यथार्थ से वैचारिक और संवेदनात्मक संगर का ठाट
(‘अँधेरे में’ पर एक अधूरा नोट)
यथार्थ एक नहीं अनेक हैं | उन सबको समेटने का अंत अँधेरे में होता है | -पॉब्लो पिकासो
‘अँधेरे
में’ कविता की तुलना सही ही दुनिया भर में मशहूर पिकासो की पेंटिंग ‘गुएर्निका’ से
की गयी है | साढ़े तीन मीटर ऊँचे और लगभग आठ मीटर (7.8 मीटर) चौड़े स्याह
अँधेरे बैकग्राउंड पर सफ़ेद और धूसर रंगों के मेल से बना अपने समय का भयावह वृहदाकार
भित्ति-चित्र- ‘गुएर्निका’ | विकराल समय-चित्र | ‘अँधेरे में’ अपने संरचनात्मक ठाट
और प्रभाव में निश्चित ही ‘गुएर्निका-इन-वर्स’ है | फासीवाद के खिलाफ एक कलाकार की
धाड़ती- दहाड़ती एक सशक्त रचना - ‘गुएर्निका’ | और ‘अँधेरे में’ | फासीवादी खतरे की
आशंका से देश को आगाह करते एक जन का एक कवि का लहुलुहान ज्वलंत बयान | स्याह
अँधेरे बैकग्राउंड पर सफ़ेद और धूसर रंगों से रची कविता | गहरी विकलता, मर्माहत आकांक्षा में लड़ती-टूटती-बनती कविता-‘अँधेरे में’ | मीठी पर दु:सह |
यदि गजानन माधव मुक्तिबोध के बारे में कहा जाय कि, वे हिंदी
कविता के अंतिम हीरो थे तो यह सुपरलेटिव नहीं होना चाहिए | मुक्तिबोध के लिए
साहित्य मुहावरे में नहीं सचमुच में जीने-मरने का संगर था | ‘पार्टनर तुम्हारी
पोलिटिक्स क्या है ?’ जब मुक्तिबोध यह पूछ रहे हैं तो यह सवाल जितना दूसरों के लिए
महत्व रखता है उससे कहीं अधिक खुद मुक्तिबोध के लिए | हमारे समाज में प्रच्छ्न्नता
जितना अधिक बढ़ेगी ‘अँधेरे में’ जैसी कविता की जरूरत उतनी ही पड़ेगी | प्रछ्न्नता का उद् घाटन कवि-कर्म का
महत्वपूर्ण अंग है | वह प्रच्छ्न्नता चाहे
मूर्खताजन्य आत्मविश्वास की हो या
बौद्धिक दिखने की परम पराकाष्ठा में हो | वह प्रच्छ्न्नता चाहे बाह्य आवरणों की हो
या आतंरिक छल-छद्मों की हो | बिना प्रच्छ्न्नता को उद् घाटित किये यथार्थ के नाम पर इंद्रजाल रचा
जाएगा, स्थितियों के कृत्रिम वस्तु-रूपों का सृजन होगा, परिस्थितियों की वास्तविक
संरचनात्मक निर्मिति संभव नहीं होगी | मुक्तिबोध ऐसे सृजन को निःसंज्ञ सृजन कहते
हैं | मुक्तिबोध की अटूट धारणा है कि, “बाह्य अनुरोधों एवं आग्रहों की दृष्टि से
जीवन का आभ्यंतरीकरण होना जरूरी है | जीवन का यह आभ्यंतरीकरण ही अपने व्यक्तित्व
का, कलात्मक व्यक्तित्व का शोधन, परिशोधन है |” मुक्तिबोध के यहाँ मनुष्य के
निष्कासन, बेगानेपन या एलियनेसन की जो चिंता है वह पूंजीवादी सभ्यता और संस्कृति
के बरक्स उपजी-बनी चिंता है | फ़ासीवाद इसी सभ्यता का नाजायज नहीं तथाकथित जायज उत्पाद
है | मुक्तिबोध अपने पूर्वर्तियों और समकालीनों में कईयों से इसीलिए भिन्न हैं कि
वे मनुष्य के संत्रास को उसकी जैविक-परिस्थिति या पारलौकिक-नियति में नहीं पेश
करते बल्कि यंत्रबद्ध, नितांत संवेदनहीन, जड़, अमानवीय, पूंजीवादी और फासीवादी
सभ्यता व संस्कृति के कुचक्रों और शोषण-दमनकारी परिस्थितियों में प्रस्तुत करते
हैं जो मृत्यु की तरह जीवन-विरोधी है | परिवेश की मनुष्य-विरोधी भयावहता और भारत
देश की वास्तविक परिस्थिति को जिन बेचैन भावों और तनावों में मुक्तिबोध की कविता
‘अँधेरे में’ प्रस्तुत करती है वह अकेले मुक्तिबोध ही कर सकते थे | एक ‘शाश्वत
यथार्थ’ के प्रसंग में बनी-बची रहने वाली कविता | मुक्तिबोध लिखते हैं –“कहना न
होगा कि विषय के यथार्थ यथातथ्य भावात्मक चित्रण का कार्य एक वैसा ही घोर, अविरत
और सुदीर्घ संघर्ष है जैसा कि, भारत का वर्तमान जीवन |”
2.
मुक्तिबोध हिन्दी के अकेले कवि हैं जो पूंजीवादी सभ्यता और
संस्कृति के बहुआयामी संकटों और उनसे उत्पन्न तनाओं और अमानवीय परिस्थितियों से
जूझते हैं, संघर्ष करते हैं, लड़ते हैं, लहू-लुहान होकर भी कतरे-कतरे में उक्त
सभ्यता और संस्कृति के भ्रामक मुखौटों को, छल-छद्मों को उद् घाटित करते हैं |
सभ्यता के नए – नए आवरण और उसमें कवि-कर्म की कठिनता से उलझते-लड़ते-जीते हुए ही
मुक्तिबोध मुक्तिबोध को सभ्यता-समीक्षा का कवि-विवेक हासिल होता है | ‘अँधेरे में’
पूरी कविता उनके इसी कवि-विवेक की महत्तम उपलब्धि है | जागरित बुद्धि, प्रज्ज्वलत्
धी | आत्मोद् बोधमय....सूरज-मुखी-फूल-गुच्छे | वजनदार रायफल | भई खूब |
मुक्तिबोध की प्रत्येक रचना तैयारी की रचना है | जीवनगत सघन
संवेदन के साथ जो एक तिक्त यथार्थ उनकी कविताओं में पसरा है वह यथार्थ हमारी उस बेफिक्र अटूट नींद
को बुरी तरह भंग करता है जो हमें हमारे मौजूदा हालत और हालात से बेखबर बनाती है | सिद्धांत
के आलोक में दुनिया को देखना और दुनिया के अनुभव दृष्टि से सिद्धांत को परखना |
यही मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष है | माओत्से तुंग से सहमति जतलाते हुए मुक्तिबोध, कि
“ज्ञान अनुभव से ही शुरू होता है – ज्ञान के सिद्धांत का भौतिकवादी रूप यही है |” मार्क्सवादी
आलोचना पर यह तोहमत लगाया जाता है कि वह रचना में अर्थ का संवर्द्धन नहीं करती वरन
अपने अर्थ का संधान करती है | ‘अँधेरे में’ कविता के सन्दर्भ से
‘व्यक्तित्वान्तरण’ पर खूब बहसें हिन्दी आलोचना में हुयी हैं | पर क्या ऐसा नहीं
है कि माओ जिस ‘रूपांतरण’ या ‘सर्वहाराकरण’ की बात करता है मुक्तिबोध का काव्यनायक
‘व्यक्तित्वांतरण’ को उस अर्थ में पाना चाहता है, लागू करना चाहता है | अन्यथा,
मुक्तिबोध ‘व्यक्तित्वांतर’ के सम्बन्ध में पितरों को, पिताओं को क्यों याद कर रहे
हैं –
बिम्ब फेंकती !!
वेदना नदियाँ
जिनमें कि डूबे हैं युगानुयुग से
मानो कि आँसू
पिताओं की चिंता का उद्विग्न रंग भी,
विवेक पीड़ा की गहराई बेचैन,
डूबा है जिसमें श्रमिक का संताप
वह जल पीकर
मेरे युवकों में होता जाता व्यक्तित्वांतर,
‘अन्धेरे
में’ कविता की रचनात्मक मनःस्थिति के
आधार,विचार, संवेदना और पीड़ा को समझना हो तो 1959-60 के आस-पास मुक्तिबोध द्वारा लिखे जा
रहे लेखों, पत्रों, टिप्पणियों को जरूर देखना चाहिए | ‘कृति’ संपादक श्रीकांत
वर्मा को 18.10.59 का लिखा हुआ एक पत्र है, जिसमें मुक्तिबोध
आपनी चार लम्बी कविताओं का जिक्र करते हैं ‘अँधेरे में’ जिनमे से एक है | “एक
कविता भेज रहा हूँ | यूँ कहिये कि वह एक गद्यात्मक अंतर्कथा है |... पिछले एक डेढ़
वर्ष में, मैंने चार लम्बी कविताएँ लिखी हैं | वे ही मेरी उपलब्धि हैं | उनसे
गुंथा हिने के कारण कोई एनी कार्य नहीं कर सका | उनके मारे सब छूट गया | असल में,
वे जीवन की उलझनों के समग्र चित्र हैं | ‘एक गद्यात्मक अंतर्कथा’ ‘जीवन के उलझनों
के समग्र-चित्र’ | 1959-60 के आस-पास
का ही लिखा हुआ उनका एक लेख है ‘आधुनिक कविता की दार्शनिक पार्श्वभूमि’ | ‘नयी
कविता का आत्मसंघर्ष’ में यह लेख संकलित हुआ था | बाद में ‘मुक्तिबोध
रचनावली’ के 5 वें खंड में यह लेख शामिल किया गया | इस लेख
का यह उद्धरण देखा जाना चाहिए – “स्वाधीनता प्राप्ति के उपरान्त भारत में अवसरवाद
की बाढ़ आयी | शिक्षित मध्यवर्ग में भी
उसकी जोरदार लहरें पैदा हुयीं | साहित्यिक लोग भी उसके प्रवाह में बहे और खूब ही
बहे | इस भ्रष्टाचार, अवसरवाद, स्वार्थपरता की पार्श्वभूमि में नयी कविता के
क्षेत्र में पुराने प्रगतिवाद पर जोरदार हमले किये गए, और कुछ सिद्धांतो की एक
रूपरेखा प्रस्तुत की गयी | ये सिद्धांत और उनके हमले, वस्तितः; उस शीत युद्ध के
अंग थे जिसकी प्रेरणा लन्दन और वाशिंगटन से ली गयी थी |...नयी कविता के आस-पास
लिपटे हुए बहुत से साहित्यिक सिद्धांतों में शीत युद्ध की छाप है | ध्यान में रखने
की बात है कि, एक कला-सिद्धांत के पीछे एक विशेष जीवन दृष्टि हुआ करती है, उस
जीवन-दृष्टि के पीछे एक जीवन-दर्शन होता है और उस जीवन दर्शन के पीछे, आजकल के
जमाने में एक राजनीतिक दृष्टि भी रहती है | नयी कविता को तथाकथित सौंदर्यवाद की
भूमिका देते हुए ‘सौन्दर्यानुभूति और वास्तविक जीवनानुभवों की समानांतर गति’ वाला
एक कला सिद्धांत लाया गया | कला की ऑटोनोमी को, कला की स्वायत्त प्रकृति को इतना
निर्विकल्प किया गया कि साक्षात जीवन से उसके सम्बन्ध-सूत्र टूटने लगे – विशेषकर
उस जीवन से और उसके ज्ञान से, कि जिसमें उपस्थित समस्याएँ मानव-समस्याएँ बनकर वह
हालत पैदा पैदा कर देती हैं कि मनुष्य उस जीवन को बदल डालने की, उस समाज को कि
जिसमें वह जीवन पाया जाता है, बदल डालने की, ओर प्रवृत्त होता है |” तथाकथित इस
विकल्पहीनता के प्रचार-प्रसार के द्वारा, आधुनिकता के छल-छद्म के द्वारा
पूंजीवादी-समाज और सभ्यता को संपोषित किया गया और उस सभ्यता और संस्कृति के प्रति
जारी संघर्ष और लड़ाई को ‘साम्यवादी बहक’ कह कर उसकी खिल्ली उडाई गयी | आज हम क्या
फिर से राजनीतिक-सामजिक स्तर पर एक वैसी ही तथाकथित विकल्पहीनता के दौर में जीने
के लिए विवश नहीं हैं ? पर, यहीं पर यह सवाल भी उठाया जाना चाहिए कि, क्या सचमुच
साम्यवादी दलों ने उस तथाकथित ‘साम्यवादी बहक’ को झुठलाते हुए एक इन 50-60 सालों में एक राष्ट्रीय ‘विकल्प’ बनने की समझदारी दिखाई ? ‘अँधेरे में’
कविता की अर्द्ध-शताब्दी के चलते ‘पुनःश्च’ इस कविता पर बातचीत और बहस शुरू हुयी
है | मुक्तिबोध के विरोधी शिविर में भी और मुक्तिबोध के अपने शिविर में भी |
विरोधी शिविर का ‘प्रीतिकर’ एजेंडा तो सबको पता है | पर, कुछ शिविर के लोगों ने भी
उनकी हत्या करने की कोई कोर-कसर न उठा रखी | हालांकि, मुक्तिबोध के लिए यह नया
नहीं है – “मेरे ही शिविर में मेरी हत्या हो सकती है, वास्तविक तिरस्कार हो सकता
है, होता रहा है, हुआ है, होता रहेगा – सम्भवतः |” विरोधी शिविर का अध्यात्मवाद तो
समझ में आता है पर स्वयं के शिविर का जड़वाद क्या वही है जिसे मुक्तिबोध अपने लेख
में उठाते हैं और कहते हैं कि – “ जड़वाद कई तरह से प्रकट होता है | वह अध्यात्म का
जामा पहनकर आता है और भौतिकवाद का भी जब व्यक्तित्व और ज्ञान नया कुछ सीखने से
इनकार कर देता है | परिणामतः, उसमें ह्रास के लक्षण अधिकाधिक होते जाते हैं |
महापुरुषों और दिग्गजों का, काव्य-प्रवृत्तियों का, विचारधाराओं का, क्रमशः ह्रास
हमें इसी तरह से देखने में आता है | उनकी जमीन खिसकने लगती है | वे इतने ऊँचे हो
जाते हैं कि जमीन खिसकते-खिसकते वे सिर्फ आसमान में लटक जाते हैं | विगत काल में
कमाई हुयी पूंजी का वे केवल यश और प्रभाव रूपी ब्याज खाते रहते हैं | ऐसे न जाने
कितने ही मृत ज्वालामुखी हमें जीवन-क्षेत्र में दिखाई देते हैं जो अभी भी बड़े ऊँचे
और प्रभावशाली बनकर क्षितिज सीमांतों पर तने हुए हैं |” विचारों के चित्रों की अवलि में चिंतन | गढ़े जाते संवाद | गढ़ी जाती समीक्षा | गढ़ी जाती
समीक्षा जन-मन-उर-शूर | चिलचिला रहा बेशर्म दलिद्दर भीतर का |
3.
‘अँधेरे
में’ कविता की अपरिहार्यता इसी से तय होती है कि इस कविता के 50 सालों में अतिशय पाठ-कुपाठ हुए हैं | इस कविता
का प्रदीर्घ ठाट अब तक की हिन्दी कविता के लिए एक नयी तरह का ठाट है | लंबी
कविताओं का वही रूपबंध इस कविता का नहीं है जो ‘प्रलय की छाया’, ‘राम की शक्ति
पूजा’, ‘असाध्य-वीणा’ या अन्य दूसरी लंबी कविताओं का है | मान-मूल्य, न्याय-अन्याय
के ‘शाश्वत-प्रश्न’ अथवा निर्लिप्त ठंडापन के साथ ‘अध्यात्मिक-उठान’ और ‘विलय’ का शिल्प ‘अँधेरे में’ कविता का शिल्प कैसे हो
सकता है | स्वप्न, दुःस्वप्न, नाटक, फैंटेसी में गुँथी मनुष्य की अनगिनत
परिस्थितियाँ, मनःस्थितियाँ और उनको रचने वाली वस्तुस्थितियों का शिल्प ही ‘अँधेरे
में’ का शिल्प हो सकता है | शिल्प की रचना और जतन के साथ उसका कलात्मक विकास और
निर्वाह मुक्तिबोध के लिए मुख्य प्रश्न है ही नहीं – “...मेरे जैसे कवि के सामने
मुख्य प्रश्न यह नहीं है कि, शिल्प का विकास किस प्रकार किया जाय, वरन यह है कि
जीवन तथा ह्रदय पर नित्य अघात-प्रत्याघात करने वाले कारणों को किस प्रकार समेटा
जाए | उन्हें किस प्रकार काव्य में रूपबद्ध किया जाए | वास्तविकता तो यह है कि आज
के जमाने में मेरे लिए मुख्य प्रश्न कंटेंट की कमी और शिल्प के आधिक्य का नहीं है
वरन कंटेंट के आधिक्य और शिल्प की अपर्याप्तता का है | इसीलिए, मेरी मुख्य समस्या
यह है कि कंटेंट के वैविध्य को किस प्रकार समेटा जाए |” मुक्तिबोध के एक हमनवा
शमशेर ने मुक्तिबोध की कविताओं के सम्बन्ध में इस समस्या किन्तु उसकी ताकत को ठीक
ही पकड़ा था – “मुक्तिबोध हमेशा एक विशाल विस्तृत कैनवास लेता है – जो समतल नहीं
होता – जो सामाजिक जीवन के ‘धर्मक्षेत्र’ और व्यक्ति चेतना की रंगभूमि को निरंतर
जोड़ते हुए समय के कई काल-क्षणों को प्रायः एक साथ आयामित करता है | ...इतिहास के
संघर्ष का – एक षड्यंत्र का – सा जाल फैलता सिमटता है | और इस जाल में हम और आप,
अनजाने तौर से पर अनिवार्यतः फँस गए हैं – और निकलने का रास्ता खोज रहे हैं – मगर
कहीं कोई रास्ता नहीं है – और फिर भी पक्का विश्वास है कि रास्ता है, रास्ता है |”
यथार्थ
अनुभवों में उतरी कविता | सक्रिय संवेदनाओं के तीव्रतर तनावों से बुनी कविता |
विराट चिंता से उद्विग्न काव्यभाषा, जिसमें एक उघड़ा और तिक्त गद्य-संवेदन मिलेगा
कायात्मक वातवरण नहीं | अनुभव-वेदना, विवेक-निष्कर्ष मिलेगा संस्कृति के कुहरीले
रूपकों, प्रतीकों, मानों और प्रतिमानों का अमूर्तन नहीं | ‘दृश्य-चित्रों’ में
भटकती फिर निकलती ‘ध्वनि-चित्र’ की अनुगूंजें ‘अँधेरे में’ कविता को बहुत ताकतवर
बनाती हैं | इसीलिए मैं बार-बार ‘अँधेरे में’ कविता को एक ‘उपन्यास’ की तरह पढता
हूँ, बार-बार | एक ऐसा उपन्यास जो ऐतिहासिक-सामजिक-राजनीतिक शक्तियों के नियति और
नीति के कुचक्रों में फंसे मनुष्य की अंतर-बाह्य संघर्ष और गतिशीलता का अनेकवाची
पाठ है | ‘दर्दनाक रोमान’ | अपूरित ... |
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पक्षधर
के हर अंक में हम एक लंबी कविता देते हैं | इस अंक में हमारे समय के अत्यंत सजग और
संवेदनशील कवि अनुज लुगुन की एक लंबी कविता जा रही है | हिन्दी कविता में अब तक की
सबसे लंबी कविता | ‘अँधेरे में’ से भी लंबी |
यह कविता अनुज लुगुन का घर भी है समाज भी है और देश भी |
००००००००
पक्षधर
की ओर से नंद चतुर्वेदी, विद्याधर शुक्ल, कृष्णदत्त पालीवाल, रजनी कोठारी, गोविन्द
पानसारे, तुलसी राम, आर. के लक्ष्मण, जितेन्द्र रघुवंशी, लोठार लुत्से, विजयमोहन
सिंह, कैलाश वाजपेयी और टामस ट्रांस्टोमर को विनम्र श्रद्धांजलि |
विनोद तिवारी