा को भी कसता और आलोचना को भी । वह अपने खुद का सबसे बड़ा आलोचक होता है ।   मुक्तिबोध द्वारा अपने मित्र-सखा नेमिचन्द्र जैन और श्रीकांत वर्मा को लिखी जिन चिट्ठियों का, उनके व्यक्तित्व के दोहरेपन (Double Standard Personality) के संदर्भ में बार-बार उल्लेख किया जाता है, वे चिट्ठियाँ मुक्तिबोध के व्यक्तित्व के दोहरेपन को नहीं बल्कि उनके व्यक्तित्व की आत्मपरक ईमानदारी और वस्तुपरक सत्यपरायणता को और और दृढ़ता प्रदान करती हैं । मुक्तिबोध का आलोचनात्मक वैचारिक लेखन तो छोड़ दीजिए खुद जो लोग केवल चिट्ठी-पत्री पढ़कर ही मुक्तिबोध को जानना चाहते हैं, उन लोगों के लिए, मेरी उपर्युक्त बात के समर्थन में एक नहीं कई चिट्ठियां मिल जाएँगी । ऐसी ही एक चिट्ठी का एक अंश देखना चाहिए – “एक प्रगतिशील या मार्क्सवादी आत्म-विश्लेषण को केवल किसी पृथक कोण या भिन्न नजरिए से ही नहीं देखता, बल्कि उसका कोण व्यापक होता है और समझ गहरी । वह विश्लेषण करता है ताकि, भीतर की काली ताकतों का दमन कर सके, इसलिए नहीं कि खुद किसी दुविधा में बंध जाय, बल्कि इसलिए कि स्वयं अपने आप से और सम्पूर्ण प्रगतीशील मानवता से संबन्धित अपने वास्तविक आचरण में सुधार ला सके । लेकिन वे जिन्होंने मार्क्सवाद का अध्ययन नहीं किया, जो उसमें निहित भावना को समझ नहीं सके आत्म-विश्लेषण को प्रवृत्ति के शमन का तरीका बना लेते हैं और अपने को कुतरने के काले सुख में डूबे रहते हैं । मरणासन्न पूंजीवाद की तरह वे भी अपनी चिंताओं से पूंजी निर्मित करते हैं ।” (मुक्तिबोध रचनावली-6, पृ. 188)
इसके बावजूद भी जो लोग नहीं समझना चाहते उन पर, मुक्तिबोध के इन शब्दों - मुक्तिबोध तुम आब्स्क्योर हो । जो लिखते हो उसका ठीक-ठीक अर्थ समझ में नहीं आता” – के साथ,  एक उपेक्षणीय मुस्कराहट के अलावा और क्या किया जा सकता है ।
    मुक्तिबोध उस तरह के मार्क्सवादी थे जो परिवर्तनों के परिणामों की नहीं बल्कि परिवर्तनों की तैयारी और उस तैयारी की समूल प्रक्रिया की चिंता करते थे । उनके आलोचनात्मक-लेखन से लेकर कविता लेखन तक में इसकी शिनाख़्त की जा सकती है । मुक्तिबोध के आलोचनात्मक-लेखन की सबसे बड़ी विशेषता है कि, वो अपनी पढ़त में बार-बार इस एक चीज का एहसास कराती है कि, मार्क्सवादी आलोचना की सम्भावना चुक नहीं गयी है वरन वह और शिद्दत के साथ सामने है बशर्ते हमें यह पता हो कि, उसे नयी स्थितियों-परिस्थितियों के साथ कैसे जोड़ा जा सकता है | मसलन, उत्पादन के नए रूपों की पहचान, आर्थिक, वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक शक्तियों के साथ ज्ञान के विनियोजन की पहचान, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विधान (आर्डर) के व्यवहार और विमर्श की जानकारी, राष्ट्रीयता और नागरिकता की नयी समस्यायों पर सूक्ष्म नजर, मिडिया का निरंतर पूँजी बटोरती और सच को झूठ रचती संस्था की ओर शिफ्ट होने आदि मसलों के साथ इसे जोड़कर देखा जा सकता है | मुश्किल यह है कि हिंदी में मार्क्सवादी आलोचना का विकास अवरुद्ध सा हो गया जान पड़ता है । अभी भी हम शीत-युद्ध कालीन साम्राज्यवादी नीतियों की प्रेतछाया से लड़ रहे हैं, जबकि नए राजनीतिक-आर्थिक-विश्व ने उस प्रेतछाया का श्राद्ध-कर्म कर, न जाने कबका उससे मुक्ति पा ली है । दरअसल, समय के आवर्तों के साथ न चल पाने और एक ही तरह के सोच-विचार के चलते धीरे-धीरे विचारों और आग्रहों में भी एक खास तरह का रीतिवाद’ (स्टीरियोटाईप) रूढ़ हो जाता है । इसके चलते एक अतिवादी आग्रह कई बार असंगत और अतार्किक होते-होते मूल मुद्दे से इतर प्रेतछायाको ही सबकुछ मान लेता है | ‘भक्तमंडलीइस प्रेतछाया को पूजने लगती है और विरोधी उसे दुराने लगते हैं | किसी भी रचना या रचनाकार को इस रूढ़आग्रह के द्वारा न देखा जा सकता है न ही निर्णायक उक्ति के साथ नाकारा जा सकता है | आलोचना का यह काम नहीं है |

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    रूस की महान अक्टूबर क्रान्ति और चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने का यह साल है । सोवियत रूस में राजशाही की जन-विरोधी शासन-पद्धति और नीतियों के खिलाफ और हिंदुस्तान में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की किसान-विरोधी औपनिवेशिक नीतियों के विररुद्ध हुए इन दो महान जन-आंदोलनों का बीसवीं शताब्दी के विश्व-इतिहास में अपना अलग-अलग महत्व है । पक्षधर के इस अंक में हम अक्टूबर क्रान्ति और चंपारण सत्याग्रह की शताब्दी के अवसर पर अपने पाठकों के लिए विशेष सामग्री दे रहे हैं । इस अंक को अपनी रचनात्मकता से समृद्ध करने वाले सभी रचनाकारों के हम आभारी हैं ।
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    इस बीच, कवि-आलोचक अजीत कुमार, कवयित्री और अजीत कुमार की जीवन-सहचर स्नेहमयी चौधरी, प्रख्यात शिक्षाविद यशपाल, मार्क्सवादी कवि-आलोचक चन्द्रकान्त देवताले, दलित कवि जयप्रकाश लीलवान, निर्भीक पत्रकार पी. वी. लंकेश, ठुमरी की सरताज गिरिजा देवी हमें अलविदा कह चले । पक्षधर की ओर से इन सबको हमारी श्रद्धांजलि ।

                                                         विनोद तिवारी

21 जून 2017

सात आसमान

                 सात आसमान
          लिखता है दस्ते-ग़ैब कोई इस किताब में
                                                     
                                                विनोद तिवारी


                       रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमान
                    हो रहेगा कुछ – न - कुछ घबराएँ क्या ?

   
हो रहेगा कुछ-न-कुछ घबराएँ क्या ? पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है, कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या ? ग़ालिब के उपर्युक्त शे’र के बाद मेरे ज़ेहन में ‘सात आसमान’ की एक अलग अर्थ-छवि (अपने नाम के कारण) असगर वजाहत के 1996 ई. में प्रकाशित उपन्यास के रूप में बनी रही है । पर, जब यह लेख लिखा जा रहा है तब पापुलर ढंग से ‘सात आसमान’ शब्द 600 करोड़ रुपये की कमाई करने वाली, सलमान खान के लिए इरशाद कामिल लिखित; सुखविंदर सिंह/शादाब फरीदी के सुरों में एक हिंदी फिल्म ‘सुल्तान’ के हेरोइक-गीत (Title Song) - ‘सात आसमां चीरे, अब सात समंदर पी रे, चल सात सुरों में कर दे ये ऐलान...रे सुल्तान !’ - के रूप में आस-पास गूँज रहा था । इरशाद की छू लेने वाली कलम और सुखविंदर की नायाब गायकी के कुछ ही खराब गानों में से एक यह भी है । सलमान खान अभिनीत फ़िल्में बॉक्स ऑफ़िस पर किन कारणों से करोड़ों की कमाई करतीं हैं उसका हवाल अलग ही है । बहरहाल... कुरआन में इस बात का कई जगह जि़क्र हुआ है कि आसमान सात हैं । मसलन, कुरआन की 67वीं सूरह, अल-मुल्क पारा 29 की तीसरी आयत, ''जिसने (अल्लाह ने) एक के ऊपर एक सात आसमान बनाये । तुम रहमान (दयावान प्रभु) की आफर्निश (रचना) में कोई क़सर न देखोगे ।”[1] पहले आसमान का नाम रफ़ीअ है और उसका रंग पानी व धुएँ की मानिंद है । और दूसरे आसमान का नाम क़ैदूम है उसका रंग तांबे की मानिंद है । तीसरे आसमान का नाम मादून है उसका रंग पीतल की मानिंद है । चौथे आसमान का नाम अरफ़लून है उसका रंग चाँदी की मानिंद है । पाँचवें आसमान का नाम हय्यून है उसका रंग सोने की मानिंद है । छठे आसमान का नाम उरूस है उसका रंग याक़ूत सब्ज़ की मानिंद है । सातवें आसमान का नाम उज्माअ है उसका रंग सफेद मोती की मानिंद है । इस्लाम की तरह हिंदू धर्म में भी सात आसमानों की बात की गई है । हिंदू धर्म में सात आसमान का मतलब सात लोकों से है । इन सात लोकों के नाम हैं - भू लोक, भुवःलोक, स्वःलोक, महर्लोक, जनलोक, तपलोक और सत्यलोक ।[2] भू लोक, भुवःलोक और स्वःलोक, ये तीन कृतक लोक हैं माने गए हैं और महर्लोक, जनलोक, तपलोक व सत्यलोक ये चार अकृतक लोक । ईसाई धर्म में भी सेवन हैवन्स[3] की कल्पना की मिलती है । लीजिए, मैं भी ‘सात आसमान’ की बात आते ही किस तरंग में किधर जाने लगा । धार्मिक-दार्शनिक धारणाओं, मान्यताओं और रहस्यों का वर्णन इस लेख का लक्ष्य नहीं है । असगर वजाहत का ‘सात आसमान’ उपन्यास इस लेख की विषय-वस्तु है । 


‘सात आसमान’ कोई धार्मिक या दार्शनिक उपन्यास नहीं है यह एक लेखक की, अपने पुरखों या नवासों पर लिखा गया काल्पनिक संस्मरण (fictitious memoir) है, जिसमें कहीं-कहीं इतिहास भी है । पर, ‘सात आसमान’ ऐतिहासिक उपन्यास भी नहीं और न ही औपन्यासिक इतिहास (novelistic history) । हर लेखक का अपने जीवन में एक ऐसे प्रोजेक्ट का सपना होता है कि वह अपने कुल, खानदान, वंश का इतिहास कहीं न कहीं दर्ज़ करे और अगर कुल-खानदान का इतिहास सचमुच गौरवपूर्ण और खानदानी हो तो फिर क्या । उपन्यास में नैरेटर के अब्बा मियाँ को जितना अपने खानदानी और ईरानी नस्ल का होने पर फख्र है उससे कम खुद नैरेटर को नहीं । उपन्यास में नैरेटर (असगर वजहत) ने अपने खानदान को ईरान के शिया खानदान के मशहूर ‘सूफी सिपाही’ सैयद इकरामुद्दीन के खानदान से जोड़ा है जिनका परिवार हुमायूँ के साथ तेहरान के पास के एक गाँव ‘खाफ़’ से चलकर हिंदुस्तान आया था – “सैयद इकरामुद्दीन मुग़ल बादशाह हुमायूँ के साथ ईरान से हिंदुस्तान आए थे । कहते हैं कि, अफगानों से हारने के बाद जब हुमायूँ ईरान पहुँचा वौर वहाँ के शहंशाह से मदद मांगी तो उसके सामने ये शर्त रखी गई थी कि वह अगर शिया हो जाय तो मदद दी जाएगी । हुमायूँ ने शर्त कुबूल कर ली थी ।”[4] वस्तुतः, चौसा, बिलग्राम और कन्नौज में अफगानों और शेरशाह सूरी से लड़ी गई लड़ाईयों में एक पर एक हुयी पराजय से हुमायूँ के पैर उखड़ गए और हुमायूँ को हिंदुस्तान छोडकर भागना पड़ा । 1540 से 1555 तक हुमायूँ ने लगभग 15 वर्ष तक घुमक्कड़ों जैसा निर्वासित जीवन व्यतीत किया । इस निर्वासन के समय ही हुमायूँ ने अपने छोटे भाई हिन्दाल के आध्यात्मिक गुरु फ़ारसवासी शिया मीर बाबा दोस्त उर्फ ‘मीर अली अकबरजामी’ की पुत्री हमीदा बेगम से 29 अगस्त, 1541 ई. को निकाह कर लिया, कालान्तर में हमीदा से ही अकबर जैसे महान सम्राट का जन्म हुआ । इस विवाह से हुमायूँ को ईरान और शिया मुसलमानों की हमदर्दी और उनका सहयोग मिला जिससे हुमायूँ एक बार फिर अपने खोये हुये राज्य को पा सका । 


‘सात आसमान’ सोलहवीं शताब्दी के छठवें दशक से लेकर बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक तक लगभग 400 सालों की लंबी अवधि को अपनी किस्सागोयी का विषय बनाता है । इतनी लंबी कालावधि में एक ही कुल-परिवार की चार-पाँच पीढ़ियों के लोग ‘पात्र’ के रूप में एक साथ चित्रित होते हैं । मुग़ल-काल के समय के कथा-वृत्त की तुलना में अठारहवीं शताब्दी का ‘कथा-वृत्त’ उपन्यास में अधिक आया है । लखनऊ और इलाहाबाद जैसे अवध के सूबे कथा के संदर्भ में हैं । इलाहाबाद और कानपुर के बीच के उस समय के एक चकले की जमींदारी और बाद में (1826 में) जिला बन जाने वाला फ़तेहपुर इस उपन्यास के कथा-वृत्त का लोकेल है । फ़तेहपुर असग़र वजाहत का अपना जिला है, इसी जगह की उनकी पैदाइश है । अवध के दोआब इलाके की यह जमींदारी ज़ैनुल आब्दीन खाँ को लखनऊ के नवाब आसिफ़ुद्दौला से मिली थी । ज़ैनुल आब्दीन खाँ सैयद इकरामुद्दीन के बड़े बेटे अलीकुली खाँ के परपोते मुहम्मद तकी खाँ (जो शाहजहाँ के जमाने में मनसबदार थे) के बेटे थे । औरंगजेब और दाराशिकोह के बीच की लड़ाई में मुहम्मद तकी खाँ ने अपने को राजकाज से एकदम से अलग-थलग कर लिया था । औरंगज़ेब तक तो सब कुछ किसी तरह चलता रहा । “औरंगजेब के मरने के बाद दिल्ली के हालत बिगड़ते-बिगड़ते इतने बिगड़ गए कि सिपाही तलवारें और ढाले बेचने लगे और किसी तरह के रोजगार की सूरत न रह गयी तो सबकी तरह मुहम्मद तकी खाँ के लड़के ज़ैनुल आब्दीन खाँ ने लखनऊ का रुख किया । ये नवाब आसिफ़ुद्दौला का ज़माना था ।”[5] नैरेटर का कुल-खानदान इन्हीं पुरखों से जुड़ा हुआ है । जैनुल आब्दीन को जो जमींदारी मिली थी वह किसी न किसी तरह उनके वंशजों द्वारा हिंदुस्तान की आज़ादी तक उनके कब्जे में रही । अंग्रेजों के चले जाने और बाद में जमींदारी प्रथा के समाप्त हो जाने से बुरा इस परिवार के साथ और कुछ न हो सकता था । इन दोनों के प्रति इस परिवार के लोगों की अटूट और अगाध आस्था थी कि और कुछ भी हो जाय पर इस देश से ये दो चीजें कभी नहीं समाप्त हो सकतीं । अंग्रेज़ किसी हालत में यहाँ से चले भी गए पर जमींदारी यहाँ से नहीं जा सकती । सत्तन मियाँ (नैरेटर के अब्बा के अबा मियाँ) का यह कथन देखना चाहिए - “जहाँ तक जमींदारी का सवाल है, ये बाबा आदम के जमाने से है और ताक़यामत कायम रहेगी । मियाँ जमींदारी न रहेगी तो पूरा निज़ाम दरहम-बरहम हो जाएगा । लगान कौन वसूलेगा ? गाँवों के लुच्चे-लफंगों और बदमाशों को काबू में कौन रखेगा ? सरकारी खजाना खाली हो जाएगा और सरकार ही नहीं रहेगी । मियाँ, यहाँ जो भी हुक्मरान आया उसने जमींदारी को जारी रखा । बिल्फ़र्जे-मोहाल अंग्रेज़ चले भी गए तो जमींदारी नहीं जा सकती ।”[6] जो जमींदारी एक ऐसे सदाबहार पेड़ की तरह था जिस पर जब लठियाँ मारो पैसा झड़ता था, उसके खत्म होने की बात भए कोई कैसे सोच सकता है । पर नहीं जमींदारी भी जाती है और साथ-साथ उसको भोगने वाले जमींदार भी । फिर धीरे-धीरे उनकी शोहरत, उनके ताल्लुकात, उनकी इज्ज़त, उनका दर्ज़ा, उनका वक़ार, उनका रुतबा, उनका इक़बाल, उनकी पहुँच, कामयाबी और इख्तियारात सब फीके हो जाते हैं । अगर, इस उपन्यास को जमींदारी प्रथा और सामंती मानसिकता की बुराइयों का उद्घाटन करने वाला उपन्यास माना जाता है तो मैं इस सहमत नहीं हो सकता । उपन्यास में इस प्रथा या मानसिकता का कहीं कोई क्रिटिक नहीं मिलता । इस बिन्दु पर इस उपन्यास का कथानक अत्यंत कमजोर है या यह कहा जाय कि कथानक है ही नहीं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । दरअसल, इस उपन्यास में कोई एक मुकम्मल कथा बनती ही नहीं, कथा किसी एक-सूत्र[7] में विकसित ही नहीं होती है तो कथानक कहाँ से बनेगा । यह स्मृतियों का एक कोलाज है । लगभग 400 सालों के लंबे कालखंड को यह उपन्यास अपनी कल्पनाशक्ति और किस्सागोयी का विषय बनाता है । इतनी लंबी कालावधि में एक ही कुल-परिवार की चार-पाँच पीढ़ियों के लोग ‘पात्र’ के रूप में एक साथ चित्रित होते हैं पर दुर्भाग्यवश एक भी ‘पात्र’ ‘चरित्र’ नहीं बन पाता ‘औपन्यासिक चरित्र’ तो और । जबकि, अब्बा मियाँ, अब्बू साब जैसे कई पात्रों में इसकी संभावना नज़र आती है । शायद, इसमें वास्तविक पात्रों को ‘औपन्यासिक चरित्र’ बनाने की मुश्किलें उपन्यासकर के सामने रही हों । लेखक छोटे-छोटे संस्मरणों को इतिहास की छायाभासी स्मृतियों के सहारे रेखाचित्रों में टुकड़े-टुकड़े कहता चला गया है; बस । चरित्र प्रस्तुत भर किए गए हैं निर्मित नहीं किए गए हैं । जबकि, एक उपन्यास में पहले पात्रों/चरित्रों का निर्माण किया जाता है तब, उनका चित्रण । उपन्यासकार भले ही यह कहता हो कि, “पात्र न तो उसके बनाए हुये हैं न और न उसके वश में हैं” पर ऐसा होता नहीं है । उपन्यासकार कठपुतली का नाच दिखाने वाले उस कलाकार की भाँतिति होता है जिसकी हरेक हरकत से कठपुतलियों का तार जुड़ा होता है । 


उपन्यासकारों के बारे में यह कहा जाता है कि वह अपनी ‘आत्मकथा’ नहीं लिखते हैं या बहुत कम उपन्यासकर होंगे जिन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी होगी । क्योंकि यह माना जाता है कि एक उपन्यास में बहुत हद तक उपन्यासकर अपनी आत्मकथा लिखता चलता है । यह एक हद तक सच भी है । इस उपन्यास में उपन्यासकार ने अपनी आत्मकथा तो नहीं लिखी है पर अपनी स्मृतियों के सहारे अपने ऐतिहासिक कुल-परिवार के अन्या-अन्य चरित्रों और परिस्थितियों के अनेकश: संस्मरणात्मक रेखाचित्र खींचे हैं । इस चित्रण और वर्णन में काल्पनिक वृत्तान्तों, निजी गढ़ंत और आभासी इतिहास जैसे ‘गल्प-तत्वों’ का इस्तेमाल उपन्यासकार ने अत्यंत कुशलता से किया है । अब्बा मियाँ, अब्बू साब, अब्बा, नैरेटर इन चार-पाँच पीढ़ियों के लोगों के फ़न और हुनर का वर्णन करते हुये बीच-बीच में उपन्यासकार ने उपन्यास में बार-बार जिस एक चीज को ‘फ्लैश’ करते रहने की कोशिश की है वह है – ख़त्म होती सामंती ठसक और टूटती जमींदारी प्रथा । इसे ही उपन्यास का ‘विषय’ माना गया है पर इसे ‘कथा-वस्तु’ नहीं माना जा सकता । कथा-वस्तु उपन्यास के कथानक का हासिल होता है, जिससे कोई भी उपन्यास ‘उपन्यास’ बनता है । अगर उपन्यास में ‘कथानक’ नहीं है या कमजोर है तो उपन्यास में ‘कथा’ तो होगी, ‘कथारस’ भी होगा पर ‘कथा-वस्तु’ गायब होगी । इस संबंध में नित्यानंद तिवारी का यह कथन देखना चाहिए - “समूचे आदिकालीन साहित्य में कथा होते हुए भी कथानक क्षीण है, सारी भक्ति कविता में सशक्त कथानक है, लगभग सारा रीतिकालीन साहित्य कथानक का निषेध करता है और आधुनिक साहित्य कथानक के आधुनिक विन्यास की विशेष चिंता के कारण सार्थक लगता है । तो क्या कथानक, शिल्प तकनीक और भाषा की समस्या मात्र न होकर वास्तविकता और अनुभूति की समस्या है ? जिसे मात्र कला के क्षेत्र में नहीं सुलझाया जा सकता ? क्या उसे पूरे युग, जीवन, व्यक्ति और समाज की क्रिया-प्रतिक्रिया के संबंधों-अंत्स्संबंधों में उभरते हुये पहचानना होता है ? एक रचनाकार शिल्प, तकनीकि और भाषा की व्यंजना क्षमता को तो शायद अपनी व्यक्तिगत सामर्थ्य से उत्पन्न कर सकता है लेकिन कथानक उत्पन्न नहीं कर सकता । क्या कथानक के सूत्र-संकेत युग और समाज के ह्रासोन्मुख और गतिशील शक्तियों के संघर्ष बिन्दु में निहित होते हैं जो रचनाकर की सृष्टि न होकर इतिहास की सृष्टि है ? युग और सामाज में चल रहे इस संघर्ष में यदि रचनाकर शामिल होता है तो किसी न किसी शक्ति की पक्षधरता उसे बरतनी पड़ती है, उसके व्यवहार का स्पष्ट और निश्चित विन्यास होता है, उसकी बोली का एक अर्थ होता है । उसकी बोली का एक अर्थ उसके जीवन मरण का प्रश्न होता है मात्र कलात्मक प्रश्न नहीं । क्या कथानक ऐसी बेचैनी से ही पैदा होता है ?”[8] पर पूरे उपन्यास में ऐसी किसी बेचैनी का, तनाव का कोई हवाला नहीं है । चार सौ सालों के लंबे कालखंड में मुग़ल काल से लेकर अंग्रेजों की साम्राज्यवादी औपनिवेशिक व्यवस्था के तहत बनने और विकसित होने वाली ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवर्तनों के साथ लोगों के ‘वास्तविक और स्वाभाविक देशकाल’ और ‘वातावरण’ के संघर्षों, तनावों, युग-संधि के सकारात्मक-नकारात्मक पहलुओं का चित्रण उपन्यास में नहीं के बराबर है, है भी तो उनका जिक्र भर है । बल्कि, सच तो यह है कि अपनी सामाजिक-निर्मिति और प्रकृति में ही नहीं बल्कि अपनी साहित्यिक-अर्थवत्ता में भी उपन्यास अपने समय के इतिहास और समाज के ‘इंप्रिन्ट्स’ को ले आने की कोशिश करता है । इसलिए देखा जाय तो एक कथाकार अपनी तात्कालिक सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों में रहते हुए – रचते हुए भी सदैव एक ‘प्राकृतिक- देशकाल’ रचने की कोशिश करता है जो सार्वभौम होता है | परन्तु, यह ध्यान रहे कि यह प्राकृतिक-देशकाल कोई पारलौकिक संकल्पना नहीं और न ही काल्पनिक कथा-वृत्त है वरन, उपन्यास सभ्यता के विकास में मानव विरोधी परिस्थितियों, जटिलताओं और सभी तरह की प्रगतिरोधी संकल्पनाओं, विचारों, प्रथाओं का एक समानांतर विकल्प है | ............................................................................................................

संदर्भ और टिप्पणियाँ : 

[1] पवित्र क़ुरआन : (अनु.) मौलाना मुहम्मद फ़ारूक़ खाँ - अरबी से उर्दू, डॉ. मुहम्मद अहमद – उर्दू से हिंदी, प्रकाशक- मधुर संदेश संगम, ई-20, अबुल फ़ज़ल इंक्लेव, ज़ामिया नगर, नयी दिल्ली, p. 895 
[3] https://en.wikipedia.org/wiki/seven_havens : Each of the seven heavens is depicted as being composed of a different material, and Islamic prophets are resident in each. The first heaven is depicted as being made of silver and is the home of Adam and Eve, as well as the angels of each star. The second heaven is depicted as being made of gold and is the home of John the Baptist and Jesus. The third heaven is depicted as being made of pearls or other dazzling stones; Joseph and Israel are resident there. The fourth heaven is depicted as being made of white gold; Enoch and the Angel of Tears resides there. The fifth heaven is depicted as being made of silver; Aaron and the Avenging Angel hold court over this heaven. The sixth heaven is composed of garnets and rubies; Moses can be found here. The seventh heaven, which borrows some concepts from its Jewish counterpart, is depicted as being composed of divine light incomprehensible to the mortal man. Abraham is a resident of the seventh heaven. 
[4] सात आसमान – असग़र वजाहत, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपर बैक संस्करण : 2009, p.52 
[5] वही, p. 54 
[6] वही, p. 152 
[7] एक तरह से इस उपन्यास को शास्त्रीय परिभाषा के अंतर्गत भी नहीं रखा जा सकता क्योंकि इसमें वह एकसूत्रता नहीं है जो प्रायः उपन्यासों में होती है । - ‘सात आसमान’ के बैक कवर से उद्धृत 
[8] आधुनिक साहित्य और इतिहास-बोध - नित्यानंद तिवारी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, p. 67 


(साभार : बनास जन )