अखान
– बखान
भारतीय संस्कृति की मूल रहन में देशीवाद का आधुनिक महाकाव्य
(हिंदू धर्म की तथाकथित धारणाओं और प्रदत्त छवियों का बहुस्तरीय, बहुमुखी, बहुवर्णी प्रत्याख्यान)
विनोद
तिवारी
कौन है ?
मैं, मैं हूँ खंडेराव |
ख़ामोशी | फिर मैं पूछता हूँ, तुम
कौन हो ?
मैं तुम ही हूँ खंडेराव |
तनिक बेचैनी से मैं फिर पूछता हूँ,
यानी ? मैंने तुमसे ही पूछा की मैं कौन हूँ ? अपने आप से ही पूछने जैसा है कि मैं
कौन हूँ ? फिर वह कौन है ? मैं ही ?हाँ अब ठीक है तभी हम कुछ बतिया पायेंगे |
खंडेराव मैं, तुम, वह सब एक ही हैं |
इस पर खामोशी | कई सदियों की |
निःशब्द |
और खंडेराव, बस कहानी ही सुनाते जाओ
यार |
राम, राम ये तो बड़ी मुसीबत आ गयी
मुझ जैसे आदमी पर | आजकल सभी के पास कहने के लिए बहुत कुछ होता है, बस कहानी नहीं
होती |
बस, शुरू होती है संस्कृति और
पुरातत्व के अध्येता, खानदेसी, मोरगाँव के वारकरी पंथी हिन्दू
पाटील श्री खंडेराव विट्ठल द्वारा कही कहानी
‘हिंदू : जगण्याची समृद्ध अडगळ’ (हिंदू : जीने का समृद्ध कबाड़) | एक वृहद् आख्यान,
जिसमें मैं, तुम और वह का कोई अध्यात्मिक गूढ़ार्थ पा लेने की
दार्शनिक महत्वाकांक्षा नहीं है वरन ‘भारतीय समाज की जातीय सांस्कृतिक अधिरचना’ को
खोजने और उसी में से ‘मैं’ और ‘तुम’, ‘वह’ और ‘अन्य’ की मूल संरचना को खोजने समझने
की एक जदोजहद | इसीलिए यह उपन्यास “न गौरव के किसी जड़ और आत्ममुग्ध आख्यान का
परिपोषण करता है न ‘अपने’ के नाम पर संस्कृति की रगों में रेंगती उन दीमकों का
तुष्टिकरण, जिन्होंने ‘भारतवर्ष’ को भीतर से खोखला किया है | यह उस विराट इकाई को
समग्रता में देखते हुए चलता है जिसे भारतीय संस्कृति कहते हैं |”[1]
भारतीय उपन्यासकारों में भालचंद्र
नेमाड़े का स्थान एक यथार्थवादी और विश्व-सजग कथाकार के रूप आता है | महज 25 साल की
आयु में ‘कोसला’ (1963) जैसा महत्वपूर्ण उपन्यास लिखकर नेमाड़े ने मराठी उपन्यास की
रूमानी और सौंदर्यवादी संरचना को तोड़ दिया | उसके बाद ‘चांगदेव चतुष्टय’ के तहत
लगातार चार उपन्यास- ‘बिढार’ ‘हूल’ ‘जरिला’ और ‘झूल’ लिखकर मराठी उपन्यास की दिशा
ही बदल दी और देसीवाद का एक नया यथार्थ प्रस्तुत किया | नेमाड़े उपनिवेशवादी
आधुनिकता और फैशन के बहुत बड़े क्रिटिक हैं | वे देशीवाद
(nativism) के हिमायती हैं | इसीलिए, वे औपनिवेशिक इतिहासवाद की,
ओरिएण्टल लेखन व चिंतन की, अंग्रेजियत और उसकी गुलामी की भरपूर आलोचना करते हैं |
भारत में कुछेक लेखकों-रचनाकारों ने जिस जिद के साथ अपना लेखन शुरू किया कि वे
अंगरेजी में न लिख कर अपनी मातृभाषा में रचेंगे-लिखेंगे, भालचन्द्र नेमाड़े उनमें
से एक हैं | भारतीयता के सम्बन्ध में वे, वी.एस. नायपाल और सलमान रुश्दी के
दृष्टिकोणों की आलोचना करते हैं | उनका कहना है कि, “ ये दोनों (रुश्दी और नायपाल)
पश्चिम के बिचौलिए (panders) हैं |[2] नेमाड़े
किसी भी तरह के सार्वभौमवाद के विरोधी हैं | वे, उस साम्राज्यवादी सोच और अवधारणा
के विरोधी हैं जिसमें स्थानीयता, देशजता, उसकी बहुविध पारम्परिक रहन, सामाजिक-सांकृतिक
अस्मिता, भाषिक पहचान सबकुछ को मिटाकर एक तरह की सांस्कृतिक-छवि निर्मित की जाय |
एक ही ढर्रे के, एक ही तरह के सांचे में सबकुछ को ढाल दिया जाय | यही कारण है कि,
वे इस उपन्यास में जहाँ एक ओर औपनिवेशिक विकास और आधुनिकता की आलोचना करते हैं,
खिल्ली उड़ाते हैं वहीं दूसरी ओर हिन्दू धर्म की ‘हिन्दुत्ववादी’ संरचना और वर्चस्व
को भी नकारते हैं | वे हिन्दू धर्म की ‘हिन्दुत्व’ वाली अवधारणा, उसके मुस्लिम-विरोधी
रेटारिक, शुद्धतावादी-दृष्टिकोण, देववाणी संस्कृत के अभिजनवादी-ब्राह्मणवादी
वर्चस्व और उसके राजनीतिक-धार्मिकीकरण की उपन्यास में जम कर आलोचना करते हैं |
उनकी स्पष्ट मान्यता है कि, ब्राह्मणवाद और उपनिवेशवाद इन दोनों ने मिलकर इस देश
को जितना खोखला, जर्जर और दयनीय बनाया उतना किसी और ने नहीं | यह सवाल उठाते हैं
कि, ये सारी चीजें कब हिन्दू धर्म का हिस्सा बनीं ? किस इतिहास के प्रभाव में आकर
हिन्दू धर्म क्रिया-प्रतिक्रिया के उसूलों पर चलने लगा ? उपन्यास के शुरू में ही
मोहेनजो-दड़ो के एक कैम्प में मातृसत्ताक सिन्धु-सभ्यता की एक वृद्धा से सपने में खंडेराव
की बातचीत चल रही है | उस बातचीत के बाद खंडेराव अब तक के उपनिवेशवादी ओरिएण्टल
पुरातत्व और इतिहास की स्थापनाओं और धारणाओं को ख़ारिज करता है | वह भृगुओं को,
परशुराम को आक्रान्ता आर्यों के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत करता है जिसे
इक्ष्वाकुकुलीन मुंडावंशीय काले राम ने पराजित किया था | सपने में ही उसे वैदिक
ऋषि कुलों का एक बड़ा कुपित दल उस की और आते हुए दिखाई देता है | खलबली मच गयी है –
“ कौन है ये विट्ठल ? द्रविण, मुंडा, कौन है ये अकिंचन शिश्नपूजक मूरदेव, जो
इतिहास को पलटना चाहता है ? वृत्त से गर्भिणी हुए जननी से जन्मा ? कुरु या पांचाल
? यदु या मानव या तुर्वश ? क्या ब्राह्मण मुक्त हिन्दू धर्म कभी संभव है ? इस
आर्याव्रत में हर युग में ब्राह्मण ही राज्य करेंगे | ब्राह्मण-विरोधी बौद्ध,
इसाई, मुसलमान, महानुभाव, वारकरी, कम्युनिस्ट सोशलिस्ट, कैपिटलिस्ट, फासिस्ट- सभी
धर्मों का नेतृत्व ब्राहमण ही करेंगे | इधर सिन्धु की ओर से खदेड़ेंगे तो तो
परशुराम का यह लेहंड़ा समुद्र मार्ग से कोंकण में घुसकर राज्य करेगा अटक तक आएगा |” (p.17)
उपन्यास के नायक खंडेराव
विट्ठल की इतिहास और पुरातत्व की समझ और दृष्टि इस धारणा पर टिकी है कि,
‘भारतीयता’ और ‘हिंदू धर्म’ की जो प्रदत्त छवियाँ हैं वह उसकी मूलगामी प्रकृति और
व्यवहार के विरुद्ध हैं | नेमाड़े, इस उपन्यास में इसी मूलगामी प्रकृति और व्यवहार
को खोजने और पाने का आख्यान रचते हैं | इस रचना में वे मार्क्सवादी इतिहासकार
डी.डी. कोशाम्बी की लाईन पर चलते हैं | खंडेराव डेक्कन कॉलेज, पुणे में अपने शोध
का विषय बताता है – “पुरातत्व में संवेदनाओं का स्थान” | उसके निर्देशक बनने वाले
प्रो. संखालिया भड़क उठाते हैं, यह भी कोई विषय है ? तुम्हारा दिमाग तो नहीं फिर
गया है | ‘‘संवेदना जैसे ललित कवि-कल्पित विषय का पुरातत्व में कोई स्थान नहीं है
|’’ (p. 24) तर्क यह कि, साहित्य और इतिहास में तो इस तरह के कपोल-कल्पित गप्प चल
जाते हैं, लेकिन; ‘‘पुरातत्व केवल भौतिक संस्कृति की ही खोज करता है और वह भी
तात्कालिक पुनर्रचना करने के लिए |” (p. वही) पर, इस विषय पर खंडेराव और संखालिया
सर के बीच दो-तीन घंटे की लंबी बहस होती है | “सर, फिर सम्बंधित काल की संवेदनाएं
कहाँ जाती हैं ? लिपि, घरों की रचना, सड़कों की रचना, नगर रचना, परकोटा, मुद्रा,
चित्र, मूर्ति इन सभी बातों के पीछे क्या सचमुच कोई संवेदना नहीं होती है ? और यदि
होती है तो उनकी खोज को हमारे कार्यक्षेत्र में शामिल क्यों न किया जाय ?” (वही) इस बहस में खंडेराव जिस
ढंग से तर्कों और आधारों को प्रस्तुत करता है वह निश्चित ही इतिहास और पुरातत्व की
उस ओरिएण्टल समझ को तार-तार कर देता है जिसमें सामजिक-सांस्कृतिक संरचनाओं में
विभिन्न जातियों के रहन-सहन, आचार-विचार, अभिव्यक्तियों, संवेदनाओं आदि का कोई
महत्व नहीं | उपन्यास की एक यूरोपियन पात्र, इतिहास और पुरात्तव की शोध-छात्र,
संस्कृति और इतिहास के पाश्चात्य पंडित प्रो. ए. एल. बाशम की शिष्या और खंडेराव की
दोस्त मंडी, खंडेराव के समर्थन में कहती है – “सर, रूसी आर्कियोलॉजिस्ट एक्सटर्नल
आर्कियोलॉजी की यह भी एक पद्धति मानते हैं |” (p. 25). वह स्लाव लोगों का उदहारण
पेश कर इस पर जोर देती है कि ध्वस्त सभ्यता का पुरातात्विक अध्ययन केवल उपलब्ध
कंकालों, मुद्राओं, भांडों आदि को वैज्ञानिक और बौद्धिक आकलन की परिधि में लाकर ही
नहीं होता बल्कि उसका एक पक्ष उस स्थल और काल की जीवनगत-संवेदनाओं में भी होता है
| खंडेराव, मंडी के समर्थन के बाद अपनी बात को और मजबूती से रखने के लिए अपने ही
गाँव के बगल के एक गाँव हरिपुरा का उदहारण प्रस्तुत करता है जो पिंडारियों के
आक्रमण के कारण तहस-नहस हो गया | वह अंत में यह निष्कर्ष देता है कि, “अब तो
मनोविज्ञान भी यह कहने लगा है कि, व्यक्तिगत संवेदनाएं सामजिक होती हैं ऐतिहासिक
होती हैं, और तो और वंशीय भी होती हैं |” (वही). खंडेराव की इस पूरी बहस का जोर इस
बात पर है कि, सिन्धु-सभ्यता का विनाश प्राकृतिक आपदा या किसी महामारी के कारण
नहीं हुआ वरन बाहरी आक्रमण के फलस्वरूप ही हुआ | दरअसल, यह उपन्यास संवेदनहीन,
प्राणहीन, ठस्स, आंकड़ों, प्रमाणों, तर्कों, निष्कर्षों के सामानांतर जातीय-जीवन की
बहुविध सांस्कृतिक स्तरीयता को विस्तार से प्रस्तुत करते हुए स्थापित और रूढ़ हो
चुकी उन मान्यताओं और धारणाओं को खिलाफ एक नयी पुनर्रचना करता है | प्रचलित आख्यान
का पुनराख्यान | राष्ट्रवादी और अभिजात इतिहास और पाठ का पुनर्पाठ | इसीलिए एक ही
धर्म के, एक ही वर्ग के, एक ही आस्था और विश्वास के, एक ही जाति और रहन के, जो
विविध और बहुस्तरीय लक्षण हैं उनको समझने और रचने की जो बारीकी इस उपन्यास में
बरती गयी है उससे उपन्यास अपने दृष्टिकोण को पूरी तरह रख पाने में सफल हुआ है | कृषि
और श्रम-संस्कृति में स्त्रियों की क्या सामाजिकी थी ? दलितों की क्या स्थिति थी ?
हिन्दू धर्म कब श्रम की महत्ता को छोड़कर परोपजीवी निरर्थक ब्राह्मणवादी संरचना का
आखेट बना ? सामाजिक निर्माण और विकास में सभ्यता के नाम पर श्रम-संस्कृति की
केन्द्रीयता को किस तरह तथाकथित आधुनिक समाजों ने नकार कर एक भोगवादी नकली और
खोखली सभ्यता और संस्कृति का विकास किया ? इन सारे प्रश्नों के उत्तर 6 खण्डों के
इस वृहद् उपन्यास में, नेमाड़े अपनी जातीय-चेतना और स्मृति के बल पर उनकी जड़ों में
पैठकर ढूँढने-कुरेदने की कोशिश करते हैं | इसकी, आधारभूमि खंडेराव से एक शोध-आलेख
प्रस्तुत करा कर नेमाड़े पहले ही खंड में तैयार कर देते हैं |
मोहेनजो- दड़ो की खुदाई के लिए
यूनेस्को ‘यूनेस्को मोहेनजो-दड़ो 1963’ नाम से एक प्रोजेक्ट तैयार करता है |
कुच्छ विदेशी और कुछ भारतीय पुरातातत्वविदों और अध्येताओं के साथ मोहेनजो-दड़ो में
खुदाई का कैम्प लगता है | इसी प्रोजेक्ट के लिए खंडेराव द्वारा तैयार किये
गए शोध-आलेख को प्रस्तुत करने के लिए कहा जाता है | वह पूरी तैयारी के साथ आया है |
मंच पर सबसे पहले वह सप्त-सैन्धव प्रदेश का एक मानचित्र टांग देता है | फिर
प्रोजेक्टर चला कर वह नष्ट हुए करीब 150 नगरों के स्लाइड दिखाते हुए अपना लेख
प्रस्तुत करता है – “ हड़प्पा, पिलाक, मेहेरगढ़, कुल्ली, अमरी झोब, नाल कान्हूदड़ो,
झुकर, बैक्ट्रिया की शोर्तुगई, दासली, लोथल – मित्रो, उझबेकिस्तान से कच्छ तक
की इन उजड़ी महानगरीय संस्कृतियों से हम
क्या सबक लें ? जब से हमारी सिन्धु संस्कृति विलुप्त हुयी है, इस उपमहाद्वीप में
और संसार में अन्य स्थानों पर भी, भाषा सार्वभौम बनती गयी है | यह भी सिद्ध नहीं
होताकि मंत्रोच्चार के बिना हमारा जन्म हुआ है और भाषिक मंत्रो के बिना विवाह भी
सामाजिक संस्था नहीं बनती है | और तो और अंतिम संस्कार के मन्त्र बुदबुदाए बिना हम
भूत-प्रेत ही बनाने वाले होते हैं | इस प्रकार, श्रम को केंद्र में रखकर प्राकृतिक
फसलों द्वारा पृथ्वी की शान बढ़ाने वाली आत्ममग्न स्वायत्त कृषि-संस्कृति धीरे-धीरे
परावलम्बी बनती गयी | इसके विपरीत | इसके विपरीत भाषा को केंद्र में रखकर शोषण
करने वाली नगरीय मुफ्तखोर, औद्योगिक, व्यापारीय, कोयला- पेट्रोलादि शोषण संस्कृति
की – जमीन में धंसी जड़ें नष्ट – इलेक्ट्रानिक – वैश्वीकरण – जीने की सामर्थ्य
...|” क्या बकवास है ? अचानक शोरगुल | कौन है ये ? कहाँ से आया है ? (p. 8) दरअसल,
विद्वत समाज में यह शोरगुल, यह खलबली इसलिए कि, अपने आलेख में खंडेराव अब तक की
ओरिएण्टल थीसिस को चुनौती देता है |
आधुनिकता की तथाकथित विकसित और
प्रगत पाश्चात्य धारणा और विचार के विरुद्ध नेमाड़े स्थानीयता और देशजता की बहुरंगी
सांस्कृतिक विरासत को बनाये बचाए रखने के हिमायती हैं | वे इस उपन्यास में
डार्विनवादी प्रगति की अवधारणा की असहमति में तर्क रखते हैं | ‘यूज़ एंड थ्रो’ वाली आधुनिक पाश्चात्य-सभ्यता
के प्रतिरोध में हिन्दू-धर्म और भारतीयता को; उसकी सामुदायिकता, सहयोगी सहजीविता
और सामाजिकता की प्रकृति में सबकुछ को संजोने और स्मृति में जीने के मूल आचरण के
साथ प्रस्तुत करते हैं | पुरात्तव की शोध-छात्र, संस्कृति और इतिहास के पाश्चात्य
पंडित ए. एल. बाशम की शिष्या मंडी अंडमान-निकोबार की जनजातियों से लेकर मराठवाड़ा
के मोरगाँव तक के लोगों के बीच बिताए अपने अनुभवों को खंडेराव के साथ साझा करते
हुए खुद से ही जैसे प्रश्न करती है – “ये
देहात ऐसे ही निष्पाप, सादगी और उदारमना रहेंगे ?” फिर मंडी के रूप में जैसे
नेमाड़े खुद ही जवाब देते हैं “रहेंगे, जरूर रहेंगे | हिंदू लोग कुछ भी फेंक नहीं
देते | सिन्धु काल से लेकर सारा कबाड़ हमने तहखाने में ठूँस-ठूँस कर संभाल रखा है |
सबकुछ वहीं कहीं अँधेरे में रखा होता है | भले ही वह दिखाई न दे, गुम हो जाय
स्मृति से भी चला जाय कुछ नहीं बिगड़ेगा | कभी न कभी मिल ही जाएगा | सिन्धु धर्म
है, बैध धर्म है, वैदिक ब्राह्मण भी है | पीपल के निचे का बरुआ है | दिवाली के
पटेर के गट्ठर हैं | सेहरे हैं और लाभानों के नाम – हरखू, शरयू नदी का अफगान-पश्तू
नाम है | खरखोती सरस्वती का पश्तू रूप | इतने से मोरगाँव में 8 धर्म, सम्प्रदाय और
22 जातियाँ आज भी हैं | जीवन भर शाकाहार, अहिंसा – एक जीवन पद्धति है | बाहर का
स्पर्श टालने के लिए घोंघे जैसे स्वयं के शरीर को ही अपना घर क्यों न बनाएँ ? कैसे
मानें कि, अंदमानी, निकोबारी, भील, गोंड, लद्दाखी, तिब्बती ये हज़ारों जन-जातियां
पिछड़ी हुयी हैं ? किसने तय किया ? जबतक हिकारत करने वाला नहीं होता तबतक हीनता भी
नहीं होती | यह किसने और किस आधार पर तय किया कि शोषण करने वाले ही प्रगत हैं ?
(p. 29). इन पंक्तियों को पढ़ते हुए एकबारगी आपको रेणु के ‘मैला आँचल’ की याद आ सकती है | उपन्यास के
पांचवें खंड में मंडी अंडमान-निकोबार की ‘औंग जनजाति’ के बीच बिताये अपने दिनों की
स्मृति साझा करते हुए यह बताती है कि, कैसे पूरी तरह निर्वस्त्र रहने वाले लोगों
के बीच वह भी पूरी तरह नंगी होकर रही | “ अरे उनके बच्चे यहाँ-वहाँ उंगली लगा कर
यह देखते कि मैंने कहीं अन्दर काली चमड़ी तो नहीं छिपाई है, फिर सभी हँसते |” (p.
488). ऐसे ही एक प्रसंग का उल्लेख मंडी करती है,
जो स्त्री-पुरुष के रिश्तों और काम-वर्जनाओं के नियम क़ानून को चिंदी-चिंदी
हवा में उड़ा देता है –“ एक द्वीप पर एक छोटा सा बच्चा एक जवान आदमी से हमेशा चिपका
रहता था | मैंने उन्हीं की भाषा में पूछा, यह कौन है ? निकोबारी बोला, मेरी बीवी
का लड़का |... मतलब ? तेरा नहीं ?... नहीं मेरी बीवी का |... ऐसा कैसे ? इस पर वह
झल्लाकर बोला, तुम औरतों को समझ में आना चाहिए, मेरी बीवी को मेरे आलावा क्या किसी
दूसरे से बच्चा नहीं हो सकता ?... आश्चर्य | अरे, इंग्लैण्ड में कोई ऐसा पति सोच
भी नहीं सकता |” (p. 488-89).
हिन्दू धर्म में स्त्रियों के
लिए अलग-अलग विधि-विधान, नियम कायदे, अधिकार और वर्जनाओं के भिन्न-भिन्न वर्जन (version) मिलते हैं | इनके अनुसार उनकी कोटियाँ, उनका वर्ग, इनकी पहचान निर्धारित
होती है | भालचंद्र नेमाड़े को शोषण के इन बहुस्तरीय सामाजिक-सांस्कृतिक परतों का
जो ज्ञान है वह केवल दिलचस्पी नहीं पैदा करता वरन् उस पूरी सांस्कृतिक-संरचना की
उनकी समझ को दर्शाता है जो समाज में भेद-विभेद को सदियों से कायम और बरकरार रखे
हुए हैं – “बेटी, बहू, देवरानी, माँ, दादी, परदादी, सास, ददिया सास, बुआ, ननद,
भौजाई, जचगी के लिए मायके आयी हुयी स्त्री, ससुराल छोड़कर मायके में ही आकर रहने
वाली चिंधु बुआ सरीखी स्त्री, ब्याह कर लाने के बाद छोड़ डी गयी स्त्री, केवल लडको
की माँ, केवल लड़कियों की माँ, सौतेले बच्चों के साथ रहने वाली पाटवाली
(पुनर्विवाहित) स्त्री, बाँझ स्त्री, जवानी में विधवा हुयी बूढ़ी स्त्री, विधवा
माँ, संतानहीन विधवा, सौतन, सौतेली माँ, कुलटा, रखैल, दासी | एक विशाल स्त्री
विश्व |” (p. 233) इस तरह के ब्यौरों से लग सकता है कि उपन्यासकार ने अपनी
बहुज्ञता का रौब गांठने के लिए इन्हें शामिल किया है | ऊपरी तौर पर इससे एक बार
सहमत हुआ जा सकता है; परन्तु सांस्कृतिक और सामजिक निर्माण की प्रक्रिया में रखकर
इस तरह के वर्णनों को आप समझना शुरू करेंगे तो ये ब्यौरे मात्र सूचनात्मक (informative)
न होकर उस आचरण-शास्त्र (deontology) के महत्व
के होंगे जिन्हें समाजविज्ञानी सामाजिक-व्यवस्था (social-order) और सामाजिक-निर्मिति (social-construct) की
विश्लेषण-प्रक्रिया में प्रयुक्त करते हैं | इस उपन्यास में, नेमाड़े इस तरह के
बहुविध सामजिक-सांस्कृतिक विन्यासों और परतों को बहुत विस्तृत और और गहरी समझ के साथ ‘भारतीयता’ की मूल रहन और
स्वभाव के विपरीत विकसित और धीरे-धीरे वैध बना दी जाने वाली ब्राह्मणवादी हिन्दू धारणाओं,
मान्यताओं और रूढ़ियों का प्रतिरोधी पाठ तैयार करते हैं | ‘‘हिन्दू’ ! बहुवचन
भूतकाल ! पाँच हज़ार सालों की धूल !” (p. 15).
‘हिंदू’ एक ऐसा आख्यान है
जिसमें ‘नॉन आर्यन’ और ‘प्री-आर्यन’ जीवन-व्यवहारों और सामाजिक-सांकृतिक रहन को
गहराई तक जानने समझने की कोशिश दिखती है | अपनी मूल समग्रता में भारतीयता को देखने,
उसके हजारों सामाजिक-सांस्कृतिक रीतियों-व्यवहारों को समझने के कारण यह उपन्यास एक
ऐसा आख्यान बन जाता है जो उन सभी तरह के आधुनिक, उत्तर-आधुनिक, औपनिवेशिक, उत्तर-औपनिवेशिक
चालाकियों और छद्मों को तोड़ता है | इतिहास का अंत, आख्यान का अंत, स्मृति का अंत,
लोकेल को ग्लोबल बनाने की चालाक बाजारू कोशिशें इन सबका प्रत्याख्यान रचता है यह उपन्यास
| भूमंडलीय पूंजीवाद में आख्यान, स्मृति, जातीयता इन सबको धीरे-धीरे विस्मृत कर
ख़त्म कर देने की जो योजना है ऐसे उपन्यास उनकी इस योजना के विरुद्ध एक प्रतिरोधी रचनात्मक
हथियार की तरह होते हैं | कोलंबिया यूनिवर्सिटी में मानविकी के प्रोफेसर कार्ल
क्रोएबर ने अपनी पुस्तक – ‘ Retailing/Rereading :
The fate of story tailing in modern
times’ में ‘आख्यान’ विशेषता, उसकी प्रकृति और उसके सामाजिक महत्व
पर बहुत ही विस्तार से विचार किया है | इस पुस्तक में क्रोयेबर का इस बात पर विशेष
जोर है कि, आख्यान एक सामजिक अंतःक्रिया है | वह कभी भी शुद्ध कला नहीं हो सकता |
वे लिखते हैं – “आख्यान अपनी प्रकृति और स्वाभाव में अक्सर स्थापित सत्ता को चुनौती
देता है | इसलिए, स्थापित सत्ताएं आख्यान की इस स्वतंत्रता को कम या अपने हित में
नियंत्रित करने के प्रयास करती हैं | ‘शुद्ध कला’ की बात या मांग करना भी ऐसा ही
एक प्रयास है | लेकिन आख्यान कभी ‘शुद्ध-कला’ नहीं हो सकता, क्योंकि, कहानी कहना
एक सामाजिक कार्यवाई है, जिसमें कहने वाले के साथ-साथ सुनने वाले (और पढने वाले)
भी सक्रिय हिस्सेदारी करते हैं | इस अर्थ में आख्यान अन्तर्निहित रूप से अशुद्ध
होता है और परस्परता उसकी जरूरत होती है | इसलिए वह दैनंदिन जीवन के भारी विभ्रमों
में उलझे हुए विषयों से जी नहीं चुराता और उसमें ‘लोकप्रिय’ साहित्य के फलने-फूलने
की प्रवृत्ति होती है | इसलिए, अपने कला-कौशल पर इतराते हुए भी वह आसानी से वैसे
शुद्ध सौन्दर्यशास्त्रीय वास्तु नहीं बनता जैसी बहुत से आधुनिकतावादी उसे बनाना
चाहते हैं |”[3]
सामजिक-अंतःक्रिया ‘हिन्दू’ उपन्यास
की रचनात्मक-धारणा में अन्तर्निहित है, उसके समूचे कथानक में विन्यस्त है | यह
उपन्यास एकवाचिकता का उपन्यास नहीं है बल्कि बहुवाचिकता और बहुवचनात्मकता इसकी
विशेषता है | कई-कए कथा धाराएँ उपन्यासकार के अनुभव जगत से निःसृत हुयी हैं |
भारतीयता, हिन्दू कौन, स्त्री की दुरावस्था, दलित समाजों की अवस्था आदि कई
कथाएँ-उपकथाएँ एक ही कथानक में साथ- साथ चलती हैं | वस्तुतः उपन्यास, मात्र
स्थितियों-परिस्थितियों, भावों-मनोभावों, घातों-प्रतिघातों का संयोजन और कलात्मक
निर्वाह भर नहीं है जो किसी एकरेखीय संभावना में निष्पन्न हो | उपन्यास
ऐतिहासिक-सामाजिक शक्तियों के संघर्ष और गतिशीलता में से निःसृत मनुष्य की नियति
का अनेकवाची साहित्य-रूप है | ऐसे में उपन्यास का अपना एक ‘देश’ होता है और एक
‘काल’ होता है | इस ‘देश- काल’ के नागरिकों (चरित्रों) की रचना उपन्यासकार सामाजिक
और ऐतिहासिक संदर्भों और जरूरतों के अनुकूल करता है | दरअसल, उपन्यास अपनी
आख्यानात्मकता में समयातीत होते हुए भी कालातीत नहीं होता उसकी दृष्टि समकालीनता
की दृष्टि होगी | ‘समकालीनता’ का यह बोध ही उस ‘इतिहास-बोध’ का विवेक है जिसे
मनुष्य अपने ‘सामाजिक’ होने की प्रक्रिया में प्राप्त करता है | मनुष्य किसी न
किसी ‘देश-काल’ में अवस्थित होता है, ‘इतिहास-चेतना’ के आयामों में ही वह परिभाषित
और व्याख्यायित होता है | इसलिए, जिस तरह मनुष्य ‘देश-काल’ से विच्छिन नहीं हो
सकता उसी तरह उपन्यास भी ‘देश-काल’ शून्य नहीं हो सकता | उपन्यासकार, कथानक के बीच
ही इस ‘देश-काल’ की व्याख्या के लिए यथाप्रसंग अवसर उपस्थित कर ही लेता है | इस
उपन्यास में ‘दलित समाज ’ का जो चित्रण है वह इसी तरह के देश-काल की व्याख्या के
प्रसंग में आया है – “14 अप्रैल सन् 1956 को दशहरे के दिन नागपुर में इकट्ठे 15
लाख लोग बाबा साहेब आंबेडकर के प्रभाव में बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेते हैं |
मोरागाँव में भी महार नेता लहू मेघे के नेतृत्व में केवल चार घरों को छोड़कर सभी ने
बौध धर्म स्वीकार कर लिया | “तुम बौद्ध
धर्म का कुछ पढ़ते हो ? ...बौद्ध धर्म में ऐसा कुछ नहीं होता | पूरण, ईश्वर, आत्मा,
स्वर्ग, नरक जैसी अंध श्रद्धाएँ हम नहीं मानते |... बढ़िया | लेकिन बौद्ध धर्म में
तो हिंदू धर्म से भी ज्यादा साहित्य है |... अच्छा ?... हाँ, पाली में |... यहाँ
कौन जानता है पाली या फाली | शोषण करने वाला, इंसानियत से बर्ताव न करने वाला
हिन्दू धर्म छूट गया, बहुत है यार |”...जय भीम | (p. 140) इस पर यह आक्षेप और तर्क
कि बाबासाहेब आंबेडकर ने हिन्दू समाज को तोड़ दिया | खंडेराव मन ही मन इस पर सोचता
है, हिन्दू धर्म हमेशा से समन्वय की, जोड़ने की बात करता है | पर क्या यह समन्वय उन
असंख्य जातियों और अनेकों धर्मों के लोगों के आत्मसम्मान और जातीय अधिकारों के
साथ, उनके जीवन और धर्म की जरूरतों के हिसाब से हुआ या है ? अगर ऐसा होता तो इसकी
जरूरत ही कहाँ पड़ती – “जोड़ने की चाहत रखने वाले महात्मा गांधी ही इस फटे समाज को
कहाँ जोड़ पाए |... हिन्दू समाज को तोड़ने वाले बाबासाहेब आंबेडकर ही अछूतों को आज़ाद
करते हैं | जोड़ने वाले तो बस सब्र कि बात किया करते हैं | तोड़ने वाले परिवर्तन कर
के दिखाते हैं | दीन-दलितों को शूद्र-वंचितों को आत्मसम्मान देते हैं | खंडेराव
तुम इस पाखंडी एकता के पक्ष में कभी खड़े मत होना | हमेशा तोड़ने वालों के पक्ष में
खड़े रहना |” (p.143) ऐसे उपन्यासों में प्रायः कथा तो होती है पर कथानक क्षीण हो
जाता है | नेमाड़े की खासियत यह है कि, वे कई कथाओं-उपकथाओं के साथ कथानक से विचलित
नहीं होते, लक्ष्य से दिग्भ्रमित नहीं होते | कथावस्तु की सोद्देश्यता को निरंतर
बनाये रखते हैं | यह उपन्यास अपनी अनेक-वाचिकता के साथ जिस एक कथानक को बनाये-बचाए
रखता है वह है भारतीय समाज की अनेकवाची बहुवचनात्मक जातीय सांस्कृतिक रचना और अधिरचना
को बरकरार रखते हुए उसकी पहचान को कायम रखा जाय | यदि, उपन्यासकार का अनुभव-जगत
समृद्ध है और भाव-बुद्धि समकाल के प्रति सजग और संवेदी है तो कथानक के क्षीण होने,
टूट जाने या बिखर जाने की समस्या नहीं रहती | इस सम्बन्ध में नित्यानद तिवारी का
यह कथन देखना चाहिए – “कथानक कहानी का सिर्फ ढांचा नहीं है, वह लेखक के अनुभव में
वस्तुगत वास्तविकता की अनिवार्य आंच और निशान का प्रमाण होता है और बिना सूक्ष्म
भाषिक और तकनीकी योग्यता के भी सच्चे साहित्य की शर्तें पूरी कर सकता है | कई बार
ऐसा होता है कि, शिल्प, तकनीकी और भाषा की योग्यता से प्रभाव को घनीभूत किया जा
सकता है, असलियत नहीं पैदा की जा सकती | कथानक वास्तविकता का साक्षात्कार है लेखक
की सृष्टि नहीं |”[4]
दरअसल, उपन्यासकार की चेतना अपने अनुभव और विवेक से अपने औपन्यासिक चरित्रों और
कथावस्तुओं का निर्माण करती है और उन्हीं में अपना देश-काल ढूँढती है | उन्हें पा
लेना ही उपन्यासकार की कलात्मक उपलब्धि है |
उपन्यास में जो सूचनापरक
वर्णनात्मकता है उसे जीवन के खिलंदडेपन के साथ-साथ भाषा-सामाजिकी की दृष्टि से भी देखने
की जरूरत है | उस ‘टेक्स्ट’ के ‘टेक्सचर’ को बहुत ध्यान से पढ़ने की जरूरत है | नेमाड़े
न जाने कहाँ से सामजिक-परतों के इतने बहुरंगी चित्र ले आते हैं जिससे
जीवन-परिस्थितियां अपने वास्तविक प्रामाणिकता के साथ सजीव हो उठती हैं | मराठवाड़ा
की कृषि और श्रम-संस्कृति में एक स्त्री के लिए शुरू होने वाले दिन के इन ब्यौरों
को पढ़ते हुए आप उस वास्तविकता से परिचित होते हैं- “भोर में सास द्वारा निकालकर
रखे पिसान की आवाज से दिन का प्रारम्भ इधर पति नहीं छोड़ता और उधर सुबह के कामों की
कतार – जांता, मथानी, मूसल, झाडू, राख, गोबर पोतना, चूल्हा, ओखली, कलेवा की रोटी,
खेत पर ले जाने का दोपहर का खाना, नहाना-धोना, बर्तन, गाय,-भैंस, जलावन, अधूरी
नींद से आयी सुस्ती, संभलते हुए पानी भरना, दूध गर्म करना, ज़माना, बच्चों का
पिनपिनाना, सुबह से एक के बाद एक भीख मांगने आने वाले – वासुदेव, गोंधाली, नंदीबैल
वाले, भडंग वाले, तिरमल, बैरागी, नाथ, मलंग, गोसाईं, सन्यासी, लंगड़े-लूले, भविष्य
बताने वाले जोशी, पांचांग बताने वाले ब्राहमण, साधु-जोगी वगैरह-वगैरह | बड़े कुर्मी का गृहस्थी मतलब इन
सबका अपना घर | फिर शाम को पौनी, भिखारी, भैंस के लिए सानी, गाय का दाना-पानी, फिर
पच्चीस लोगों के लिए खाना पकाना | कहना चाहे जितना सादा – पतीली भर तरकारी और
चंगेरी भर रोटियां ही क्यों न हो फिर भी शरीर को
दिन भर प्रकृति के साथ लोहा लेने की ऊर्जा देने वाला और सालदारों समेत सभी के लिए भर पेट होना ही चाहिए | चंगेरी से
जब अआखिरी रोटी भी जब खाने वाले उठा लेते हैं, तब दुबारा चूल्हे पर तवा डालकर
रोटियां बनाने उठाना ही पड़ता है | दिन भर ये औरतें मानो भरतनाट्यम की अलग-अलग
मुद्राएँ करती रहती हैं | उंगलियाँ, अंगूठे, गर्दन, कंधा, हाथ, कलाई, जंघा, पैर,
कमर – कितनी मुद्राएँ ? हवा में , जमीन से झुककर, उठकर, बैठकर, चूल्हे के आगे भी
डोलना, बेलना, थापना, पकाना, चालना, फटकना,चुनना ... इस आदिम नारी-नृत्य के ताल पर
ही तो सारी कृषि-संस्कृति दस हज़ार सालों से डोलती आ रही है |” (p. 187). इस उद्धरण
में स्मृति के आधार पर एक के बाद एक चीजों, भावों, मुद्राओं आदि का जो वर्णन है वह
क्या केवल सूचनात्मक है ? क्या वह आज की सूचना-क्रांति और उत्तर-उपनिवेशवादी
संरचना को ठेंगा नहीं दिखा रहा ? आंकड़ों, तथ्यों के गुणा-गणित के सामानंतर रोजमर्रा
के जीवन का सहज-जीवंत किन्तु सोच-विचार में डालने वाला वर्णन | इसी
वर्णात्मक-प्रकृति के क्रम में हमें,
उपन्यास में नेमाड़े की वर्नाक्युलर्स के प्रति जो विचार और धारणा है, अंग्रेजी और
अंग्रेजियत की प्रभुता वाली जो साम्राज्यवादी धारणा है उसके विरूद्ध नेमाड़े की दृष्टि को भी देखना चाहिए | वे,
संस्कृतनिष्ठता का त्याग कर रोजमर्रा के बोली-व्यवहार को जगह देते हैं | उपन्यास
में वे जगह-जगह देशज शब्दों के साथ लोकोक्तियों, मुहावरों का प्रयोग करते हैं | स्थानीय
महापुरुषों, कबीर, तुकाराम, नामदेव, ग़ालिब, आदि
को उद्धृत करते हैं | कई पात्रों के नाम बहुत ही चुहल भरे हैं, जैसे – शेखीबघारे
पाटील, डींगमारे देशमुख | अपनी खांटी देशजता और स्थानीयता में चुहलबाजी के समय कई
जगह इस तरह की भाषा भदेस भी हो जाती है परन्तु वह संदर्भ से च्युत होकर नहीं है | उपन्यास
के अंतिम हिस्से छठे खंड में भुसावल स्टेशन से अपने गाँव जाने के लिए खंडेराव बैलगाड़ी
का सफर कर रहा होता है | रास्ते में एक स्कूल के मास्टर जी भी चिरौरी कर गाड़ी में
बैठ जाते हैं | गाड़ी हांकने वाला नवयुवक तिरमक (त्र्यम्बक का बिगड़ा रूप) और गुरुजी
में बातचीत शुरू होती है | गुरुजी पूछते हैं कि तुम पढ़ाई-लिखाई क्यों नहीं करते |
जवाब की भाषा देखिए – “गुर्जी, पढ़ाई में अव्वल था मैं स्कूल में | लेकिन क्या करें
किस्मत ही हमारी ऐसी गांडू – साली ने बैलों का चूतड़ दिखा दिया | हमारा बाप –
पीताजी | दिन-रात शराब पीता था | पट्ठे ने मुझसे पूछे बिना चौथी कक्षा से मेरा नाम
कटा लिया स्कूल से और गोत-बस्ती के भोंग्य बनिए के पास होटल में पकौड़े तलने के लिए
रख दिया, दो रुपये रोज़ पर – उसका शराब का खर्च निकल गया न |” (p.507). अनेकों
जगहों पर पात्र अंगरेजी के शब्दों को तोड़-मरोड़कर उसका स्थानीय अर्थ लगाकर मजा लेते
हैं, हँसी- ठट्ठा करते हैं | ‘ससुरा’ ‘सिसरो’ है, ‘मोटेल’ मोटा होना (मुटल्ला) है
| इसके उलट भी होता है | संस्कृत शब्दों के साथ भी शब्द-क्रीड़ा कर मजा लिया जाता
है | स्वतंत्रता-दिवस के दिन ‘वन्दे मातरम्’ ‘वन-डे मातरम्’ हो जाता है | यह
भाषिक-देसीपन यूँ ही नहीं है एक वैचारिक निर्मिति का हिस्सा बनकर आता है | नेमाड़े
ने इसे हर तरह की साम्रज्यवादी और
रोमानियत के खिलाफ जानबूझकर रचा है |
उपन्यास का ढाँचा ऐसा होता है कि,
इसमें जीवन के सभी प्रकार के जटिल और विस्तृत संबंधों व परिस्थितियों को चित्रित
किया जा सकता है | साहित्यिक विधाओं में देखा जाय तो उपन्यास सामाजिक और ऐतिहासिक
अंतर्विरोधों का सूत्रीकरण करने वाली सबसे सशक्त और कारगर विधा है | उपन्यास ही है
जो, मनुष्य, समाज और ‘व्यक्ति’ के अंतर्द्वंद्वों और अंतर्विरोधों के साथ उसके
आपसी रिश्ते को सम्पूर्णता में पकड़ने और अभिव्यक्त करने का दावा करता है और एक हद
तक अभिव्यक्त भी करता है | यहीं आकर उपन्यास केवल ‘लिटरेरी कंस्ट्रक्ट’ या
साहित्यिक संरचना मात्र नहीं रह जाता वरन एक ‘सोशल कंस्ट्रक्ट’ बन जाता है |
यह उपन्यास खंडेराव के रूप में
भालचंद्र नेमाड़े की एक अंतर्यात्रा है | जो पूरी होकर भी पूरी नहीं होती | ताप्ति
से सिन्धु तक, सिन्धु से ताप्ति तक, मोरगाँव से मोहेनजो-दड़ो तक, मोहेनजो-दड़ो से
मोरगाँव तक की पाँच हज़ार साल की अपनी यात्रा में खंडेराव विट्ठल अतीत से वर्तमान
की, वर्तमान से अतीत की, स्मृति से अनुभव की, अनुभव से स्मृति की, स्वप्न से चेतन
की, चेतन से स्वप्न की, ज्ञान से संवेदन की, संवेदन से ज्ञान के न जाने कितने चक्र
पूरे करता है | पिता की मृत्यु पर लौट कर मोरगांव आता है | क्रिया-कर्म कर के
छूटना चाहता है | पी-एच.डी. पूरी कर ‘उत्क्रांति’ करना चाहता है | पर क्या छूट
पाता है -
मैंने
चाहा था के अन्दोह - ए - वफ़ा से छूटूं,
वो
सितमगर मेरे मरने पे भी राज़ी न हुआ |
(ग़ालिब)
xxxx
संपर्क
: C-4/604 ऑलिव काउंटी, सेक्टर-5, वसुंधरा, गाज़ियाबाद – 201012,
M.
9560236569
[1]
(उपन्यास के आवरण-पीठ से उद्धृत)
[2]
भालचंद्र नेमाड़े को 2014 का भारतीय
ज्ञानपीठ मिलने पर उनके सम्मान में ‘मातृभाषा संवर्धन सभा’ सभा द्वारा मुम्बई में
आयोजित कार्यक्रम में बोलते हुए नेमाड़े ने कहा “ Mr. Rushdie and Mr.
Naipaul, both are pandering to the west.” उनके इस आलोचना पर पलट वार करते हुए सलमान रुश्दी ने ट्विट किया “Grumpy
old… Just take your prize and say thank you nicely. I doubt you’ve even read
the work you attack.
[3]
देखिए, भूमंडलीय यथार्थवाद की पृष्ठभूमि –
रमेश उपाध्याय, शब्दसंधान प्रकाशन, नयी दिल्ली (p. 166).
[4]
आधुनिक साहित्य और इतिहासबोध – नित्यानंद
तिवारी, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, (p. 91-92)