आधुनिकता के बरअक्स स्थानीयता के मानों और अरमानों की अद्भुत कथा
विनोद तिवारी
विनोद कुमार शुक्ल हिन्दी कथा साहित्य
में उपस्थित एक विरल कथाकार हैं । कथा रचना और संरचना को यथार्थवाद या जादुई
यथार्थवाद के शिल्प में ढाले बिना ही यथार्थ को जादुई बना देने की रचनात्मक
प्रतिभा उनके भीतर है । उनके उपन्यास उनकी इस कलात्मक क्षमता और प्रतिभा के प्रमाण
हैं । विनोद कुमार शुक्ल प्रचलित फ़ैशन और बार-बार घिसे जा रहे मुहावरों के वृत्त
से बाहर के रचनाकार हैं । मानव-समाज की प्रत्यक्ष बाह्य-प्रवृत्तियों के मूल कारणों की तलाश वे आंतरिक-वृत्तियों में करते हैं । इस
ख़ोज में वे कई बार वस्तुओं और व्यक्तियों के बारे में अपरीक्षित किन्तु चिर-परिचित
मान्यताओं से भिन्न संसार में चले जाते हैं । यह संसार एक अलग तरह की दृष्टि और
धारणा से अपने को जानने-पहचानने और पाने की माँग रखता है । विनोद कुमार शुक्ल का
कलाकार मन चुपचाप, एकबारगी
इस माँग को मानकर, अब
तक के सभी आवेगों-संवेगों, घातों-प्रतिघातों-संघातों
को तिरोहित कर उसमें अपने को निमग्न कर देता है । बचा रह जाता है एक स्थिर, शांत, जिज्ञासु सूक्ष्म निरीक्षण कर्ता । विनोद
कुमार शुक्ल के उपन्यासों में व्यक्ति चरित्रों के साथ वस्तु-जगत की एक-एक चीज़ों
का जिस तरह से सूक्ष्म निरीक्षण और चित्रण होता है, उससे पता चलता है कि वे प्रकृति और मनुष्य के स्वभाव
और अभिव्यक्ति के कितने कुशल चितेरे हैं । इन चित्रों में लफ़्ज़ों की नहीं बल्कि
लफ़्ज़ों की काया में वास करने वाले रंगों के सहारे मनुष्य
के जिन मनःस्थितियों और तद्जनित सामाजिक अभिव्यक्तियों की उद्भावना वे कर पाते हैं, जिस तरह के दृश्य-बिम्ब वे रचते हैं, वे चित्र और चरित्र, वे
दृश्य-बिम्ब विरल और विलक्षण होते हैं । ‘नौकर की कमीज’ के
संतू बाबू, ‘खिलेगा तो देखेंगे’ के गुरुजी और ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ के रघुबर प्रसाद इसके नायाब
उदाहरण हैं । विनोद कुमार शुक्ल से जब यह पूछा गया कि आपको अपने उपन्यासों में
सबसे अधिक कौन सा उपन्यास पसंद है तो उन्होंने ‘खिलेगा तो देखेंगे’ का नाम लिया - “खिलेगा तो देखेंगे उपन्यास का लिखना अच्छा लगा था, क्यों अच्छा लगा था, मालूम नहीं । मेरे लिखे हुए
पात्र ज़्यादातर मेरे देखे हुए जाने-पहचाने हैं । इसके अलावा जो पात्र हैं, वो वे पात्र हैं जिन्हें देखने
की आशा करता था । मैं अपने लिखे हुए में हर जगह उपस्थित हूँ ।” ‘खिलेगा तो देखेंगे’ में सूरज, चंदा, रेडियो, बिन सुईयों की टिक-टिक करती घड़ी, धाँय बोलते ही चल जाने वाली काठ की बंदूक
और उससे मर जाने वाले लोग, चिड़िया, पीपल का पेड़, रेलगाड़ी, अठन्नी सिक्का आदि वस्तुएँ केवल
वस्तु भर नहीं हैं । अपनी प्रतीकात्मकता में वे एक पूरी सामाजिक-सांस्कृतिक और
आर्थिक संरचना के अर्थगर्भी चरित्र हैं । जीते-जागते चरित्रों की तरह, उनके सहजीवी चरित्र । इन
चरित्रों के ज़रिए आप मानव जीवन की उन अनेक सिम्तों को अनुभव कर सकते हैं जो किसी
भी व्यक्ति और समाज के जीवन जीने की प्रक्रिया सुख-दुःख, उमंग-उत्साह, आशा-निराशा, संघर्ष-उपलब्धि आदि की
अभिव्यक्ति होते हैं ।
विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों में संरचित जीवन-जगत भले ही
प्रत्यक्ष-यथार्थ नहीं प्रतीत होता हो, पर उसमें जो अदृश्य जीवन है, वह
स्वप्न नहीं यथार्थ के अनेक स्तरों वाला जीवन है । यही उनकी कथा-संवेदना और भाषा
की उपलब्धि है । अपनी इसी भाषा-संवेदना के नाते वे हिन्दी कथा साहित्य में अलग से
पहचाने जाने वाले कथाकार हैं । वे जब यह कहते हैं कि ‘उपन्यास लिखते समय मैं आसानी से कविता
लिख पाता हूँ । उपन्यास लिखना उपन्यास के साथ-साथ कविता लिखना भी है’ तो वे उस चमकीले, मोहक और दर्दनाक जीवन को, उसकी समग्रता में पकड़ने, जीने और व्यक्त करने की
सृजनात्मक क्षमता को ही सामने रखने और उसे चिन्हवाने की इच्छा रखते हैं । विनोद
कुमार शुक्ल ‘खिलेगा तो देखेंगे’ उपन्यास में एक जगह प्रमुख पात्र गुरुजी
से कहलवाते हैं कि ‘मैं ताले को खोल सकता हूँ । चाबी मेरे
पास है ।’ सचमुच उनकी खूबी यही है कि उनकी
रचनात्मक तिजोरी की चाबी किसी और के पास नहीं, बल्कि ख़ुद रचनाकार के पास है । यही कारण है कि उनकी
रचनाएँ किसी भी विचारधारा के प्रत्यक्ष प्रभाव से संरचित या संचालित नहीं होतीं, विचारधाराओं के सामाजिक लक्ष्य
वहाँ, सतह पर नहीं बल्कि अंतर्धारा की तरह
प्रवाहित होते हुए दिखाई दे जाएँगे । इसी अर्थ में, सांद्र प्रगीतात्मक मणिखचित गद्य की तह में आदिवासी जीवन, रहन-सहन
और स्थानीयता और उसके रीति-रिवाज़ों को बचा लेने की संभवना का एक महत्वपूर्ण पाठ बन
जाता है – ‘खिलेगा तो देखेंगे’ । चेक (बाद में फ़्रांसीसी) उपन्यासकार और आलोचक मिलान कुंदेरा ने अपनी
पुस्तक ‘दि आर्ट ऑफ दि नॉवेल’ में लिखा है कि – “उपन्यास यथार्थ का परीक्षण नहीं करता, वह जीवन और उसके अस्तित्व की खोज़ करता है । अस्तित्व घटित भर का ही नहीं
होता, वह मनुष्य की सक्षमता और मानवीय संभावनाओं के
आभास में भी होता है । उपन्यासकार मानवीय संभावनाओं और सक्षमताओं की विद्यमानता को
उपर्युक्त ख़ोज के जरिए पाने और रचने की कोशिश करता है । दुनिया और किरदार
संभावनाओं द्वारा ही जने-पहचाने जाते हैं ।”[1]
वस्तुतः यह देखना और समझना महत्वपूर्ण होता है कि कोई रचनाकार
जीवन-अस्तित्व की इस ख़ोज में किस प्रकार से अन्तः-बाह्य की
यात्रा करता है । जो चीज इस ख़ोज में मूल्यवान है, वह है जीवन-दृष्टि । यथार्थवादी पद्धति में यह जीवन-दृष्टि बाहरी धरातल पर
बिखरे पड़े यथार्थ के सृजन के रूप में प्रत्यक्ष होती है तो इसके समानान्तर प्रकृतवादी
पद्धति में वह आंतरिकता के धरातल पर समस्या के मूलाधारों को पकड़ने और उससे मुक्ति
की आकांक्षा का सृजनात्मक पक्ष प्रस्तुत करती है । कथा की इस प्रकृतिवादी पद्धति
में रचनाकार यथार्थवाद से विरत नहीं होता वरन यथार्थवाद को एक दार्शनिक आयाम
प्रदान करता है । यह यथार्थवाद का विरोधी नहीं । विनोद कुमार शुक्ल फ़्रांसीसी
उपन्यासकार एमिल ज़ोला की तरह प्रकृतवादी उपन्यासकार हैं । दूसरे अर्थों में कहा
जाए तो उसी की तरह एक ‘प्रायोगिक उपन्यासकार’[2]। यह हिन्दी काव्यधारा के रूप में प्रचलित ‘प्रयोगवाद’ से इतर कथासाहित्य की एक सैद्धांतिक धारा है । पर, इसमें ‘प्रयोगवाद’ की ‘राहों के अन्वेषी’ की त्तरह ‘सत्य का अन्वेषी’ होने की प्रस्तावना रखी गयी
है । प्रकृतवादी उपन्यास पद्धति के एक प्रमुख सिद्धांतकार एमिल ज़ोला हैं । पर, ज़ोला अपने को प्रकृतवादी कहलाने से अधिक ‘प्रायोगिक
उपन्यासकार’ कहलाना अधिक पसंद करते थे । ‘प्रायोगिक उपन्यास’ संबंधी उनका यह विश्लेषण
मूलतः फ्रांस के प्रसिद्ध चिकित्साशास्त्री क्लॉड बर्नर के उस विश्लेषण पर टिका
हुआ है, जिसमें बर्नर चिकित्सा-सिद्धान्त को निरीक्षण
और प्रयोग के आधार पर व्याख्यायित करते हैं । इस प्रकृतवादी और दूसरे अर्थों में
प्रायोगिक उपन्यास के आधारभूत तत्व हैं – निरीक्षण और बाह्य यथार्थ से मनुष्य के
संघर्ष का चित्रण । इस दृष्टि से देखें तो ‘खिलेगा तो
देखेंगे’ विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों में सबसे
महत्वपूर्ण उपन्यास साबित होता है । ज़ोला ने माना है कि प्रायोगिक पद्धति
उपन्यासकार को ‘एक चिंतक के रूप में विवेक’ और ‘एक सर्जक के रूप में प्रतिभा’ प्रदान करती है । इस संबंध में ‘खिलेगा तो
देखेंगे’ से यह बानगी
देखें - “भविष्य के बारे में बुरा सोच सकने की कोई रोकटोक अपना विवेक नहीं करता, पर अच्छा सोचने की स्वतन्त्रता
में बहुत रुकावट होती । ज़िंदगी को जीना, स्थगित मौत को जीना होता पर बहुत दिनों तक स्थगित मौत
को भी नहीं जीया जा सकता । आत्महत्या करते हुए मौत की प्रतीक्षा होती । ज़्यादातर
लोगों के जीने का तरीक़ा आत्महत्या का तरीक़ा होता ।” इस उद्धरण की व्याख्या करने की
ज़रूरत नहीं, यह
काम पाठक ख़ुद ही कर सकता है ।
विनोद कुमार शुक्ल, इस उपन्यास के जरिए उन
तमाम ओझल और देख कर भी अनदेखा कर दिए जाने वाली मालूम-नामालूम चीज़ों के भीतर से
होते हुए अपने भीतर की यात्रा करते हैं । यह उपन्यास जितना दूसरे किरदारों की
जीवन-यात्रा है उससे अधिक ख़ुद उपन्यासकार की जीवन-यात्रा । विनोद कुमार शुक्ल अपनी
कविताओं और कथा-साहित्य में सायास या अनायास प्रत्यक्ष बाह्य-यथार्थ की रचना नहीं
करते बल्कि उसके मूल सत्त को पाने और रचने की कोशिश करते हैं । वह बाहर को अछोर
मानते हैं, इसलिए, उसे मापने का कोई
भी एक मापक, उसके अंतिम छोर तक पहुँचने की कोई भी एक
दृष्टि उन्हें स्वीकार्य नहीं । संभवतः वे इस बात में विश्वास करते हैं कि बाहर की
यात्रा में भागदौड़, आपाधापी, तरह-तरह के करतबों आदि की गति तो दिखती है, पर
गंतव्य का पता नहीं । जब उपन्यासकार स्वगत यह कहता है कि ‘बाहर कहाँ तक निकलते । बाहर का क्या कोई अंत है?’, तो यह बात समझ में आती है । भीतर की यात्रा कर सकने वाला व्यक्ति ही
जीवन-यथार्थ को, उसकी उलझनों, परेशानियों को, उसके मंगल-अमंगल को, भावना से आगे जाकर विवेक के भरोसे समझ कर उसका कोई हल पा सकता है । गुरुजी
का यह कथन देखना चाहिए – “उनका (गुरुजी का) सुखी जीवन रेलगाड़ी का खाली डिब्बा था ।
जिसमें उनका परिवार पसरकर बैठा था । जेब में सबकी टिकिट थी । रास्ते में चाय, चना, खाने के लिए थोड़े पैसे थे । लेकिन उनकी
टिकिट में गंतव्य नहीं होता । गंतव्य दुःख का कारण होता । सुख का कारण है कि किसी
अच्छी जगह जा रहे हैं । परंतु अच्छी जगह दुनिया में कहाँ है ? अच्छी जगह का मतलब कहीं नहीं पहुँचना है ।” अंतर्यात्रा की इस विवेक-आलोकित भावना की तह में वे विचार और मूल्य दृष्टिगोचर होते हैं, जिनकी चर्चा ऊपर की गयी है । परंतु, जो ऊपरी
सतह पर ही विचार-विहार करना चाहते हैं उनके लिए गुरुजी का यह वक्तव्य तो है ही –
“एक दरवाज़े को बंद कर हमने पूरे बाहर को बंद कर दिया है । एक छोटे से कमरे में अलग
होकर स्वतंत्र हैं । अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर हमने सारी दुनिया को बाहर बंद कर
दिया । सारी दुनिया हमारी क़ैद में हैं । अपने दरवाज़े को खोलकर हम दुनिया के दरवाज़े
में जाते हैं । जितनी बड़ी दुनिया है, उतना बड़ा उसका
कमरा है ।”
भूख को दुनिया के सभी महान रचनाकारों ने, तरह-तरह से रचने की कोशिश की है । विनोद कुमार शुक्ल ने भी इस उपन्यास में भूख
और उसके जादुई तिलिस्म को उपन्यास के प्रमुख पात्र गुरुजी के इकलौते बेटे मुन्ना
के जरिए बहुत ही मार्मिक किन्तु खिलंदड़े अंदाज़
में रचा है । मुन्ना को भूख बहुत लगती । भर पेट खा लेने के दो-तीन घंटे के भीतर ही
फिर भूख लग आती – “भूख लगने पर वह असहाय हो जाता था और यह सबको मालूम था । भूख
लगने पर हाँफता हुआ नीचे बैठ जाता, खड़े रहना भी उसके
लिए मुश्किल होता ।” उपन्यास में इस भूख के क़हर और उससे निज़ात पाने का ज़ादुई
नुस्खा एक अठन्नी है । किसी चमत्कारी ताबीज़ या फिर उस करामाती चिराग की तरह जो
ज़रूरत पड़ने पर काम आ सके । गुरुजी का बेटा मुन्ना जब भी घर से बाहर जाता है, एक अठन्नी साथ लेकर निकलता है – “घर से बाहर निकलते समय, वह अम्मा को बताकर जाता, ‘जा रहा हूँ ।’ ‘अठन्नी भूल तो नहीं गया ?’ अम्मा ज़ोर से
पूछतीं । ‘है अम्मा’ वह ज़ोर
से बोलता ।” लेकिन विनोद कुमार शुक्ल ऐसे रचनाकार नहीं हैं कि इस ‘भूख’ को वे एक अठन्नी के उपाय में रेड्यूस कर, उसकी महत्ता को इस तरह से सीमित अर्थों में प्रस्तुत कर चुप हो जाएँ ।
गुरुजी सोचते हैं कि अठन्नी के रूप में जो सकल पूँजी है, और इसके चलते जो आर्थिक निर्भरता और उससे उपजी निर्भरता है, वह क्या जंगलों में, निर्जन क्षेत्रों में, आदिवासी इलाकों में काम आ सकती है ? या इन
इलाकों में उसी तरह से इसका कोई महत्व नहीं जिस तरह से आबादी वाले इलाकों के लिए
इसका उपयोग है । विनोद कुमार शुक्ल यहाँ प्राकारांतर से बाज़ार और मूल्य और वस्तु
की उपलब्धता और उसको पाने-खरीदने की संरचना को प्रस्तुत करते हुए समाजों की आर्थिक
संरचना और सभ्यता के ताने-बाने को जिस प्रतीकात्मक ढंग से रखते हैं, उससे बहुत सी चीजें साफ़ हो जाती हैं – “सिक्के का उपयोग तो आबादी में होता
है । चाहे दो-चार लोगों की आबादी, जो बदले में दो रोटी
दे सकें । निर्जन में भूख की तकलीफ़ से बचने के लिए किसी की हत्या भी नहीं की जा
सकती । भूख बर्दाश्त नहीं कर सकते तो रोटी छीनी क्यों नहीं जा सकती ? रोटी छीनने का मौका आए इसके पहले लोग भीख माँग लेना पसंद करते थे । भीख न
मिलने पर मर जाते थे ।” भूख के जरिए इस आर्थिक समृद्धि और तदजनित निर्भयता को ही
समाज का अंतिम लक्ष्य मानना चाहिए ? आशीष नंदी एक
साक्षात्कार में इस पहलू पर विचार करते हुए कहते हैं – “मसलन, क्या सिर्फ़ आर्थिक समृद्धि हासिल करने के लिए हम दीर्घकालिक रूप से पश्चिम
जैसे होने के लिए तैयार हैं । क्या समृद्धि का यह विचार अपनाने के क़ाबिल है ? क्या यही हमारे समाजों का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए ? क्या बात ऐसी नहीं है कि हम अपने मूल्यों और विश्व-दृष्टियों में यक़ीन खो
चुके थे, इसलिए हमने और कई विकल्पों पर गौर ही नहीं
किया । हमने सोचा कि पहले हम उन अर्थों में कामयाब हो जाएँ जिन्हें पश्चिम कामयाबी
का दर्ज़ा देता है । उसके बाद हम अपनी संस्कृति को बचाने की कोशिश करते रहेंगे ।”[3]
औपनिवेशिक आधुनिकता की परियोजना का यह उपन्यास बहुत ही सूक्ष्म क्रिटिक
तैयार करता है । उपन्यास में, जिस बड़गांव की कथा कही
गयी है वह कस्बेनुमा गाँव है, जहाँ दुकानें, आरा मशीन, आटाचक्की, पंचायत भवन, एक माध्यमिक स्कूल, रेलवे स्टेशन और पुलिस थाना हैं । यह दीगर बात है कि अब यह पुलिस थाना
खाली और सुनसान पड़ा है – “थाना इतने दिनों से खाली था
तब भी गाँव वालों की उस तरफ़ जाने की हिम्मत नहीं होती थी । बकरियाँ तक भूले-भटके
उस तरफ़ नहीं जाती थीं । जबकि गाँव की प्राथमिक पाठशाला में गुरुजी पढ़ाते रहते और
बकरियाँ कूदकर बरामदे में चढ़ जातीं ।” प्राकृतिक आपदा के चलते, परिस्थिति प्राथमिक पाठशाला के इन्हीं ‘गुरुजी’ का पूरा परिवार खाली किन्तु अपने होने के प्रभाव में मौजूद पुलिस थाना को
ही अपना घर बना लेता है । थाने में क़ैदियों को बंद कर रखने वाली ज़ेल-कोठरी की
सलाख़ों के पीछे गुरुजी रहते हैं । ख़ुद को ही उस कोठरी में ताला लगाकर बंद कर लेते
हैं । बावजूद इसके वे न तो ज़ेल में हैं, न ही कोई क़ैदी
हैं । इस रूपक को समझने के लिए राज्य-सत्ता और उसकी ताक़त को
समझना होगा । स्वतन्त्रता का मतलब समझना होगा । आधुनिकता के तक़ाजे में स्टेट, ताक़त और आज़ादी के मानी को समझने के लिए इस उलटबाँसी को समझना होगा –
चिड़िया जितनी स्वतंत्र होती
बिल्ली उतनी ही स्वतंत्र और
उन्मुक्त होती बिल्ली हमेशा
दबोचने वाली ताक़त होती ।
विनोद कुमार शुक्ल जैसे रूप-विधान
को लेकर सचेत रचनाकार, शब्द और उसकी ताक़त को समझते हैं
। इसलिए वे शब्दों को, उनके विशिष्ट अर्थ और विशिष्ट
ध्वनियों के साथ इस प्रकार प्रयोग में लाते हैं कि स्थिति-परिस्थिति के साथ-साथ वे
उस पूरी मानसिक अवस्था और परिवेश को संप्रेषित कर सकें, जिसमें सामाजिक-सांस्कृतिक स्थितियाँ-परिस्थितियाँ विकसित होती हैं । नागर
जीवन की जगह स्थानीय जीवन में सामुदायिकता या सहजीविता की अर्थवत्ता जिस तरह से इन
वाक्यों में अभिव्यक्त हुई है, क्या किसी प्रचलित
मुहावरे में ऐसा असर संभव था – “मदद न कर पाने की
असमर्थता बड़ी असमर्थता लगती । लँगड़ा, लूला आदमी भी मदद
कर सकता था । मदद न मांगने का स्वाभिमान जैसे-तैसे पाला-पोसा जाता । भूखे रहकर
स्वाभिमान का पेट भरा जाता, तब स्वाभिमान का पेट आधा
भरता होगा । स्वाभिमान बहुत देर तक भूखा नहीं रह पाता था ।” शहराती जीवन के साथ-साथ
औपनिवेशिक आधुनिकता और उसके विकास के मॉडल की आलोचना को समझने के लिए उपन्यास में
बड़गांव में रेलवे स्टेशन का बनना और रेलगाड़ी चलने की शुरुआत को पढ़ना और समझना
ज़रूरी है । मात्र इन दो उद्धरणों को पढ़ने और उनके निहितार्थों को समझने की कोशिश
की जानी चाहिए :
“गुरुजी ने गंभीर होकर पत्नी से कहा
“सुनो ! यह गाँव दस-पंद्रह दिनों में खाली हो जाएगा । मैं इतने दिनों से गाड़ियों
को देख रहा हूँ । उतरने वाले हमेशा दो-एक होंगे और जाने वाले पच्चीसों । यदि यहाँ
कम लोग उतरेंगे और ज़्यादा लोग जाएंगे तो यह गाँव खाली नहीं हो जाएगा ! एक बड़ा शहर
तक खाली हो जाएगा । रेलगाड़ी एक ऐसा यंत्र है, जो गाँव को खाली
कराने के काम पर लगी है ।”
x x x x
“पश्चिम की खिड़की से लाल-गुलाबी धूल के
गुबार में डूबता सूर्य दिखाई दे, हमारी पूँजी की तरह । वह तो
छुटपन में बापजी का दिया हुआ तांबे का नया पैसा है । जिसका चलन ख़त्म हो गया । जो
कभी खर्च नहीं हो । हमारे तांबे का पैसा । डूबता
सूर्य कभी खर्च नहीं होता ।”
आधुनिकता के बरक्स स्थानीयता के साथ-साथ वहाँ के निम्न-मध्यवर्गीय लोगों
से लेकर आदिवासी लोगों तक के सामाजिक-सांस्कृतिक रहन में विकसित हो रहे बदलावों को
उपन्यास में जिस तरह से चित्रित किया गया है, उससे ऊपरी
तौर पर लग सकता है कि उपन्यासकार विकास विरोधी है, प्रगति
विरोधी है । परंतु, अपनी मूल चिंता में वह विकास विरोधी
नहीं । क्योंकि उसे समृद्धि और विकास का अंतर पता है । औपनिवेशिक विकास का मॉडल
युक्ति और विचार पर काम करता है उसमें आत्यंतिक रूप से स्थानीय लोगों का शोषण और
प्राकृतिक संसाधनों का उत्खनन और दोहन शामिल हैं । साथ ही विकास के इस मॉडल में
मनुष्य की रचनात्मक और सृजनात्मक ढंग से सोचने की स्वतन्त्रता और क्षमता का भी हरण
कर लेता है । उरुग्वे के पत्रकार और उपन्यासकार
एदुआर्दो गैलियानों ने विकास के इस वैश्विक मॉडल पर तल्ख़ टिप्पणी करते हुए उचित ही
कहा था – “वे पहले तुम्हें लक़वाग्रस्त होना सिखाते हैं और फिर तुम्हें बैसाखियाँ
देते हैं ।” यह उपन्यास औपनिवेशिक विकास बनाम स्वायत्त विकास की विचार-दृष्टि को
रचनात्मक धरातल पर समझने की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण उपन्यास है । स्वायत्त विकास
के रचनात्मक उदाहरण के लिए आदिवासी जन-जीवन के परिप्रेक्ष्य में इस उपन्यास को
पढ्ना और समझना ज़रूरी होगा । यह उपन्यास इस विचार को कि स्वायत्त विकास के लिए
अनिवार्य शर्त यह हो कि स्थानीयता और वहाँ के लोगों को स्वायत्तता और ज़रूरी माहौल
दिया जाय, आत्मीयता के साथ रचता है । वास्तविक विकास वहीं होता है जहाँ जनगण ख़ुद कर्ता और नियंता दोनों होते
हैं । वहाँ नहीं कि जहाँ कर्ता श्रमिक समझा जाता हो और नियंता प्रभु । स्वतंत्र
मनुष्य स्वयं अपना नियंता होता है और ऐसा व्यक्ति ही स्वायत्त मानवीय कर्ता होता
है । ऐसे लोग स्वयं ही अपनी संस्कृति का निर्माण करते हैं, वे किसी गुलाम बनाने वाली औपनिवेशिक संस्कृति को स्वीकार नहीं करते हैं ।
आदिवासी-संस्कृति इसका मुकम्मल उदाहरण है । इसलिए जब तक समृद्धि और विकास के अंतर
और अंतर्विरोध को नहीं समझा जाएगा तब तक तकनीकी विकास का यह औद्योगिक मॉडल
वास्तविक समृद्धि और विकास के साथ छल करता रहेगा, लोगों
का उत्पीड़न और प्रकृति का शोषण चलता रहेगा । विनोद कुमार शुक्ल स्थानीय जन-जीवन के
मानों-अरमानों की संरक्षा की इसी चिंता में आधुनिकता के प्रपंच और औद्योगिक-सभ्यता
वाले विकास के मॉडल को नकारते हैं । अतः मैक्स्वेबेरियन ‘विकास के समाजशास्त्र’ को मानने वाले आलोचकों
और विद्वानों की दृष्टि में अगर इसे विकास विरोधी माना भी जाता है तो कोई हर्ज़
नहीं ।
देखा जाय तो यह उपन्यास सही अर्थों में, वैश्विकता के बरक्स स्थानीयता के मान-मूल्यों को, औपनिवेशिक आधुनिकता की जगह देशज सोच-विचार से विकसित सामाजिक-आर्थिक संस्कृति के महत्व को बहुत ही संजीदगी के साथ रचता है । एक त्रासद भूखंड की छोटी-छोटी दृश्य-कथा की बुनावट में यह उपन्यास आदिवासी जन-जीवन का पाठ तो है ही पर साथ ही भूख और प्रेम की आदिम मानवीय जरूरतों और संभावनाओं का भी अद्भुत पाठ है । विनोद कुमार शुक्ल के इस उपन्यास को पढ़ते हुए यह धारणा बलवती होती है कि मनुष्य की अधिकांश गतिविधियाँ पारिवारिक और सामूहिक होती हैं और इस नाते सामाजिक होती हैं । आधुनिकता के विचार ने, या यों कहें कि औद्योगिक-विकास या पूँजीवादी-सभ्यता ने मनुष्य की सामूहिकता को, पारिवारिकता के दायरे को तहस-नहस कर, व्यक्ति को अकेले विनष्ट होने के लिए छोड़ दिया । भीतरी खालीपन और बाहरी अकेलापन इस सभ्यता के फलित रूप हैं । भारत जैसे देश में बड़े पैमाने पर किसानों की आत्महत्या का कारण और क्या है ?
विनोद कुमार शुक्ल |
व्यक्ति के जीने और होने की अर्थहीनता, उद्देश्यहीनता
को यह सभ्यता विकसित करती है और इसी को विकास कहती है । सामुदायिकता वाले समाजों
में जीने रचने वाले लोगों के बीच, पहले व्यक्ति, फिर घर, फिर परिवार को नष्ट करने के पीछे इस
सभ्यता का बहुत बड़ा हाथ है । यह उपन्यास ‘घर’ को बचाने या पाने का भी उपन्यास है । वह घर जिसमें चाँद, सूरज, तारे, आकाश, नदी, झरने, पेड़, पौधे चिड़िया सब घर की चीजों की तरह हैं । परस्पर एक-दूसरे में रची-बसी ।
भूख के चित्रण के साथ उपन्यास में प्रेम के वर्णन और चित्रण में ‘घर’ को समझा जा सकता है । विनोद कुमार शुक्ल
दाम्पत्य-प्रेम के दोनों पहलुओं – स्वकीया और परकीया – का चित्रण इस उपन्यास में
करते हैं । आलोचकों ने इस दृष्टि से ‘खिलेगा तो देखेंगे’ का विवेचन संभवतः नहीं किया है । उनके अन्य उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ के रघुबर प्रसाद
और सोनसी के स्वकीया प्रेम की व्याख्या और विवेचन तो ख़ूब हुआ है पर ‘खिलेगा तो देखेंगे’ के गुरुजी के ‘स्वकीया’ और जिवराखन की पत्नी डेरहिन के ‘परकीया’ प्रेम की व्याख्या नहीं हुई है ।
डेरहिन ‘सुंदर थी, सबको
अच्छी लगती थी – “डेरहिन बाहर दिखे तो दर्शिता की तरह दिखती । ठीक समय की रात में
आकाश पारदर्शी हो जाता जिससे चंद्रमा-तारे दिखाई देते । यह आकाश का नग्न सौन्दर्य
था ।” उपन्यासकार ने रेडियो के प्रतीक के सहारे, जिस
कलात्मक ख़ूबी के साथ डेरहिन के परकीया प्रेम को रचा है वह अनोखा है । जहाँ जिवराखन
को ‘घर की गाय खोलना और बाँधना नहीं आता था, वहीं डेरहिन को बजता हुआ रेडियो बंद करना नहीं आता था । इसके चलते, “डेरहिन रेडियो बंद करवाने के लिए घर से बाहर निकल जाती कि कोई मिल जाता
और रेडियो बंद कर देता ।...उसे बूढ़े दिखते । जवान लोगों से कहने में डेरहिन को
संकोच नहीं था । बड़े-बूढ़ों का लिहाज़ होता । किसी एक युवा को बार-बार रेडियो बंद
करने को कहो तो उससे प्रेम होने का डर था ।” जिवराखन ने बहुत कोशिश की कि वह उसे
रेडियो चलाना-बंद करना सिखा सके “बहुत प्रेम के समय अकेले में वह डेरहिन को रेडियो
चलाना सिखाता था परंतु उससे नहीं बना । जिवराखन को लगता था कि अगर डेरहिन रेडियो
सीख लेती तो वह उससे प्रेम करता ।” पर दुर्भाग्य से न तो डेरहिन रेडियो चलाना-बंद
करना सीख पाती है और न ही जिवराखन गाय बाँधना । अंततः एक दिन रेडियो बंद कराने के
बहाने डेरहिन बाहर निकलती है और कभी भी लौट कर नहीं आती है । रेडियो बंद करने वाले
के साथ ही भाग जाती है । इस संबंध में कथावाचक के रूप में उपन्यासकार का यह कथन कि
“रेडियो अपने आप दूसरों की इच्छा जानकार बंद नहीं होता और गाय अपने आप नहीं बंधती
बहुत ही मानीखेज़ है । क्या
जिवराखन से अपनी डेरहिन को वह प्रेम नहीं मिला, जिसकी
कामना वह रखती थी ? जिवराखन डेरहिन को बाँध कर
नहीं रख सका ? क्या औरत गाय होती है, जिसे बांधने की कला या कहें कुव्वत पुरुष के पास होनी चाहिए ? इस तरह के अनेक सवाल पैदा होते हैं, हो सकते
हैं ।
इस परकीया प्रेम के समानान्तर गुरुजी और उनकी पत्नी का स्वकीया प्रेम है ।
गुरुजी, अपनी पत्नी के साथ, ‘मुन्ना और मुन्नी के जन्म के पहले के संसार में लौटना चाहते । इस चाहत में
वे पत्नी को ढूंढते, पत्नी उनको आवाज़ देती, पास बुलाती – “मुन्ना-मुन्नी नहीं थे । पत्नी दौड़ते हुए घर के खुले दरवाज़े
से मुन्ना-मुन्नी के जन्म के पहले के संसार में जाकर छुप गयी । गुरुजी को मालूम था
कि पत्नी कहाँ छुपी है । परंतु वे पत्नी को ढूँढ रहे थे । वहाँ भी दिन का समय था
उन्होने खिड़की बंद कर दी । जब गुरुजी खिड़की बंद कर रहे थे तो पत्नी अंदर से दरवाज़ा
बंद कर रही थी । ‘क्या कर रहे हो?’ पत्नी ने आवाज़ दी । ‘मैं तुमको ढूँढ रहा हूँ ।’ गुरुजी ने कहा । ‘लो ढूँढो’ पत्नी ने कहा । इस तरह वे पति-पत्नी यदाकदा एक दूसरे को ढूँढते हुए उस
संसार में चले जाते जो संसार उनसे छूटता जा रहा था । इस संसार में पति, पत्नी को महज़ एक उँगली की नोक भर से छूकर उसके भीतर वह एहसास भर देता है, जिसकी स्मृति बच्चों के जन्म के पहले एक ‘लड़की
पत्नी’ में रची-बसी है । ‘स्पर्श’ की अनुभावात्मक अर्थवत्ता का इतना सांद्र और ऐंद्रिक चित्रण एक कवि ही कर
सकता है । उपन्यास में, जिन प्रतीकों और दृष्टांतों के
सहारे यह ‘दाम्पत्य-प्रेम’ वर्णित
होता है उससे पाठक एक काव्यात्मक वातावरण चारों ओर से घिर जाता है और अनुभूति की
उस मूल प्रकृति के निकट पहुँच जाता है जिसे आदिम प्रकृति कहते हैं – “भूख लग आई
होगी दो रोटी खा लो । तवा गरम हो गया है ।...खरी-खरी रोटी सेंकना दो रोटी खा लूँगा
। रोटी के सिंक जाने के बाद तवा का गरम हो जाना सार्थक हो जाता । गर्मी में कमरे
के पत्थर पर लेटना दोनों को अच्छा लगता । तकिया लेकर दोनों पत्थर पर लेट जाते । एक ‘लड़का गुरुजी’ एक ‘लड़की
पत्नी’ को समेट लेता । वह कोशिश करता कि उसका कोई वज़न
या भार न हो । पत्नी कोशिश करती कि भार सहेजा रहे ।” कलात्मक संयम में आबद्ध मुक्त
साहचर्य और उसकी क्रियाशीललता पढ़ने लायक है । इस चित्रण में प्रगीतात्मकता की एक
तीव्र अंतर्धारा अथ से इति तक प्रतीकात्मकता में व्याप्त है । इस उपन्यास में, अनुभूति की भावात्मक तीव्रता और दार्शनिक पक्ष को जिस रूपकात्मक चित्रण के
सहारे, काव्यात्मक बिंबो और प्रतीकों की संबद्धता में
रचा गया है, वह हिन्दी की प्रचलित कथाभाषा से सर्वथा
भिन्न और अकेली कथाभाषा है । विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास, उपन्यास की हेनरी जेम्स की उस परिभाषा और अर्थ को सिद्ध करते हैं, जिसमें कहा गया कि ‘उपन्यास अब तक के काव्य
रूपों में सबसे अधिक पूर्ण विधा है ।’ अपने एक लेख ‘दि फ्यूचर ऑफ दि नॉवेल’[4] में हेनरी जेम्स ने व्यख्यायित किया है कि उपन्यास में जिस बात ने उसकी
चेतना को सबसे अधिक आंदोलित किया, वह थी इसकी कलात्मक
स्वतंत्रता और लचीलापन, यथार्थ के सभी रूपों के प्रति
इसकी अदम्य भूख । इसमें सच्चे मानों में ऐसी शक्ति थी जिसके माध्यम से मनुष्य के
सामान्य से सामन्य अनुभवों के साथ ही साथ आत्मा की अतल गहराइयों में पैठा जा सकता
था । जेम्स ने लिखा – “संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि उपन्यास रूपी भवन में एक
ही नहीं असंख्य खिड़कियाँ होती हैं – कई संभावित खिड़कियाँ भी जिनको कभी गणना में
शामिल नहीं किया जाएगा, जिनमें प्रत्येक इसे व्यापक
फैलाव में या तो खुल चुकी हैं या फिर अपनी-अपनी दृष्टि की आवश्यकता के अनुसार और
अपनी निजी इच्छाशक्ति के दबाव के अनुसार खुल सकती हैं ।”[5] ऊपर कई जगहों पर यथाप्रसंग उपन्यास की कथाभाषा को रेखांकित किया गया है ।
आख़िर में थोड़ी सी बात उपन्यास के शिल्प पर । विनोद
कुमार शुक्ल अपने उपन्यासों में तकनीकी रूप से जिस शिल्प को अपनाते हैं, वह मोंताज की तकनीकी है । फ़िल्म
के छोटे-छोटे टुकड़ों से बनी एक बड़ी फ़िल्म । यह तकनीकी एकालाप के अधिक नजदीक पड़ती
है । दृश्य-चित्र और किरदार समय के वृहत्तर आयाम में आगे-पीछे आते-जाते रहते हैं ।
उपन्यास में एक जगह आए इस वाक्य को देखना चाहिए – “सही सुबह को लौटाकर गलत सुबह को
ठीक कर लिया गया ।” उपन्यास में घड़ी का प्रतीकात्मक चित्रण जिस तरह से किया गया है, उससे समय के जितने भी आयाम हो
सकते हैं – कुछ पकड़ में आ जाने वाले और ज़्यादातर छूट जाने वाले – सबको, घड़ी के इस प्रतीकात्मक चित्रण में जैसे
समो लिया गया हो । विलियम फॉकनर के उपन्यास ‘दि साउंड एंड दि फ्यूरी’ के
नायक क्वेण्ट्यू के पास एक ऐसी ही घड़ी है जिसमें सूइयाँ नहीं हैं, पर वह टिक-टिक करती रहती है । गुरुजी को
निरंतर घड़ी की ऐसी ही टिक-टिक सुनाई देती रहती है । इस टिक-टिक की आवाज़ ही से समय
की निरंतरता का भान होता है । ‘निरंतरता समय का गोत्र
है, जैसे भारद्वाज गोत्र होता है ।’ इस निरंतरता में केवल वर्तमान ही
नहीं बल्कि अतीत और भविष्य की भी आवाजाही चलती रहती है । इस लिए विनोद कुमार शुक्ल
के उपन्यास समय के किसी एक आयाम में अवस्थित शिल्प-संरचना वाले उपन्यास नहीं हैं ।
संभवतः इसी अर्थ में अशोक वाजपेयी ने उनके लिए कहा था कि वे ‘समयबिद्ध रचनाकार’ नहीं हैं । पर इसे उनको अपने समय
से बाहर का रचनाकार समझने की गलती नहीं करनी चाहिए । क्योंकि ‘खिलेगा तो देखेंगे’ में ही गुरुजी को यह बात पता है कि “मृत्यु समय से बहिष्कृत होने से होती” है । समय के
विविध आयामों को रचने की तकनीकी क्षमता विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों की जान है
। ‘फेड इन’, ‘फेड आउट’ और ‘क्लोज अप’ इस तकनीक के डिवाइसेज हैं । इस शिल्प और तकनीकी में ‘खिलेगा तो देखेंगे’ उनके उपन्यासों में अव्वल है ।
क्यूबिस्ट चित्रकला की भाँति इस उपन्यास में वस्तुओं और व्यक्तियों को अनेक कोणों
और दृष्टिकोणों से देखा समझा जा सकता है ।
संदर्भ :
[1] The Art of the
Novel (1992) – Milan Kundera, English Translation – Linda Asher, Roopa &
Co. Delhi.
[2] देखें, एमिल ज़ोला की The Experimental Novel and Other Essays
(1893).
[3] भारत
का भूमंडलीकरण (2003) – (संपा.) अभय कुमार दुबे, सभ्यताओं
के बीच संवाद – आशीष नंदी से रामू मणिवन और प्रचा हुतनुवत्र की बातचीत, वाणी प्रकाशन, दिल्ली ।
[4] The Future of
The Novel (1956) – Henery James, Vintage Books.
[5] The Art of the Novel (1992).
विनोद तिवारी |
आलोचक और पक्षधर पत्रिका के संपादक ।
दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी के
प्रोफ़ेसर ।
संपर्क :
सी-4/604, ऑलिव काउंटी, सेक्टर-5, वसुंधरा, गाज़ियाबाद – 201012
मो. 9560236569 ई-मेल : tiwarivinod4@gmail.com