पक्षधर-16
सम्पादकीय
जो सलीब अपनी कीलों से लिखती है
विनोद तिवारी
“मैं अपने आभ्यंतर का आलोचक (Critical Insider) हूँ | अपनी संस्कृति को अपनी ही दृष्टि से
देखना, अनुमान करना हमारे लिए महत्वपूर्ण है| हमारी परम्परा का विकास
इसी कारण हुआ है | वेद की परम्परा आयी | बुद्ध ने इस पर प्रश्न किया | मैं भी उसी परम्परा का हूँ | साहित्य का हूँ, साहित्य में भी बसवण्णा, कनक दास, कुमार व्यास,नवोदय लेखक, नव्य लेखकों की परम्परा का | कालानुक्रम में यही साहित्यिक परंपरा से प्रश्न करते, ढका देते हुए उसका विकास करते हुए
आये हैं |” ( यू. आर. अनंतमूर्ति की पुस्तक ‘किस प्रकार की है यह भारतीयता’ से)
“नारणप्पा के शव-संस्कार का जब प्रश्न उठा तो उसका स्वयं
समाधान करने की कोशिश मैंने नहीं की | मैं परमात्मा पर भरोसा करता रहा;धर्मशास्त्रों के पन्ने उलटता रहा | लेकिन क्या ठीक इसी उद्देश्य से हमने शास्त्रों का निर्माण नहीं किया है ? हमारे द्वारा किये गए निर्णयों के और समूचेसमाज के बीच गहरा सम्बन्ध होता है | अपनी प्रत्येक प्रक्रिया में हम अपनेपूर्वजों, अपने गुरुओं अपने देवी-देवताओं, अपने मानव संगी साथियों को लपेट लेतेहैं | अंतर का संपर्क इसी कारण पैदा होता है | जब मैं चन्द्री के साथ सोया था, तो किसी ऐसे संघर्ष का भान हुआ था ? क्या उस बारे में अपना निर्णय किसी विशेष नाप-तोल के बाद मैंने किया था ?” (‘संस्कार’ उपन्यास में वेदान्त शिरोमणि प्राणेशाचार्य का द्वंद्व)
“सार्वजनिक जीवन
रहना चाहिए | वाच्यार्थ स्पष्ट रहना चाहिए ध्वन्यार्थ भी स्पष्ट रहना चाहिए | लेकिन आज के कई राजनीतिज्ञों में‘शर्म’ जैसी नैतिक भावना
भी नहीं है | राजनीति में हर अच्छा व्यक्ति लगना चाहिए | केवल चुनाव लड़ना ही राजनीति नहीं है | आम लोगों की समस्यायों को हिम्मत से कहना आवशयक बन चुका है |” ( यू.आर. अनंतमूर्ति की पुस्तक ‘किस प्रकार की है यह भारतीयता’ से)