संपादकीय /
पक्षधर-18
जीवित आवाजों के हक़ में
विनोद तिवारी
सांस्कृतिक
मोर्चे पर एकमात्र संभव युद्ध, जिससे हमें जूझना है; वह है दो संस्कृतियों – पूरब
(समाजवादी पूर्वी यूरोप) और पश्चिम (पूँजीवादी पश्चिमी यूरोप) – के शांतिपूर्ण सहअस्तित्व
के लिए युद्ध | मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि ये दोनों एक दूसरे की गलबहियाँ
करते हुए परस्पर एक दूसरे में समा जायँ | मैं बखूबी जानता हूँ कि इन दो
संस्कृतियों के आमने-सामने होने का मतलब है द्वंद्व और संघर्ष, परन्तु यह द्वंद्व
और संघर्ष केवल व्यक्तियों और उन संस्कृतियों के बीच हो, उसमें किसी भी तरह से
किसी भी सांस्थानिक मशीनरी का हस्तक्षेप न हो | मैं स्वयं इन दो संस्कृतियों के
पारस्परिक अंतर्विरोध से गहरे प्रभावित रहा हूँ | इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि
ये अंतर्विरोध मेरी बुनावट में अनुस्यूत हैं | मेरा जन्म और मेरा पालन-पोषण
बुर्जुवा परिवार और बुर्जुवा संस्कृति में हुआ बावजूद इसके मेरी सहानुभूति, मेरा
समर्थन समाजवाद के साथ है | एक विश्व नागरिक होने के नाते मैं ऐसे लोगों का सहयोग
करने का अधिकार रखता हूँ जो दोनों संस्कृतियों को एक दूसरे के निकट लाने के प्रयास
में सन्नद्ध हैं | - ज्याँ पॉल सार्त्र, 1964
अधिकांश
एंग्लो-इंडियन अखबारों ने इस क्रूरता की तारीफ़ की है | इनमें से कुछ तो हमारी
यातनाओं की खिल्ली उड़ाने में पाशविकता की सीमा तक चले गए | इन पर अधिकारियों ने
किसी भी तरह की रोक लगाने की कोई कोशिश नहीं की और न ही उसकी जरूरत समझी | हम जान
चुके हैं कि, हमारी प्रार्थनाएँ व्यर्थ सिद्ध हो चुकी हैं और यह भी कि हमारी सरकार
में – जो अपनी विशाल भौतिक-शक्ति और अपनी उच्च नैतिक परम्पराओं के अनुरूप उदारता
का परिचय दे सकती है – राजधर्म के भव्य आदर्श की बजाय प्रतिशोध की भावना उग्र हो रही
है | ऐसे में मेरा न्यूनतम धर्म है कि मैं आतंक और भय से चकित और गूंगे हो चुके
अपने लाखों-लाख देशवासियों के प्रतिरोध को स्वर देने के सारे परिणामों को अपने ऊपर
लेने के लिए प्रस्तुत हो जाऊं | - गुरुदेव रबीन्द्र नाथ टैगोर, 1919
उपर्युक्त
दोनों उद्धरण अपने समय के दो लेखकों और चिंतकों की पीड़ा और क्षोभ को दर्शाते हैं |
पहला उद्धरण ज्याँ पॉल सार्त्र के उस पत्र का अंश है जो 1964 में उन्होंने साहित्य का नोबेल ठुकराते हुए ‘स्वीडिश
अकादेमी’ को लिखा था जो बाद में फ़्रांस के सांध्य दैनिक ‘ले मॉन्दे’ (Le Monde) में में प्रकाशित हुआ | दूसरा उद्धरण गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा किंग
जार्ज पंचम को लिखे गए उस पत्र का अंश है जो उन्होंने जलियाँवाला बाग़ की नृशंसता
के प्रतिरोध में अपना ‘नाइटहुड’ सम्मान लौटाते हुए लिखा था | अखिल भारतीय स्तर पर
एक-एक कर बड़ी तादाद में साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटाने और साहित्य अकादेमी की
विभिन्न समितियों की सदस्यता से त्यागपत्र देने की लेखकों और बुद्धिजीवियों की
सामूहिक मानसिकता को महज एक तात्कालिक क्षोभ या प्रतिक्रियात्मक व्यवहार के रूप
में देखना दरअसल बालोचित हताशा का प्रतीक
है, जिसमें यह धारणा अन्तर्निहित होती है कि, मुझे जो गुब्बारा चाहिए वह क्यों
नहीं मिल रहा, रोने-गाने के बाद वह अगर मिल भी गया तो उत्साह में उसमें इतनी हवा
भर दी गयी कि वह फट कर चिंदी-चिंदी हो गया | फिर क्या, हताशा ही हाथ लगेगी | इस
हताशा का ही परिणाम है कि, लेखकों की राजनीतिक पक्षधरता और विचारधारा को टोहा जा
रहा है | विवेकहीन हताशा की प्रतिक्रिया में बिना सोचे- समझे एक लेखक को उसकी
राजनीतिक पक्षधरता और विचारधारा में टोहना; निहायत ही गलत ढंग से और गलत मंतव्यों
में टोहना है | क्या लेखक की प्रतिबद्धता के सन्दर्भ में लेखक होने की ही
प्रतिबद्धता को पर्याय मानना पर्याप्त नहीं होगा | यह बात समझनी चाहिए कि एक लेखक
अपनी आत्मवत्ता में मानवीय-गरिमा के साथ सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय नैतिकता
का नागरिक पहले होता है विचारधारा उसकी इस नागरिकता को सान देती है,परिभाषित नहीं
करती | जिस लेखक में इस नैतिक और वैचारिक आत्मवत्ता का तिरोभाव हो जाता है, वह
व्यवस्था के भीतर भी लेखकीय गरिमा के विरुद्ध आचरण करेगा और बाहर भी | व्यवस्था के
भीतर रहती हुए साहित्येतर सुविधाओं के चलते वह अहमन्य और भीरु होता जाएगा और बाहर
की जवाबदेहियों और दायित्वों के प्रति जोख़िम से गुजरने की स्थिति आने पर अंततः या
तो व्यवस्था के भीतर ही शरण प्राप्त कर लेगा या उपर्युक्त हताशा और कुंठा की
मारकता का आखेट बनकर रह जाएगा | साहित्य अकादेमी क्या इस तरह का आखेट बनने के लिए
प्रस्तुत है | पुरस्कार वापसी कर विरोध दर्ज करना साहित्य आकादेमी का विरोध दर्ज
करना भर नहीं है बल्कि पिछले डेढ़ साल में हिंदुत्व के नाम पर असहिष्णु कट्टरता का
जो माहौल बनाया जा रहा है, लेखकों, बुद्धिजीवियों, समाज-चिंतकों, इतिहासकारों,
समाज-वैज्ञानिकों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को जिस ढंग से भयग्रस्त किया जा
रहा है यह प्रतिरोध इस वातावरण के खिलाफ है जिसके लिए साहित्य अकादेमी को लेखकों
ने अपना मंच बनाया है, जो कि प्रतीकात्मक भी है | आखिर साहित्य अकादेमी पुरस्कार
से सम्मानित कन्नड़ लेखक प्रो. एम. कुलबुर्गी की हत्या पर साहित्य अकादेमी एक
निंदनीय शोक प्रस्ताव जारी करने की भी मोहताज क्यों हो गयी | वैधानिक दृष्टि से तो
साहित्य अकादेमी एक स्वायत्त संस्था है | तो क्या अब अन्य विश्वासों और धारणाओं की
तरह ‘स्वायत्तता’ ने भी अपना अर्थ खो दिया है ? अगर नहीं तो फिर साहित्य अकादेमी
अध्यक्ष के सामने किस तरह की साँसत थी | वर्तमान सरकार की कार्य-संस्कृति से उनकी यह
साँसत समझ में आती है |? विलम्ब से जो कुछ साहित्य अकादेमी ने किया तब तक उसकी
संदिग्धता जाहिर हो चुकी थी | प्रसंगतः असद जैदी की एक कविता ‘दूरभाष’, ख्याल में
उतर आयी | इस कविता में वे कई तरह से साहित्य अकादेमी की गतिविधियों का एक बहुत ही
मौजूं चित्र प्रस्तुत करते हैं | वर्तमान सन्दर्भ में इसी कविता की कुछ पंक्तियाँ
:
देखिए
हिंदुत्व की परिभाषा अकादेमी ने नहीं
उच्चतम
न्यायलय ने तय की है
हम
तो पालन के दोषी हैं
और
अगर हम ऐसा बहुत लम्बे समय से
करते
चले आ रहे हैं
तो
इसे गफलत नहीं, दूरंदेशी समझना चाहिए |
–
सामान की तलाश
साहित्य
अकादेमी कई बार अन्य कई कारणों से विवाद में आती रही है पर साहित्य अकादेमी के
इतिहास में उसकी स्वात्तता इतनी अधिक प्रभावित कभी नहीं हुई, उसकी स्थापना से लेकर
अबतक | 1952 में साहित्य अकादेमी की स्थापना हुई | दरअसल, आजादी के पूर्व ही
राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसी संस्था के गठन की बात उठायी गयी जो साहित्य, संस्कृति और
कलाओं का पोषण और संवर्द्धन कर सके | इस उद्देश्य से देश की ब्रिटिश सरकार के पास
‘रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल’ ने एक प्रस्ताव बनाकर भेजा कि, भारत में साहित्य
और संस्कृति की एक राष्ट्रीय संस्था की स्थापना की जाय | सन् 1944 में भारत की ब्रिटिश सरकार ने
‘रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल’ का यह प्रस्ताव सैद्धांतिक रूप से स्वीकार कर
लिया कि रचनात्मक सृजन के सभी क्षेत्रों में सांस्कृतिक गतिविधियों को प्रोत्साहित
करने के लिए एक ‘राष्ट्रीय सांस्कृतिक ट्रस्ट’ (National Cultural
Trust) का गठन किया जाना चाहिए। इस ट्रस्ट के अंतर्गत तीन
अकादमियाँ – ‘साहित्य अकादेमी’, ‘ललित कला अकादेमी’ और ‘संगीत और नाटक अकादेमी’ –
गठित किये जाने का प्रस्ताव पास हुआ | परन्तु, ब्रिटिश सरकार ने इस प्रस्ताव को
अमलीजामा नहीं पहनाया | स्वतंत्रता के बाद भारत की स्वतंत्र सरकार ने इस प्रस्ताव
का अनुसरण करते हुए एक विस्तृत रूपरेखा तैयार करने के लिए कई नियमित बैठकें
बुलायीं । इन बैठकों के परिणाम स्वरूप सर्वसम्मति से उपर्युक्त तीनों राष्ट्रीय
अकादेमियों के गठन का प्रस्ताव पास हुआ | भारत सरकार के संकल्प सं. एफ-6-4/51 जी 2 (ए) दिनांक 15 दिसंबर, 1952 के द्वारा ‘नेशनल एकेडेमी ऑफ लैटर्स’ नामक
राष्ट्रीय साहित्यिक संस्था की स्थापना का निर्णय पारित हुआ और यह कहा गया कि
इसे ‘साहित्य अकादेमी’ के नाम से जाना जायेगा | साहित्य अकादेमी का विधिवत उद्
घाटन भारत सरकार द्वारा 12 मार्च, 1954 को किया गया । हालाँकि, अकादेमी की स्थापना भारत सरकार द्वारा लाये गए
प्रस्ताव के आधार पर की गई है फिर भी यह यह भारत सरकार का एक संवैधानिक निकाय नहीं
है | यह एक स्वायत्तशासी संस्था के रूप में कार्य करती है जिसका पंजीकरण (7
जनवरी, 1956 को)
‘सोसायिटी पंजीकरण अधिनियम 1860’ के अंतर्गत हुआ है ।
प्रारंभ में साहित्य अकादेमी का कामकाज शिक्षा मंत्रालय में एक कमरे से चलता रहा |
पर, इसके लिए अलग से एक बड़े कार्यालय की जरूरत महसूस की जा रही थी | अतः अप्रैल
1955 में साहित्य अकादेमी का सचिवालय कनॅाट प्लेस (नयी दिल्ली) में
एक पुराने पड़े भवन ‘थियेटर कम्युनिकेशन बिल्डिंग’ में स्थानांतरित हुआ | गुरुदेव
रबीन्द्रनाथ टैगोर के जनशताब्दी-वर्ष 1961 में जब रबीन्द्र
भवन बनकर तैयार हुआ तो साहित्य अकादेमी को स्थायी कार्यालय मिला | 35, फिरोजशाह रोड, नयी दिल्ली-110001 स्थित इस प्रधान
कार्यालय के अतिरिक्त अकादेमी के चार क्षेत्रीय कार्यालय भी, कोल काता, चेन्नई
(मद्रास), बम्बई और बेंगलुरु में स्थापित किये गए हैं | कोलकाता कार्यालय की
स्थापना ‘नेशनल लाईब्रेरी, कोलकाता’ के परिसर में सन् 1956
में की गयी | अब 4, डी.एल. ख़ान रोड, (एस.एस.के.एम.
अस्पताल के निकट), कोलकाता-700025 में
स्थिति यह क्षेत्रीय कार्यालय असमिया, बाङ्ला, बोडो, मणिपुरी और ओडि़या में अकादेमी के प्रकाशन और
कार्यक्रमों की देखरेख करता है। इसके अतिरिक्त अंग्रेजी और तिब्बती भाषा की कुछ
पुस्तकें भी यहाँ से प्रकाशित होती हैं। यह अन्य उत्तर-पूर्वी भाषाओं में भी
कार्यक्रमों का संयोजन करता है। चेन्नई कार्यालय की शुरुआत 1959 में हुयी | सन् 1990 में यह कार्यालय बेंगलूरु
स्थानांतरित कर दिया गया | बेंगलुरु कार्यालय अंग्रेज़ी की कुछ पुस्तकों के
अतिरिक्त कन्नड, मलयाळम्,
तमिळ और तेलुगु में अकादेमी के प्रकाशन और कार्यक्रमों की देखरेख
करता है। यह कार्यालय सेंट्रल कॉलेज परिसर में स्थित है। अब चेन्नई स्थित कार्यालय
बेंगलूरु कार्यालय के कुछ कामों की देखरेख करता है। मुंबई कार्यालय की स्थापना
सन् 1972 में हुई। यह कार्यालय हिन्दी और अंग्रेजी के कुछ
प्रकाशनों सहित गुजराती, कोंकणी, मराठी
और सिन्धी में अकादेमी के प्रकाशनों और कार्यक्रमों की देखरेख करता है। प्रधान
कार्यालय के पुस्तकालय के अलावा सभी क्षेत्रीय कार्यालयों के अपने-अपने पुस्तकालय
हैं | दिल्ली स्थित साहित्य अकादेमी का पुस्तकालय भारत के प्रमुख बहुभाषिक
पुस्तकालयों में से एक है, यहाँ पर अकादेमी द्वारा मान्यता
प्राप्त चौबीस भाषाओं के अतिरिक्त अंगरेजी की विविध साहित्यिक और संबद्ध विषयों की
पुस्तकें उपलब्ध हैं। यह पुस्तकालय सर्जनात्मक कृतियों, समालोचनात्मक
पुस्तकों, अनूदित कृतियों, संदर्भ
ग्रंथों तथा शब्दकोशों के समृद्ध संग्रह के लिए जाना जाता है |
अकादेमी की
प्रशासनिक और सांस्कृतिक क्रियाकलाप संबंधी दायित्वों का निर्वाह एक 99 सदस्यीय परिषद् (सामान्य परिषद्) करती है | इस ‘सामान्य परिषद्’ का गठन
निम्नांकित ढंग से होता है - अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव,
वित्तीय सलाहकार, भारत सरकार द्वारा मनोनीत पाँच सदस्य,
भारत सरकार के राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों के पैंतीस
प्रतिनिधि, साहित्य अकादेमी द्वारा मान्यता प्राप्त भाषाओं
के चौबीस प्रतिनिधि, भारत के विश्वविद्यालयों के बीस
प्रतिनिधि, साहित्य-क्षेत्र में अपने उत्कर्ष के लिए परिषद्
द्वारा निर्वाचित आठ व्यक्ति एवं संगीत नाटक अकादेमी, ललित
कला अकादेमी, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्, भारतीय प्रकाशक संघ और राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के एक-एक
प्रतिनिधि। साहित्य अकादेमी की व्यापक नीति और उसके कार्यक्रम के मूलभूत सिद्धांत
‘सामान्य परिषद्’ द्वारा ही निर्धारित किए जाते हैं और उन्हें ‘कार्यकारी मंडल’ के
प्रत्यक्ष निरीक्षण में क्रियान्वित किया जाता है। प्रत्येक भाषा के लिए ‘परामर्श
मंडल’ हैं जिसके सदस्य प्रसिद्ध लेखक और
विद्वान होते हैं और उन्हीं के परामर्श पर तत्संबंधी भाषा का विशिष्ट कार्यक्रम
नियोजित एवं कार्यान्वित होता है। परिषद् का कार्यकाल पाँच वर्ष का होता है।
भारत सरकार
के जिस संकल्प-पत्र में अकादेमी का विधान निरूपित किया गया था, उसी में अकादेमी की यह परिभाषा दी गई है – “भारतीय साहित्य के सक्रिय
विकास के लिए कार्य करनेवाली एक राष्ट्रीय संस्था, जिसका
उद्देश्य उच्च साहित्यिक मानदंड स्थापित करना, भारतीय भाषाओं
में साहित्यिक गतिविधियों को समन्वित करना एवं उनका पोषण करना तथा उनके माध्यम से
देश की सांस्कृतिक एकता का उन्नयन करना होगा |” साहित्य
अकादेमी साहित्यिक-संवाद, प्रकाशन और उसका देश भर में प्रसार
करने वाली केन्द्रीय संस्था है तथा सिर्फ़ यही ऐसी संस्था है, जो कि भारत की चौबीस भाषाओं, जिसमें अंग्रेजी भी
सम्मिलित है, में साहित्यिक क्रिया-कलापों का पोषण करती है ।
अकादेमी प्रत्येक वर्ष संविधान द्वारा मान्यता प्रदत्त चौबीस भाषाओं में लिखित साहित्यिक
कृतियों के लिए पुरस्कार प्रदान करती है, साथ ही इन्हीं
भाषाओं में परस्पर साहित्यिक अनुवाद के लिए भी पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं । ये
पुरस्कार साल भर चली संवीक्षा, परिचर्चा और चयन के बाद घोषित
किए जाते हैं । अकादेमी प्रतिष्ठित लेखकों को महत्तर सदस्य और मानद महत्तर सदस्य
चुनकर सम्मानित करती है । अकादेमी उन भाषाओं के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान
करने वालों को 'भाषा सम्मान' से
विभूषित करती है, जिन्हें औपचारिक रूप से साहित्य अकादेमी की
मान्यता प्राप्त नहीं है । यह सम्मान 'क्लासिकल एवं मध्यकालीन
साहित्य' में किए गए योगदान के लिए भी दिया जाता है ।
अकादेमी ‘युवा-साहित्य’ और ‘बाल-साहित्य’ के प्रोत्साहन के लिए भी पुरस्कार देती
है |
वस्तुतः पुरस्कार वापसी के साथ
अपना प्रतिरोध दर्ज करने वाले लेखकों और बुद्धिजीवियों के साथ न होकर इसके विरोध में कुछ लोगों की
प्रतिक्रिया निश्चित ही ऐसे लोगों के 'समकाल'
पर सवालिया निशान लगाती है | जिनको यह 'समय' हैरान-परेशान नहीं कर रहा वे निश्चित ही उस 'भावी' के भी जिम्मेदार होंगे जिसके पदचाप वो नहीं
सुन पा रहें हैं | रही बात 'अकादेमी'
को ख़त्म या बनाने की तो यह देखने की जरूरत है कि पूरे देश की 'संस्थाओं' 'अकादमियों' को
सरकार क्या बनाना चाहती है ? 'ललित कला अकादेमी' 'संगीत नाटक अकादमी' 'भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद्'
'फिल्म इंस्टीट्यूट, पुणे' और अब 'तीनमूर्ति संग्रहालय और पुस्तकालय' | क्या ये ख़त्म हो रहे हैं या इन्हें नए सिरे से बनाया जा रहा है? बुल्गारिया
के कम्युनिस्ट नेता जॉर्ज़ दिमित्रोव ने के इस कथन को समझना चाहिए – “फासीवादी
समूचे जातीय इतिहास को टटोल रहे हैं, जिससे वे साबित कर सकें कि अतीत में जो कुछ
भी वीरतापूर्ण और गौरवपूर्ण था उसके असली वारिस वे ही हैं | उनकी स्वनिर्मित
परम्परा और संस्कृति की व्याख्या में आम जनता की जातीय भावना को आहात करने वाला जो
कुछ भी घृणित या पतित है उस पर प्रहार करते हुए उसका उपयोग फासीवाद के शत्रुओं के
खिलाफ करते हैं”- (सेलेक्टेड आर्टिकल एंड स्पीचेज – जॉर्ज़ दिमित्रोव) | इसलिए,
इस 'व्यापक असहमति' को असहिष्णुता
और कट्टरवाद के विरोध के रूप में देखना होगा जो इस देश में किसी भी तरह के संभावित
'फासीवाद' के खतरे को रोकने में जरूरी
पाथेय बन सके | आज हम सभी अपने जीवन में एक न एक प्रकार से
एक ऐसी संदिग्धता और भय का सामन कर रहे हैं जिसमें आशंका है कि इस देश की वास्तविक
छवि नष्ट न हो जाय | इस देश के संवैधानिक मुखिया महामहिम राष्ट्रपति इधर लगातार इस
आशंका को दर्ज कर चुके हैं |
अंटोनियो
ग्राम्शी जिसे ‘सिविल सोसायटी’ और ‘पॉलिटिकल सोसायटी’ के
अंतर्विरोध कहते हैं उसकी शिनाख्त करने में साहित्य हमारी सहायता करता है |
साहित्य के द्वारा समाज और संस्कृति की जहाँ सामान्य वास्तविकताएं
हमें उपरी तौर पर दिखती हैं वहीं साहित्य की आंतरिक परतों में वह अंतर्विरोध भी
गहरे पैठा रहता है जो किसी भी नागरिक-समाज और सत्ता-तंत्र के रिश्तों की पहचान
कराता है | यह सच है कि, एक बड़े
ऐतिहासिक बदलाव के दौर में ‘सिविल सोसायटी’ और ‘पॉलिटिकल सोसायटी’ में
अंतर्विरोध पैदा होते हैं, परंतु यदि ‘सिविल सोसायटी’ के वैज्ञानिक और लोकतान्त्रिक
निर्माण और विकास में ‘पॉलिटिकल सोसायटी’ की धीरे-धीरे जवाबदेही खत्म होती जाय तो गहरी रिक्तता हमेशा के लिए जड़ जमा
लेती है | इस देश में जो वर्तमान सत्ता है उसने पूरे आवेग और
तैयारी के साथ इस जड़ जमा चुकी रिक्तता पर कब्ज़ा कर लिया वरना वोट का प्रतिशत तो
उसके पास कुल मतों का मात्र 29% ही है | और अब राजनितिक सत्ता-तंत्र पर काबिज यह
शासन-व्यवस्था मनोनुकूल विधि-निषेधों को राष्ट्र-राज्य के तथाकथित हित और सुधार और
बदलाव और विकास के नाम पर उसे जिस एजेंडे को लागू करना है वह लागू करने का हर
उद्यम कर रही है | अगर एजाज अहमद से शब्द लें तो इन सबके लिए
कोई ‘टेरेन ऑफ इन्क्वायरी’ ‘सिविल
सोसायटी’ के पास नहीं है | भारत जैसे गणतंत्र
में यह अंतर्विरोध और गहरे तक धंसा होता है | खासकर, जब धर्म कहीं न कहीं इस तरह के नए राष्ट्र-राज्य की पूरी संरचना में
सन्निहित रहता है | इस अंतर्विरोध को एक लेखक बहुत शिद्दत से
देखता परखता है उसकी जो रचनात्मक चिंता है
वह महज अपनी कलम की चिंता नहीं है वरन उसमें उस ‘सिविल सोसायटी’ की चिंता है जिसे सरकारें समय-समय पर कभी धर्म के नाम पर तो कभी
राष्ट्रीय स्वाभिमान के नाम पर और कभी विकास की इजारेदारी के छद्म में छलती रहती
हैं | लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी अपने प्रतिरोधी हस्तक्षेप से समय-समय पर असंभव
खतरों की संभावना से इस ‘सिविल सोसायटी’ को ‘एलार्म’ करते रहते हैं | सरकारी
तंत्र और व्यवस्था के लिए किसी भी सिविल सोसायटी में बुर्जुआजी की यह सबसे जरूरी भूमिका
होती है | सरकारें उनके इस कार्य-व्यवहार से घबराती हैं | और
इस घबराहट में ही सरकार के नुमायिंदे उल-जूलूल बयान देते हैं, मजाक उड़ाते हैं | इसलिए
यह सवाल कि, ‘साहित्यकार को अपनी कलम पर ध्यान देना चाहिए उसे राजनीति नहीं करनी
चाहिए |’ तो, ऐसी नेक सलाह देने वाले को न तो ‘साहित्य’ का ही कुछ पता है न
‘राजनीति’ का | खैर, साहित्य के बारे में पता न होने की बात तो समझ में आती है, वह
इसलिए कि हमारे देश के अधिकांश राजनेताओं को साहित्य और साहित्यकारों से क्या लेना
देना | पर, हमारे राजनेता जिस ‘राजनीति’ के आधार-कार्ड धारक नागरिक हैं उसके बारे
में ही उनकी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सोच क्या है ? क्या केवल चुनाव
हारना-हराना ही राजनीति है ? क्या ये ‘राष्ट्रवादी’ राजनेता एक राष्ट्र को महज
चुनावी राजनीति का मैदान भर मानते हैं ? अगर नहीं तो फिर, साहित्य, राजनीति या
अन्य दूसरे कर्म अपनी-अपनी जमीन पर बेहद नैतिक और उत्तरदायी कर्म हैं | इसलिए
साहित्यकार अगर राजनीति भी करेगा तो ‘सिविल सोसायटी’ की अपनी
उत्तरदायी जवाबदेही के लिए करेगा और यह राजनीति तो उसे करनी ही चाहिए | एक कलमकार की
राजनीति केवल अपने देश तक ही नहीं, बल्कि मनुष्य के मान और मानाधिकारों के समर्थन
में दुनिया के हर कोने तक पसरी होती है | उसकी चिंता, उसकी बेचैनी और उसकी
भूमंडलीय नागरिकता के दायरे में राजनीति क्या हर वह चीज आती है जिसमें आदमी को
आदमी से बाँटने और अलग करने की कोशिशें होती रही हैं | दुनिया में जहाँ कहीं भी
इंसान को किसी भी तरह के भय और हिंसा से प्रताड़ित किया जाता है, कलमकार ऐसे किसी
भी जुल्म और जुल्म को प्रश्रय देने वाली या अपनी चुप्पियों से हिंसा और बर्बरता का
समर्थन करने वाली, कट्टरता के मंसूबों को निर्भय और निरापद साहस देने वाली सरकारों
के खिलाफ प्रतिरोध की संस्कृति रचने और उस संस्कृति के पक्ष में, उसकी रक्षा के
लिए वह सबकुछ करता है जिसे आपकी भाषा में ‘राजनीति’ कहा जाता है | परंतु, एक चीज
पर विश्वास कीजिये, निश्चित ही यह न तो ‘मैनुफैक्चर्ड’ होता है न ही ‘फैब्रिकेटेड’
| ‘मैनुफैक्चर्ड’ और ‘फैब्रिकेटेड’ तो नफरत, घृणा, दंगे और आतंक होते हैं, दुनिया
भर में जो लोग साहित्य की मैनुफैक्चरिंग में लगे हैं वे किसी भी तरह की तानाशाही
और उसके आतंक के खिलाफ बहुत पहले से अव्वाज़ बुलंद करते रहे हैं और जब-जब उन्हें
लगेगा कि उनकी अभिव्यक्ति खतरे में है तब-तब वे इसी तरह से आवाज बुलंद करते रहेंगे
| रही बात, साहित्यकारों, कलाकारों,
संस्कृतिकर्मियों की ‘विचारधारा’ का तो आपको अपने से विरोधी विचारधारा के लोगों से
इतना भय क्यों ? ‘विचारधारा’ थोपी नहीं जाती बल्कि विवेकवान होने की प्रक्रिया में
व्यक्ति का लोकतान्त्रिक चयन होती है | दुनिया के हर लोकतंत्र में सबको इस चयन का
अधिकार है | पर, दुर्भाग्य से जिन समाजों में इसे थोपने का प्रयास किया गया है
वहाँ तानाशाही बढ़ी है, फासीवाद का जन्म हुआ है | क्या भारत की वर्तमान सत्ता अपने
आचरण से इसी ओर नहीं बढ़ रही है ? अगर वह अपने से पूर्व की शासन व्यवस्था को कटघरे
में खड़ा कर के ‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर धार्मिक और सांस्कृतिक बँटवारा करना चाहती
है तो उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि, इस देश में यह संभव नहीं क्योंकि, आज हम जिस
दुनिया में रह रहें हैं वह दुनिया अपने विचार, अपनी आस्था, अपनी राष्ट्रीयता, अपने
अधिकार, अपनी स्वतंत्रता, अपनी निजता और अपनी अस्मिता को बहुत गहरे तक जीने वालों
की दुनिया है | वह क्या लिखे, वह क्या पढ़े, वह क्या खाए, वह क्या पहने, वह कौन सा
गीत-संगीत सुनें, किससे प्रेम करे, किससे घृणा करे, इसकी स्वतंत्रता है उसे और वह इस स्वतंत्रता को
किसी भी कीमत में गँवाना मंजूर नहीं | इस विरादरी के सामने ही माननीय प्रधान
मंत्री ने ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा बुलंद किया है | अगर यह केवल ‘रेटारिक’
है तो लोगों को बहुत जल्दी समझ में आ जाएगा, बल्कि आने लगा है | किसी खास मकसद के
लिए तैयार किया जाने वाला ‘रेटारिक’ बहुत खतरनाक होता है | ऐसा रेटारिक सार्वजनिक
रूप से भीड़ के भावावेश को उभारता है और लोग बालोचित आशावाद में भ्रमित होकर झूठ
सुनते हुए अपने को निश्चिंत और सुरक्षित महसूस करते रहते हैं | जिस समाज में हम इस
कदर भटक जायँ कि खुद से ही झूठ बोलने लगें और उस झूठ पर विशवास भी करने लगें तो उस
सामज को कोई नहीं बचा सकता | पूरी दुनिया में लेखक और बुद्धिजीवी समाज को इससे
सचेत और बचाने का उद्यम करता रहा है | यही उसकी राजनीति है और यही उसकी विचारधारा
| यह कैसे संभव है कि, मुँह से मनुष्यता के विकास और उसके आदर्शों को बखाना जाय और
सोच, विचार व आचरण में कट्टर और दहशतगर्द हैं, धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण में जहर घोलने के लिए उद्धत हैं , उनके
समर्थन में चुप रहा जाय | ऐसे मूक समर्थन को क्या मान जाय ?
दुनिया
भर में संकीर्णता और कट्टरता का जो भी इतिहास रहा हो पर सौभाग्य से हमेशा उसका
प्रतिरोध मानवीय गरिमा और मानाधिकार के पक्ष में लिखने, रचने और बोलने वाले
साहित्यकारों, कलाकारों और संस्कृतकर्मियों ने ही किया है | जाति, धर्म, देश इन
सबसे परे जाकर किया है | एक लेखक या एक कलाका र ‘जड़ सांस्कृतिक परजीवी’ नहीं होता
वरन वह ‘संस्कृतियों’ के निरंतर सृजन, निर्माण और विकास का कर्ता भी होता है और
संरक्षक भी | इसलिए, इतने बड़े पैमाने पर लेखकों, बुद्धिजीवियों, समाज-वैज्ञानिकों,
इतिहासकारों और संस्कृतिकर्मियों के प्रतिरोध को किसी भी तरह से ‘यह हुआ तो वह वह
क्यों नहीं किया गया’ या ‘इस समय ही क्यों उस समय क्यों नहीं किया गया’ के
गैरवाजिब तर्कों से ख़ारिज नहीं किया जा सकता | एक लेखक मानवीय गरिमा,
धार्मिक-सहिष्णुता, वैचारिक-स्वातन्त्र्य, अभिव्यक्ति की आजादी और तार्किक व
वैज्ञानिक समाज के निर्माण और विकास के पक्ष में अपने रुख को हमेशा से ही स्पष्ट
करता रहा है, अपनी रचना और अपने व्यवहार दोनों में |
पक्षधर
के इस अंक में वरिष्ठ कवि-आलोचक कुँवर नारायण की ग्यारह कविताएँ, इन ग्यारह
कविताओं को केंद्र में रखकर कुँवर नारायण की कविता पर पंकज बोस का लेख, अपनी रचना
प्रक्रिया के बारे में खुद कुँवर नारायण का लेख, कुँवर नारायण की काव्य-कला पर
स्व. सत्यप्रकाश मिश्र का लेख इस अंक की उपलब्धि हैं | इस पूरी सामग्री के चयन,
नियोजन और प्रस्तुति में पंकज बोस के सहयोग के लिए हम उनके आभारी हैं |
पक्षधर,
प्रो. एम. कुलबुर्गी, पुष्पपाल सिंह, डॉ. ए. पी.जे. अब्दुल कलाम, गोपाल राय और
वीरेन डंगवाल को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है | पक्षधर के आगामी दो अंकों के
लिए हम ‘उपन्यास : कला और सिद्धांत’ पर विशेषांक की योजना बना रहे हैं | इसलिए,
आगामी अंकों के लिए हम अपनी योजना के अनुरूप रचनाएं आमंत्रित करेंगे |
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