पुनर्नवा
कविताओं में कथा-उपकथा
(कुँवर नारायण
के कविता-प्रदेश में एक खोज-यात्रा)
पंकज कुमार
बोस
साहित्य के इतिहास में बहुधा ऐसे
कवियों के उदाहरण मिलते हैं जिन्होंने अपने विस्तृत जीवन-काल में आधी सदी से भी
अधिक समय तक निरंतर कविताएँ लिखी हैं । इसी तरह अपने संक्षिप्त जीवन-काल में बहुत कम
लिखने वाले कवि भी हुए हैं। विभिन्न इतिहासकारों ने भी समय के सापेक्ष लेखन या
रचना-कर्म की इस निरंतरता को पर्याप्त महत्त्व दिया है। इन बातों के दूसरे पहलू भी
हैं और उन पहलुओं में कुछ प्रश्न हैं। क्या केवल इतिहास में जगह पा लेना ही रचना
या रचनाकार की अंतिम उपलब्धि है? जो बातें इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं
क्या वे आलोचना या मूल्यांकन के लिए उतनी ही प्रासंगिक हैं ? आज हमारे समय में, जबकि इतिहास-ग्रंथों
का अंबार लगता जा रहा है और गुटबंदी की सोची-समझी रणनीति के तहत इतिहास में शामिल
करने और कराने की होड़-सी मची है, इन प्रश्नों पर सोचना एक जिम्मेदारी की तरह लगता
है। आधी सदी से अधिक समय तक लिखता हुआ कोई भी रचनाकार केवल अपनी आयु में ही बढ़ता
है या अपनी रचनाओं की आयु के साथ-साथ बढ़ता है ? किसी रचना में यदि अपने देशकाल के साथ-साथ
देशकाल के वृहत्तर दायरेकी संवेदना और जीवन-बोध है तो निस्संदेह वह रचनाकार की भौतिक
आयु का अतिक्रमण कर सकती है। समय के बँधे-बँधाए ढाँचे के समानांतर रचना करना एक
बात है और कई समयों के समानांतर रचना करना, समय के बदलते हुए बोध को पकड़ना बिलकुल
दूसरी। पहली बात इतिहास के लिए ज़रूरी है और दूसरी आलोचना के लिए। यहीं पर आलोचना,
इतिहास का उपयोग करते हुए भी उसके ऊपर तरजीह पाने लगती है।यों ‘इतिहास’मात्र की सही
व्याख्या के लिए ही नहीं, बल्कि इतिहास की रचना-प्रक्रिया के विश्लेषण के लिए भी ईमानदार
आलोचना-कर्म बेहद ज़रूरी हो जाता है, अन्यथा इतिहास महज एक दस्तावेज़ बनकर रह जाता है
और रचना या रचनाकार एक पुरातात्त्विक वस्तु।
हिन्दी
कविता का इतिहास लगभग हज़ार साल पुराना है और आधुनिक हिन्दी कविता का लगभग डेढ़ सौ साल।
इस इतिहास में एक कवि के रूप में कुँवर नारायण ठीक वहीं प्रवेश करते हैं जहाँ
आधुनिक कविता की लगभग एक सदी पूरी हो जाती है। वे स्वयं छः दशकोंसे भी अधिकसमय से
कविताएँ लिख रहे हैं औरउनका लेखन-काल कमोबेश दो शताब्दियों को छूता है। ‘आत्मजयी’ (1965) के ठीक पचासवें वर्ष मेंप्रकाशित अपने नए खंडकाव्य
‘कुमारजीव’ में उन्होंने स्वयं अपने ही चिर-परिचित रचना-प्रतिमानों की लीक को
छोड़ते हुए एक नई ऊँचाई को स्पर्श किया है। कुँवर नारायण की नई सदी की कविताओं पर
विचार करते हुए अनिवार्यरूप से हमें उनकी इस नई कृति पर अलग से विचार करना चाहिए, जो
बीते हुए वर्षों में उनके रचनारत जीवन की शिखर उपलब्धि का प्रतीक बनकर सामने आई है।
‘कुमारजीव’ में पहली बार एक बड़ा सर्जनात्मक अभियान संकल्पित करते हुएकवि ने स्वयं अपनी ही
कविताओं के कई पड़ावों को बहुत पीछे छोड़ दिया है, काव्य-रचना के बने-बनाए मिथकों को
तोड़ दिया है। यह कृति वस्तुतः एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व के जीवन-प्रसंगों पर आधारित है
जिसे अपने समय में “लोक मंगल की साधनावस्था” का सबसे ज्वलंत उदाहरण कहा जा सकता है।
जिस सर्जनात्मक ऊँचाई तक पहुँचकर कवि ने कुमारजीव के जीवन से जुड़ी घटनाओं को आज की
राजनीतिक विडंबनाओं पर घटित किया है, वह केवल हिन्दी कविता के लिए ही नहीं, बल्कि
पूरे भारतीय साहित्य के लिए भी एक अनुपम दृष्टांत है।कवि ने जिस रूप में मानवीय और
राजनीतिक जीवन-लक्ष्यों की बहुरंगी छवियाँ उद्घाटित की है, उससे ऐसा लगता है कि अपनी
सर्जनात्मक प्रतिभा की वल्गा से उसने हज़ार-हज़ार सालों की काव्य-चेतना को एकसाथ
साधकर रखा है। एकालाप या ‘मोनोलॉग’ की शैली में ‘कुमारजीव’ का आरंभ होता है, लेकिन
पूरी कृति से गुजरते हुए एक पूरी सभ्यता और संस्कृति की अंतर्मुखी धाराओंसे संवाद करने
का एहसास होता है। यहाँ विस्तार से तो नहीं, लेकिन प्रस्तुत आलेख के जरूरी संदर्भों से
जोड़ते हुए ‘कुमारजीव’ के कतिपय प्रसंगों के मर्म का उद्घाटन किया जाएगा।
कुँवर नारायण ने अपने तईं केवल काव्य-रचना के प्रतिमान ही नहीं बदले, बल्कि कविता की आलोचना के लिए भी नई चुनौतियाँ खड़ी कर दी है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए इतने लंबे काल-खंड में जीवन और जगत की बहुमुखी अभिव्यक्ति करने वाली उनकी कविताओं के मूल्यांकन का कोई भी उपक्रम अपने आप में संपूर्ण नहीं हो सकता। हालाँकि कविता के इतिहास में ज़रूरी और परिवर्तनकारी हस्तक्षेप के आधार पर मूल्यांकन का एक उपक्रम किया जा सकता है। कवि की कविता-यात्रा में आए महत्त्वपूर्ण बदलावों को रेखांकित करते हुए एक दूसरा उपक्रम किया जा सकता है। यह भी हो सकता है कि उनकी इधर की कविताओं के आधार पर बदलती हुई संवेदना को पकड़ने की कोशिश की जाय और उसे उनकी कविताओं के व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझा जाय। प्रस्तुत आलेख में इसी तीसरे रास्ते पर एक खोज-यात्रा करते हुए कुँवर नारायण की कविताओं में नई सदी की समूची हिन्दी काव्य-चेतना को दिशा देने वाली विशेषताओं को पहचानने की कोशिश की गई है। हमारी इस कोशिश से संभवतः वह धुँधलका कुछ छँटेगा जो कुँवर नारायण और उनकी कविता को देखने-परखने की हिन्दी आलोचना की गतानुगतिक पद्धति पर अरसे से छाया रहा है।
2.
कुँवर नारायण की इक्कीसवीं
सदी की कविताओं की विशेषता है उनमें भारतीय कथा-पद्धति का बेहद सधा हुआ नया प्रयोग। हालाँकि
ये पद्धतियाँ उनके लिए एकदम नई नहीं हैं। इससे पहले केवल कविताओं में ही नहीं,
बल्कि‘आकारों के आसपास’ की अपनी कहानियों में भी उन्होंने भारतीयकहानी के भीतरी
रूप-गठन को आधार बनाकर कई मौलिक प्रयोग किए हैं, जिन्हें उनकी रचना-यात्रा में एक
महत्त्वपूर्ण पड़ाव के रूप में स्वीकृति मिल चुकी है। इधर की अपनी नई कविताओं में वे
भारतीय कथा की रचना-प्रक्रिया काएकपुनर्नवा रूपप्रस्तुत करते हैं जो बरबस हमारा
ध्यान खींच लेता है:
मैं
अपनी कहानी में नहीं हूँ
मैं केवल उसका गल्पकार हूँ
जो एक कहानी कह रहा है
प्रथम पुरुष पुल्लिंगमें
पहले ‘मैं’ शैली में अपनी कहानी कहना
और उसमें होकर भी नहीं होने की बात कहना आत्मनिष्ठ को वस्तुनिष्ठ बनाने की
प्रक्रिया है, कुछ इस रूप में कि दोनों का भेद मिटता हुआ प्रतीत हो। यह रूढ़ अर्थों
मेंनितांत निजी या वैयक्तिक हो जाना नहीं है, बल्कि रचना-प्रक्रिया की भीतरी
बारीकियों का संकेतक है। एक कहानीकार अपनी कहानी में संलग्न भी है और उससे हटा हुआ
भी। कुछ दूरीपर खड़े होकर अपनी कहानी को आगे बढ़ता हुआ देख रहा है। इस संदर्भ में
उनका बहुत महत्त्वपूर्ण निबंध ‘महाकाव्यों का अतीत और वर्तमान’ ध्यान में आता है
जिसमें महाकाव्यों के आलोक में ‘दृष्टि’ और ‘रचना-दृष्टि’ कीव्याख्या की गई है। वे
कृष्ण और अर्जुन के उस संवाद की ओर ध्यान दिलाते हैं और पूरी कथामें उसके होने, न
होने की बात करते हैं: “दिव्य-दृष्टि से देखो तो सब एक नाटक है, और सब एक नाटक की
तरह होते देखना ही दिव्य दृष्टि है ! तुम इस नाटक में भी हो और इस नाटक के बाहर भी।
तुम एक ‘पात्र’ भी हो और तुम्हीं ‘सूत्रधार’ भी। इसे सिर्फ़ जानो ही नहीं, प्रतिक्षण
अनुभव भी करके रह सको, तो सच्चे ज्ञानी। लेखन के शिल्प का पहला सबक... वाल्मीकि भी
इसी तरह अपनी रामायण के अन्दर एक पात्र भी हैं, और उसके बाहर के रचयिता भी—
ठीक जैसे व्यास महाभारत के भीतर भी हैं, और उसके बाहर भी— पात्र भी और द्रष्टा भी।”
(शब्द और देशकाल;राजकमल प्रकाशन/2013, पृ०57)अपनी रचनात्मक मंशाओं के अनुकूल
यहाँ ‘दिव्य-दृष्टि’ पद की मौलिक व्याख्या की गई है। बात को आगे बढ़ाकर कृति में
कृतिकार की उपस्थिति-अनुपस्थिति की पहेली तक लाया गया है। अपने इसी निबंध में आगे वे
साहित्य की समग्र चेतना के पर्याय के रूप में ‘व्यास-दृष्टि’, ‘वाल्मीकि-दृष्टि’
और ‘होमर-दृष्टि’ जैसे पदों का प्रयोग करते हैं। कुँवर नारायण के संदर्भ में ये
प्रयोग कतई अप्रासंगिक नहीं हैं। अपनी नई कविताओं में आत्यंतिक संवेदनशीलता के साथ
वे दृष्टि में संतुलन की महत्ता पर जोर देते हैं। एक कविता की पंक्ति में तो साफ़-साफ़
कह दिया गया है कि “मैं द्रष्टा हूँ, विमुख नहीं।” कुँवर नारायण कवि-दृष्टि में
संतुलन के आग्रही रहे हैं, लेकिन सबसे पहले वे अपनी जिम्मेदारी की लकीर खींचते हैं: “मैं
पहले सोचता हूँ— अतः शब्द हूँ—यही मेरे कर्मों की भूमिका है।” दृष्टि में संतुलन का
मतलब है अनुभव की दोहरी प्रक्रिया से गुजरना। यानी एक बार कवि के रूप मेंरचने का
अनुभव और दूसरी बार स्वयं एक पाठक या दर्शक बनकर उसे दूसरे की कृति के रूप में
समझने का अनुभव। उनकी नई कविताओं में यह प्रक्रिया इतनी घनीभूत होकर सामने आती है
कि उन्हें केवल कविताओं के रूप में पढ़ पाना पर्याप्त नहीं लगता।उन्हें किसी कहानी
की प्रस्तावना के रूप में भीपढ़ा जा सकता है। एकालाप या संलाप की खूबियों के कारण
उन्हें किसी नाटक की तरह भी पढ़ा जा सकता है। चाहे आप उनकी कविताओं को किसी भी तरह
पढ़ें, उनमें रचयिता के रूप में कवि की उपस्थिति और अनुपस्थिति का एक ‘बाइनरी-अपोजीशन’
हमेशा काम करता हुआ दिखाई देगा।
उपस्थिति और अनुपस्थिति की गहराई में जाने से पहले कवितामें ‘कहानी’
की बात की तहों को खोलना ज़रूरी है। यों तो लगभग सभी प्राचीन महाकाव्यों के बारे
में यह बात सही पाई जाएगी कि उनका बाहरी ‘रूप’भले ही कविता का हो, लेकिन उनकी
अंतर्वस्तु या‘कंटेंट’ कथा का या कथात्मक है। यह भी सही है कि कविता और इतिहास की
पुरानी अवधारणाओं के आधार पर ‘महाभारत’ आदि को ‘इतिहास’ की श्रेणी में रखा गया है। वहाँ
भी मूलतः प्राचीन या मिथकीय कथाओं के लिए ही ‘इतिहास’ संज्ञा का उपयोग किया गया है।
यानी इतिहास ‘फॉर्म’ से अधिक ‘कंटेंट’ के रूप में है। जब हम किसी महाकाव्य या काव्य की
कथात्मक अंतर्वस्तु की बात करते हैं तो “श्रृंखलाबद्ध कथा या कहानी–के-भीतर कहानी”(अज्ञेय
के शब्द) को ही महत्त्व देते हैं। संस्कृत काव्यशास्त्र के उद्भट आचार्य आनंदवर्धन
ने एक अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। उन्होंने ‘महाभारत’ की पूरी कथा को ‘कविता’
मानते हुए उसमें एक सुसंबद्ध केन्द्रीय भाव या भावदशा की स्थिति बतलाई है जिसकी
अंतिम परिणति शान्त रस में होती है। आनंदवर्धन रस-प्रक्रिया की अपनी व्याख्या के लिए
ऐसा करते हैं। वे काव्य के भीतर कथा की उपस्थिति की जगह भाव की उपस्थित्ति को
वरीयता देते हैं। अपने अभीष्ट उद्येश्यों के अनुरूप ऐसी अलग-अलग व्याख्याएँ की जा सकती
हैं। इन सबके बावजूद यदि हम केवल ‘रामायण’ और‘महाभारत’ के उदाहरण को ध्यान में रखें
तो भी काव्य के मूल ‘कथात्मक’ढाँचे को खारिज करना असंभव है। जैसे‘रामचरितमानस’
महाकाव्यहै तो रामकथा उसकी अंतर्वस्तु। कविता में कहानी कहने की यह भारतीय परंपरा काफी
समृद्ध रही है। कुँवर नारायण अपनी नई कविताओं में, ख़ासकर ऊपर उद्धृत छोटी-सी कविता
में इस पूरी परंपराका निचोड़ प्रस्तुत करते हैं। यहाँ फिर ध्यान देना होगा कि वे कथा
को नहीं, कथा की रचना-प्रक्रिया या सैद्धांतिकी को प्रस्तुत कर रहे हैं। इतना ही
नहीं, एक बहुत छोटे दायरे में वे कथा और कविता की अद्वैत सत्ता को भी संभव करके दिखाते
हैं।
कुँवर नारायण का अंतिम कविता-संग्रह |
अपनी कहानी में होना और नहीं होना—कवि के शब्दों में “कहानी
में नहीं हूँ”, केवल उसका “गल्पकार हूँ”—कथा-प्रक्रिया का दूसरा महत्त्वपूर्ण आयाम
है। ऊपरकुँवर नारायण का जो उद्धरण दिया गया है, उसमें‘दिव्य-दृष्टि’ की व्याख्या
की गई है। अरसे से वे इस बात पर जोर देते रहे हैं कि उनके लिए ‘पश्य’ या‘देखने’ का
विशेष महत्त्व है। अब तक उनकी व्याख्या को प्रायः रूढ़ और गंभीर दार्शनिक संदर्भों
तक ही सीमित करके समझा गया है। जबकि सच्चाई यह है कि दार्शनिक पदावली का उपयोग करते
हुए भी वे हमेशा एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण की प्रस्तावना करते रहे हैं। ‘तीसरा
सप्तक’ के अपने ‘वक्तव्य’ में ही उन्होंने कविता के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण की
अनिवार्यता बतला दी थी। बाद में अपनी कविताओं और निबंधों में भी बराबर इसका ध्यान
रखा है। ‘आत्मजयी’ और ‘वाजश्रवा के बहाने’ में उन्होंने इसे अनुभव के विशिष्ट पहलू
से जोड़कर प्रस्तुत किया। उनके लिए जानने और अनुभव करने का महत्त्व अलग-अलग नहीं है। इसलिए
वे बहुत विनम्र भाषा में कहते हैं कि समन्वित रूप में ज्ञात की अनुभूति और अनुभूत
का ज्ञान लेखन या रचना-प्रक्रिया का पहला सबक है। यानी पात्र और सूत्रधार के रूप में
उपस्थिति और अनुपस्थिति का केवल ज्ञान ही नहीं, अनुभव भी ज़रूरी है। यह बात जितनी उनकी
कविता के बारे में सही है, उतनी किसी दूसरे कवि की कविताओं के बारे में भी सही होनी
चाहिए।
‘उपस्थिति’ और ‘अनुपस्थिति’के रूप में ‘हूँ’ और‘नहीं हूँ’
का अभिधामूलक अर्थ करना एक तरह की सपाटबयानी हो जाएगीऔर सपाटबयानी आलोचना के लिए
घातक है। यदिसपाटबयानी को ‘एक्सीड’ करना है तो सबसे पहलेअभिधा को ही ‘एक्सीड’ करना
होगा। यानी अभिधा के रास्ते होकर ही व्यंजना की ओर जाना होगा।वास्तव में ‘हूँ’
अपनी कहानी या रचनाके भीतर उपस्थित होना है, जिसके लिए अलग से कोई सफाई देने की ज़रूरत
नहीं है। इसी तरह अपनी कहानी में ‘नहीं’ होने का मतलब अपनी रचना को रचना के दायरे
से बाहर खड़े होकर देखना है। हमारे प्राचीन महाकाव्य में जिसे ‘दिव्य-दृष्टि’ कहा गया
है, कवि के द्वारा उसकी व्याख्या अपनी रचना-प्रक्रिया को देखने-परखने कीकुंजी के
रूप में की गई है जिसपर ध्यान देना चाहिए। नितांत लौकिक धरातल पर लाकर इस तथाकथित
दिव्यता की रचनात्मकता से जोड़ते हुए व्याख्या की गई है। आगे आप पाएँगे कि कुँवर
नारायण की व्याख्या में और रचना में नितांत प्राचीन भी अत्याधुनिक महत्त्व का हो जाता
है। कोई भी बड़ा कवि ऐसा कर सकता है, और उसके लिए ऐसा करना कोई आश्चर्य की बात नहीं। कवि
ने अरसे से इस बात का ध्यान रखा है और सर्जनात्मक उद्येश्यों के अनुकूल परंपरा
कादोहन किया है। वह इतना सावधान है कि गतानुगतिकता की गिरफ्त में आ ही नहीं सकता।
ऐसा इसलिए भी है कि वह आधुनिकता को केवल मूल्य ही नहीं, मूल्य से आगे बढ़कर एक ‘दृष्टि’
मानता है।‘मूल्य’ और ‘दृष्टि’ को लेकर जिस कवि की समझ इतनी सुलझी हुई हो, उसके
बारे में यदि समीक्षा में किसी तरह की सपाटबयानी की जाय तो यह स्वयं समीक्षा-कर्म के
सतहीपन का ही उदाहरण होगा। इसी अर्थ में, जैसा कि बिलकुल आरम्भ में ही कहा गया, कुँवर
नारायण का रचना-कर्म स्वयं आलोचना-कर्म के लिए भी एक चुनौती की तरह है।
‘प्रथम पुरुष पुल्लिंग’ एक और बीज-पद है जिसे सुलझाते हुए
कुँवर नारायण की कविता की रचना-प्रक्रियातक पहुँचा जा सकता है। कथावाचन की एक भारतीय शैली प्रथम
या उत्तमपुरुष की भी रही हैजिसमें नैरेटर अपने बारे में बतलाते हुए सीधे कथा में
प्रवेश करता है या कराता है। आरम्भ मेंवह प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित होता है। कथा
के आगे बढ़ते ही नैरेटर छद्मवेशी होने लगता है। कथा में वह एक रचयिता के रूप में
संलग्न रहता है और पूर्व-निश्चित घटनाओं का चित्रण भी करता है, लेकिन रचते
हुएस्वयं अलग-अलग भूमिकाओं में आता रहता है और घटनाओं की नई-नई श्रृंखलाओं का सृजन भी
करता चलता है। किसी बड़ीकथा में ‘कहानी-के-भीतर कहानी’ या किसी बड़ी कविता में ‘कविता-के-भीतर
कविता’ की रचनाको इस शिल्प का एक उदाहरण कह सकते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में प्रथम
पुरुष क्रमशः मध्यम और कभी-कभी अन्य पुरुष में बदल जाता है। इसे यों भी कह सकते हैं
कि रचयिता तीन स्तरों परक्रमशः तीन-तीन भूमिकाओं का निर्वाह करता है। ‘रामायण’ और
‘महाभारत’ में प्रकट-अप्रकट रूप से वाल्मीकि और व्यास की उपस्थिति हमारे साहित्य
में इसके प्रमाणिक उदाहरण हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसे किसी फिल्म की कहानी केऐन
बीच में सहसा निर्देशक ‘सेकेंड’ या ‘थर्ड पर्सन’ के रूप में उपस्थित होता है और
अपनी संक्षिप्त भूमिका के बाद तुरंत गायब हो जाता है। उस समय हमारी चेतना में कथा
या दृश्य का प्रवाह इतना हावी होता है कि सहसा एक अलग और नए पात्र के रूप में हम
उसे ‘आईडेंटीफाई’ नहीं कर पाते। इसलिए कुँवर नारायण जब ‘प्रथम पुरुष पुल्लिंग’ कहते
हैं तो इस बारे में हमें स्पष्ट रहना चाहिए कि वे रचनाकार की भूमिका के एक स्तर की—
या पहले स्तर की— बात कर रहे हैं, अंतिम रूप से उसकी भूमिकाओं को किसी एक ही चौखटे
में बाँधने की बात नहींकर रहे। ‘मेरी कहानी’ कविता में यदि उन्होंने इस बात का
केवल संकेत दिया है तो‘ग़ैर हाज़िर पात्र’में इसका कुछ खुलासा किया है, जिसमें पात्र
की उपस्थिति और अनुपस्थिति का संदर्भ कथात्मक के साथ-साथ नाटकीय अभिप्रायों को भी व्यंजित
करता है।
ए. के. रामानुजन
|
इस संदर्भ में ए.के.रामानुजन के प्रसिद्ध निबंध ‘वेयरमिरर्स
आर विंडोज’ का ज़िक्रज़रूरी है । निबंध के‘टू एपिक्स’ उपशीर्षक में उन्होंने कथा-उपकथा
की इस जटिल संरचना की व्याख्या करते हुए ‘आत्म-निर्देशन’ (Self-Reference) की परिकल्पना प्रस्तुत की है और ‘रामायण’
तथा‘महाभारत’ के उदाहरणों के आलोक में उसे स्पष्ट किया है। वे‘आत्म-निर्देशन’ की परिकल्पना
एक उपकरण के रूप में करते हैं और बतलाते हैं कि इस प्रक्रिया द्वारा आसानी से समझ
में आ सकता है कि प्राचीन काव्य किसी एक ही व्यक्ति या रचयिता द्वारा नहीं लिखे गए,
बल्कि व्यक्तियों या रचनाकारों के समूह द्वारा लिखे गए हैं। वे कथा के अलग-अलग
रूपान्तरों (Versions) की पृष्ठभूमि में भी इसी बात को
देखते हैं। उन्होंने लिखा है, “...भारतीय महाकाव्य ढाँचागत कहानियों के रूप में
सामने आते हैं: जिन चारणों ने महाकाव्यों की रचना की है, वे इसकी कथा भी बताते चलते
हैं कि क्यों और कैसे उन्होंने इन कहानियों की रचना की... ‘महाभारत’ में भी इस
बारे में कथा आती है कि‘क्यों’ और ‘कब’ इसे कहा गया... व्यास, जो कि ‘महाभारत’ के
रचयिता हैं, इस कथा में एक पात्र भी हैं: वे युद्ध करने वाले परिवारों के प्रपितामह
हैं, और अनेक निर्णायक अवसरों पर (अन्य पुरुष के रूप में) कथा में आते रहते हैं।”(The Collected Essays of A. K. Ramanujan; Oxford India Paperbacks/2013,
page-21-22)रामानुजन कथा-संरचना की जटिल पद्धति को समझाने के लिए जिस युक्ति का सुझाव
देते हैं, वह बिलकुल ठीक है। लेकिन यहाँ विशेष रूप से ध्यान देने वाला पक्ष यह है
कि उन्होंने ‘अन्य पुरुष’ के रूप में कथा में व्यास के प्रवेश की बात की है। थोड़ी
देर के लिए कथा में व्यास के प्रवेश के कुछ प्रसंगों पर ध्यान दें तो बात और
स्पष्ट होगी। ‘महाभारत’ के लगभग आरंभ का एक प्रसंग है जब सत्यवती के सामने
हस्तिनापुर राज-परिवार की वंश-रेखा (को कायम रखने)की समस्या आती है। संतति परंपरा
की इस समस्या के समाधान के लिए वह व्यास को बुलवाती है। व्यास यहाँ किसी अन्य
पात्र की तरह ‘अन्य पुरुष’ के रूप में आते हैं। इसके विपरीत जब वे ‘समय’ के
प्रतीक-रूप में कथा का वाचन करते हैं और बीच-बीच में कहते रहते हैं कि ‘मैंतो जानता
ही हूँ कि क्या होने वाला है’ या‘सारे प्रश्नों के उत्तर केवल मैं ही जानता हूँ’,
तो ‘फर्स्ट पर्सन’ के रूप में उनकी उपस्थिति पर कोई संदेह नहीं होता। नियोग-क्रिया
में अंबिका और अंबालिका के भयभीत हो जाने के बाद जब वे सत्यवती से कहते हैं कि ‘क्या
करूँ माते, काल मेरे वश में नहीं है’, तो वे ‘सेकेंड पर्सन’ के रूप में सामने आते
हैं। इसी तरह युधिष्ठिर के यज्ञ में वे ‘थर्ड पर्सन’ के रूप में पधारते हैं, लेकिन
यदा-कदा जब भविष्यवाणियाँ करते हैं तो फिर से ‘फर्स्टपर्सन’ की भूमिका में आ जाते
हैं। यदि रामानुजन के शब्दों में कहना हो तो कहेंगे कि कथा के ये स्थल “निर्णायक
अवसरों” वाले हैं, लेकिन यदि उनकी बातों से केवल‘थर्ड पर्सन’ वाला अर्थ हीध्वनित
होता हुआ लगे तो हमें फिर से सावधान हो जाने की ज़रूरत है। जैसा कि पहले कहा गया, रचनाकारकी
भूमिकाओं को उनके क्रम या व्यतिक्रम मेंविकसित होते हुए तीन-तीन स्तरों तकजाकर सोचना
चाहिए। इस बात को ध्यान में रखने पर रामानुजन या कुँवर नारायण के अभिप्राय को केवल‘प्रथम
पुरुष’ या केवल ‘थर्ड पर्सन’ के सीमित दायरे से बाहर जाकर भी ग्रहण किया जा सकेगा।
हमने ‘ग़ैर हाज़िर पात्र’ कविता को कथा-तत्त्व की दृष्टि से
पढने का प्रस्ताव रखा है।इसी दृष्टि से कुँवर नारायण की नई कृति ‘कुमारजीव’ का भी एक
पाठ संभव हो सकता है। यहाँ बुद्ध की विचार-परंपरा में अपना परिचय देने के बाद
कुमारजीव मानो एक साथ कई समयों में संतरण करता है या कई समयों में यात्रा करता है। एक
समृद्ध काव्यानुभव और काव्य-भाषा के साथ यह प्रसंगह मारे सामने आता है। ‘कुमारजीव’ के
पहले खंड को ध्यान से पढने पर पता चलता है कि बुद्ध, कुमारजीव और कुँवर नारायण आपस
में एक बहुत ही महीन धागे से जुड़े हुए हैं। इन सबके बीच एक अदृश्य शृंखला-सी बुनी
हुई लगती है, जिसके माध्यम से तीन-तीन स्तरों पर संवाद संभव होता है। कहीं एकालाप
की अवस्था में कुमारजीव बुद्ध को याद करता है, उनसे संवाद करता है और कहीं अपने
समय को ‘नैरेट’ करता है। इन सबके बीच कभी स्वयं कवि भी दूर से कुमारजीव को सुनता
है, कभी स्वयं उसके साथ हो लेता है तो कभी वह कुमारजीव और उसके समय को ‘नैरेट’
करता है। कभी-कभी फ़र्क कर पाना मुश्किल हो सकता है कि ‘नैरेशन’ कुमारजीव का है या स्वयं
कवि का। बिलकुल इसी ढाँचे से ‘कुमारजीव’का अथ होता है:
मैं
तथागत के साथ हज़ारों साल लम्बी
एक महायात्रा पर निकला हूँ
हमें सदियाँ पार करनी हैं साथ-साथ
हमारे रास्ते में पड़ेंगे
न जाने कितने संसार और कितने वीरान
बेहद सधे हुए कौशल से कवि ‘प्रथम
पुरुष’ और‘मध्यमपुरुष’ का भेद मिटा देता है औरसमग्र प्रभाव के रूप में बचता है एक
लंबी कहानीका‘नैरेशन’। और जब भूमिकाओंमें परिवर्तन होता है तो कुमारजीव की आवाज़ से
आवाज़ मिलाकर कवि बोलता है:
सविनय
लौट आता हूँ कूछामें—अपने युग में—
क़िज़िल की गुफाओं में जहाँ
मैत्रेय के पुनरागमन का उत्सव है।
कुमारजीव (खंडकाव्य) |
भूमिकाओं
में परिवर्तन होते रहते हैं और कथा के पैटर्न पर कविता आगे बढ़ती रहती है। जहाँ
कहीं आवृत्ति लगती है, वहाँ कवि आवृत्ति के नएपन को लेकर चौकन्ना रहता है। जैसे कि
वहपूर्वोक्त कविता मेंकहता है:“जहाँ अपने अन्त तक पहुँचता लगता है वृत्तान्त/वहीं
सेशुरु होती/फिर दूसरी कहानी”।यहाँ ध्यान देना होगा कि पद्धति या तकनीक के रूप में
आवृत्ति का वही मतलब नहीं होगा जो विशिष्ट घटना-प्रसंगों की आवृत्ति का होगा। इसलिए
छोटी कविताओं में इसका अभिप्राय अलग होगा और ‘कुमारजीव’ जैसे खंडकाव्य में अलग। हालाँकि
‘कुमारजीव’ में दोनों अभिप्रायों के लिएइसका अलग-अलग प्रयोग हुआ है।इस संदर्भ में एक
बार फिर से ए.के.रामानुजन को उद्धृत करना ज़रूरी है। अपने एक निबंध में वे लिखते हैं:“मैं प्रस्तावित करना
चाहूँगा कि एक निश्चित प्रकार की आवृत्ति ही किसी बड़े काव्य की संरचना का केन्द्रीय
सिद्धांत है। कोई यह भी कह सकता है कि आवृत्ति या प्रतिकृति किसी भी संरचना का
केन्द्रीय सिद्धांत है। जो केवल एक बार घटित होता हो, वह हमें संरचना के बारे में
बात करने की गुंजाइश नहीं देता।Einmal ist keinmal—यदिकुछ भी एक बार घटित होता है तोवह
सम्पूर्णता में घटित नहीं होता है।”(The Collected Essays of A. K.
Ramanujan; page-163) हालाँकि रामानुजन के प्रस्ताव मायने रखते हैं, लेकिन कोई ज़रूरी
नहीं कि हम उन्हें हू-ब-हू उठाकर किसी कृति पर चस्पां कर दें। जहाँ तक ‘कुमारजीव’ की
बात है, इसमें कुँवर नारायण कहीं-कहीं ‘फ़्लैश-बैक’ तकनीक की मदद लेते हैं; कहीं-कहीं ‘फ़्लैश-फारवर्ड’
की भी, जो पहले भी उनकी कविताओं के शिल्प को एक अलग और विशिष्ट पहचान देती रही है। कुँवर
नारायण आवृत्ति करते हैं, लेकिन रामानुजन के प्रस्ताव से बहुत छूट लेते हुए। चौथे
खंड ‘कूछा वापसी’ में एक प्रसंग है जिसमें कुमारजीव सुदूर स्मृतियों में/सेअपनी ओर
आती हुई तथागत की आहट को महसूसकर पाने की संभावना व्यक्त करता है। यहाँ कवि ‘नैरेटर’
है और‘अन्य पुरुष’ की भूमिका में है कुमारजीव:
विचारों की एक लहर जो उठी थी
हज़ार साल पहले कहीं हिमालय की
घाटियों में
हिमालय को पार करती
फैल गईथी पूरे एशिया में
वही लहर है शायद
उसका द्वार खटखटाती।
उठ कर किवाड़ खोला होगा उसने
‘स्वागत... तथागत!’
पर
वहाँ तो कोई नहीं, आश्चर्य!
कोई तो था—कोई तो था—कोई तो था—
x x
x x x
x x
हिमालयों
के पार
काल के अखंड में आज भी
अनिकेत विचरता है
एक परिव्राजक मन...
साफ़ सुनाई देती है कभी-कभी
रात के सन्नाटों को चीरती हुई उसकी
आवाज़
कोई तो था—कोई तो था—कोई तो था—
ऊपर की बातों को ध्यान रखते हुए
इतने लंबे उद्धरण का औचित्य समझा जा सकता है। यह तो सहज ही लक्षित किया जा सकता है
कि यहाँ आवृत्ति एक सांगीतिक प्रभाव पैदा करती है। यह एक बात हुई। लेकिन बात इतनी ही
नहीं है। यहाँ एक बड़ी कविता की संरचना की ओर भी संकेत है। इसनिबंध में पहलेही “कहानी-के-भीतर
कहानी” पद का प्रयोग किया गया है। यहाँ मुक्तिबोध की ‘अँधेरे में’ और अज्ञेय की ‘असाध्य
वीणा’ की याद आती है और “कविता-के-भीतर कविता” जैसी संरचना पर भी ध्यान जाता है।
‘असाध्य वीणा’ में जहाँ प्रियंवद के लिए “हाँ, मुझे स्मरण है” की कई आवृत्तियाँ
हैं, वहाँ वे मुख्यतः तकनीक के रूप में ही हैं (हालाँकि केवल इसीलिए उनका महत्त्व
कम नहीं हो जाएगा) और‘अँधेरे में’ में जहाँ-जहाँ“भागता मैं दम छोड़/घूम गया कई मोड़”
की आवृत्ति है, वहाँ वह तकनीक से साथ-साथ नायक की विडंबना की नाटकीय अभिव्यक्ति के
रूप में है। मुक्तिबोध में, नाटकीयता, कविता के शिल्प में तो है ही, नायकके चारित्रिक
वैशिष्ट्य में भी है। कुँवर नारायण के यहाँ अज्ञेय और मुक्तिबोध के शिल्प के विकास
का अगला चरण मिलता है। उद्धरण के पहले अंश में जहाँ हिमालय के पार विचार की लहर उठती
है और द्वार खटखटाती है—गहराई से विचार करने पर उसमें एक ‘सामयिक उपस्थिति’या
‘वर्तमानता’ (Temporal Presence) की युक्ति दिखाई पड़ती है। पहले ही अंश में,‘वहाँ तो कोई नहीं’, फिर भी‘कोई तो
था’ की आवृत्ति को कुमारजीव की ‘तात्कालिक/सामयिक प्रतिक्रिया’ (Temporal Response)
के रूप में देखा जा सकता है। उद्धरण के दूसरे अंश में ‘हिमालय’ और ‘कोई
तो था’—दोनोंकी पुनर्प्रस्तुति में‘सामयिक वर्तमानता’ (Temporal Presence)‘कॉमन’
है। इसके अलावा यहाँ और ‘कुमारजीव’ में अन्यत्र भी, जहाँ-जहाँ आवृति है, वहाँ
संदर्भ बदलता हुआ लगता है। सांगीतिक प्रभाव और नाटकीयता तो है ही, लेकिन बिखराव और
ढीलापन नहीं है। कुँवर नारायण की भाषा में एक अद्भुत संयम है (और यह ‘मितकथन’ से
अलग चीज़ है) जो घटना या प्रसंगों से जुड़े हुए वस्तु-पक्ष और समय-बोध को रूप-पक्ष के
गेयता, नाटकीयता, एकालाप और संलाप जैसे तत्त्वों से घुला-मिला देता है, जिसमें
एक-एक तत्त्व के प्रभाव को अलग-अलग पहचान पाना बेहद मुश्किल हो जाता है। दूसरे
शब्दों में यह भी कह सकते हैं किकवि इस कदर क्षमतावान है कि अपने बेहतरीन काव्यांशों
में वह भिन्न-भिन्न कलाओं के सार-तत्त्वोंको एकसाथ मिलाकर प्रस्तुत करता है, जहाँ ‘फॉर्म’
और‘कंटेंट’ का भेद मिट-सा जाता है। यहाँ जिसे हम ‘पहचान की मुश्किल’ कह रहे हैं,
हमारी समझ से उसे किसी भी कवि की साधना की सर्वोच्च उपलब्धि भी कह सकते हैं।
‘कुमारजीव’ में आवृत्ति के दो-एक स्थल और हैं, लेकिन जहाँ हैं, वहाँ वे आवृत्ति की ओर उतना ध्यान नहीं दिलाते, जितना कि नए अर्थ की संभावनाओं की ओर। कुँवर नारायण की कविताके संदर्भ मेंऐसी आवृत्तियों को “केन्द्रीयसिद्धांत” नहीं कहा जा सकता। रामानुजन जब इसे “केन्द्रीय सिद्धांत” कहना चाहते हैं तो उसके पीछे उनका जो प्रबल तर्क है, वह है महाकाव्यों में घटनाओं की बारंबारता या दुहराव। महाकाव्य की कथा में इस दुहराव की योजना वर्तमान काल में बीते हुए ‘समय’ के अनुभवों को‘रिमाइंड’ कराने के अनिवार्य उद्येश्य सेकी जाती है। ज़ाहिर तौर पर कुँवर नारायण के यहाँ भी यह बात है, लेकिन केवल इतना ही नहीं है। उनके यहाँ जो आवृत्ति है, उसे “केन्द्रीय सिद्धांत” के रूप में तो नहीं,एक महत्त्वपूर्ण संरचनात्मक वैशिष्ट्य के रूप में ज़रूर समझना चाहिए। इसलिए ‘कुमारजीव’ में महाकाव्यात्मक गरिमा जैसी विशेषता के होते हुए भी उस पर रामानुजन द्वारा प्रस्तावित संरचना-संबंधी सिद्धांत को हू-ब-हू लागू नहीं किया जा सकता, हालाँकि कुँवर नारायण की कविताओं को समग्रता में समझने के लिए उनकी प्रस्तावनाएँ काफी दूर तक हमारी मदद कर सकतीहैं।
3.
अपने
आलेख में अब हम‘उपकथा’ के अभिप्रायों वाले उस स्थल पर पहुँच रहे हैं, जहाँ से कुँवर
नारायण की नई कविताओं को और भी दूसरे नए आयामों से देखने का सुभीता मिल सकेगा।
मैं ‘उपकथा’ को अभिधा में नहीं, लक्षणा या व्यंजना में समझने का आग्रह कर रहा हूँ।
कथा-प्रक्रिया की विवेचना में ‘कथा’ का अभिधा वाला अर्थ तो था, लेकिन कविताओं के वैशिष्ट्य
के संदर्भ में उन अर्थों का विस्तार भी था। आलेख के पिछले खंड मेंकविताओं में
लक्षित की जाने वाली सबसे बड़ी विशेषता को विश्लेषण का आधार बनाया गया है।यहाँ एक
दूसरी महत्त्वपूर्ण विशेषताकी ओर ध्यान दिलाने का उपक्रम है। यह महत्त्वपूर्ण विशेषता
है कुँवर नारायण की कविताओं से उत्पन्न होने वाला नाटकीय प्रभाव। जिस प्रकार
पूर्व-विवेचन में यह स्पष्ट किया गया कि उनके यहाँ कथा और कविता का अद्वैत है, उसी
प्रकार यहाँ नाटक और कविता के आंतरिक संबंधों की ओर ध्यान दिया जाएगा। आलेख की
सीमा काध्यान रखते हुए उतने विस्तार से तो नहीं, लेकिन अनिवार्य और प्रासंगिक चर्चा
ज़रूर की जाएगी।
पिछले खंड में भी, जहाँ रचयिता की अलग-अलग भूमिकाओं की बात
की गई है, नाटकीयता के एक अभिप्राय को समझा जा सकता है। वहाँ इसे कथा-तत्त्व के
अंतर्गत रखा जा सकता है। लेकिन जब रचयिता द्वारा सृजित पात्रों की नाटकीय क्षमता की
बात होगीतो उसे कथा-प्रक्रिया के दायरे से बाहर रखना होगा और कविता में एक अलग और
स्वतंत्र सत्ता के रूप में उसकी व्याख्या करनी होगी।
‘पक्षधर’ के इसी अंक में प्रकाशित कुँवर नारायण की एक कविता
है ‘ग़ैर हाज़िर पात्र’। कविता में प्रसंग है कि एक छात्र दुनिया की पाठशाला में
अनुपस्थित रहता है, लेकिन दुनिया की नाट्यशाला में एक पात्र के रूप में अपनी
उपस्थिति दर्ज कराता रहता है। असल में वह एक मामूली-सा आदमी है जो एक छोटे-से मकान
में रहता है और एक दूकान में काम करता है। सामजिक-आर्थिक दृष्टि से वह एक निम्नवर्गीय
व्यक्ति भी हो सकता है। ज़ाहिर है कि वह शौकिया अभिनय नहीं करता है, अपने परिवार के
भरण-पोषण के लिए करता है। मंच पर वह एक राजा की भूमिका में होता है और वास्तव में जो
किसी घर की नौकरानीहोती है, वहीउसकी रानी बनती है। वह सब कुछ करता है, लेकिनहै अंततः
पारिवारिक आदमी ही । लगता है कि बनावटी अभिनय को जीते-जीते वह ऊब गया है और रंगशाला
की जगह अबअपने परिवार में जीना चाहता है। (कुँवर नारायण में घर-परिवार-समाज को
लेकर एक बहुत ही अलग तरह की निष्ठा और ललकरही है, जिसकी चर्चा बाद में कभी किसी
दूसरे लेख में की जाएगी) इसलिए वह कहता है: “असलियत सबको पता है/घर घर की.../दर्ज
की जाए/कल से मेरी ग़ैरहाज़िरी।”यहाँ पर यदि किसी को ‘अमीर ख़ुसरो’ कविता की ये
पंक्तियाँ ध्यान में आ जाए तो आश्चर्य की कोई बात नहीं:
ऊब
गया हूँ इस शाही खेल तमाशे से
यह‘तुगलकनामा’—बस, अब और नहीं.
बाकी ज़िन्दगी मुझे जीने दो
सुल्तानों केहुक्म की तरह नहीं
एक कवि के ख़यालात की तरह आज़ाद
एक पद्मिनी के सौन्दर्य की तरह स्वाभिमानी
एक देवलरानी के प्यार की तरह मासूम
एक गोपालनायक के संगीत की तरह उदात्त
और एक निजामुद्दीन औलिया की तरह पाक।
दोनों कविताओं में संदर्भ बिलकुल अलग है, लेकिनगौर करने
वाली जो एक बात है वह है बनावटी और स्वाभाविक जीने के बीच का द्वंद। एक अलग संदर्भ
में अमीर ख़ुसरो भी सत्ता के गलियारे में धीरे-धीरे अपनी भूमिका को रद्द कर देना
चाहते हैं। आज भी अमीर ख़ुसरो और निम्न-मध्यवर्ग का कोई व्यक्ति हमारे इतिहास और
समाज में एक ज़रूरी पात्र के रूप में अपनी-अपनी भूमिकाओं का निर्वाह कर रहा है, ठीक
वैसे ही जैसे रंगमंच पर अभिनेताओं को करना पड़ता है। तो, भूमिकाओं को लेकर इनसभी
पात्रों की यह अवश्यंभावी नियती है।कुँवर नारायण की ख़ासियत यह है कि वे इतिहास और
समाज के चुने हुए पात्रों की इसी नियति को हमारे सामने खोलकर रख देते हैं। दूसरे
शब्दों में इसे एक विडंबना भी कह सकते हैं, जिसमें नियति ही नाटक है और नाटक में
जीना ही नियति है। एक सधे हुए सूत्रधार की तरह कुँवर नारायण नियति की नाटकीयता को
पात्रों की भूमिका में ‘कन्वर्ट’ कर देते हैं। ऐसा करते हुए सहसा ही वे शेक्सपीयर के
बहुत नजदीक पहुँचते हुए लगते हैं:
Allthe world’s a stage
And all the
men and women are merely players
They have
their exits and their entrances
And one man in
his time plays only once
यहाँ शेक्सपीयर और कुँवर नारायण के बीच एक सीधी रेखा खिंचती
हुई लगती है, लेकिन अपने परिकल्पित पात्रों में नाटकीयता के बरताव को लेकर इनमें
पर्याप्त अंतर है। कुँवर नारायण पर फोकस करें तो देख सकते हैं वे पहले जीवन से किसी
नाटक को चुनते हैं और उसकी नाटकीयप्रस्तुति में एक बार फिर सेजीवन की तलाश करते
हैं। एक अनुभवी निर्देशक की तरह पहले वे ‘पात्र’ को प्रोजेक्ट करते हैं और फिर
उसमें‘चरित्र’ की परिकल्पना करते हैं। ताज्जुब वाली बात है कि हिंदी आलोचना
में उनके इस पक्ष की ओर अभी तक समुचित ध्यान नहीं दिया गया है, जबकि रचनाओं के
अलावा अपने सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में भी वे बेहद अंतरंगता से इस पूरी प्रक्रिया
से जुड़े रहे हैं।
यहाँ
पर एक ‘शिफ्ट’ लेते हैं और कुँवर नारायण की कविताओं की इस ख़ासियत को टी. एस. इलियट
के माध्यम से खोलने की कोशिश करते हैं। इलियट ने एक लंबे अरसेतककविता और नाटक के
संबंधों पर गहन विचार-विमर्श किया है। इसी सिलसिले में कैम्ब्रिज में उन्होंने एक निबंध/भाषणप्रस्तुत
किया था जो इस प्रसंग में हमारे लिए बेहदज़रूरी है। इसका शीर्षक है—The Three Voices
of Poetryया ‘कविता की तीन आवाज़ें’। इलियट अपनी मुख्य धारणा को बिलकुल आरंभ मेंही प्रस्तुत
कर देते हैं: “कवि की पहली आवाज़ वह आवाज़ है, जिसमें वह अपने आप से बात करता है—या किसी
से नहीं। दूसरी आवाज़ वह है जिसमें वह छोटे या बड़े श्रोता-समूह को संबोधित करता है।
कवि की तीसरी आवाज़ वह है, जब वह कविता की भाषा में बोलने वाले एक नाटकीय चरित्र को
रचने की कोशिश करता है; जब वह कह रहा हो, वह नहीं जो अपने आप में कहता हो, बल्कि
केवल वही जिसे वह दो काल्पनिक चरित्रों की आपसी बातचीत के दायरों में रहकर कह सकता
हो।” (On Poetry and Poets; FSG Classics, New York/2009, page-96) इलियट के अनुसार पहली और दूसरी
आवाज़ के बीच जो अंतरहै वह “काव्यात्मकसंप्रेषण” की समस्या की ओर संकेत करता है।
दूसरी और तीसरी आवाज़ के बीच का अंतर “नाटकीय, अर्द्ध-नाटकीय और अ-नाटकीय” कविता के
बीच की भिन्नता की ओर संकेत करता है।
‘कुमारजीव’ की चर्चा के प्रसंग में एक हद तक स्पष्ट हो चुका
है कि उसके आरंभिक हिस्से में हमेंकमोबेश कविता की तीनों आवाज़ों का संगीत एकसाथ
सुनने को मिलता है। इलियट जिसे सबसे अधिक महत्त्व देते हैं, वह है कविता की तीसरी
आवाज़। (हालाँकिवे अंग्रेजी साहित्य की पूरी परंपरा से उदाहरण लेते हुए इन तीनों के
आपसी रिश्ते की गहरी छान-बीन करते हैं) इलियट की“तीसरी आवाज़” में नाटकीयचरित्र के
रचने या काल्पनिक चरित्र की नाटकीय प्रस्तुति करने पर बल है। कुँवर नारायण के यहाँ
स्फुट या छोटी कविताओं में पहली और दूसरी आवाज़ों की मिली-जुली उपस्थिति है, जिसे
उनके पिछले संग्रह ‘हाशिए का गवाह’ की‘वे जो नहीं जानते’, ‘सहयात्री’, ‘भर्तृहरि की
विरक्ति’,‘द्वारिका में सुदामा’और यहाँ चर्चित ‘ग़ैर हाज़िर पात्र’ जैसीनई कविताओं
में लक्षित किया जा सकता है। ‘भर्तृहरि की विरक्ति’में तीसरी आवाज़ की ओर जाने की सबसे
अधिक कोशिश मिलती है, जहाँ कविता में आए हुए पात्रों का बयान कवि के बयान से
बिलकुल स्वतंत्र हो जाता है। केवल कविता के अंत मेंकवि सजग रूप से अपनी उपस्थिति
दर्ज कराते हुए‘भरत-वाक्य’ जैसी युक्ति का उपयोगकरता है। दूसरे शब्दों में यह भीकह
सकते हैं कि इस कविता में‘अर्द्ध-नाटकीय’ से‘नाटकीय’ प्रस्तुति की ओर जाने की पूरी
संभावना है। कविता के जिस अंश हो हमने ‘भरत-वाक्य’ जैसी संज्ञा देनी चाही है,
वहयों है:
चेतना को असीम करके देखता है भर्तृहरि
जैसे पत्थर में एक मूर्ति को देखता
है शिल्पी
मूर्ति में एक आत्मा को देखता है
कवि
आत्मा में ब्रह्म को देखता है ऋषि...
हमारा ध्यान इस ओर भी जाना चाहिए
कि कुँवर नारायण की लंबी कविताओं में बहुधा ऐतिहासिक चरित्रों की नाटकीय प्रस्तुति
की गई है। इसलिए इलियट तीसरी आवाज़ में जिसे ‘काल्पनिक चरित्र’ कहते हैं, कुँवर
नारायण के यहाँ वह पहले ‘ऐतिहासिक चरित्र’ है, उसके बाद ‘काल्पनिक’या ‘नाटकीय’। उनकी
कविताओं के संदर्भ में यदि इसे कोई सटीक पद या संज्ञा देना चाहें तो “ऐतिहासिक
कल्पना” कह सकते हैं। उनके यहाँ तीसरी आवाज़ के संदर्भ में इतिहास—कल्पना—नाटकीयताकी
एक क्रमबद्ध शृंखला मिलती है। लंबी कविताओं के विपरीत नए खंडकाव्य ‘कुमारजीव’ में
इसकी पूरी संभावना दिखलाई पड़ती है। कारणवही है— इतिहास, कथा और घटनाओंमें एक खुला
हुआ नाटकोचित स्पेस और प्रदीर्घता।
‘कुमारजीव’ के दूसरे खंड ‘कूछा से कश्मीर’ में कुमारजीव के
माता-पिता जीवा और कुमारायण का बहुत ही विचारोत्तेजक संवाद है। यहाँ यह बताना ज़रूरी
है कि चौथी-पाँचवी शताब्दी के कुमारजीव के जीवन से संबंधित प्रामाणिक स्रोतों की
संख्या मात्र अँगुलियों पर ही गिने जाने लायक है। उसके माता-पिता के बारे में प्रामाणिक
जानकारियाँ तो न के बराबर हैं। इसलिए उसके जीवन का अध्ययन करने वाले अध्येताओं को
हमेशा इतिहास के एक ‘वैक्यूम’ से गुजरना पड़ता है। ऐसी स्थिति में संवाद वाले इस खंड को
पूरी तरह से कवि की मानसी कल्पना ही कह सकते हैं। लेकिन यह कल्पना कहीं से भी
इतिहास को विकृत नहीं करती। ऐसा लगता है कि इस संपूर्ण कृति में कवि का उद्येश्य वस्तुतः एक
ऐसे सर्जनात्मक अभियान पर निकलना रहा है, जिसकेबहाने वह इतिहास के उस ‘वैक्यूम’ को जगह-जगह
कविता से पाट देना चाहता है। कुँवर नारायण ज़रूरत भर हीइतिहास को कविता की भाषा में
बरतते हैं और फिर एक ओट ले लेते हैं ताकि न इतिहास की धारा बाधित हो और न ही कविता
का प्रवाह। यहाँ भी जीवा और कुमारायण की संवाद-योजना में वे इतिहास की ‘वैक्यूमाइज्ड’
संभावनाओं के प्रति पूरी तरह से वस्तुनिष्ठ बने रहते हैं और कविता के प्रतिपूरी तरह
से उदार। उदारता और वस्तुनिष्ठता एक दूसरे को कहीं भी काटती नहीं, बल्कि समर्थित
करती चलती है। और इसी समर्थन या सहजीवी भाव से कविता में इतिहास की अदृश्य धाराओं
को पकड़ लेने की एक अपूर्व क्षमता पैदा हो जाती है:
तुम
देख रही हो जीवा, जिस जीवन को
केवल एक नीड़ के परिसर में फुदकते
हुए
मैं देख रहा हूँ उसके कन्धों पर
उगते सोने के डैने
वह
तुम्हारा पुत्र है तभी तक
जब तक तुम्हारी गोद में है :
पृथ्वी पर पाँव रखते ही
पूरी पृथ्वी उसकी माँ हो जाती है
हमने केवल एक उद्धरण दिया है। ‘कुमारजीव’ में ऐसे अनेक स्थल
हैं, जहाँ इतिहास की खोई हुई कड़ियों में चरम नाटकीय प्रसंगों की अत्यंत सार्थक अभिव्यक्ति
की गई है। शुरू से आखीर तक ‘कुमारजीव’ के अनेक घटना-प्रसंगों में ‘तीसरी आवाज़’ की
बहुल अर्थ-ध्वनियाँ हैं और कहीं-कहीं तो बहुत दूर तक बिम्बों की माला में गुंफित
हैं। इस बहुलता में कहीं भी ऐसा नहीं है कि आवाज़ें एक-दूसरे को ‘ओवरलैप’कर रही हों
या उनका कोलाहल अर्थ-ग्रहण में बाधा पैदा कर रहा हो। वस्तुतः कोलाहल है ही नहीं,
इसलिए आवाज़ की बारीक परतों को भी साफ़-साफ़ सुना जा सकता है। पूरी कृति में ये आवाज़ें
आपस में मिलकर एक अद्भुत ‘सिमिट्री’ बनातीहैं। इसलिए यहाँ किसी एक आवाज़ कोदूसरी
आवाज़ की सत्ता से एकदम अलग करके सुना ही नहींजा सकता। आवाज़ों कीयह‘सिमिट्री’ अर्थ-ग्रहण
के साथ-साथ बिम्ब-ग्रहण केलिए भी बेहद ज़रूरी हो जाती है। यों, कोई चाहे तो कुँवर
नारायण के साक्ष्य के आधार पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की बात को कुछ आगे बढाते हुए
ऐसा कह सकता है कि कवितामें केवल अर्थ-ग्रहण से ही काम नहीं चलता, बिम्ब-ग्रहण भी
अपेक्षित है;और अर्थ-ग्रहण और बिम्ब-ग्रहण तभीसंभव है जब उसमें दो-दो आवाज़ों की एक
आंतरिक ‘सिमिट्री’ हो।
इलियट
ने तीसरी आवाज़ के प्रसंग में इतिहास की कोई चर्चा नहीं की है, लेकिन कुँवर नारायण के
संदर्भ में इतिहास को छोड़कर इसकी चर्चा की ही नहीं जा सकती। इसलिए, जैसा कि हमने
रामानुजन के प्रसंग में कहा था, यहाँ भी इलियट की धारणा को कुछ आगे बढ़ाकर ग्रहण करने
की ज़रूरत है, हू-ब-हू नहीं। इसका एक मतलब यह भी है कि कोई बड़ा कवि किसी बड़े
सिद्धांतकार की धारणाओं को पढने और उसे समझने के हमारे तौर-तरीकों में संशोधन और
परिवर्द्धन करने की माँग कर सकता है। हम देखते हैं कि कुँवर नारायण एक विशेष
संदर्भ में ए.के.रामानुजन और टी.एस.इलियट को ग्रहण करने के हमारे मान्य तरीकोंको
इसी तरह संशोधित-परिवर्द्धित करते हैं, उसे कुछ और आगे बढा देते हैं। इससे एक और
अर्थ ध्वनित होता है। वह यह कि केवल सिद्धांत के पैटर्न से ही कविता को नहीं पढ़ना
चाहिए, बल्कि कविता के पैटर्न से भी सिद्धांत को पढ़ना चाहिए। इससेकविता औरसिद्धांत
के क्षेत्रों में तो लाभ मिलेगा ही, मूल्यांकन या आलोचना-कर्म के लिए भी नई दिशाएँ
मिलती रहेंगी।
4.
आलेख
के इस खंड में कुँवर नारायण की कला-दृष्टि के आलोक में उनकीकविताओं को समझने का
उपक्रम किया जाएगा। उनकी कविताओं की रचना-प्रक्रिया में विभिन्न कलाओं की समन्वित चेतना
का निर्णायक योगदान रहा है। इस दृष्टि से उनकी उल्लेखनीय नई कविताएँ हैं ‘पत्थर के
प्राण’, ‘अंकोर वाट’, ‘राग भटियाली’ और ‘हवेली की दर्शक-दीर्घा में’। इन कविताओं का
अध्ययन करते हुए असल में हमारा इरादा कथेतर तत्त्वों की सर्जनात्मक उपयोगिता पर फोकस
करना भी है। कलाओं पर केंद्रित अपनेएक निबंध में कुँवर नारायण लिखते हैं: “कलाओं को
आमतौर पर मैंने मनुष्य की मानसिक, जैविक ऊर्जा की रचनात्मक क्षमता के अर्थ में
पहचानना सार्थक पाया है xxx हर कला का अपना अलग एकान्त और एकाग्रता का तरीका होता
है, लेकिन उसकी रचना संदर्भ-बहुल होती है। वह अपनी दुनिया के माध्यम से दूसरों की
दुनिया से भी जुड़ी रहती है xxx मैं हर कलाओं को प्रमुखतः एक जटिल संरचना के रूप
में देखता हूँ। उसका उस रूप में होना बहुत कुछ वैसा ही है जैसा कि जीवन या प्रकृति
का एक सरल जीवांश से विकसित होकर इतनी बड़ी सृष्टि में बन जाना रहा होगा।” (शब्द और
देशकाल, पृ० 43-44) वे ‘श्वेताश्वतरोपनिषद’ से विविधता
में एकता और एकता में विविधता देखने वाले जीवन-दर्शन का एक संदर्भ देते हुए बतलाते
हैं कि शायद कला-दर्शन के मूल में भी यही बात है, “मूलतः यही कलादृष्टि है— और इसी
में विभिन्न कलाओं के अन्तर्सम्बन्धों की जड़ें हैं।”यों यदिकवि के पक्ष से सोचें
तो कला के प्रति ‘जैविक ऊर्जा’, ‘संदर्भ-बहुलता’ और‘सृष्टि-निर्माण’ जैसी समग्र
दृष्टियाँ इन कविताओं को समझने का प्रस्थान बिंदु हो सकती हैं।
जैसे कोई मूर्तिकार अपनी संवेदना की तरलता से अनगढ़ पत्थर को
भी पिघला देता है, वैसे ही कुँवर नारायण अपनी सर्जनात्मक क्षमता से साधारण शब्दों
में भी एक कलात्मक जादू पैदा कर देते हैं। ‘पत्थर के प्राण’ कविता में मूर्ति
कीरचना-प्रक्रियावस्तुतः कविताकी रचना-प्रक्रिया का साक्ष्य बन जाती है। पत्थर पर
चोट पड़ती है और ‘आह’ की आवाज़ निकलती है।उसकी‘आह’ उसके प्राण को संकेतित करती है।
यानी मूर्तिकार के लिए जैसे यह ज़रूरी है कि वह पत्थर के भीतर के जीवन-स्पंद को
सुने, वैसे ही कवि के लिए ज़रूरी है कि वह शब्दों के भीतर उनकी धड़कनों को महसूस कर सके।
मूर्तिकार पत्थर में प्राण की तलाश करता है और इसी खोज में वह एक नई मूर्ति बना डालता
है। पत्थर के जिस हिस्से को काटकर मूर्ति बनाई गई, वहउसका घायल हृदय बनजाता है। और
मूर्ति की परिणति के साथ ही:
मूर्तिकार
देख रहा था अपने
लहुलुहानहाथों को
घायल दोनों होते हैं— पत्थर और
मूर्तिकार या शब्द और शब्दकार। घायल होने की पीड़ा के बीच से ही रचना का जन्म होता है।
संभवतः इसी कोटि के क्लेश को कालिदास ने पुनर्नवता की उपलब्धि कहा है:“क्लेशः फलेन हि
पुनर्नवतां विधत्ते।” यानी रचना के बनने की पीड़ा एक नई उपलब्धि में परिणत हो जाती है।
कालिदास जिस प्रक्रिया को सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत करते हैं, कुँवर नारायण
उसे फिर से व्यावहारिक प्रक्रिया के स्तर पर ले आते है। इसलिए उनकी पुनर्नवा
कविताओं को पढ़ते हुए कविता के भीतर छिपे गंभीर आशयों को पकड़ना बहुतज़रूरी है। यह तो
एक बात हुई। अब दूसरी बात। कुँवर नारायण चूँकि कलाओं को संदर्भ-बहुल मानते हैं और
दो कलाओं की परस्पर आवाजाही को भी स्वीकार करते हैं, इसलिए एक कवि होते हुए भी वे
मूर्ति-निर्माण प्रक्रिया के संवेदनशील पक्षों को बखूबी उभार पाते हैं। कला-निर्माण
की प्रक्रिया को विचार या चिंतन के स्तर पर समझाना एक बात है, लेकिन उसकी उदात्तता
को कविता में उतार लाना बिलकुल दूसरी बात। कुँवर नारायण दोनों स्तरों पर यह संभव
करते हैं। इसलिए उनके कला-चिंतन को केवल सैद्धांतिक कहकर परे नहीं हटाया जा सकता।
अतः उन जैसे कवियों के संदर्भ में यह बेहद ज़रूरी हो जाता है कि उनके चिंतन और कविता
को अलग-अलग नहीं, बल्कि एकसाथ पढ़ा जाय। कोई चाहे तो एक समानान्तर अध्ययन के लिए भी
पढ़ सकता है और कोई‘क्रॉस-रेफरेंस’ के लिए भी।
हिन्दी में प्रचलित फैशन से बिलकुल अलग कुँवर नारायण ने कला
से संबंधित बहुत अधिक कविताएँ नहीं लिखी हैं। लेकिन जितना लिखा है, उन सबमें
‘अंकोर वाट’ निस्संदेह ही सर्वश्रेष्ठ है। यह कविता ‘इन दिनों’ संग्रह की ‘खजुराहो’
और ‘हाशिए का गवाह’ संग्रह की ‘संदर्भ: गुएर्निका’ जैसी कविताओं से बहुत आगे कीरचना
है।हालाँकि अपनी विशिष्ट संरचना के विश्लेषण के लिए यह कविता अंतर्सांस्कृतिक अध्ययन (Intercultural Study) के संदभों की भरपूर माँग करती है, लेकिन प्रस्तुत लेख के कलेवर को देखते हुए
फिलहाल उतना विस्तार संभव नहीं है।
अंकोर वाट वस्तुतःकंबोडिया में स्थित मन्दिर-समूहों का एक
नायाब नमूना है जिनके निर्माण की प्रक्रिया बारहवीं शताब्दी में ही शुरू हो गयी थी।
आरंभ में इसे विष्णु की पूजा के केन्द्र के रूप में विकसित किया गया, लेकिन
कालान्तर में बौद्ध प्रभावों के चलते यह समूची दुनिया में बौद्ध उपासना का एक
विश्रुत तीर्थ बन गया। यहाँ की कलाकृतियों में भारतीय महाकाव्यों औरधर्म-साधना के
विविध प्रसंगों का प्रभाव पाया गया है। सैंकड़ों एकड़ क्षेत्रफल में फैले ये मंदिर-समूह
अब मानवीय और प्राकृतिक स्थापत्य के मिले-जुले रूप की साकार प्रतिमा हैं। स्थापत्य
विशेषज्ञों ने इसे ‘पत्थरों पर उत्कीर्ण महाकाव्य’ (An epic in
stone) की संज्ञा दी है। कुछ इतिहासकारों
ने संस्कृति की इस समृद्ध रचना-प्रक्रिया को संस्कृति के‘भारतीयकरण’ (Indianization)की
संज्ञा दी है तो कुछ ने इसे ‘भारतीय संस्कृति का एशियाईकरण’(Asianization
of Indian Culture) कहा
है। यदि संस्कृतिकरण की इस शब्दावली को थोड़ी देर के लिए परे कर दें तो भी इतना तो
तय है कि कुँवर नारायण के यहाँ ऐसा समृद्ध आदान-प्रदान केवल ऐतिहासिक अध्ययन का
मामला नहीं है, बहुत गहरे जाकर संस्कृति को अपने भीतर धड़कन के रूप में महसूस करने का
मामला है। इस दृष्टि से उनका खंडकाव्य ‘कुमारजीव’ समूची आधुनिक भारतीय कविता में
अपनी तरह का एक अकेला उदाहरण है। इसके ‘प्राक्कथन’ में वे विचारों के सांस्कृतिक
अभियानों के महत्त्व को ख़ासतौर पर रेखांकित करते हैं। इस बात पर उनकी निगाह बहुत
सतर्क है कि कैसे एक संस्कृति के बीज दूसरी संस्कृति में जाकर पल्लवित और विकसित
होते रहे हैं। संरचना की दृष्टि से ‘अंकोर वाट’ कविता को ‘कुमारजीव’ के ही एक
छिटके हुए अंश के रूप में देखना चाहिए— किसी वटवृक्ष की उस शाखा की तरह जो उससे टूटकर
किसी दूसरी जगह उग आया हो। इसी कारण ‘अंकोरवाट’ को‘कुमारजीव’ से अलग भी ‘कुमारजीव’
कीही एक कविता के रूप में पढ़ सकतेहैं। मेरा मतलब ‘अंकोर वाट’ कविता को ‘कुमारजीव’
की कविता-शृंखलाओं की आनुवांशिक परंपरा के विकास के रूप में देखने से है।
अंकोर वाट, कंबोडिया |
अंकोर वाटकी कलात्मक संरचना में मानवीय और प्राकृतिक
स्थापत्य का अद्भुत सहमेल हुआ है। अक्सर हमलोग घर की बाहरी दीवारों पर देखते हैं
कि उनकी दरारों में से कोई पीपल का पेड़ उग आया है। हम इसे बहुत सजग होकर ‘ऑब्जर्व’
नहीं करते। धीरे-धीरे वह दीवार की दरारों में इस कदर फैलने लगता है कि दीवार दो
फाँकों में टूटती हुई लगती है। यही प्रक्रिया जब सैकड़ों वर्षों के लम्बे कालखंड तक
चलती रहती है तो अंकोर वाट जैसे स्थापत्य का स्वरूप निर्मित होता है। अंकोर वाट में
मन्दिरों के छज्जों पर, शिला की दो मजबूत दीवारों की संधियों पर और शिला से संलग्न
ऊँचे चबूतरों पर ये वृक्ष सदियों से अपनी जड़ें जमाए हुए खड़े हैं। भूमि की खोज में
नीचे आती हुई इनकी जड़ें एक ओर से मन्दिर की दीवारों को सहारा देती हैं। ऑक्टोपस की
भुजाओं-सी ये जड़ें दीवारों और छज्जों को अपनी गिरफ्त में ले लेती हैं। बहुत जगहों पर
येजड़ें मन्दिरों के मानवीय स्थापत्य से एकाकार हो गई हैं और बहुत जगहों पर
मन्दिरों के हिस्से जड़ों के शिल्प से मिलकर तदाकार हो गए है। कविता की छपाई के पैटर्न
को देखते हुए इसका एक अंदाजा लगाया जा सकता है। मानव और प्रकृति के संयुक्त
तत्त्वावधान में निर्मित इस विशाल और अनुपम कारीगरी को कुँवर नारायण ने एक छोटी-सी
कविता में पैबस्त कर दिया है। यों इस कविता के माध्यम से कवि प्रकृति और मनुष्य में
अंतर्निहित जड़ता और चैतन्य के गुणों के परस्पर आदान-प्रदान को संभव बानाता है, उन्हें
एक-दूसरे में शिफ्ट कर देता है।
कुँवर नारायण संयुक्त कलाओं की इतनी महीन बारीकियों को कविता
में कैसे विन्यस्त करते हैं?उनकी टिप्पणियों पर दुबारा ध्यान दिया जाय तो पता चलेगा
कि यहसब कुछ मनुष्य(और प्रकृति) की जैविक ऊर्जा की रचनात्मक क्षमता के कारण ही
संभव हो पाता है। अंकोर वट की संरचना में जैसे दो स्थापत्यों का सहमेल है, उसी तरह
अपनी कविता में कुँवर नारायण जड़ों के शिल्प को बोधिसत्त्व सेसंबंधित साधना-पद्धतियों
से जोड़ते हैं। जड़ों और शिलाओं का शिल्प एक ठोस बिम्ब केरूप में इन साधनाओं को
परिभाषित करता है। यह कविता का एक पक्ष है जो उसे संस्कृति के व्यापक परिप्रेक्ष्य
में लाकर खड़ा कर देता है। इसका एकदूसरा पहलू भी है जिसमें वह स्वयं ही इतिहास की
क्रूरताओं के सामने जाकर खड़ी हो जाती है। और यहीं पर कविता खुल जाती है:
किसीपोल
पोट के नृशंस यथार्थ के विरुद्ध
कलाओं का शांतिवन
रचता
महाकरुणा काअतियथार्थ
पोल पोट कंपूचिया का तानाशाह शासक
था। उसने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ कंपूचिया की केन्द्रीय समिति के मुख्य सचिव के रूप
में अपना काम शुरू किया और बाद में वहाँ का प्रधानमंत्री भी बना। अपनी नृशंस
नीतियों के कारण उसने 1975-1979 के बीच कंपूचिया की लगभग दो लाख आबादी का विनाश कर
दिया। नियत समय से अधिक कार्य, रोग, भुखमरी और फाँसी जैसी अमानवीय परिस्थितियों
मेंमानवीय अस्तित्व की सामूहिक विनाश लीला के घिनौने यथार्थ के बरक्स कवि मानवीय और
प्राकृतिक कला के सहभाव को अतियथार्थ के रूप में प्रस्तुत करता है। यहाँ, बल्कि
अन्यत्र भी, अदम्य मानवीय सर्जनेच्छा के प्रति कुँवर नारायण का यह दृढ़ विश्वास उभर कर
सामने आता है कि ऐसी तमाम विनाशलीलाओं की आत्यंतिक, नारकीय परिस्थितियों के बावजूद
भी जीवन के प्रति हमारे आशा-तंतुओं को सँभाल कर रखा जा सकता है। वास्तव में एक कवि
की ओर से इससे बड़ा प्रतिरोध या प्रतिउत्तर और क्या हो सकता है!
कुँवर नारायण संगीत के भी प्रेमी हैंऔर संगीत के प्रति उनका
यह लगावमहज ‘एलीट इंटरटेंमेंट’ नहीं है। वास्तव में उनकी कविता में कलाओं की
उपस्थिति कविताओं के ‘बाय-प्रोडक्ट’ या‘अनुरचना/उपरचना’ के रूप में है। और सबसे
बड़ी बात है कि कलाएँ उनके लिए जीवनके बहुत नजदीक से गुजरने वाली पटरियों की तरह
हैं, जिनपर चलते हुए एक अलग तरह की समृद्ध यात्रा का आनंद लिया जा सकता है। संगीत
में सबसे पहले वे जीवन की राग-रागिनियों की पहचान करते हैं और फिर कविता को संगीत
की सिंफनी में ढाल कर प्रस्तुत करते हैं। इसलिएइस कोटि की उनकी कविताओं को एक
जीवन-राग की तरह पढ़नाचाहिए। ‘राग भटियाली’ कविता के फॉर्म और कंटेंट में भी यह बात
है। और जैसा कि आनंद कुमारस्वामी कहते हैं, “भारतीय गायक एक कवि होता है और कवि एक
गायक। अपने सभी आयामों में गीतोंका मुख्य विषय-वस्तु मानवीय या ईश्वरीय प्रेम ही
है, या फिर ईश्वर की सीधी प्रसंशा, और यहाँ शब्द हमेशा सजीव और भावप्रवण होते हैं।” (The Dance of Shiva; Rupa Publications/2013, page-100) कुँवर नारायण एक गायक और एक कवि की सयुजउपस्थिति के
रूप में इस कविता की रचना करते हैं। यहाँ सम्पूर्ण जीवन-राग से युक्त हुई एक ध्वनि और
सम्पूर्ण जीवन-राग से युक्त शब्दों काभीसायुज्य है। बाउल संगीत में अंतिम स्वर को
खुला छोड़ दिया जाता है, जो एक उन्मुक्ति में विलय हो जाता है। यहतो बाउल की एक
खूबी है, लेकिन कुँवर नारायण संगीत की सार्वभौम चेतना को साथ लेकर चलते हैं। वे लिखते
हैं, “साधारणतः एक राग बिलम्बित में आलाप से शुरू होकर द्रुत से होता हुआ समापन तक
पहुँचता है— या अंत में विलय होता है। जीवन की गति इससे उलटी होती है। तीव्रअथवा
द्रुत चंचल से शुरू होकर वह क्रमशः एक समापन या अन्त में ठहर जाती है। संगीत से
हमें जो एक राहत-सी मिलती है उसके मूल में हो सकता है कहीं यह व्यतिक्रम अथवा
विपर्यय भी एक कारण हो जो जीवन-ऊर्जा का एक बढ़त के रूप में एहसास कराता है—
उत्कर्षके चरम पर उसे ठहरा देता है न कि अपकर्ष में उसे समाप्त करता है।” (शब्द और
देशकाल, पृ० 45) कुँवर नारायण अपनी कविताओं में
भी संगीत की जीवन-प्रक्रिया और जीवन की संगीत-प्रक्रिया का साहचर्य रचते हैं। प्रमाण
के लिए ‘इन दिनों’ संग्रह की ‘एक दिन जैसे एक राग’ कविताकोपढ़ा जा सकताहै।
राग भटियाली पर बात करने से पहले ‘बाउल’ के बारे में कुछ
बातें। बाउल मुख्यतः वैष्णव धर्म-साधना की बंगीय शाखा से जुड़ा हुआ एक संप्रदाय है,
जिसका मूल चैतन्य की भक्ति-पद्धति में पाया जाता है। बाद में नरोत्तम दास जैसे गुरुओं
के संरक्षण में इस संप्रदाय को फलने-फूलने का अवसर मिला। सुकुमार सेन लिखते हैं कि
“बाद की सदियों में होने वाले बाउलों को बांग्ला वैष्णववाद की प्रच्छन्न रहस्यवादी
शाखा के अवशेष के सच्चे प्रतिनिधियों के रूप में याद किया जा सकता है। इसमें उसी सूफ़ीवाद
की छाप है, जिसका संपर्क पहले भी चैतन्य के विश्वासों से हो चुका था।” (History of Bengali Literature; Sahitya Akademi/1992, page-95) यह तो विदित है कि अपनी भक्ति या
उपासना के दौरान चैतन्य महाप्रभु भजन गाते हुए इतने बेसुध हो जाते थे कि उस समय देश
और काल के बोध का अस्तित्व मिटता हुआ लगता था। दीवानगी की अंतिम हद तक जाकर अपने
कल्पित अराध्य के प्रति समर्पण की यह भावना बाउलों में चैतन्य के उत्तराधिकार से
ही आई है। बाउल गीतों के विख्यात विद्वान और संकलनकर्ता आचार्य क्षितिमोहन सेन का
मानना है कि “बाउलों ने ‘मेरे मन के मनुष्य’ (मोनेर मानुष) के लिए सामान्य (सहज)
मनुष्य की अपनी खोज का एक मार्मिक उदाहरण पेश किया है, इसी तरह वे उससे अपना संबंध
जोड़ते हैं।‘बाउल’ से सनकी या दीवाने का अर्थ लेना चाहिए जो संभवतः संस्कृत के ‘वायु’
(Wind) शब्द से विकसित हुआ है— चेतना या
स्नायविक प्रवाहों के इसके अर्थों में।” (Hinduism; PenguinBooks/2005,
page-90) सूफ़ी साधना में भावदशाओं की इसी
चरमतन्मयी अवस्था को ‘फ़ना’ कहा जाता है।‘बाउल’ की ध्वनि से ही मिलता-जुलता एक शब्द
है ‘बावरा’ जो लगभग उसी मनोदशा को व्यंजित करता है। यहाँ एक शे’र याद आता है, शायद
जिगर का है:
हरेक
सूरत, हरेक तस्वीर मुब्हम होती जाती है
इलाही क्या मेरी दीवानगी कम होती जाती
है
बाउल वेश में रवीन्द्रनाथ |
बाउल साधक भौतिक जीवन के समीप रहते
हुए भी इस तरह जीते हैं मानो वे कमल के पत्तों की तरह अपने चारों ओर की पानी की
दुनिया से निस्संग हों। ‘कुमारजीव’ में भी एक ऐसा प्रसंग आता है जब कुमारजीव को
पारिवारिक जीवन स्वीकार करना पड़ना है। कुँवर नारायण लिखते हैं:
कीच
और जल से अलिप्त
जैसे जीता है पुंडरीक
शुभ्र, सुन्दर और कवित्वमय
जीता है कुमारजीव एक पारिवारिक
जीवन
छांग-आन के बौद्ध मठ से कुछ दूर।
हमारा इरादा यहाँ किसी भी तरह बाउलों
की जीवन-पद्धति को कुमारजीव केजीवन से जोड़ने का नहीं है। कुमारजीव का चरित्र तो
वस्तुतः विरोधाभासों में सामंजस्य स्थापित करकेचलने वाला है।बाउलों में अपनी साधना
को लेकर एक पागलपन या ‘एक्स्ट्रीमनेस’ का भावहोता है जिसमें स्वीकार-अस्वीकार से
अधिक एक लोकोत्तर अनुभूति के करीब पहुँचने का लक्ष्य महत्त्वपूर्ण है।
इस लोकोत्तर अनुभूति के करीब
पहुँचने के लिए बाउल संगीत में जिस राग का सहारा लिया जाता है, वह है राग भटियाली।
भटियाली का शाब्दिक अर्थ है भाटा के साथ बहते जाना। स्वाभाविकता या ‘नैचरलिटी’
हीइसका प्राण होता है जो इस बात से पुष्ट होता है कि यह लय-रहित होता है। इस राग
में प्रेम और भक्ति जैसे भावों की सघन अभिव्यक्ति होती है। यह प्रायः एकांत में
अकेले गाया जाने वाला राग है जिसमें मनुष्य के आंतरिक स्वरूपकीसच्ची और भावपूर्ण
प्रस्तुति का लक्ष्य होता है।‘मुक्ति’ बाउलों की जीवन-पद्धतिका एक बीज-शब्द रहाहै—जीवन
के पारंपरिक सिद्धांतों से मुक्ति, आडम्बरयुक्त शास्त्राचार से मुक्तिऔर अभिव्यक्ति
के तमाम बन्धनों से मुक्ति। इसलिए राग भटियाली में भी अंतिमस्वर को खुला छोड़ दिया
जाता है— लोकोत्तर या किसी अनंत में विलीन हो जाने के लिए। वह स्वयं मुक्त रहता है
और दूसरों को भी मुक्त रखता है:
वह शेष स्वरों को बाँधता नहीं
इसलिए अंत में भी
उनसे बँधता नहीं।
यहाँ कुँवर नारायण की एक और कविता
का ज़िक्र जरुरी होगा जिसमें संगीत का प्रसंग एक अकल्पनीय विडंबना का प्रसंग बन
जाता है। कविता है ‘नीरो का संगीत-प्रेम’। ‘हाशिए का गवाह’ में संकलित। रोमन
सम्राट नीरो के बारे में प्रसिद्ध था कि वह बेला बजाता था और अपने को बेजोड़ बेलाकार
समझता था। एक दिन उसके सिपाहियों ने देश के एक बड़े गायक को पकड़कर उसके सामने पेश
किया। वह इतना भयभीत था कि उसके सामने गा ही न सका। सिपाहियों ने जब उसे यंत्रणा
देनी शुरू की तो वह चीख उठा। सम्राट को उसका चीखना सुरीला लगा क्योंकि अपनी बेला पर
अबतक वह ऐसा एक भी आर्तनाद नहीं निकाल पाया था। कविता और आगे जाती है। सम्राट के
दैनिक मनोरंजन के लिए उसे कैद में रखा जाता है। अंत में कुँवर नारायण ‘ऑब्जर्व’
करते हैं कि “कला और दर्द के बीच रिश्ते को/समझने का/नीरो का यह अपना तरीका था!”
हमारे समय के सजग कवि राजेश जोशी ने जब इस कविता को पहली बार पढ़ा तो उन्हें “यह एक
विचलित कर देने वाली कविता लगी।” उन्होंने टिप्पणी की कि “एक कला वह है जिसने अपनी
श्रेष्ठता को स्वयं घोषित कर रखा है जबकि दूसरी कला वह है जो लोगों द्वारा स्वीकृति
प्राप्त कर चुकी है।” उन्होंने नीरो के सुख को “परपीड़ा से उपजा सुख” कहा। हमारा‘ऑब्जर्वेशन’
राजेश जोशी से थोड़ा-सा अलग है। हम इसे ऐसे देखते हैं कि एक कला मुक्त करती है और एक
कला बाँधती है। “परपीड़ा से उपजा सुख” वास्तव में “दूसरों को बाँधकर रखने के अधिकार”
से उपजा हुआ सुख है।ऐसा लगता है कि इसकविता का वर्तमान भारतीय परिदृश्य परहू-ब-हू
मंचन किया जा रहा है और इस मंचन को देखने वाले बाक़ी कलाकारों और रचनाकारों का
अस्तित्व ख़तरे में है। दोनों कविताओं के बीच का मौलिकअंतर आज की विडंबना पर से
पर्दा उठाता हुआ लग रहा है। राग भटियाली शेष स्वरों को बाँधता नहीं, इसलिए अंत में
भी उनसे बँधता नहीं। जबकि हमारे इस नाजुक समय में राग नीरो ने शेष स्वरों को बेरहमी
से बाँध कर रखा है और अंत तक उनके बंधनों से बेपरवाह बना रहता है। कवि आज केबंधे
हुए स्वरोंसे स्वर मिलाकर बोल रहा है। यह कविता इन सबके साथ है और नीरो ऐसी तमाम
कविताओं से बेखबर है। आज भारत में भी कहीं राग नीरो बज रहा हैऔर बहुत तेज बज रहा है।
संगीन की नोकों पर गायकों को जबरन गवाया जा रहा है। पीड़ा के स्वर जैसे-जैसे बढ़ रहे
हैं, वैसे-वैसे नीरो का आनंद द्विगुणित होताजाता है। और चरम आनंद के क्षणों में
कौन मौन नहीं रहता! राग नीरो एक प्रतीक बनकर उभरता है। एक ऐसे रक्त-पिपासु दानवी
आत्मा के रूप में, जो आज अपने ही एक समानधर्मा की काया में पैबस्त हो चुका है। ‘कुमारजीव’
में बिलकुल ऐसा ही एक प्रसंग है। ऐसा लगता है कि कवि ने उस दानवी आत्मा की पदचापों को
बहुत पहले ही मससूस कर लिया था:
सम्राट
के आतंक से घबराकर
लोगों ने बहुत धीमे बोलना सीख लिया
है
कभी-कभी तो इतना धीमे बोलते हैं
मानो वह भाषा में नहीं
केवल आहों और हिचकियों में बोल रहे
हों
यदि आप ‘नीरो का संगीत-प्रेम’ कविता
को ‘कुमारजीव’ के इन अंशों के साथ मिलाकर पढ़ें तो लगेगा कि शायद आप भारतीय राजनीति-शास्त्रका
कोई पाठ्यक्रम पढ़ रहें हैं जिसे इसी सत्र में ‘इंट्रोड्यूस’ किया गया है। इस
पाठ्यक्रम को कविता में ‘रीराइट’ करते हुए कुँवर नारायण राजनीति की छद्म नैतिकता के
रेशे-रेशे को उघाड़ देते हैं। जहाँ-जहाँ राजनीति बहुत लम्बे समय तक मौन साधे रहती
है वहाँ-वहाँ कुँवर नारायण की कविता बेहद मुखर हो जाती है। यों ये सामयिक राजनीति
की भाष्य करती हुई कविताएँ हैं और ‘कुमारजीव’ तो ऐसे तमाम भाष्यों का एक दुर्लभ
दस्तावेज़ही है जिसे संकट की इन घड़ियों में भी बेझिझक खोलकर पढ़ा जा सकता है।
कुँवर नारायण इसी तरह कविता में इतिहास और राजनीति की विडंबनाओंकीपूर्व-रचनाकरतेहैं।
उन्हेंरचना पड़ता है, क्योंकि इतिहास और राजनीति केप्रति वे एकरचनाकार कीनैतिक
जिम्मेदारी को बड़ी शिद्दत से महसूस करते हैं। (यहसब ‘कुमारजीव’ में बहुत विस्तार
से आया है, लेकिन उसकी चर्चा फिर कभी) ‘नीरो का संगीत-प्रेम’ कलाकार के बंधन की
विडंबनाओंकी कविता है, ‘राग भटियाली’ कलाकार या संगीतकार की उन्मुक्ति की कविता है
जहाँ ‘उन्मुक्ति’ कोई दार्शनिक चीज नहीं, बल्किरचनात्मक अनुभव की चरम ऊँचाई का
साक्षात्कार है। कुँवर नारायण राग को शब्द देते हुए कविता में संगीत का प्रभाव
पैदा करते हैं। स्थापत्य को शब्द देते हुए(‘अंकोर वट’)उसकेसौन्दर्य काप्रभाव पैदाकरते
हैं। ‘पत्थर के प्राण’, अंकोर वाट’ और ‘राग भटियाली’ कविताओं में हम देखते हैं कि कवि
एक कुशल शिल्पी, स्थपति या गायक की भूमिकाओं को बखूबी निबाहता है। ये तीनों बहुत ही
ऊँचे पाये की कविताएँ हैं जिनकी तुलना सतही कलावादियों (अपवाद: अशोक वाजपेयी) की
कविताओं से कतई नहीं की जा सकती। क्योंकि उनकी कला-चेतना अनिवार्यतः जीवन के मामलों
से जुड़ी है, जीवन को जीने और बरतने के ढंगों से जुड़ी है। दूर-दूर तक विलास की कोई
गंध उनमें नहीं है। इतने ऊँचे दर्जे की कविताओं में भाषा कितनी सरल है!‘राग
भटियाली’ की भाषा तो एकदम ‘सहज’ के स्तर तक आ जाती है, उसी ‘सहज’ के स्तर तक जिसकी
चर्चा बाउलों के संदर्भ में आचार्य क्षितिमोहन सेन ने की है। राजेश जोशी नीरो वाली
कविता की भाषा पर टिप्पणी करते हैं: “क्रूर और त्रासद प्रसंगों में कुँवर नारायण अपनी
भाषा के तापक्रम को लगता है और कम कर देते हैं जिससे स्थिति की क्रूरता और भयावहता
को हम उसके नग्नतम रूप में महसूस कर सकें। बयान के बीच कवि का हस्तक्षेप कम हो जाता
है।” (समकालीनता और साहित्य; राजकमल प्रकाशन/2010,पृ०71) मुझेइस टिप्पणी से सहमत होना
पड़ता है क्योंकि ‘कंटेंट’ में अलग होतेहुए भी ‘राग भटियाली’ कविता में भाषा का
तापक्रम उतना हीकम है। वह इतनी पिघली हुई है कि ‘सहजता’ के स्तर तक आ गई है। और यह
सरलता या सहजता यों ही नहीं है, यह बहुत ऊँची साधना माँगती है क्योंकि आचार्य
हज़ारीप्रसाद द्विवेदी पहले ही कह गए हैं कि सीधी रेखा खींचना बेहद कठिन कार्य है !
5.
अब
हम इस आलेख में अपनी खोज-यात्रा केअंतिम पड़ाव पर हैं। सिंहावलोकन के रूप में इतना ही
कहना है कि आलेख की मूल योजना के अनुरूप भूमिका के बाद हमने कथा-तत्त्व का विश्लेषण
किया है। इसके अलावा कथेतर तत्त्वों (जिन्हें ‘उपकथा’ कहा गया है) में नाटकीयता और
कला-दृष्टि की गुत्थियों को सुलझाने की विनम्र कोशिश की है। इस योजना का अगला हिस्सा
हैजीवन के प्रति कुँवर नारायण के दृष्टिकोण का विवेचन और उसके आधार पर उनकी
रचना-दृष्टि को समझने की कोशिश । हमारा दृढ़ विश्वास है और हम इस बात को बहुत जोर
देकर कहना चाहते हैं कि उनकी समूची काव्य-यात्रा में सर्वत्र ही इन दोनों की युगपत
उपस्थिति है। उनकी रचना-दृष्टि को समझने-समझाने का ऐसा कोई भी उपक्रम जो उनकी जीवन-दृष्टि
को अलग रखकर किया जाएगा, अपनेआप में अधूरा और अविश्वसनीय होगा। रचना-दृष्टि पर बात
करते हुए हमारा दृष्टिकोण मुख्यतः यही होगा। यहाँ भी, हमारी विवेचना के दायरे में
हैं नई कविताएँ और नया खंडकाव्य ‘कुमारजीव’।
अब तक कुँवर नारायण की रचना-दृष्टि पर जो भी लिखा गया है, उनमें प्रायः कविता के प्रति उनकी अटूट आस्था की बात ‘कॉमन’ है। यहबात हमें काफी आश्वस्त करती है। लेकिन यह बात निराश करती है कि ‘अटूट आस्था’ को समझाने के लिए जीवन-दृष्टि की कोई बात न कर, कविता की रचना-प्रक्रिया से जुड़ी कविताओं का उद्धरण देकर ही छुट्टी पा ली गई है। और आश्चर्य वाली बात तो तब होती है जब दावे के साथ केवल उन्हीं उद्धरणों को ‘प्रमाण’के तौर पर प्रस्तुतकर दिया जाता है। और ऐसा केवल कुँवर नारायण के मामले में ही नहीं, हमारे बहुत-से साहित्यकारों के संदर्भ में एक कड़वी सच्चाई बन चुका है। आज, जबकि शोध-प्रबंधों को भी आलोचना कहने का चलन हो गया है, और कविताओं पर लिखते हुए उद्धरण-बहुलता और अप्रासंगिक व्यक्तियों या आलोचकों के मतों को जान-बूझकर प्रासंगिक बनाने का पराक्रम दिखाई देने लगा है— तो युगीन संवेदना को बदलने वाले हमारे बड़े साहित्यकारों की आलोचना करते हुए बेहद सावधान रहने की ज़रूरत है। आलोचना की तथाकथित पद्धति को देखते हुए इसके लेखक का व्यक्तिगत आशय तो बहुत-कुछ समझ में आता है, लेकिन उसकी प्रस्तुति में आलोच्य विषय के विवेचन से संबंधित सार-तत्त्वों को ढूँढते हुए निराशा ही हाथ लगती है। साहित्यिक ईमानदारी और सुलझी हुई दृष्टि के आधार पर एकाध अच्छे प्रयास ज़रूर किए गए हैं, लेकिन ऐसे प्रयासों में गुणात्मक समृद्धि की ज़रूरत अभी भी बनी हुई है।
आज
साहित्य में ऐसे उपक्रमों को देखते हुए यही लगता है कि आलोचना एकदम चुप है और
कविता ही बोले जा रही है। यदि वह ठीक से अपना काम नहीं कर पाती है तो इसका सारा
ठीकरा दूसरी विधाओं के मत्थे फोड़ देती है क्योंकि इस काम में आलोचना के अलावा किसी
और विधा की कोई दक्षता है ही नहीं। दक्ष आलोचक आलोचना के झोंक में इतनी दूर तक आगे
निकल जाते हैं कि थोड़ी देर के लिए पीछे मुड़कर अपनी जिम्मेदारियों का मूल्यांकन भी
नहीं कर पाते। ये वही लोग हैं जो बढ़-चढ़ कर ‘आत्मसंघर्ष’की दुहाई देते रहते हैं। जबकि
आलोचक के लिए आत्मसंघर्षके अलावा आत्म-मूल्यांकन भी बेहदज़रूरी है। कबीर के शब्दों
में ‘आतमखबर’। ये दोनों किसी भी आलोचक की दो आँखें होती हैं। तराजू के दो पलड़ों की
तरह। आलोचना एक ऐसे दर्पण की तरह है जिसमें आलोचक पूरी दुनिया को तो देखता ही है, साथ
ही अपने आप को भी देखता है। इन बातों को ओट में रखते ही आलोचक आलोचना में अन्तनिर्हित
‘विनम्रता’ की सारी सीमाएँ लाँघ जाता है। वह एक छद्म विद्वता को ओढ़ लेता है और एक
अहंकार में जीने लगता है। आलोचना को जीवन के बिलकुल ‘ओरिजिनल’ पहलुओं से अलग करके
देखता है और शुष्क तर्क-वितर्क का वितंडा खड़ा करने लगता है। इन सबके परिणामस्वरूपआलोचना
की अपनी मर्यादित और सम्मानित छवि धुँधली होती जाती है और वह अविश्वास के साए में
जीने लगती है। केवल विरोध या प्रशस्ति करने की सोची-समझी चालाकी (या धूर्तता?) के जुमलों में
उसे संकीर्ण किया जाने लगता है। साहित्य में अराजकता फैलने लगती है और विधाओं की
आपसी लोकतांत्रिकता का क्षरण होने लगता है। साहित्य के इतिहास में विपथन होने लगता
है।
अभी
यहाँ विस्तार से बहुत कुछ कहने की गुंजाइश नहीं है। लेकिन हमें इन सबको ध्यान में
रखकर चलना होगा। हमारा तात्पर्य आलोचकों कीउस नई पीढ़ीसे है जो बेहद जागरूक और
संवेदनशील है। इस नई सदी में हमारी नई पीढ़ी के सामने बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। और इन
सबके निर्वहन के लिए कंधोंका मजबूत होना भीज़रूरी है। जैसे कोई बड़ा रचनाकार रचना करने
के दरमियान अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे में भी सजग रहता है, उसी तरह आलोचना-कर्म
में भी ‘आलोचन’ की प्रक्रिया को लेकर सावधानी बेहदज़रूरी है। इसलिए यदि समय-समय पर आलोचना
की रचना-प्रक्रिया की कुछ बातें कर ली जाय तो यह उसकी सेहत के लिए गुणकारी ही होगा।
इसबेहदज़रूरी
विषयांतर के बाद अब सीधे विषय पर।
यह बात
सही है कि कुँवर नारायण में कविता के प्रति अटूट आस्था है। लेकिनउससे भी पहले यह
कहना चाहिए कि उनमें जीवन के प्रति अटूट आस्था है। ‘इन दिनों’ में संकलित
एक छोटी कविता में उन्होंने कहा है:
एक ही कविता में होती हैं
कई कई कविताएँ
जैसेएक ही जीवन में
कई जीवन...
कविता और जीवन कवि के लिए पर्याय की तरह हैं। कुँवर नारायण
की समूची काव्य-यात्रा को समझने के लिए यदि एकमात्र कोई बीज-शब्द हो सकता है तो वह
है ‘जीवन-वस्तु’। यदि आप उनकी कविताओं को समग्रता में पढ़ रहे हैं तो मानकर
चलिए कि एक पूरे जीवन को पढ़ रहे हैं। उसी तरह यदि आप अपने आसपास के जीवन को देख-समझ
रहे हैं तो यह मानकर चलिए कि कहीं-न-कहीं उनकी कविताओं को ही पढ़ रहे हैं। ‘जीवन-वस्तु’
उनका बहुत ही प्रिय शब्द है। ‘पक्षधर’ के प्रस्तुत अंक में रचना-प्रक्रिया से
संबंधित उनका जो निबंध छपा है, उसका उपशीर्षक ही है ‘कविता के रूप में जीवन-वस्तु’।
वस्तुतः कुँवर नारायण के लिए ‘Content of Living’ कामूल
आशय ‘जीवन-वस्तु’ ही है। इसी निबंध में वे कहते हैं, “मैं अपनी कविता को ठीक उसी
तरह चुनता हूँ, जिस तरह मेरी कविता मुझे चुनती है— उसी तरह जैसे एक समतुल्यताकी
स्थिति में कोई ज़िन्दगी को और ज़िन्दगी किसी को चुन लेती हो।” उन्होंने कविता और
जीवन के सायुज्य पर बहुत-सी कविताएँ लिखी हैं। कविता और जीवन को केन्द्र में रखते
हुए तो और भी बहुत-से कवियों ने कविताएँ लिखी हैं, लेकिनइस विषय पर कुँवर नारायण
से अधिक चिंतन संभवतः किसी और ने नहीं किया है। कम-से-कम हिंदी में तो नहीं। इस
दृष्टि से ‘शब्द और देशकाल’ एकअत्यंत महत्त्वपूर्ण पुस्तक है जो उनके चिंतन के इन पक्षों
को बखूबी उजागर करता है। यहाँ इसी किताब से सिलसिलेवार कुछ उद्धरण दिए जा रहे हैं,
जिनसे इस तथ्य को समग्रता में समझने में सुभीता रहेगा:
“जीवनेच्छा
और साहित्य-रचना के बीच निकट सादृश्यता है। साहित्य शब्दों के बहुआयामी प्रयोगों
द्वारा ज़िन्दगी के दबावों से मुक्त करके एक समानान्तर इच्छालोक रचता है। ‘मुक्ति’
और‘रचना’ का यह दुहरा एहसास यथार्थ से पलायन नहीं है, उसी अदम्य जीवन-शक्ति
का परिचायक है जो साहित्य और कलाओं की रचनाशीलता में प्रकट होती है।” (पृ० 53)
“एहसासों
का घनिष्ठ संबंध कविताओं से है, जैसेजीवन से है।” (पृ० 64)
“जब भी
एक रचना की ‘बनावट’ को लेकर मेरे मन में कोई द्विविधा उठी मैंनेजीवन की ओर
देखा है।जीवनकी असली ताक़त उसके लचीलेपन में है, उसकी कठोरता में नहीं xxx अगरजीवन
को क्रमानुसार ही नहीं व्यतिक्रमानुसार भी जिया और पढ़ा जा सकता है तो एक
काव्य-रचना को क्यों नहीं?” (पृ० 85)
“जैसे-जैसे
जीवन बदलता है शब्दों और भाषा के साथ भी हमारे सम्बन्ध बदलते हैं। शब्दों के साथ
हमारे सम्बन्धों पर हमारी जीवन-शैलियों से भी अन्तर पड़ता है। xxx आयु के
साथ भी जब जीवन में बदलाव अता है तब भाषा के साथ भी हमारा व्यवहार बदलने लगता है...
एक साधारण जीवन जीते हुए भी हम एक अथाह शब्द-संपदा का उपभोग कर सकते हैं— एक
शाब्दिक अर्थ को उसके सांकेतिक अर्थों में विस्तृत करके।” (पृ० 87)
“भाषा
में परिवर्तन और विकास जीवन के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है जिसे व्याकरण के
नियम नहीं जीवन की गति निर्धारित करती है, मूलतःजैविक ढंग से।
संस्कृत से आज की हिन्दी तक की विकास-यात्रा को भी लगभग उसी तरह समझा जा सकता है
जैसे हम आदमी की लम्बी ऐतिहासिक जीवन-यात्रा को समझते हैं।” (पृ० 126-127)
ये सभी
उद्धरण अपने आप में मूल मंतव्य भी हैं और टिप्पणियाँ भी, इसलिए अलग से इनपर टिप्पणी
करने की कोई ज़रूरत नहीं लगती। उद्धरण और भी दिए जा सकते थे, लेकिन जान-बूझकरनहीं दिया
गया है। हालाँकि दो-एक और भी ध्यातव्य हैं। इसी पुस्तक में वे ‘महाभारत’
और ‘रामायण’ को मूलतः जीवन ग्रंथ कहते हैं। (पृ० 60) अपनेखंडकाव्य ‘आत्मजयी’ और‘वाजश्रवा के बहाने’ के बारे में कहते हैं कि “एक तरह
से यह जिए-हुए जीवन का पुनर्पाठ है। जीवन-बोध का निर्भीक आह्वान।”
(पृ० 87) एक जगह वे लिखते हैं, “हम हर सुबह को इस तरह भी सोच सकते
हैं मानो वह पूरे जीवन की सुबह हो” (पृ० 89)
एक ख़ास
उद्येश्य से हमने उद्धरणोंके भीतर संबद्ध शब्दों को मोटे टाईप में रखा है। इससे आप ‘जीवन’
शब्द की विविध अर्थ-छटाओं पर गौर कर पाएँगे। ‘जीवन’ या ‘जीवन-बोध’ के लिए कितनी
अलग-अलग ध्वनियों वाले शब्द! जैसे कुँवर नारायण की रचनाओं का संसार व्यापक है,
वैसे ही उनके जीवनानुभवों की दुनिया भी बहुत बड़ी है। यह निर्णय करना सहसा बड़ा कठिन
हो जाता है उनके यहाँ‘आखन की देखी’ का दायरा बड़ा है या ‘कागद कीलेखी’ की दुनिया। इसलिए जब
वे कहते हैं कि “कविता को भाषा और अनुभव के ‘संपूर्ण संसाधन-स्रोतों’ से चयन करने
की स्वतंत्रता होनी चाहिए” तो इसका मर्म समझ में आता है। इसपुस्तक के अलावा कुँवर
नारायण ने अपने साक्षात्कारों में तथा डायरी और टिप्पणियों की पुस्तक ‘दिशाओं का
खुला आकाश’ में भी साहित्य और जीवन के विविधपहलुओं पर संवेदनशीलता के साथ विचार
प्रकट किए हैं। वहाँ भी जगह-जगह‘जीवन’ की अनेक अर्थ-छवियाँ बिखरी हुई मिलती हैं, मानो
जीवन की माला से ही टूट-टूट कर मोतियाँ इन पुस्तकों के पृष्ठों के बीच बिखर गए हों। और
जब इन्हीं मोतियों को कविताओं में पिरो दिया जाता है तो द्विगुणित होकर उनका
सौंदर्य चहुँ ओर बिखरने लगता है।
कविताओं
में जीवन की अभिव्यक्ति कम-से-कम दो तरह से हुई है। उसके मूल स्वरूप पर काव्य-भाषा,
ख़ासकर बिम्बों के माध्यम से अनुचिंतन करते हुए और दैनिक जीवन के जिए हुए अनुभवों की
अनुरचना करते हुए। ‘हाशिए का गवाह’ से उदाहरण लेते हैं। इस संग्रह में एक कविता है
‘पानी का स्वाद’। इसमें जो बात काबिले गौर है, वह है कवि द्वारा नमक, शकर और अन्य
खट्टे, कड़ुवे और तीते जीवन-तत्त्वों को ‘ह्यूमनाइज’ करना। नमक कभी अपनी राय नहीं
बदलता लेकिन पानी में घुल जाता है। शकर हमेशा मीठी होती है लेकिन पानी में घुल जाती
है। इसी तरह अन्य सभी तत्त्व भी अपनी अकड़ और ऐंठ के बावजूद अंततः पानी में घुल जाते
हैं। लेकिन:
पानी कहता है— मैं हूँ
जीवन
हर स्वाद के लिए जगह है मुझमें,
माध्यमिक हैं मेरी
क्षमताएँ,
समास हूँ विभिन्नताओं के बीच
तमाम तरह की विषमताओं और विकृतियों के बाद भी कवि जीवन में
समन्वय या‘सिंथेसिस’ के महत्त्व को वरीयता देता है। इसलिए‘जीवन-वस्तु’ के बाद यदि
कोई दूसरा बीज-शब्द कुँवर नारायण की कविताओं के लिए उपयुक्त हो सकता है तो वह है ‘सह-अस्तित्व’।
जीवन और जगत के सभी क्षेत्रों में इस सह-अस्तित्वकी आकांक्षा व्यक्त की गई है। घर,
परिवार, समाज, राजनीति, साहित्य, कला, धर्म, चिंतन, विचारधारा, दर्शनऔर
संस्कृतियों मेंसमन्वय का यहीलक्ष्यकवि को एक विश्व-दृष्टि प्रदान करता है। इसकाएक
मुक्कमल उदाहरण है‘इन दिनों’ संग्रह की एक कविता ‘एक अजीब-सी मुश्किल’। इसमें साम्प्रादायिक
सद्भावकी भावना का आरोहण क्रमशः धार्मिक सद्भाव और राष्ट्रीय सद्भावतक होता है और
परिणति होती है एक वैश्विक सद्भाव की चेतना में। वास्तव में प्रेम की खोज करता
हुआएक भारतीय मन ही यह सब संभव कर पाता है। हालाँकि यह कविता नफरत की शब्दावली में
लिखी गई है, लेकिन वस्तुतः यह जीवन से प्रेम और जीवन के स्वीकार की कविता है।
इस प्रेम और स्वीकार में लगभग समूची दुनिया के दायरे सिमटते चले आते हैं। जिन
कविताओं में दैनिक जीवन के अनुभवों की अनुरचना की गई है, उनमें से एक है‘अख़बार’:
जिये हुए से कहीं ज़्यादा
देखा सुना और पढ़ा हुआ
शामिल हो गया है जीवन में
जैसे एक प्याला चाय के साथ
सुबह का अख़बार
नई कविताओं में ‘जीवन-वस्तु’ को अलग-अलग और विस्तृत आयामों में व्यक्त किया गया है।
अपनी नई भूमिकाओं को तय करते हुए कवि एक द्रष्टा के रूप में जीवन के सम्मुख उपस्थित
होता है और एक खोजी के रूप में उसके भीतर प्रवेश करता है: “केवल एक खोज का अनवरत
जीवन-चक्र” (पहले सोचता हूँ); कलाओं की रचना-प्रक्रिया को‘ह्यूमनाइज’करते हुए
उसमें जीवनोचित सुख/दुःखके मर्म को उद्घाटित करता है (पत्थर के प्राण); एक उदात्तजीवन-भाषा
में संगीत को रचता है और सम्पूर्ण जीवन-राग से उसे मुखरित करता है (राग भटियाली)।
वह सुकरात, कृष्ण, भीष्म, बुद्ध और फ्रायड के जीवन में एक ‘कॉमन एलिमेंट’ की खोज करता है(बातूनी)।इन
सबके बाद वह इसख्याल तकपहुँचता है:“बातूनी है जीवन,/बातूनीहै मृत्यु भी/धीरज हो तो
सुन सकते हैं/यम को भी/जीवन से बातें करते”।अंततः वह जीवन और मृत्यु को भी ‘हयूमनाइज’
कर देता है। यहीं पर कह देना उचित होगा कि ‘जीवन-वस्तु’ और‘सह-अस्तित्व’ के बाद कुँवर
नारायण की कविताओं के संदर्भ में यदि किसी और बीज-शब्द को प्रस्तावित करना चाहें तो
वहहोगाजीवन की ‘खोज’ औरएक समृद्ध जीवन-भाषा में अनुभवों का ‘मानवीयकरण’।
बीज-शब्दों की सूची इसके बाद भी बढाई जा सकती है, लेकिन फिलहाल इतना ही। हाँ,यह बतलाने
की ज़रूरत नहीं है कि कोई भी बीज-शब्द अंततः ‘जीवन-वस्तु’ से अलग नहीं है। वे सभी ‘जीवन-वस्तु’
की ही अन्तर्धाराएँ हैं।
यह तो
हुई कविताओं की बात। अब‘कुमारजीव’ में ‘जीवन’ के कतिपय संदर्भों की बात करते हैं।
वस्तुतः इस पूरे खंडकाव्य के एक-एक पन्ने पर जीवन-ही-जीवन बिखरा हुआ है। यदि कुँवर
नारायण के कविता-संग्रहों से जीवन संबंधी कविताओंका एक कोलाज बनाना हो तो पसंद के
अनुसार चयन करना होगा। लेकिन‘कुमारजीव’ से ऐसा कोई चयन नहीं करना होगा, क्योंकि यह अपने
आप में हीजीवन के संपूर्ण वैभव का बना-बनाया कोलाज है। इसमें जीवन के इन्द्रधनुष
का ऐसा बहुरंगी प्रकाश है जो अकेले ही कवि के समूचे काव्य-संसार को आलोकित कर सकता
है। कवि स्वीकार करता है कि एक व्यक्ति से अधिक उसके विचारों में जीवन होता है।
व्यक्ति की भौतिक मृत्य हो सकती है, लेकिन उसके विचारों की मृत्यु कभी नहीं होती। एक उसका दैनिक जीवन-चर्यायों
वाला भौतिक समय होता है, दूसरा उसके विचारों का समय होता है जिसका अस्तित्व उसकी
मृत्यु के बाद भी बना रहता है। इसलिए कुँवर नारायण लिखते हैं:
फिर से जिया जा सकता है
कुमारजीव को
जैसे उसने जिया था तथागत को
क्योंकि कोई भी बुद्ध या कुमारजीव
कभी भी मरता नहीं।
वह एक विचार का जीवन है
जिसेजिया जासकताहैकभी भी
उसके समय में जाकर
या उसे अपने समय में लाकर...
इसी आधार पर वे कुमारजीव के संदर्भ में ‘समय’ और ‘उप-समय’
की अवधारणा की काव्यात्मक प्रस्तुति करते हैं। यानी कुमारजीव केभौतिक‘जीवन’के साथ-साथ
उसकेविचारों के ‘उत्तर-जीवन’ की बात करते हैं। इसे डार्विन के उत्तर-जीविता वाले
सिद्धांत से जोड़नेकी जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। कुँवर नारायण की यहप्रस्तुतिकिसीभी
समय के किसी विचारक के संदर्भ में ठीक बैठती है।एक बात और ध्यान में रखनी चाहिए। जो
बुद्ध का भौतिक समय रहा होगा, वह कुमारजीव के लिए इतिहास या ऐतिहासिक समय की तरह
रहा होगा। बुद्ध का ‘उप-समय’ या ‘उत्तर-जीवन’ वास्तव में कुमारजीव के अपने (भौतिक) समय
में शामिल समय/जीवन भी था,जिसे उसने जिया था। इसी तरह स्वयं कुँवर नारायण के लिए
कुमारजीव का अपना समय इतिहास या ऐतिहासिक समय की तरह रहा है और उसका ‘उत्तर-जीवन’
या विचारों का समय उनके अपने समय में शामिल समय रहा है,जिसे उन्होंने विगत वर्षों में
या ‘कुमारजीव’ की रचना के दौरान जिया है। (उनके लिए ऐसा जीवन इसलिए संभव हो पाता
है क्योंकि वे अतीत और वर्तमान को अलग-अलग विभाजित सत्ताओं के रूप में नहीं, बल्कि
एक अखंडता में देखते हैं।) इस क्रम को थोड़ा और आगे बढ़ाकर कहना चाहिए कि उनकी कृतियों
के पाठक के रूप मेंस्वयं हमलोग भी कुँवर नारायण के अपने समय के साथ-साथ जी रहे हैं।
यह तो स्पष्ट है कि जीवन का यह क्रम कई स्तरों पर एकसाथ चल रहा है। एक क्रम के
अनुसार कुँवर नारायण अपने आप को सबसे पहले कुमारजीव से जोड़ते हैं, फिर कुमारजीव के माध्यम
से या सीधे भी तथागत से जुड़ते हैं। उसी तरह पाठक के रूप में हमलोग सबसे पहले कुँवर
नारायण से जुड़ते हैं, उसके बाद कुमारजीव से और उसके बाद बुद्ध से। यह दूसरी बात है
कि अपनी-अपनी क्षमताओं के कारण अलग-अलग लोगों के जुड़ने का अर्थ अलग-अलग होगा। जिस
तरह से जीवन में क्रम के साथ-साथ व्यतिक्रम भी होता है, उसी तरह से इस जुड़ाव में
भी व्यतिक्रम हो सकता है। कोई पहले तथागत से, फिर कुमारजीव से और उसके बाद कुँवर
नारायण से जुड़ सकता है। इस जुड़ाव के लिए कोई बंधन या निश्चित पैटर्न नहीं है। यदि हम एक
भारतीय की दृष्टि से इस पूरी अवधारणा को सोचें तो इसमें कोई दो राय नहीं है कि अपने
अभिप्रायों में यह कृति हमारे समय में समूचे भारतीय साहित्य की एक श्रेष्ठ उपलब्धि बन
गई है। यह सुखद संयोग है कि प्रकाशन के तुरंत बाद ही कुछ प्रमुख भारतीय भाषाओं में इसके
अनुवाद की बात भी चलने लगी है। जीवन के उक्त पैटर्न को ‘कुमारजीव’ के आरम्भ में तो प्रस्तावित
कियाही गया है, उसके समापन के अवसर पर भी दुहराया गया है। यानी एक विशेष समय-चक्र
के साथ-साथ इसे पूरी कृति के केन्द्रीय सिद्धांत के रूप में विन्यस्त कर दिया गया
है। इसलिए जब भी आप इस कृति को पढेंगे, आपके लिए इसे किसी एकमात्र तरीके से पढ़ना शायद
असंभव हो जाएगा। इसकी रचना-पद्धति कुछ इस प्रकार है किआप इसे कहीं से भी खोलकर पढ़
सकते हैं और पूरी कृति की अन्तर्धाराओं को बखूबी महसूस कर सकते हैं। स्वयं कुँवर
नारायण भी एक जगह कहते हैं कि“अगर जीवन को क्रमानुसार ही नहीं व्यतिक्रमानुसार भी
जिया और पढ़ा जा सकता है तो एक काव्य-रचना को क्यों नहीं?”
यहाँ
थोड़ी देर के लिए एक और ‘शिफ्ट’ लेते हैं और मुड़ते हैं ‘जब वह नहीं रहता’ कविता की
ओर। यह कविता एक विचारशील मनुष्य की हत्या के बारे में है। इस कविता को किसी ईसा, किसी
गाँधी, किसी सोल्झेनित्सिन या किसी कलबुर्गी के जीवन से जोड़कर देखने पर अलग से कोई
टिप्पणी करने की ज़रूरत ही नहीं है। इतना ही नहीं, इसे किसी भी संवेदनशील व्यक्ति
के जीवन की त्रासदबिडंवना से जोड़कर देखना चाहिए। इसे रघुवीर सहाय की कविता के रामदास
जैसे आदमी से भी जोड़कर पढ़ सकते हैं। कुँवर नारायण की ऐसी बहुत-सी कविताएँ हैं जो
ऐतिहासिक चरित्रों और कवि-व्यक्तित्वों पर केंद्रित हैं। लेकिन उन सबको पढ़ते हुए भी
यदि यह ध्यान में रखा जाय कि अंततः वे सभी मनुष्य हैं और अपने-अपने समय को उन्होंने यथा संभव जीने की भी
कोशिश की है, तो उनके अभिप्रायों को बिलकुल सही संदर्भों में ग्रहण किया जा सकेगा। यह
कविता एक बार फिर वर्तमान भारतीय परिस्थितियों से सीधे जुडती है, जैसा कि हमने ‘नीरो
का संगीत-प्रेम’ के प्रसंग में भी देखा है। कविता की पंक्तियाँ बहुत देर तक ‘हांट’
करती हैं, विचलित कर देती हैं। यदि पिछले पृष्ठों के हमारे विवेचन को ध्यान में रखा
जाय तो यहाँ सहज ही एक प्रश्न उठता है। यदि इन सबके विचारों का भी कोई जीवन है तो क्या
अंततः किसी ईसा, किसी गाँधी, किसी सोल्झेनित्सिन, किसी कलबुर्गी या किसी रामदास की
हत्याकरके उनकी उपस्थिति को हमेशा के लिए मिटाया जा सकता है? आज के भारतीय परिवेश
में कवि और साहित्यकार जिन त्रासद स्थितियों का सामना कर रहे हैं, अखबारों में
बयान देकरऐसी तमाम नृशंसताओं के प्रति अपनाविरोध दर्ज करारहे हैं, उससे तो यही
लगता है किअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अभियान को अभी और बहुत आगे ले जाने की ज़रूरत
है। और यह सब एक रचनात्मक तरीके से होना चाहिए जिसमें किसी भी तरह की हिंसा की कोई
गुंजाइश न हो। स्वयं कुँवर नारायण भी हिंसा को अमान्य ठहराते हुए कहते हैं
कि “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पड़ने वाले नकारात्मक दबाव निंदनीय हैं।” लेकिन यह
कविता अधिक कहती है,विरोध दर्ज कराने वाले किसी भी बयान से बहुत-बहुत अधिक:
क्या हत्या करने वाले
नहीं जानते
कि एक शरीर में हो सकता है इतना भी रक्त
कि वह सदियों तकबहता रहे,
इतनी सहनशीलता कि उसमें
डूबजायें रक्त की नदियाँ!
केवल इतना ही नहीं है कि यह कविता वर्तमान भारतीय
परिस्थितियों का ‘क्रीटीक’ प्रस्तुत करती है। यह कविता आज की घटनाओं सेकुछ पहले ही
लिखी गई है। दूसरे शब्दों में, लिखीपहले गई है और घटित हो रही है आज। जैसा कि हमने
पहले कहा था, कुँवर नारायण समय की नब्ज़ को लगभग एक दूरदर्शी-कालदर्शी की तरह पकड़ते
हैं और उसकी आहटों कोअपने करीब पहुँचने से बहुत पहले हीमहसूस कर लेते हैं। तकनीक
की दृष्टि से कहा जा सकता है कि यह ‘फ़्लैश-बैक’ की जगह ‘फ़्लैश-फारवर्ड’ में लिखी
गई बेहद सधी हुई कविता है। इसलिए कुँवर नारायण की ऐसी कविताएँ केवल तात्कालिक(Temporary) ध्यानाकर्षण के लिए ही नहीं होतीं, बल्कि उससे बहुत आगे
जाकर ‘सामयिक’ (Temporal) और‘दैशिक’ (Spatial) के सायुज्य
में विकसित हो जाती हैं, जो किसी भी समय के अनुकूल मानी ग्रहण कर सकती हैं। इस
अर्थ में वे उन कवियों से एकदम अलग हैं जो घटनाओं पर फौरी प्रतिक्रियाओं के रूप
में कविताएँ लिखा करते हैं। ऐसा कहते हुए मैं बिलकुल सजग हूँ और अपनी इस टिप्पणी
में सभी कवियों को शामिल नहीं कर रहा हूँ। एक कवि के रूप में कुँवर नारायण में पूर्व-आभासया
पूर्व-कल्पना की दुर्लभ, अप्रत्याशित और कल्पनातीत क्षमता है। ‘आत्मजयी तथा मेरी
अन्य कविताएँ’ निबंध मेंवे अपनी ऐसी ही कुछ कविताओं के रचना-प्रसंग की बात करते
हैं और बतलाते हैं किवे कविताएँ संबंधित घटना के घटित होनेके दौरान नहीं, “बल्कि
उससे कुछ पहले ही लिखी गयीथीं— कुछ ऐसी आशंका के साथ कि किसी भी समय इस तरह की कोई
घटना हो सकती है। मैं सोचता हूँ कि मानसिक क्षितिज का क्रमशः विकास होता है।जब यह
समय के एक विस्तृत मानक पर काम करता है तो मनुष्य की प्रकृति के बारे में अलग से एक
प्रत्यक्ष-ज्ञान होता है।” उनका समय-बोध बहुत तीव्र और अग्रगामी रहा है। समय के
प्रचलित तीनों आयामों को वे एक सायुज्य की स्थिति में परिकल्पित करते हैं। इसलिएवे
तुरंत जोड़ते हैं, “मेरा अभिप्राय अतीत औरवर्तमान को अलग-थलग विभाजित सत्ताओं के रूप
में नहीं, बल्कि एकअखंडता में देखने से है।” फिलहाल इस कविता पर इससे अधिक और कोई
बात नहीं कि इसेकविके समय-बोधकी अखंडता में औरविचारोंकी अमरता के आलोकमेंभी पढ़ा जा
सकता है।
कुँवर
नारायण की समस्त कविताओं में ‘जीवन’ एक स्थायी अंतर्वस्तु या ‘कंटेंट’ की तरह उपस्थित
है। इसलिए भी वे ‘जीवन-वस्तु’ पद पर बल देते रहे हैं। इसी के सम पर यदि उनकी
कविताओं के शिल्प-पक्ष के लिए ‘वास्तु’ शब्द का प्रयोग किया जाय तो अप्रासंगिक नहीं
होगा। ‘वाजश्रवा के बहाने’ के ‘पूर्वकथन’ में उन्होंने इसका संकेत भी दिया है। समग्रता
में देखने का प्रयास किया जाय तो उनकी पूरी काव्य-यात्रा में सर्वत्र ही इस ‘जीवन-वस्तु’
और ‘वास्तु’ का सह-अस्तित्व मिलेगा। निबंधों के अलावा कुँवर नारायण की बहुत-सी
कविताओं में‘जीवन-वस्तु’का एक पद के रूप में बहुत सर्जनात्मक प्रयोग हुआ है। लेकिन
जिस तरह से ‘कुमारजीव’ मेंएक स्थान पर आया है, वह नायाब है:
ख़ाली कमरे में जलती है एक
मोमबत्ती
अँधेरे के विरुद्ध
अडिग प्रकाश-पुंज कहता है:
जिन तत्त्वों के बने हैं हम
उन्हें जीना अगर मजबूरी है
तो उसी जीवन-वस्तु को मथकर
मूल्यवान कुछ निकाल सकना
पुरुषार्थ है
यह एक प्रमुख संदेश है जो इस पूरी कृति से बार-बार ध्वनित
होता है, हालाँकि कहा तो गया है एकाध बार ही। ऐसी और बहुत-सी उच्च कोटि की कविता-शृंखलाएँ
हैं जो ‘जीवन-वस्तु’ की यादों को ताजा करती रहती हैं। यह ‘कुमारजीव’ के लगभग आखीर
में है, जहाँ कृति क्रमशः करुणा कीशान्त और मंथर धाराओं में प्रवाहित होने लगती है। किसी
भी पाठक के लिए शायद यह बहुत मुश्किल होगा किवह इन अंशों को पढ़े और उसे भवभूति की
याद न आए: ‘एको रसःकरुण एव’। अपनी थिरती हुई काव्य-भाषा के साथ यह कृति विचारों की
अमरता की ओर, एक नई जीवन-यात्रा की ओर परिणत हो जाती है:
वे मरेंगे नहीं
नये-नये रूपों में लौटते रहेंगे हमारे बीच
विकसित होते रहेंगे
सृष्टि के नियमों के अनुसार
वे किसी भोजपत्र पर लिखे
प्राचीन आलेख की तरह
संसार के कोने-कोने में घूमेंगे
किज़िल (प्राचीन छांग-आन, चीन) में कुमारजीव की प्रतिमा |
अब, आलेख के इस खंड की आरंभिक प्रतिश्रुति के अनुसार
रचना-दृष्टि के बारे में कुछ संक्षिप्त बातें।
‘कुमारजीव’
केअंतिम खंड ‘छांग-आन’ में— जहाँ वह बौद्ध-ग्रन्थों का अनुवाद करते हुए उनमें‘मूल की
गरिमा’ और‘काव्य के माधुर्य’ का समन्वय करता है— रचना-दृष्टि से संबंधित एक पूरा
काव्य-खंड ही है। इस काव्य-खंड में इस विषय पर कवि का निथरा हुआ अनुचिंतनमिलता है:
रचना भी उच्च कोटि का अध्यात्म
है
वह उदात्त की दिशा में
ऊर्जा का संयत रूपान्तरण है
अध्यात्म धार्मिक या
अधार्मिक नहीं होता
वह मनुष्य की आत्मिक
शक्तियों का
उसकी कृतियों में पुनःस्थापना द्वारा
लौकिक में अलौकिक की पहचान पाता है
यहचेतना का जीवन में
पुनःप्रवेश है
बहिष्कार नहीं, अतः दोनों में विभिन्नता है
अन्तर्विरोध नहीं।
कुमारजीव लगभग तीन सौ बौद्ध-ग्रन्थों का अनुवाद करता है, लेकिन
उसके अनुवाद महज अनुवाद न होकर एक मूल
रचना का स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं। हालाँकि अनुवाद-कर्म में वह अपनी मान्यताओं को
कतई हावी नहीं होने देता, लेकिन वह उसी तल्लीनता से इस कार्य को अंजाम देता है
जैसे कोई साधक-रचनाकार।उसके लिए अनुवाद कभी भी दोयम दर्जे का काम नहीं रहा, बल्कि
उसका जीवन-लक्ष्य बन गया। वहसंस्कृत में उपलब्ध समस्त बौद्ध वांग्मय को चीनी भाषा
में इतनी सर्जनात्मकता के साथ प्रस्तुत करना चाहता था कि वह चीनी का अपना साहित्य
लगे। पितृ-पक्ष से एक भारतीय होते हुए भी कुमारजीव में संस्कृत के प्रति जो निष्ठा
और जिज्ञासा थी, उससे तनिक भी कम तोषारियन या चीनी के प्रति नहीं थी। भाषाओं के
प्रति उसका यह सम्मानवास्तव में एक विश्व-दृष्टि का सम्मान था, विश्व की दो
बड़ीसंस्कृतियों को एक ही‘सिमिट्री’ में देखने का उसका अपना ढंग था, जिनमें दो या
तीन या कई भाषाएँ उनकी अंतर्धाराओं के रूप में सतत प्रवहमान रहती हैं। कुमारजीव की
जीवनी के प्रसंग में कुँवर नारायण लिखते हैं: “एक कुशल अनुवादक मूल पाठ को दूसरी
भाषा में केवल ज्यों-का-त्यों नहीं पहुँचाता है, अनुवाद की भाषा के परिवेश को भी
समृद्ध करता है— उसमें नए आयाम भी जोड़ता हैताकि वह मूल के अर्थ मात्र को नहीं,
उसकी बुनियादी संस्कृति का आभास भी दे सके। आज से डेढ़ हज़ार वर्ष पहले कुमारजीव इस
तथ्य को देख सका और सम्भव बना सका। यह विद्वता के क्षेत्र में भी उतना ही बड़ा कमाल
है जितना भाषा और काव्य के क्षेत्रों में।” (कुमारजीव; भारतीय ज्ञानपीठ/2015, पृ० 12-13)
ऊपर जो
उद्धरण दिया गया है, उसमें रचना को ‘अध्यात्म’ की श्रेणी में रखा गया है।
आजकलहमारी देश-दशा कुछ ऐसी है औरहमारे यहाँ बहुत-से पढ़े-लिखे लोग भी ऐसेहैं जो ‘अध्यात्म’,
‘चेतना’, ‘आत्म’ या ‘मुक्ति’जैसे शब्दों को देख-सुनकर नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं ।
वास्तव में यह उनका नहीं, एक ख़ास आलोचना-पद्धति का दोष है, जिसने लगभग एक तानाशाही रवैया
अपनाते हुए वर्षों से हिंदी के ‘कॉमन’ पाठक की ‘चेतना’ को अपनी गिरफ्त में बनाए रखा
है। इसलिए कुँवर नारायण को स्पष्ट करना पड़ता है कि अध्यात्म ‘धार्मिक’
या ‘अधार्मिक’ नहीं होता है ।र चना‘उदात्त’ की ओर मानवीय ऊर्जा का आरोहण है। यदि
लोंजाइनस के उदात्त-सिद्धांत का ध्यान हो तो यहाँ भी ‘उदात्त’ शब्द को धार्मिक या अधार्मिक
तो नहीं ही समझना चाहिए। इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि लोंजाइनस ने महान काव्य
की रचना-प्रक्रिया से जोड़कर उदात्त-तत्त्व की व्याख्या की है और उसने ‘वस्तु’ (Content) के साथ-साथ ‘वास्तु’ (Form) की भी बात की है।
हमने कविताओं
और ख़ासकर‘कुमारजीव’ के संदर्भ में ‘जीवन’ और ‘मानवीयता’ के विविध पक्षों की विवेचना
की है। अब, अपनी विवेचना का समाहार करते हुए, उसी के सापेक्ष यदि यहाँकुँवर नारायण की ‘रचना-दृष्टि’ के
लिए कोई एक सूत्र बनानाचाहें कुछ यों बना सकते हैं: रचना=मानवीयऊर्जा का
उदात्तीकरण=चेतना का जीवन में पुनःप्रवेश=मानवीय आत्म का कृति में पुनःस्थापन=विभिन्नताओं
का एकत्व=जीवन-वस्तुओं में आपसी सह-अस्तित्व।
कुँवर
नारायण की कविताओं के बारे में और मुख्यतः‘कुमारजीव’ के बारे में और भी बहुत-सी
बातें हैं। ख़ासकर इस कृति में कवि ने जिस तरह ‘समय’ को बरता है, उस पर बहुत विस्तार
से बात होनी चाहिए। लेकिन हमारे इस आलेख की सीमा को देखते हुए अब इसकी गुंजाइश नहीं
है, इसलिए संभवतःअगले किसी दूसरे आलेख या निबंध में इसकी चर्चा की जाएगी। यहाँ
फिलहाल इतना ही कहना है कि ‘कुमारजीव’ में अनुभव या घटनाओं की कई शृंखलाएँ हैं।
इन घटनाओं और अनुभवों की अपनी-अपनी संज्ञाएँ हैं। पूरी कृति ऐसी तमाम संज्ञाओं,
विशेषणों और क्रिया-विशेषणों से समृद्ध है। लेकिन यदि इन सबकी कोई एक या एकमात्र ‘क्रिया’है,
तो वह है ‘जीवन’या‘जीवन को जीना’— चाहे वह कुमारजीव की ओर से हो या कुँवर नारायण
की ओर से। यहाँ एक बार फिर आपका ध्यान ‘आत्मजयी तथा मेरी अन्य कविताएँ’ निबंध कीओर
ले जाना चाहूँगा जिसके पहले हिस्से में कुँवर नारायण ने बोर्खेस को‘कोट’ किया है।
बोर्खेस कहते हैं:“मैं यह निश्चित तौर पर मानता हूँ कि जीवनकविताओं से बना है...”“Life is, I am
sure, made of poetry...” यदि ‘कुमारजीव’ सहित कुँवर नारायण की समस्त कविताओं के
बारे में हमें ऐसा ही कुछ कहना हो तो विनम्र होकर यही कहेंगे कि, ‘कविताएँ निश्चित
तौर पर, जीवन से बनी हैं’—“Poetry is, I am sure, made of
life…”
[पक्षधर- 18 (जनवरी-जून2015) में प्रकाशित]
पंकज कुमार बोस: दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा । हिन्दी आलोचना के इलाहाबाद केंद्र पर पीएच.डी. और पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च। आलोचना के अलावा रचनात्मक गद्य और अनुवाद में भी कुछ काम। 'पक्षधर' की संपादकीय टीम में । आलोचनात्मक लेख ‘वाक्’, ‘हंस’, ‘वागर्थ’, ‘आलोचना’, ‘प्रतिमान’, ‘पक्षधर’, ‘आजकल’, ‘पल प्रतिपल’ और ‘अनहद’ जैसी पत्रिकाओं; तथा ‘सदानीरा’, ‘समकालीन जनमत’, ‘पहली बार’पर प्रकाशित। ‘हिन्दवी’ ब्लॉग पर ‘गद्य जिज्ञासा’ नाम से स्तंभ लेखन। कुँवर नारायण और नामवर सिंह पर केंद्रित लेखन विशेष चर्चित। कुँवर नारायण के अंग्रेज़ी निबंधों का हिन्दी अनुवाद और उनपर केंद्रित चार बड़ी परियोजनाओं के संयोजन-संपादन में संलग्न । उनके साक्षात्कारों की तीसरी संपादित पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य। पहली आलोचना पुस्तक भी शीघ्र प्रकाश्य।अकादमिक उपलब्धियों के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय का प्रो. सावित्री सिन्हा स्मृति स्वर्ण पदक, यूजीसी की डॉ. एस. राधाकृष्णन पोस्ट डॉक्टोरल फ़ेलोशिप; लेखन के लिए वागर्थ, कोलकाता द्वारा ‘प्रेरणा पुरस्कार’ और बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन, पटना द्वारा ‘साहित्य सम्मेलन शताब्दी (युवा) सम्मान’। फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय के इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय में अध्यापन।
संपर्क : 9540879062