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नरेन्द्र मोहन |
नरेन्द्र मोहन हिंदी के कवि, नाटककार, निबंधकर, संपादक और आलोचक
हैं । उनकी आलोचना पुस्तकों और संपादन-कार्यों द्वारा हिंदी भाषा और साहित्य का संवर्धन
हुआ है । हिंदी आलोचना में ‘लंबी कविता/ओं’ को लेकर उनका काम विशेष तौर पर रेखांकित किया जाता है । उनका मानना है कि
लंबी कविता की प्रक्रिया से गुज़रते हुए कविता के धरातल पर कवि जिस तनाव को
अभिव्यक्त करता है, उसे ही दीर्घकालिक तनाव की संज्ञा दी गई
है । यहाँ इतना कहना पर्याप्त होगा कि तनाव की जिस दीर्घकालिकता, विविधता
और निरंतरता की बात की जाती है, वह यथार्थ के गुंफित और गतिशील रूपों को अभिव्यक्त
करने का नतीजा है। ऐसा तनाव केवल भावपरक नहीं हो सकता, उसके
पीछे विचार और अनुभव की संश्लिष्ट हैसियत का होना ज़रूरी है। यह वह तनाव है जिसे
लंबी कविता की सर्जना के दौरान कवि झेलता रहता है, जो एक नहीं अनेक संदर्भों में तना, अनेक
भावदशाओं, मनोदशाओं, विषम और विरोधी अनुभवों के बीच कवि
मानसिकता में परवरिश पाता रहता है, और अपने अभिव्यक्त रूपों में पाठकीय चेतना
को एक लंबे समय तक अपनी गिरफ़्त में बांधे रखता है लगभग वैसे ही जैसे कवि सृजन
अवस्था में इसे लेकर परेशानी के लंबे दौर से गुज़रता है ।
इस बार पक्षधर के पाठकों के
लिए हम ‘लंबी कविता’ की संरचना
पर नरेंद्र मोहन का लेख दे रहे हैं । इस लेख में मुक्तिबोध, राजकमल
चौधरी से लेकर विजय कुमार, लीलाधर मंडलोई, अनामिका, सविता सिंह, तुषार धवल, कुमार अनुपम जैसे कवियों की लंबी कविताओं को विषय बनाया गया है ।
लंबी कविता :
बाहरी-भीतरी स्वतंत्रता का रूपक
@
नरेन्द्र
मोहन
बीसवीं
शताब्दी से इक्कीसवीं सदी के साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रवाहों में प्रवेश करते हुए
जब मैं लंबी कविता के बारे में सोचता हूँ तो उस के कई विशिष्ट पहलू और रूप बरबस
आँखों के सामने तैरने लगते हैं। यह वह साहित्य है जो हमें मध्यकालीन-बोध से
आधुनिकता-बोध तक, परंपरा
से प्रयोग तक, आदर्श
से यथार्थ-बोध तक, मूल्य-चेतना
से मूल्यों के तीव्र संक्रमण की स्थितियों तक इस तरह ले आया है कि परंपरा, यथार्थ और मूल्य बड़ी तेज़ी से आधारहीन
परिकल्पनाएँ लगने लगी हैं। इस साहित्य ने हमें विश्वास की जगह विचार, आस्था की जगह विवेक और ईश्वर की जगह नए
मनुष्य की संकल्पना दी है। यह साहित्य साक्षी रहा है विभिन्न विचारों, विचारधाराओं, चिंतन-पद्धतियों और आंदोलनों के घमासान
का। कविता के साथ-साथ कहानी, उपन्यास,
नाटक, निबंध, जीवनी, आत्मकथा, हास्य और व्यंग्य - क्या नहीं है इस
साहित्य में। इसके द्वारा विभिन्न सृजनात्मक विधाओं में ज्ञान और संवेदना के
इतिहास के अभूतपूर्व पन्ने खोल दिए गए हैं। इसी में से उभर कर आया है लंबी कविता
का सृजन माध्यम। 2020
तक आते आते नयी कविता पीढ़ी की जो लंबी कविताएँ सामने आई हैं, उनमें उत्तर आधुनिक स्थितियों से टकराते
हुए अनुभवों की नयी बानगियों ही नहीं हैं, लंबी कविता के नए रूप और प्रयोगात्मक मॉडल भी दिख रहे हैं।
लंबी कविताएँ नए रंग-रूप, नयी
भाषा और शैली-शिल्प में आ रही हैं।
लंबी
कविता ने क्लासिकल रचना-विधान की जकड़न से मुक्ति का एहसास कराया है। इस ने एक बड़ा
कैनवस और खुलापन दिया है जिसमें समय के साथ बदलती वास्तविकता के विभिन्न रूपों को
पकड़ने की सामर्थ्य है। यह एक ओपेन फार्म है - समापन रूढ़ि से मुक्त। इसमें ऐसा
लचीलापन है कि अनवऱत प्रयोग करने की छूट है। इस तरह से देखें तो यह कला-माध्यम
बाहरी-भीतरी स्वतंत्रता पर एकाग्र है। एक लंबे दौर में नित नए रूपों में
वस्तु-निरूपण, शैली-शिल्प
और भाषा के नए प्रयोगों द्वारा इस कला-रूप ने अपनी मौलिकता को रेखांकित किया है।
लंबी
कविता का माध्यम आधुनिक युग की एक ज़रूरत के तौर पर उभरा है। इस ज़रूरत का एहसास 20वीं शताब्दी के शुरू में ही हो गया था।
आधुनिकता के दबाव से जैसे-जैसे मूल्यगत संक्रमण की प्रक्रिया तेज़ होती गयी और
सामाजिक ढाँचे में तब्दीली का आभास होता गया, वैसे-वैसे कविता के चरित्र में, कविता रचने के प्रकारों में, रूप-विधान और संरचना में परिवर्तन आने
लगे। लंबी कविताओं को सामाजिक ढाँचे में घटित होने वाले परिवर्तनों के सामने रखकर
देखने से इन कविताओं के एक ज़रूरी कला-माध्यम के तौर पर उभर आने में संदेह नहीं रह
जाता।
लंबी
कविता एक चुनौतीपूर्ण काव्य-कला फार्म है - अपने आकार में, ढाँचे में, संरचना में और सबसे ज़्यादा व्यापक और
गहरे आशयों को ध्वनित करने वाले अपने कथ्य में, संवेदन और विचार को वृहद फलक पर तानने
की अपनी क्षमता में। किसी भी कवि और आलोचक के लिए इस चुनौती का सामना किए बिना कोई
राह नहीं है।
लंबी
कालावधि में कविता/लंबी कविता के मानों-प्रतिमानों को लेकर प्रश्न उठते रहे हैं।
ये प्रश्न प्रति-प्रश्न उन आलोचकों के लिए असुविधाजनक रहे हैं जो अपनी ही
आलोचनात्मक कन्डीसनिंग के शिकार हैं। उन्हें यह कौन समझाए कि नयी परिस्थिति और समय
में नए काव्य-कला रूप सिर उठाते ही हैं जिन्हें कविता के प्रचलित रूपों के बीचों-बीच
रख कर देखने की ज़रूरत है। छायावादी कविता से लेकर इधर की कविता तक के विकास को
देखते हुए कहा जा सकता है कि निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ जैसी लंबी कविता से लेकर आज की कविता तक कई महत्त्वपूर्ण लंबी
कविताएँ लिखी गयी हैं। उनके कई विशिष्ट मॉडल रेखांकित हुए हैं जो काव्येतिहास में
दर्ज़ होते गए हैं।
लंबी
कविताएँ रचते हुए कवि को एक भिन्न प्रकार का अनुभव होता है - छोटी कविता, प्रगीत और प्रबंधात्मक-विधान में
काव्य-रचना करने से पैदा हुए अनुभव से अलग और विशिष्ट जिस पर न छोटी कविता और
प्रगीत के नियम लागू हो सकते हैं, न
प्रबंधात्मक-विधान के। लंबी कविताएँ लिखते हुए मुक्तिबोध ही नहीं, अन्य कवि भी इस अनुभव से गुज़रे हैं।
अपनी कविताओं को प्रदीर्घ आकार में फैलता हुआ देखकर मुक्तिबोध समझ नहीं पाते थे कि
वे इन्हें कैसे संभाले या रोकें? ये
कविताएँ प्रचलित मान्यताओं और प्रतिमानों के अनुकूल नहीं थीं पर चूँकि लंबी कविता
का विधान अनिवार्य माध्यम के तौर पर उनकी रचनाधर्मिता और यथार्थ-बोध के दबावों से
सहज रूप से फूटा था, उनकी
कविता में संवेदना का वृत्त जैसे-जैसे फैलता गया और समाज के व्यापक धरातलों को
छूने लगा वैसे-वैसे ‘कविता
का कलेवर भी दीर्घतर होता गया’।
इसलिए कठिनाइयों और परेशानियों के बावजूद मुक्तिबोध इसे निष्ठा से अपनाये रहे,
कविता और आलोचना की बनी-बनाई सरणियों और
परिपाटियों को चुनौती देते रहे। इसी सिलसिले में उन्होंने कविता के समापन रूढ़ि से
मुक्त होने का प्रमाण दिया तथा अन्विति संबंधी घिसी-पिटी प्रगीताश्रित मान्यताओं
को अमान्य ठहराया।
लंबी
कविताएँ मुझे एक चुनौती देती लगीं अपने आकार में, अपने ढाँचे में, अपनी संरचना में और सबसे ज़्यादा व्यापक
और गहरे आशयों को ध्वनित करने वाले अपने कथ्य में, संवेदना और विचार को, स्मृति, कल्पना, इतिहास और मिथक को तानने की अपनी क्षमता
में। लंबी कविताओं के ताने-बाने में यथार्थ कहीं इतिहास से जुड़ा हुआ है तो कहीं
मिथक से। यह नाता सघन और बहुस्तरीय है - इतिहास या मिथक घटनाओं को पुलिन्दे के तौर
पर नहीं, बोध और चेतना के रूप
में, तथ्यों या आंकड़ों के
रूप में नहीं, अंतरंग
साक्षी, परिप्रेक्ष्य और
विचार के स्तरों पर, जिससे
रचना गहराई के आयाम को प्राप्त करती है। इसलिए कवि आत्मगत संवेदना को इतिहास या
मिथक में फैलाने और संक्रान्त करने या उसमें इतिहास या मिथक को समाकलित करने का
प्रयत्न करता है। आत्मगत अनुभूति के इतिहास और मिथक में ढले बिना या इतिहास और
मिथक के आत्मगत अनुभूति में रूपांतरित हुए बिना (चाहे वह बयान, चित्रण, बिंब, प्रतीक या फैंटेसी के रूप में क्यों न
हो) लंबी कविता के एक बड़ी और सार्थक कविता
बनने का रास्ता अवरुद्ध ही रहेगा।
आत्मीय
स्मृतियों को ऐतिहासिक और मिथकीय संदर्भों और आयामों में लंबी कविता के विधान में
फैलते और गुथते हुए देखना, मेरे
लिए काव्य-प्रक्रिया के एक सर्वथा नये पक्ष के उद्घाटन के समान रहा है। लंबी कविताओं में स्मृति और कल्पना, इतिहास-बोध और मिथक काव्य चेतना को
कुरेदते और गहराते रहते हैं। यह बेहद संश्लिष्ट और जटिल प्रक्रिया है जो अपनी सारी
द्वंद्वात्मकता के साथ लंबी कविता की अंतर्वस्तु का हिस्सा है। इस प्रक्रिया में
मानसिक तनाव का घिराव रहता ही है जिसके बिना कविता संभव नहीं और जो लंबी कविता में,
अपने सभी संभव रूपों में समाया रहता है।
लंबी कविता की प्रक्रिया से गुज़रते हुए कविता के धरातल पर कवि जिस तनाव को
अभिव्यक्त करता है, उसे
ही दीर्घकालिक तनाव की संज्ञा दी गई है। यहाँ इतना कहना पर्याप्त होगा कि तनाव की
जिस दीर्घकालिकता, विविधता
और निरंतरता की बात की जाती है, वह
यथार्थ के गुंफित और गतिशील रूपों को अभिव्यक्त करने का नतीजा है। ऐसा तनाव केवल
भावपरक नहीं हो सकता, उसके
पीछे विचार और अनुभव की संश्लिष्ट हैसियत का होना ज़रूरी है। यह वह तनाव है जिसे
लंबी कविता की सर्जना के दौरान कवि झेलता रहता है, जो एक नहीं अनेक संदर्भों में तना,
अनेक भावदशाओं, मनोदशाओं, विषम और विरोधी अनुभवों के बीच कवि
मानसिकता में परवरिश पाता रहता है, और
अपने अभिव्यक्त रूपों में पाठकीय चेतना को एक लंबे समय तक अपनी गिरफ़्त में बांधे
रखता है लगभग वैसे ही जैसे कवि सृजन अवस्था में इसे लेकर परेशानी के लंबे दौर से
गुज़रता है। इस तरह तनाव की दीर्घकालिकता जहाँ एक तरफ़ कवि के ख़ास रचना बिंदुओं से
संबद्ध है वहीं दूसरी तरफ़ पाठकीय चेतना को विभिन्न स्तरों पर प्रेरित या ‘डिस्टर्ब’ करने से भी जुड़ी है। इसके अलावा लंबे
अरसे तक कविता में बने रहने वाले इस तनाव के एक-दूसरे से जुड़ते-टकराते कई और धरातल
भी हैं। यह तनाव व्यक्ति और व्यक्ति के बीच का, व्यक्ति और समाज के बीच का, आत्मिक संदर्भों और परिस्थिति के बीच का,
संस्कृति, भाषा और राजनीतिक शक्तियों के बीच का तो
है ही, बुनियादी तौर पर और
सृजनात्मक स्तरों पर यह सामाजिक स्थिति से प्रेरित विचार और लहू के बीच के रिश्तों
का तनाव है - एक क्रूर परिस्थिति में ज़िंदा रह पाने की तीव्र बेचैनी, गहरी वेदना से पैदा हुआ तनाव। तनाव के
इन्हीं संदर्भों, धरातलों,
आयामों, रंगों और आशयों से निर्मित होती है लंबी
कविता। तनाव की इसी विविधधर्मिता का नाम है लंबी कविता जो महज़ वैचारिकता से नहीं सध
सकती, न कोरे संवेग और
उत्तेजना से निभ सकती है। यह तो है ही कि लंबी कविता की तनाव दशाएं पाठक की चेतना
में खलबली मचा देती हैं। एक लंबे अरसे तक इन्हें झेलने की क्षमता वाला कवि ही इसे
साध सकता है।
ऐसे
कवि आलोचक रहे हैं (उदाहरण के लिए एडगर एलन पो) और आज भी हैं जो यह मानते हैं कि
लंबी कविता नाम की कोई चीज़ नहीं होती। वे लंबी कविता को स्वयं में एक सपाट
विरोधाभास मानते हैं। उनके ख़्याल से जिस तनाव से कोई रचना कविता के योग्य बनती है
उस तनाव को किसी बड़े आकार वाली रचना के विधान में हमेशा बनाये रखना संभव नहीं है।
यहाँ वह छोटी कविता और प्रगीत के तनाव संबंधी प्रतिमान को लंबी कविताओं के विधान
पर लागू कर रहे हैं। तनाव संबंधी जो धारणा पो के मन में है, वह छोटी कविता और प्रगीतों से बनी है।
वे जिस तनाव की बात करते हैं, वह
एक मनोदशा या भावदशा तक सीमित रह जाने वाला तनाव है। विभिन्न मनोदशाओं और भावदशाओं
का बोध कराने वाली तनाव की प्रकृति जो लंबी कविता में प्रतिफलित होती है या होनी
चाहिए, छोटी कविता की तनाव
प्रकृति से भिन्न होगी। ‘पो’
के इस आक्षेप का कि किसी लंबी रचना में
ज़्यादा देर तक और हमेशा समान रूप से तनाव की तीव्रता बनाए रखी नहीं जा सकती,
का खंडन टी॰ एस॰ इलियट ने यह कहकर किया
है कि लंबी कविता में तनाव और विश्रान्ति की तीव्र गति, ‘मूवमेंट ऑफ टेंशन एण्ड रिलेक्शेसन’
रहती है। इसे तनाव दशाओं और ब्यौरों का
संतुलन भी कह सकते हैं। लंबी कविता के संरचनात्मक विकास-क्रम में एक तनावपूर्ण अंश
के बाद निहायत सीधा-सादा, सपाट
और गद्यात्मक अंश रह सकता है जो पूर्ववर्ती तनाव-दशा के परिप्रेक्ष्य में या समग्र
कविता के संदर्भ में सार्थक हो। इस दृष्टि से लंबी कविता रचने वाले कवि की लंबे
अरसे तक तनाव को बनाये रखने वाली रचना-प्रक्रिया, लंबी कविता में निहित तनाव से गुज़रते और
उसे आंकते हुए आलोचक की मानसिकता और इस आघात को सहने वाले पाठक की प्रतिक्रियाओं
का अध्ययन दिलचस्प हो सकता है।
किसी
साहित्यिक रचना के रूप-विधान के बनने-टूटने और अप्रासंगिक हो जाने का जैसे एक
इतिहास है, उसी तरह साहित्य के
क्षेत्र में किसी नये रूप-विधान के उदय, प्रारंभ और चरम बिंदु तक पहुँचने का, उसके उभरकर सामने आने का भी एक इतिहास
है। इसे नज़रअंदाज़ करने से किसी भी समय के साहित्य को या उसके रचना-विधान को समझा
नहीं जा सकता। रूप विधान में परिवर्तन की जड़ें उस समय के समाज में या युग-विशेष
में विद्यमान रहती हैं। इस संदर्भ में कवियों द्वारा समय-समय पर अभिव्यक्ति के
संकट को महसूस किया जाता रहा है। नयी परिस्थितियों में कवि का सृजनात्मक बोध
नये-नये रूपाकारों को ग्रहण करने के प्रति आकर्षित होता है। आधुनिक युग के प्रारंभ
में यह आकर्षण किसी न किसी रूप में दिखना शुरू हो गया था। छायावाद युग में इसकी
दस्तक साफ़ सुनी जा सकती है। आगे चलकर सामाजिक स्थितियों के यथार्थ में जैसे-जैसे
तब्दीली आती गई, वैसे-वैसे
लंबी कविता का रूप निखरता गया और प्रबंधात्मक रूप-विधान अप्रासंगिक होता गया।
आधुनिक
युग के प्रारंभ में नयी युगीन परिस्थितियों के दबाव से काव्य-वस्तु के साथ-साथ
काव्य-विन्यास भी बदल रहा था और नये काव्य-रूपों में बात कहने का रुझान बढ़ रहा था।
ये परिवर्तन छोटी कविताओं और लंबे आकार वाली कविताओं में एक साथ दिख रहे थे।
भारतेंदुकाल में पद्यात्मक निबंध (जिन्हें कुछ लोग निबंध-काव्य भी कहते हैं) की जो
परंपरा (उदाहरण के लिए प्रतापनारायण मिश्र के पद्यात्मक निबंध) चली, द्विवेदीकाल में उसने कथा-कविता या
पद्यात्मक कविता का रूप ले लिया। उस दौर में लंबी पद्यात्मक कविताएँ या
कथा-कविताएँ प्रबंधात्मक ढाँचे के हिस्से के तौर पर ही लिखी गई। बाद में
प्रबंधात्मक ढाँचे से खुद को अलगाने की प्रवृत्ति इस पद्धति वाली कविताओं में भी
सिर उठाने लगीं, तो
भी इतिवृत्त के कथन और वर्णन के चलते ये कविताएँ किसी अलग काव्य-रूप को अर्जित न
कर पायी। इसीलिए भारतेंदुकाल और द्विवेदीकाल की लंबे आकार वाली कविताएँ पद्यात्मक
निबंधों और वर्णनात्मक कविताओं से आगे न बढ़ सकीं।
लंबे
आकार वाली जिन कविताओं की चर्चा ऊपर की गई है (आज भी जिनकी कमी नहीं है) वे लंबी
कविताएँ नहीं हैं। लंबे आकार में लिखी गई हर कविता लंबी कविता नहीं कहला सकती।
लंबे आकार में ऐसा बहुत कुछ लिखा गया है जो कविता ही नहीं, सार्थक या संगत होना तो दूर रहा। ‘एक बड़े फार्म को अपनाने का परिणाम बड़ी
और महत्त्वपूर्ण कविता में हेागा’, यह
भ्रम न हमें पहले था और न अब है। यह कवि की योग्यता, क्षमता और प्रतिभा पर निर्भर करता है कि
वह लंबी कविता जैसे माध्यम का रचनात्मक उपयोग कैसे और किस रूप में करता है। जब कोई
कवि कविता को लंबे आकार में फैलाने के लिए उसमें प्रसंगों और संदर्भों को
ठूंस-ठूंसकर भरने लगता है, ब्यौरों
के अंबार लगाता है, तनाव
के एक आयाम को पेश करता है और केवल एक भावदशा या मनोदशा के निरूपण और वर्णन में
मग्न हो जाता है या काव्यात्मक तनाव के अभाव में, महज़ उक्तियों से कविता को लंबा खींचने
में जुट जाता है तो कलात्मक संतुलन गड़बड़ा जाने से बड़े आकार के बावजूद कविता
बेडौल-सी होकर रह जाती है। ऐसी बेडौल, उबाऊ और विवरण-बोझिल रचना को लंबी कविता कैसे माना जा सकता है?
ऐसी रचनाओं को हमारे काव्यशास्त्रियों
ने बहुत पहले ‘पर्यायबंध’
कहकर पुकारा था।
छायावादी
दौर में लंबी कविता का जो समारंभ हुआ, उसके लिए भारतेंदुकालीन और द्विवेदीकालीन कविता, विशेष रूप से पद्यात्मक-निबंध और
कथा-कविताएँ खाद बनती रही हैं। इस दौर में तेज़ी से बदलती परिस्थितियों के दबाव में
उस समय की कविता का पूरा ढाँचा टूट रहा था। इसे तोड़नेवाले खुद छायावादी कवि
(प्रसाद, पंत और निराला) थे।
इस युग में प्रबंधात्मक-विधान में कविताएँ लिखी जा रही थीं तो लंबी कविता के नये
माध्यम में भी। छायावाद युग के प्रबंधात्मक-विधान का चरम निदर्शन ‘कामायनी’ (1936) में मिला था, साथ ही जयशंकर प्रसाद की ‘प्रलय की छाया’ (1933) और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की ‘राम की शक्तिपूजा’ (1937) जैसी लंबी कविताएँ भी लिखी गई थीं। ये
कविताएँ उस दौर के बाहरी-भीतरी रचना-संघर्ष को रूपायित करती हैं।
ठीक
है कि केवल आख्यान और कथा, भाव
और विचार के वर्णन या कथन से लंबी कविता नहीं बनती पर लंबी कविता में उनके
रचनात्मक उपयोग की भूमिका तो है ही। नये रूप में परिकल्पित आख्यान काव्यानुभव की
विभिन्न दशाओं में गुथकर लंबी कविता का हिस्सा बनता है/ बन सकता है, इसे प्रसाद और निराला की लंबी कविता से
समझा जा सकता है। यह काम एक भावदशा/मनोदशा के निरूपण या उसकी विवृति से नहीं हो
सकता। प्रसाद की लंबे आकार वाली कविता ‘आँसू’ एक
श्रेष्ठ कविता है लेकिन चूँकि वह एक भावदशा के विभिन्न रूपों का निरूपण करती है,
विभिन्न भावदशाओं और मनोदशाआंे से जुड़ती-टकराती
नहीं, इसलिए लंबे आकार की
महत्त्वपूर्ण कविता होने के बावजूद लंबी कविता नहीं है जबकि प्रसाद जी की ही कविता
‘प्रलय की छाया’
आख्यानपरकता के बावजूद बल्कि आख्यान के
भीतर से विभिन्न मनोदशाओं और विरोधी अनुभवों को तानने से अलग ढंग की लंबी कविता बन
गयी है। प्रसाद की तरह निराला ने भी ‘राम की शक्ति पूजा’ कविता में मिथकीय इतिवृत का कल्पनात्मक संयोजन किया है। राम के
संशय और द्वंद्व को, उनके
मन के परस्पर-विरोधी भावों को उन्होंने नाटकीय तनाव का हिस्सा बनाकर अभिव्यक्त
किया है। इस कविता में निराला ने आख्यान और वर्णनात्मकता को बडे़ कौशल से साधा है
और इस तरह कथा-कविता की सरहदों को लांघकर लंबी कविता का एक मॉडल खड़ा किया है।
हरिवंशराय बच्चन ठीक इसी बिंदु पर
वर्णनात्मकता को संभाल न पाने से, कथा-वर्णन
में उलझ जाने से लंबे आकार में फैली अपनी कविता ‘सिसिफस बरक़्स हनुमान’ को इस काव्य-रूप के विधान में ढालने में
विफल हो जाते हैं।
छायावाद
युग के बाद पंद्रह वर्षों का लंबा अंतराल है जिसमें कोई उल्लेखनीय लंबी कविता नहीं
लिखी गई है (लंबे आकार वाली महज़ भावपरक, विचारपरक और कथा-कविताओं का यहाँ जान-बूझकर नोटिस नहीं ले रहा
हूँ।) हो सकता है छायावाद के बाद कविता के प्रगतिवादी, प्रयोगवादी विन्यासों, आंदोलनों में उलझ जाने में ऐसा हुआ हो।
संभव है, स्वाधीनता के साथ ही
विभाजन की त्रासदी से पैदा हुई मूल्य-विमूढ़ता और हतप्रभ हो जाने का यह नतीजा रहा
हो। जो हो, तथ्य यह है कि
छठे-सातवें दशक में नयी सामाजिक/राजनीतिक परिस्थितियों में लंबी कविताओं को हम एक
नये रूप में उभरता हुआ पाते हैं। इन कविताओं में आख्यान मुख्य नहीं है, वह प्रतिभासित करता है कविता के
केंद्रीय बिंबों, प्रतीकों
और विचारों को। आख्यान से बिंब और बिंब से विचार की ओर उत्तरोत्तर बढ़तीं इन कविताओं, अज्ञेय की ‘असाध्य वीणा’, धर्मवीर भारती की ‘प्रमथ्यु गाथा’, विजयदेव नारायण साही की ‘अलविदा’, मुक्तिबोध की ‘चकमक की चिनगारियां’ का कथ्य, मूल्य-बोध और संरचना बदली हुई है। ये
कविताएँ यथार्थ के गतिशील रूपों को, उनसे उत्पन्न सृजनात्मक तनाव को व्यक्त करती हैं।
लंबी
कविताओं के दो दौर बड़े साफ़ हैं - एक आज़ादी से पहले का और दूसरा आज़ादी के बाद का।
आज़ादी से पहले मूल्यों के प्रति कवियों की संलग्नता का एक पुष्ट आधार था जो उस दौर
की लंबी कविताओं में आख्यान या मिथक की पुनव्र्याख्या में झलकता दिख जायेगा। इस
दौर की लंबी कविताओं में सामाजिक संक्रमण सामंतवादी ढाँचे से पूँजीवादी ढाँचे की
तरफ़ बढ़ने की वजह से एक ओर प्रबंधात्मक ढाँचा टूटा तो दूसरी ओर आख्यान और कथा के
सूत्र बने भी रहे। इन सूत्रों का बना रहना धीमी गति से हो रहे सामाजिक संक्रमण का
सूचक है।
दूसरा
दौर है आज़ादी के बाद लिखी गई लंबी कविताओं का जिसके तीन चरण बड़े साफ़ हैं - एक,
प्रसाद, निराला से लेकर 1960 तक, दो, 1960 से 1980 तक, तीसरा 1980-85 से लेकर आज तक। इस बीच आधुनिकता की
प्रक्रिया तेज़ हुई है, जिससे
मूल्य-मान्यताएँ बुरी तरह चरमरायी है। मूल्यों की प्रकृति में अंतर आता गया है पर
आधुनिकता मूल्य-विधान का हिस्सा बनी रही है। सामंतवादी ढाँचे की जगह पूँजीवादी
ढाँचे ने ले ली। अब तो पूँजीवादी ढाँचा भी ढह रहा है और उसकी जगह आ रही है
उपभोक्तावादी संस्कृति। नयी तरह की वास्तविकता - आधुनिक और उत्तर आधुनिक जीवन
विधान की अभिव्यक्ति लंबी कविताओं में अधिक सार्थक ढंग से हुई है। दूसरे, क्लासिकल रचना-विधान की जकड़बंदी से
मुक्ति का एहसास आधुनिक जीवन की जटिल वास्तविकता से (जो पूँजीवादी संस्कृति का
नतीजा था) उत्पन्न हुआ। आधुनिक जीवन की जटिल वास्तविकता और क्नासिकल रचना-विधान की
जकड़बंदी से मुक्ति की छटपटाहट एक-दूसरे से अलग-थलग नहीं हैं। वे एक ही सिक्के के
दो पहलू हैं। आधुनिक जीवन की जटिल वास्तविकता ने ही कवियों को बाध्य किया है कि वे
क्लासिकल ढाँचे की जकड़न से मुक्त हों। मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ हो या सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता ‘कुआनो नदी’, मणि मधुकर की कविता ‘घास का घराना’ हो या नरेश मेहता की ‘पिछले दिनों नंगे पांव’ (जिसका अंतिम अंश ‘काव्य की निःशब्द अबाधता के बीच’
यहाँ लिया गया है), गिरिजाकुमार माथुर की ‘इतिहास के जर्राहों से’, सविता सिह की ‘चाँद, तीर और अनश्वर स्त्री’, जैसी लंबी कविताओं में सत्ता और व्यक्ति
के अंतर्सबंधों में व्याप्त क्रूरता की जिस प्रकार पुनव्र्याख्या की गयी है उसे
पढ़ते हुए पाठक इतिहास की ध्वनियाँ अपने आसपास सुनने लगता है।
इस
बात पर ग़ौर किया जाना चाहिए कि जब ढाँचे की जकड़न की बात करते हैं तो हमारा आशय
केवल ढाँचे से नहीं, ढाँचे
के साथ जुड़ी कविता-धारणा से भी है जिसमें व्यवस्था, संतुलन, अनुपात और समन्वय को तरज़ीह दी जाती रही।
ये सब चीजें़ क्लासिकल फार्म का हिस्सा बनती गयीं और कालांतर में कृत्रिम व्यवस्था
और संतुलन पैदा करने के चक्कर में निर्जीव हेाती गई। इसलिए लंबी कविता परंपरागत
ढाँचे से अलग और विशिष्ट माध्यम ही नहीं है, उस ढाँचे से चिपकी हुई कविता-धारणा के
विरुद्ध एक रचनात्मक वक्तव्य भी है। इस दृष्टि से रघुवीर सहाय की ‘आत्महत्या के विरुद्ध’, लीलाधर जगूड़ी की ‘बलदेव खटिक’, सोमदत्त की ‘क्रागुएवात्स में पूरे स्कूल के साथ
तीसरी क्लास की परीक्षा’, आलोक
धन्वा की ‘ब्रूनो की बेटियाँ’
और अरुणाभ सिद्धार्थ की ‘आद्य नायिका’. कविताएँ देखी जा सकती हैं।
प्रबंधात्मक
ढाँचे और उसके साथ जुड़ी कविता-धारणा की ओर ऊपर हमने संकेत किया है। अच्छे-भले
कवियों के सृजन को इन ढांचों में खपते हुए देखना खासा तकलीफ़़देह रहा है। लंबी
कविता इस तकलीफ़ को समझने और उससे बाहर आने का ज़रिया बनी। लंबी कविता ने एक बड़ा
कैनवस और खुलापन दिया है जो नयी वास्तविकता के अनुकूल है। लंबी कविता का फार्म
बाहरी-भीतरी स्वतंत्रता की आकांक्षा को उसके योग्य रूप-विधान पर केंद्रित करने में
सफल रहा है। धूमिल की ‘पटकथा’
की अन्य विशेषताओं के अलावा यह एक
महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि इसमें बहुप्रचारित समाजवादी ढाँचे में पनप रही
पूँजीवादी मनोवृत्तियों और उनसे जुड़ी असंगतियों-विसंगतियों को उनके अनुकूल
रूप-विधान में ढाला गया है। इसी तरह रामदरश मिश्र की लंबी कविता ‘फिर वही लोग’ और रमेश गौड़ की लंबी कविता ‘पतन-गाथा’ के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि
इनमें सामंतवादी संस्कृति से पूँजीवादी संस्कृति में संक्रमण से उत्पन्न
वास्तविकता ने एक बार पुनः हमें कविता पर नये सिरे से विचार करने के लिए प्रेरित
किया है। लंबी कविताओं में से आख्यान के लुप्त होते जाने तथा केंद्रीय बिंब और
विचार की ओर अग्रसर होते जाने को इस संदर्भ में समझा जा सकता है।
लंबी
कविताओं के सिलसिले में एक स्थल पर मैंने लिखा है: ‘‘ऐसे काव्य माध्यम की तलाश शुरू हुई
जिसमें नये जीवन-विधान की संगति हो और जो परंपरागत रूप-विधान की रूढ़ियों से मुक्त
भी हो, जिसमें नये सत्य के
साक्षात्कार की क्षमता हो और जो आधुनिक परिस्थिति और संवेदना द्वारा पुष्ट और
प्रमाणित भी हो। इस तलाश के सिलसिले में ही लंबी कविता का नाटकीय विधान सामने आया।
इससे कवियों की नाटकीय क्षमता का पता चला। आज़ादी से पहले की लंबी कविताओं में यह
क्षमता कैसी है, इस
तरफ़ हम संकेत कर आये हैं, आज़ादी
के बाद की लंबी कविताओं के विधान में यह नाटकीयता कई स्तरों पर दिखाई देगी। उदाहरण
के लिए मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे
में’ और विजयदेव नारायण
सही की कविता ‘अलविदा’
लंे। ‘अँधेरे में’ कविता में विभिन्न प्रकार के मानसिक,
सामाजिक तनावों के बीच से नाटकीय क्षमता
को पहली बार इतने बड़े पैमाने पर विशिष्ट रूप में उभारा गया है। नाटकीय विधान की यह
विशेषता है कि इसमें यथार्थ चेतना सीमित नहीं होती। समय और मूल्य परिस्थिति से
जूझते-टकराते उभरते आते हैं - चीज़़ों और स्थितियों की संभावनाएँ अवरुद्ध या ख़त्म
नहीं होती, बल्कि आंतरिक
तनाव-सूत्रों द्वारा फैलती-बढ़ती जाती हैं। साही की कविता ‘अलविदा’ की संरचना की विशेषता यह है कि कविता
परत-दर-परत खुलती और उठती गई है - एक आत्मीय मित्र की भाषा और अंदाज़ में जैसे कोई
रहस्य धीरे-धीरे बताया जा रहा होे। इस ‘टोन’ को
कविता में शुरू से आखि़र तक बनाए रखा गया है। आत्मपरक दृष्टि के साथ अन्य संदर्भ
भी जुड़ते चले गये हैं। संदर्भों की इस ढंग की बुनाई में ‘परिदृश्यगत क्षीणता’ अवश्य है पर नाटकीय विधान इस ओर ध्यान
नहीं जाने देता।
आधुनिक
जीवन की जटिल वास्तविकता या जीवन की वह जटिलता जो लंबी कविताओं में अभिव्यक्त हुई,
को अक्सर आधुनिकता या आधुनिक संवेदना तक
सीमित कर दिया जाता है जिससे ग़लतफ़हमी पैदा होती है। हमारे विचार में इसका आशय
प्रचलित अर्थवाली आधुनिकता या आधुनिक संवेदना से नहीं जिसके अंतर्गत संबंधों और
स्थितियों की जटिलता का अंकन करते हुए विकास की संभावना ही ख़त्म कर दी जाती है।
मैं न ऐसी जटिलता का कायल हूँ, न
ऐसी आधुनिकता का। जटिल संबंधों और स्थितियों में निहित संभावनापूर्ण रवैयों और
टकराहटों को मैं बेहतर विकल्प मानता हूँ। राजकमल चैधरी की ‘मुक्ति-प्रसंग’, सुधीर सक्सेना की ‘धूसर में बिलासपुर’, अनामिका की ‘बहिनाबाई-इक्कीसवीं सदी’ कविताओं से इन संभावनापूर्ण रवैयों को
देखा-समझा जा सकता है। इस ढंग की विसंगति-विडंबनाओं भरे कथ्य को लंबी कविता की
फार्म में अभिव्यक्त करना कवि की सर्जनात्मक ज़रूरत बना है। इस अर्थ में उनके लिए
यह एक ज़रूरी काव्य माध्यम सिद्ध हुआ है।
इधर
ऐसी कविताएँ भी लिखी गई हैं, जिनमें
भाषा और संरचना संबंधी प्रयोग किये गये हैं। एक प्रवृत्ति अराजक मुहावरे वाली रही
है - परंपरा को ललकारती-सी। इस प्रकार की कविता और काव्य रवैये के पीछे जहाँ कथ्य
का दबाव रहा, प्रयोग
वहीं सफल हुए हैं। एब्सर्ड दर्शन के चलते दो ऐसी लंबी कविताएँ सामने आयीं, जिनकी प्रयोगात्मक मॉडलों के तौर पर
खासी चर्चा रही हैं। ये कविताएँ हैं - राजकमल चैधरी की ‘मुक्ति प्रसंग’ और सौमित्र मोहन की ‘लुकमान अली’। कविताओं के ये नये प्रयोग भीतरी अराजक
स्थिति को संप्रेषित करते हैं, यही
इन प्रयोगों की सफलता का रहस्य है। श्रीराम वर्मा की कविता ‘सेमल के आस-पास लिपटे हम’ में भी प्रयोग-प्रवृत्ति है पर प्रयोग
तनावपूर्ण मनःस्थितियों की अभिव्यक्ति में सहायक न होकर बाधक बन गये हैं।
लंबी
कविता में कवि प्रत्यक्ष रूप में मौजूद है या नहीं, इससे कोई बहुत फ़र्क नहीं पड़ता। दरअसल,
कविता में कवि की प्रत्यक्षतः दिख रही
मौज़्ाूदगी में अनेक संदर्भ घुले रहते हैं। कविता के ‘मैं’ को कविता के पर्याय रूप में ग्रहण कर
लेना भ्रांतियां पैदा कर सकता है। दूसरी बात यह है कि जहाँ कवि प्रत्यक्ष रूप से
कविता में नहीं दिखता, वहाँ
भी उसका दखल पात्रों के ज़रिए होता ही है। कवि की प्रत्यक्ष उपस्थिति कविता के
विभिन्न संदर्भों को एक आत्मीय और विश्वसनीय पहचान देने में सहायक हो सकती है।
इससे कविता में सहज ही नाटकीयता का प्रवेश हो जाता है। इससे कविता में उभर रही
तनाव की प्रक्रिया निर्धारित होती है। जहाँ कवि पृष्ठभूमि में होता है वहाँ वह
कविता में से उभर रहे तनाव को अधिक कौशल से तय कर सकता है। पर इस ढंग की संरचना
में कवि के रवैये के एकपक्षीय हो जाने का ख़तरा हो सकता है। यह सवाल उठाया जा सकता
है कि रचनाकार की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मौज़्ाूदगी से निर्णय तक पहुँचने-न-पहुँचने
का कोई ताल्लुक है या नहीं? नागार्जुन
की ‘हरिजन गाथा’ और प्रताप सहगल की ‘सवाल अब भी मौजूद है’ कविताओं में कवि की अप्रत्यक्ष
मौज़्ाूदगी है और गिरिजाकुमार माथुर की कविता ‘इतिहास के जर्राहों से’, राजकमल चैधरी की कविता ‘मुक्ति प्रसंग’, मोहन सपरा की ‘संवाद-गाथा’ कविता में प्रत्यक्ष, पर इससे क्या कोई फ़र्क पड़ा? फ़र्क पड़ता है इस बात से कि निर्णय तक
पहुँचने या उस ओर बढ़ने की यात्रा कैसे की गई है। ‘हरिजन गाथा’ में दलित लोगों के सन्नद्ध होने और उनके
सशस्त्र लड़ाई में जुटने की ओर स्पष्ट संकेत हैं। वे एक निर्णय को व्यक्त करते हैं।
अगर यह निर्णय सपाट ढंग से कथित होता तो कविता को ले डूबता पर चूँकि कवि ने स्थिति
का अतिक्रमण करते हुए इसे द्वंद्वात्मक रूप में प्रस्तुत किया है, इसलिए यह अविश्वसनीय नहीं लगता।
गिरिजाकुमार माथुर, राजकमल
चैधरी, प्रताप सहगल और मोहन
सपरा ने खुली लड़ाई की बात नहीं की पर उनकी कविताओं से विसंगतियों को झेलते हुए
निर्णय तक पहुँचने की उत्कट आकांक्षा मिलती है। ‘इतिहास के जर्राहों से’ में मैं की मानसिकता में हुआ परिवर्तन
और प्रताप सहगल की कविता ‘सवाल
अब भी मौजूद है’ में
हरिया की अपनी वर्गीय स्थिति से जुड़ने के संकल्प से पैदा हुआ रवैया चूँकि सामाजिक
परिस्थितियों और प्रक्रियाओं को पहचानने के बाद उत्पन्न हुआ है, इसलिए संगत लगता है। मोहन सपरा की कविता
‘संवाद गाथा’ के ‘मैं’ के जूझने के पीछे एक ओर इतिहास और
संस्कृति से जुड़े होने का गहरा अहसास है तो दूसरी ओर आत्मीय स्तर पर टूटने और
खंड-खंड होने का यातना-बोध। यही बात सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता ‘कुआनो नदी’, विजयकुमार की कविता ‘तालाबंदी में किसी अज्ञात की खोज’
और कुमार अनुपम की कविता ‘ऑफिस-तंत्र’ में भी देखी जा सकती है।
लंबी
कविताओं में विविध संदर्भों का टकराव रहता है - आत्म से लेकर सामाजिक राजनीतिक
सरोकारों तक कवि की दृष्टि जाती है। सादिक़ की ‘गुज़रते हुए’, बसन्तकुमार परिहार की ‘टुंडे आदमी का बयान’, सुमन राजे की ‘उसके उन्नीसवें जन्मदिन पर’, निर्मला गर्ग की ‘हमारी निबों पर तुम्हारे शब्द भाप छोड़ते
हैं, नेरूदा’ कविताओं में आत्मिक और सामाजिक संदर्भ
परस्पर गुथे और तने हुए हैं। कवि-दृष्टि इन्हीं के भीतर से मनोदशाओं के तनाव को
उघाड़ती गयी है। हाँ, ये
बातें और संदर्भ यदि एकान्तिक रूप से कविताओं में आते हैं तो वे राजनीतिक, सामाजिक कमेंटरी का आभास देते हैं।
देखना यह होगा कि कवि इन प्रसंगों और संदर्भों को किस बिंदु पर तानता है?
लंबी
कविताओं में आए मुख्य या केंद्रीय पात्रों को कई बार नायक या काव्य-नायक कहकर
पुकारा जाता है। हमें लगता है ऐसा कहना ठीक नहीं है। लंबी कविताओं में नायक के लिए
कोई गुंजाइश नहीं है। इधर लंबी कविताओं में जो केंद्रीय पात्र उभरकर आ रहे हैं,
उन्हें नायक की संज्ञा नहीं दी जा सकती।
बलदेव खटिक हो या युसूफ, लुकमान
अली हो या हरिया - नायक नहीं, अनायक
है - एण्टी हीरो। ये पात्र सामाजिक स्थितियों की देन हैं। इसी से सीधे फूटकर निकले
हैं। परिस्थितियों और समय के गहरे एवं ऐतिहासिक टकरावों से इनकी निर्मिति हुई है।
परंपरागत प्रबंधात्मक काव्यों के नायकों जैसा एक भी गुण इनमें नहीं हैं।
धीरोदात्तता और चेतनात्मक ऊर्जा जैसी प्रवृत्तियाँ इन केंद्रीय पात्रों में कहाँ
हैं? ऐतिहासिक परिस्थिति
और केंद्रीय पात्र का जैसा टकराव लंबी कविताओं में दिखता है, वैसा प्रबंध-काव्यों में कहाँ मिलेगा?
नायक की परिकल्पना जिस सामंतवादी
संस्कृति के तहत की गयी थी, उसी
के अनुरूप बंद ढाँचा भी बना था। वैसी अपेक्षा आज के माहौल में और लंबी कविता जैसे ‘ओपन’ फार्म से कैसे की जा सकती है?
लंबी
कविताओं में विविध संदर्भों का टकराव रहता है, आत्म से होकर सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों
तक कवि की दृष्टि जाती है। उदाहरण के लिए धूमिल की ‘पटकथा’, रामदरश मिश्र को ‘फिर वही लोग’ और लीलाधर जगूड़ी की ‘बलदेव खटिक’ कविताएँ देखिए। पटकथा में मोहभंग की
तल्खी को इतिहास के एक बड़े फलक पर तान कर देखा गया है। ऐतिहासिक मानसिकता से जूझते
हुए कवि देश भक्ति और जनतंत्र की गति-दुर्गति के चित्र खींचता है और तनाव की तीव्र
मानसिक अवस्थाओं से गुज़रता हुआ आज़ादी का वास्तविक अर्थ पाना चाहता है पर खाली हाथ
रह जाता है। सपाटबयानी में कहीं कहीं बिंब कौंधते हैं और विलीन हो जाते हैं। हाँ,
जहाँ कहीं सपाट कथनों और मानसिक
उद्वेलनों में संतुलन सधा है, वहाँ
कविता निश्चय ही प्रभावी है। ‘फिर
वही लोग’ की विधायक टेक है,
‘फिर वही लोग’ जा रहे हैं इस सड़क से। इस टेक के गिर्द
विसंगति के कई चित्र उभरते हैं’ यह
सड़क देख रही है कब से/कि इस पर से आदमी नहीं/केवल जुलूस गुजरे हैं।’ इस ढंग के विन्यास से विवरण भी अर्थवान
हो गए हैं। ‘बलदेव
खटिक’ में न किसी आख्यान का
सहारा लिया गया है, न
किसी फैंटेसी या बिंब का। इसके केंद्र में एक ऐसा विचार है जो एक क्रूर समकालीन
स्थिति को धीरे-धीरे उघाड़ता है। इसके लिए कवि ने रंगतु और बलदेव खटिक जैसे ठोस
चरित्रों की सक्रिय सामाजिक सत्ताओं को उभारा है। दरअसल, ये चरित्र नहीं, प्रतिरोध के विचारों के साथ जुड़ी हुई
विसंगतियों और त्रासद अनुभवों के मूर्त रूप हैं।
अच्छा
ही है कि इधर के कई कवियों ने अपने काव्य क्षितिज का विस्तार किया है और वर्गीय
चरित्र की खोल से बाहर उन लोगों को अपनी संवेदना का विषय बनाया है जो सांस्कृतिक
दृष्टि से सीमांतहीन है, हाशिए
पर पड़े हुए हैं। नागार्जुन की ‘हरिजन
गाथा’, कुमारेन्द्र पारसनाथ
सिंह की ‘भंगी कालोनी’,
राजेश जोशी की ‘सलीम, मैं और उनसठ का साल’, अनुज लुगुन की ‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’ कविताएँ इस ओर ध्यान आकृष्ट करती हैं।
इधर कुछ ऐसी कविताएँ भी लिखी गयी हैं जो किन्नर या थर्ड जेंडर को लेकर है। कंवलनयन
कपूर की ‘किन्नर-गाथा’ ऐसी ही लंबी कविता है। कथा-साहित्य में
इस थीम पर पर्याप्त लिखा गया है, कुछ
कविताएँ भी लिखी गयी है मगर इस विषय पर कोई लंबी कविता शायद ही मिले। दरअसल,
किन्नर की यातना और संघर्ष का कोई
ओर-छोर नहीं। किन्नर कैसे कवि की अनुभूति का विषय बना, यह एक अलग प्रसंग है जिसके बारे में
शायद कवि कभी बताएं। यह तो है ही कि कंवल नयन ने उसे एक ऐसी मानवीय इकाई के तौर पर
उठाया है कि किन्नर की हालत, ‘इतना
तो तय है/मैं हो नहीं सकती/अपने विरुद्ध/तो कौन है/दबोच रखा है बीचोंबीच/जिस ने
होने न दिया/किसी भी ओर/इधर न उधर’, बयान भी होती जाए और किन्नर के रूप में ‘होने ’ की प्रक्रिया भी दिखती रहे। उसकी मानवीय
संवेदना और विचार की गांठे कविता में परत-दर-परत खुलती गयी हैं - ‘कोई तो है/सतत अकेला धकेल रहा है/मुझे
हमें/किन्नतरत्व में गहरे/कोई जिस ने होने न दिया/किसी भी ओर’ की ध्वनियाँ कविता के प्रारंभ से अंत तक
गूँजती रहती हैं। यही वह तार है जिसमें समाज द्वारा किन्नर के उपेक्षित किए जाने
के तनाव और बेदखल किए जाने के ब्यौरे कविता में संयोजित होते गए हैं। इसी तरह की
मार्मिक अनुभूति से जुड़ी कविताओं द्वारा हिंदी कविता की काव्य-वस्तु अधिक पुष्ट और
समृद्ध हुई है।
लंबी
कविताओं में यथार्थ की अभिव्यक्ति कई रूपों और माध्यमों में होती रही है। कहीं वह
फैंटेसी और प्रतीक-विधान में छिपी हो सकती है तो कहीं सीधे और प्रत्यक्ष कई तरह की
अर्थ-ध्वनियों को लिए हुए। लंबी कविताओं के ताने-बाने में यथार्थ कहीं अंतर्मन के
घात-प्रतिघात से जुड़ा होता है, कहीं
इतिहास और मिथक से। यह नाता सघन और बहुस्तरीय रहता है। कवि आत्मगत संवेदना को
इतिहास या मिथक के आधार पर फैलाने और संक्रांत करने या इतिहास या मिथक के संकेतों
को आत्मगत संदर्भों में नए सृजनात्मक अर्थ देने का प्रयत्न करता है। आत्मगत
अनुभूति में रूपांतरित हुए बिना इतिहास का कोई प्रसंग, समाज की कोई समस्या, मिथकीय कथा का कोई पहलू या कथा ध्वनि
काव्यात्मक आकार धारण नहीं कर सकती। आत्मीय स्मृतियों को ऐतिहासिक और मिथकीय
संदर्भों और आयामों में लंबी कविता के विधान में फैलते और गुथते हुए देखना
काव्य-प्रक्रिया के एक सर्वथा नये पक्ष के समान है। लंबी कविताओं में स्मृति और
कल्पना, इतिहास-बोध और
मिथक-चेतना को कुरेदते और गहराते रहते हैं। यह बहुत संश्लिष्ट और जटिल प्रक्रिया
है जो अपनी सारी द्वंद्वात्मकता के साथ लंबी कविता की अंतर्वस्तु का हिस्सा है।
यहाँ अनुभूति क्षण-विशेष की चीज़ नहीं रह जाती बल्कि अन्य चीज़़ों से जुड़ती हुई
तीव्र गति से अपना विस्तार करती है।
इस
दृष्टि से राजकमल चैधरी की कविता ‘‘मुक्ति-प्रसंग’
और लीलाधर मंडलोई की कविता ‘हत्यारे उतर चुके है क्षीर सागर में’
लें। ‘मुक्ति-प्रसंग’ में तनाव दशाओं को संतुलित करने के लिए
कवि ने विवरणों का नहीं मिथकीय प्रतीकों का विधान किया हैं। कविता के केंद्र में
उग्रतारा जैसा प्रतीक हैं। यह प्रतीक एवं त्रिकोणीय संदर्भ लिए वर्तमान और शव का
रूपक, देह और देश का
महा-साहश्यत्व, मृत्यु
और काम का विरोधत्व लिए हुए है जिस की धुरी है नारी नीलकन्या अथवा उग्रतारा।
उग्रतारा को संबोधित करके कवि ‘तुम
मुक्त रखती हो/और मैं तुम्हें मुक्त अपने मरण में/अपनी कविता में।’ यह प्रतीकात्मक विन्यास कवि के आशय,
मंतव्य और मूल को खोलने में सहायक बना
है।
आज
के यथार्थ, फैंटेसी और मिथक,
इन तीनों के अर्थों-आशयों से जुड़ी है
लीलाधर मंडलोई की कविता ‘हत्यारे
उतर चुके है क्षीर सागर में’।
इनके संदर्भ बेशक अलग हंै मगर यह कविता फैंटेसी और मिथक के अद्भुत संयोजन को कुछ
इस तरह प्रस्तुत करती है कि हमारी आज की स्थिति की विकटता-विकरालता, भयावह विसंगति, विडंबना के दहला देने वाले मंजर उजागर
होने लगते हैं। सब कुछ स्वप्न में घटित हो रहा है और स्वप्न में देखा सच हमारी
वीभत्स ज़िंदगी को तार-तार करता जाता है। फैंटेसी के साथ का यह संयोजन अनायास बहुत
कुछ कह जाता है। विष्णु और क्षीरसागर के मिथक को कवि ने इस तरह डी-कोड किया है कि
शोषण और दमन के नये अर्थों की ध्वनियाँ भूमंडलीय यथार्थ की क्रूरता को स्तर-स्तर
निर्ममतापूर्वक खोलती गयी है।
लंबी
कविता की रचना-प्रक्रिया को ध्यान में रखें तो काव्यानुभूति को काल की दीर्घ अवधि तक
फैलाना होगा। केवल विषयगत मार्मिक अनुभूतियां ही अपना काम कर रही होती है, ऐसा नहीं है। ‘सवाल अब भी मौजूद है’ में प्रताप सहगल बाहरी-भीतरी तनावों को
संवेदनात्मक और वैचारिक बेचैनी के नए रूपों-प्रारूपों तक ले गया है।
आवेगों-संवेगों को उस ने संयम से संभाला है। कविता की सफलता इसमें है कि उसने
विवरणों और तनावपूर्ण मानसिक दशाओं को कलात्मकता से अभिव्यक्त किया है। इसमें
अनुभूति की रैंज अंतरंग-बहिरंग के सीमांतों को तोड़ती दूर तक फैलती गयी है।
लंबी
कविता के लिए भाषा केवल ‘हैंडी
टूल’ न हो कर कहीं अधिक
आत्मीय, तरल और सजीव रूप से
मर्मगत अनुभूतियों का साथ देती चलती है। सुभाष रस्तोगी की ‘सुनो तुम’ और माधव कौशिक की ‘सुनो राधिका’ संबोधन के शिल्प-प्रयोग में ऐसी कविताएँ
हैं जो व्यक्ति की विविध मानसिक दशाओं को बिंब-विधान और ब्यौरों के संतुलन द्वारा
प्रस्तुत करती हैं: ‘खोमाशी/जिस
में डूबता हूँ/तो गोया तिरता चला जाता हूँ’ (सुनो तुम) और ‘सिवाय तुम्हारे कोई क्या समझता/शुष्क
नयन/सब से अधिक रोए होते हैं/ तथा बादलों में/बालू के विस्तार/मुंह ढांप कर सोते
हैं’ (सुनो राधिका) ।
विभाजन
और विस्थापन परस्पर जुड़ी-बिंधी ऐतिहासिक प्रक्रियाएँ हैं जहाँ सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक परिस्थितियाँ काम करती रहती
हैं। मैं दोनों के दर्द से एक साथ गुजरा हूँ और उनकी लंबी छायाएँ मेरा पीछा करती
रही हैं। ‘एक अग्निकांड जगहें
बदलता’ जैसी लंबी कविता में
मैंने इतिहास और स्मृति में लिपटे उस त्रासद अनुभव को दृश्य के रूप में ही नहीं,
अमानवीयता के दंश के रूप में देखा था।
आज भी जब वैसी छायाएँ फैलती देखता हूँ तो लगता है युसूफ की तरह अग्निकांड को जगहें
बदलते देखता हूँ जैसे एक क्रूर शृंखला हो जिससे हमें आज तक निज़ात न मिली हो। अशोक
कुमार की ‘कस्स गुमां’ कविता लें जहाँ विभाजन का अँधेरा 1947 से आज तक ‘गली गली आदमियों पर झपट रहा है। विभाजन
के ठीक बाद कबायलियों की आड़ में पाकिस्तान का जम्मू कश्मीर पर हमला करना, मीरपुर को अपने कब्ज़े में लेना इतिहास
का ऐसा सुलगता पन्ना है जिस पर बहुत कम लिखा गया है। दादी तब 12 साल की थी जब उसने देखी थी पहली हत्या
मीरपुर में। पत्थरों से चीथ दिया गया था वहाबुद्दीन को दंगाइयों द्वारा। कवि ने
दादी और पोते के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संवाद के ज़रिए तीन पीढ़ियों की जीवंत शिरकत
के साथ इस पन्ने को उलटा-पुलटा है। अँधेरा और रोशनी, दीवार और घर, चीख़ और रक्तपात, स्मृति और वर्तमान, प्रतिरोध और करुणा के कन्ट्रॉस्ट को
मार्मिकता से मूर्त कर दिया गया है - ‘कस्स गुमां के पत्थर-सिल, पत्ती-पौधे पर/कस्स गुमां में
मिट्टी-पानी पर/लहू से लिथड़ी उँगली से/उसने लिख दी थी अमानवीयता के खिलाफ़ विरोध की
इबारत।’
इसी
तरह 1990 में कश्मीरी पंडितों
की त्रासदी और विस्थापन और उस संबंध में लिखी अग्निशेखर की कविता ‘जवाहर टनल’ को भला कैसे भुलाया जा सकता है? कविता के शुरू में ही सुरंग के अँधेरे
को एक मेटाफर की तरह बुना गया है जिसकी उपस्थिति अंत तक कचोटती चलती है। पीछा करती
गोलियाँ, जेहादियों की गोलियाँ
और अपने ही देश से विस्थापित किए जाने की मर्मान्तक पीड़ा। यह कविता घटना का केवल
बखान नहीं करती, एक
वारदात की तरह पाठक को उसमें से गुज़ार देती है।
विजय
कुमार की कविता ‘तालाबंदी
में किसी ‘अज्ञात की खोज’
का संदर्भ बेशक अलग है मगर त्रासदी उतनी
ही भयावह और विस्थापन वैसा ही विकट। कविता में कोरोना महामारी का ऐसा बेधक चित्रण
है कि लगता है ख़ामोश मृत्यु का शोकगीत हो। इसी के साथ जुड़े हुई है जीने-मरने की
व्यथा-कथा, निर्वासन-विस्थापन के
मार्मिक पहलू, सभ्यता
के झरोखे के बंद होने के प्रश्न जैसे हमारी मान्यताओं-मूल्यों और मानवीय संबंधों
के खंडित-विखंडित होने की घड़ी आ गयी हो। कविता जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, उसका फलक विस्तृत होता जाता है, लाखों-करोड़ों मज़दूरों के विस्थापन की
त्रासदी उससे जुड़ती जाती है - ‘झुर्रियाँ
सभ्यता की भी हो सकती हैं/इससे पहले कभी इतनी साफ़ नहीं देखी होंगी।’ सभ्यताओं के बीचोंबीच पसरी भूख और
सन्नाटे का कवि ने मार्मिक बिंब-विधान रचा है -रोज़ एक विकराल शोर-शराबे में मनाए
जा रहे मृत्यु के महोत्सव में, थोड़ा
थोड़ा ख़त्म होते जा रहे लोगों के उदास चेहरों के बीच में घर की ओर लौटते नंगे
पैरों, भूख और ज़िल्लत को कवि ने दर्द और पैनेपन से उभारा
है - ‘भूख की किसी अंधेरी
गुफा के बारे में/सैकड़ों मील चल पड़े/सिर पर पोटली उठाए/सड़क पर चलते-चलते हुई किसी
मृत्यु के बारे में/एक ख़ामोश रुदन अभी पड़ा है अलक्षित।’ अतीत राजनीतिक, वर्तमान राजनीतिक और त्वचा की राजनीति
का जब बोलबाला हो तो भाषा में समा न पाने वाले संकट को लेकर चिंतकों, कलाकारों, कवियों की रूटीन सी प्रतिक्रियाएँ
गहराते संकट का साक्ष्य कैसे हो सकती है, इसे लेकर कवि ने कहीं हल्के से व्यंग्य से कामं लिया है तो
कहीं खलबली मचा देने वाली ध्वनियों से। विरूप, विद्रूप, विसंगति का ऐसा मारक और अपूर्व चित्रण
है कि पाठक तिलमिला कर रह जाता है।
बीसवीं
शताब्दी से लेकर इक्कीसवीं सदी के दो दशकों की नयी पीढ़ी के कवियों ने लंबी कविता
के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ के साथ ही
कविता और अन्य विधाओं में नयी तरह की कसमसाहट, छटपटाहट और बेचैनी के संकेत मिलने लगे
थे और वह आधुनिकता के चैखटों को तोड़ कर बाहर आई थी - नए संदर्भों से पैदा हुए
विचारों को आत्मसात करने के लिए, नए
समाज की चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए, जिसके लिए वह नए प्रयोगों, विन्यासों और मॉडलों को अर्जित करने के
लिए तत्पर दिखती है। आलोक धन्वा की लंबी कविताओं ‘जनता का आदमी’, ‘भागी हुई लड़कियाँ’ ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ ने हिंदी में अलग ढंग के मॉडल खड़े किये
हैं, ख़ास तौर पर ‘ब्रूनों की बेटियाँ’ कविता कई जगह नागार्जुन की ‘हरिजन-गाथा’ से टक्कर लेती दिखती है। विभिन्न
संदर्भों से उभरने वाले और कई धरातलों पर फैलने वाले तनाव को, बिंब से सटे ब्यौरों को कवि ने जिस कौशल
से कविता में संयोजित किया है उस से कविता समय की चुनौतियों का गहरे और विस्तृत
धरातल पर सामना करती दिखती है।
शहर
को लेकर इतिहास और स्मृति के समायोजन से सुधीर सक्सेना की लंबी कविता ‘धूसर में बिलासपुर की’ अलग पहचान बनी है। तमाम ब्यौरों के
बावजूद, शहर का जो रूपक गढ़ा
गया है - ‘रेलपांत और नदी की
धार के दरम्यान/देह पृथुल नहीं/कटी क्षीण/ललाट चमकीला, आबनूसी अलक जाल .....’ इसे पढ़ते हुए शहर अपने इतिहास और भूगोल के साथ कविता ज़िंदा
महसूस होने लगती है। शहरों के मानवीकरण तो अक्सर मिल जाते हैं मगर शहर को आदमी की
तरह उठते-गिरते, सांस
लेते हुए देखना विरल ही है कि शहर की ध्वनियों-अंतरध्वनियों के साथ कुछ इस तरह कि
शहर की सभ्यता, इतिहास,
भूगोल और स्मृतियों का समायोजन भी होता
चले और कविता भी बनती चले। शहर के अतीत और वर्तमान के बीच इतिहास और स्मृति का एक
अपूर्व खेल रचा गया है कविता में।
कविता
में स्थानीय संदर्भों से मानवीय अनुगूंजे पैदा करना कठिन कवि-कर्म है। लोकल के
ज़रिए ग्लोबल को इस तरह समेटा गया है कि कविता सामंतवाद से पूँजीवाद से उपभोक्तावाद
को ध्वनित करने लगी है - ‘श्रेष्ठि-जन
लगाते हैं बोलियाँ’ और
‘श्रेष्ठि जन अर्थ की
तलाश में बिछाते हैं जाल’।
ऐसी विकट स्थिति में - ‘जब
कुछ नहीं, वरन सब कुछ बदल रहा
हो/तो कहना कठिन है कि कौन प्रेक्षक है, कौन किरदार/जब परंपरा को विस्थापित कर दे परिवर्तन/और मूल्य
सरक जाएं हाशिए में हजूर/तो सिर धुनना निरर्थक क्रिया है।’
कविता
और लंबी कविता के अंत को संभाल ले जाना मुश्किल कवि-कर्म है। यह अच्छा है कि
काव्यात्मक संकेतों और ध्वनियों से कवि स्थिति की विसंगतियों और विडंबनाओं में
छिपे सच की तरह संकेत करता गया है। कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं: ‘किसे पता था/कि ऐसा भी वक़्त
आएगा/बिलासपुर के भाग्य में/कि सब कुछ धूसर हो जाएगा/और इसी में
तलाशेगा/श्वेत-श्याम गोलाद्धों से गुजरा बिलासपुर/अपनी नयी पहचान।’ यह अंत पाठक को देर तक घेरे रहता है। यह
एक त्रासदी ज़रूर है पूरी एक सभ्यता और संस्कृति के ढहने की, मगर राख में से उड़ान भरने के संकेत भी
इसमें अंतर्निहित हैं।
अनामिका
की कई लंबी कविताएँ नयी परिस्थिति के आमने-सामने हैं - ख़ास तौर पर स्त्री को लेकर
उसकी कविता ‘बहिनाबाई:
इक्कीसवीं सदी।’ क्या
विडंबना है कि घर में रहती हुई बहिनाबाई घर खोजती रहती है और आखि़र घर से बाहर आ
जाती है। अपना घर भूलती हुई, पति
से बुरी तरह पिटती हुई, शुद्र
तुकाराम को अपना गुरु मानती हुई, शाक्त
के घर में विट्ठल से लौ लगाती हुई, आत्मिक
से संवेदनात्मक से सामाजिक धरातलों तक सदियाँ पार कर आज की औरत के क़रीब आ खड़ी होती
है। वह स्त्री के मानसिक तनावों और संतापों को एक साथ समेटे हुए है - ‘एक एकांत नाचता है हर स्त्री के भीतर’
की धुरी पर टिकी यह कविता कभी अंतर्मन
में गहराती जाती है तो कभी बाहरी संदर्भों में तनती जाती है। अपनी मौज़्ाूदगी
दिखाये बिना, इस
कविता में कवयित्री सबसे ज़्यादा मौजूद है। स्त्री के दुखते-कसकते संदर्भों के
भीतर से देह से देहात्म-अध्यात्म तक की यात्रा को जिस तरह इस कविता में शब्दांकित
किया गया है, वह
पढ़ने लायक है। स्त्री संबंधी सोच और चिंतन के आज के प्रचलित मॉडल के सामने
बहिनाबाई के मॉडल को खड़ा करके अनामिका ने निश्चय ही स्त्री की पहचान के प्रश्न को
एक बड़े फलक पर चित्रित किया है।
कथा
हो या आख्यान, बड़ी
बात उसके सृजनात्मक उपयोग की है। रस्म और रूढ़ि को काटती चलती सृजनात्मकता ने लंबी
कविता में नये आयाम जोड़े हैं और बड़ी कविता के रूप में इसकी साख में वृद्धि हुई है।
इस नए दौर की लंबी कविता और कवियों के कुछ ख़ास पहलुओं के बारे में हम पहले बात कर
आए हैं। यहाँ कुछ अन्य कवियों की नयी रचनात्मकता में ढली दृष्टि और सरोकारों पर
हम बात करेंगे। सविता सिंह की ‘चाँद, तीर और अनश्वर स्त्री’ और तुषार धवल की ‘दमयंती का बयान’ कविताएँ लें। सविता सिंह ने संबंधों के
नए आलोड़नकारी अनुभवों को लेकर कविताएँ लिखी हैं, लेकिन वे मुख्य रूप से स्त्रीवादी कविता
के लिए पहचानी गयी हैं - बोल्ड और साहसिक अभिव्यक्ति के लिए। उनकी लंबी कविता ‘चाँद, तीर और अनश्वर स्त्री’ में इसकी सटीक बानगी देखी जा सकती है।
स्त्री जीवन से जुड़ी आवाज़ें यहाँ अलग-थलग न हो कर अनुभूति के एक अविभाज्य हिस्से
के तौर पर कविता का हिस्सा बनी हैं। स्त्री होने की पीड़ा का ताप इस कविता में
परत-दर-परत महसूस किया जा सकता है। एक स्त्री की पहचान के संकेतों के साथ ज्ञान जब
संवेदनात्मक हो जाए तो कविता इकहरी नहीं रह जाती, कई स्तरों पर संबोधित करने लगती है।
सविता सिंह को कविता से कुछ कहलवाना नहीं पड़ता, वे स्वतः कहने लगती हैं। यहाँ तनाव की
एक दशा नहीं, तनाव
के वर्तुल बनते गए हैं और कविता बहुपरती होती गयी है।
स्त्री-मन
के साथ यहाँ सभ्यता के नए पहलू भी आ जुड़े हैं और चेतन-अवचेतन से बहुत कुछ सरक आया
है जो ज्ञात है तो अज्ञात भी। यह कविता फैंटेसी शिल्प का आभास देती है जहाँ स्वप्न
और स्री एक से दिखने लगते हैं। सविता जैसी स्त्रीवादी कवयित्री अगर अपने स्त्री
होने के काव्यात्मक अर्थ का विस्तार करती है तो इससे बेहतर ज़िंदगी और कविता के हित
में क्या हो सकता है?
अपने
ही सपनों का सामना करती सविता सपना भी है, रात और आखेट भी। लेकिन जैसे-जैसे कविता आगे बढ़ती है तीनों में
ज़बरदस्त मुठभेड़ होती है। यह रचना-प्रक्रिया दिलचस्प है। जिस तीव्र बेचैनी, तनाव और नाटकीयता से कविता शुरू होती है,
अंत तक आते आते पाठक को पूरी तरह गिरफ़्त
में ले लेती है। सपना, रात
और आखेट कई तरह से उसके साथ चलते हैं - कभी एक हावी, कभी दूसरा। कई तरह के
मानसिक-मनोवैज्ञानिक तनावों-टकराहटों को झेलती वह एक जगह तीनों के बीच शिखर रचती
दिखती है - ‘मैं
स्वयं काम हूँ स्वयं रति/अनश्वर स्त्री/संभव नहीं, मृत्यु मेरी’। यहाँ स्त्री-पाठ में इतने
अंतर्बाह्य पाठ गंफित हैं कि एक खुलता
नहीं कि दूसरा आ घेरता है। मनोवैज्ञानिक संदर्भों के संदर्भ-दर-संदर्भ, एक स्वप्न-कथा के कई रूप-प्रतिरूप और
उपकथाएं एक दूसरे में अंटे पड़े हैं। उनके अराजक होने से पहले ही कवयित्री अपने
कला-कौशल से उन्हें एक सूत्र में बाँध आगे बढ़ निकलती है।
तुषार
धवल की मैंने कई लंबी कविताएँ पढ़ीं मगर अंततः ‘दंमयंती का बयान’ पर ध्यान एकाग्र हो गया। नयी पीढ़ी का
कोई कवि आख्यान या मिथक को लंबी कविता की फार्म में कैसे ढालता है और उसे बिंब और
विचार की चमक प्रदान करता है, मेरे
लिए यह एक दिलचस्प बात थी। ‘मेरी
कविता मुझ पर ही चुप है’ की
चुप्पी के संकेतों को कवि ने धीरे-धीरे कुरेदते हुए डी कोड किया है। वह ठिठका नहीं
रहा है मिथक कथा पर। स्त्री चेतना की नयी व्याख्या, दंमयंती के निज़ात पाने की राह की खोज की
तरफ़ बढ़ा है।
कविता
के प्रारंभ में ‘बलात्कार
हुआ है मेरे साथ’ की
स्वीकृति के साथ यह डी-कोडिंग शुरू हो
जाती है। नेरेटिव में झांकते हुए कवि मिथक को एक बारगी झटक देता तो वह मिथक के साथ
बड़बोला और आरोपित व्यवहार होता, इसलिए
वह कौमार्य और सतीत्व के घेरो में बंदी मिथकीय चरित्र के ढाँचे से दमयंती को,
उसी की सोच से बाहर लाया है। स्वतंत्र,
सुंदर, महान जैसे विशेषणों से पुरुष द्वारा गढ़े
गए अदृश्य पिजड़े से वह उसे बाहर लाने में
जुटा है - ‘मैं प्रेम पाना चाहती
थी/मुझे दिया गया आदर्श नारीत्व का/ प्रेम देना चाहती थी/तुम्हें कौमार्य चाहिए था
सतीत्व चाहिए था’।
वह बस होना चाहती थी - ‘होे’
न सकी, क्योंकि नल कभी नहीं देख पाया ‘देह के भीतर कौन हूँ मैं!’ कविता के अंत में दमयंती नए-निरोल रूप
में सामने आ खड़ी होती है: ‘निजात/पाती
हूँ/मैं/दैवीयता से/सौंदर्य से/महानता से/मुक्ति से/मुक्त करती हूँ तुम्हारे पापों
से।’ यह एक नयी दमयंती है
- फ्रेम को तोड़ती, बाहरी-भीतरी
तौर पर स्वतंत्र, कई
तरह के तनावों से दमकती हुई बाहर आती।
आख्यान
और मिथक को एक साथ संभालना कठिन कवि-कर्म है। तुषार धवल ने इसे अपनी तरह से संभाला है और अरुणाभ सौरभ ने अपनी
तरह से लंबी कविता ‘आद्य
नायिका’ में। मिथक के साथ
जुड़ी कवि की आत्मगत अनुभूतियों ने मिथक में प्राण फूँक दिए है। मिथक, इतिहास और वर्तमान की अंतक्र्रियाएँ
कविता में इस प्रकार रूपांतरित हुई है कि लगता है वे एक ही सृजन इकाई में ढल गयी
हों। मिथक के विचार और संवेदन में ढलने से तीनों के स्पन्दन परस्पर इस तरह घुल-मिल
गए हैं कि उन्हें अलगाना मुश्किल है। ध्यान दें सत्ता और वर्चस्व के हिंसात्मक
संघर्ष की उस वक़्त की छायाओं में वर्तमान लिथड़ा पड़ा है - ‘मार दिए गए/असख्य
विचारक/दार्शनिक/कलाकार और उनके घरों को/उनकी किताबों के साथ/जला दिए गए/हत्याएं
होती रही/विचारों की/फफक फफक कर/सुबक सुबक कर रोता रहा
पाटलिपुत्र/अधजला/अधमिटा/वर्तमान के साथ’। लगता है ये ध्वनियाँ हिंदुस्तान के कई कानों से आ रही हों -
राजसत्ता की आलोचना ‘राजद्रोह
है’ और ‘राजद्रोह का परिणाम है /प्राणदंड’। सुग्गी की हत्या इस तरफ़ मार्मिक संकेत
है।
‘काल
से निडर-निर्भय/निभ्र्रांत होने की प्रारंभिक टेक काव्यात्मक ध्वनियों के साथ
धीरे-धीरे फैलती जाती है और एक वैचारिक उत्कर्ष छूने लगती है। पाटलिपुत्र हो या
दिल्ली, संगठित होकर विद्रोह
करने की शक्ति के बिना क्या कोई अन्य विकल्प है? दीदारपुर की यक्षिणी उसी का प्रतीक है -
‘अब तुम्हें कविता में
सूर्य बनना है’, महज़़
भावुक कथन नहीं है, इसके
पीछे गहरे तनावों और संतापों की कथा है।
मिथक
का भारी-भरकम विधान यहाँ नहीं है। मिथक की अंतर्रात्मा में प्रवेश कर उसे वर्तमान
के आईने में उतार दिया गया है। कवि की मिथक दृष्टि, मिथक समय और हमारा समय यहाँ एक वेवलेंथ
पर आ गए हैं।
निर्मला
गर्ग की कविता ‘हमारी
निंबों पर तुम्हारे शब्द भाप छोड़ते हैं, नेरूदा’ और
कुमार अनुपम की कविता ‘ऑफिस-तंत्र’
अलग संदर्भों के बावजूद हमारे समय के
यथार्थ से जुड़ी हुई है। निर्मला गर्ग ने अपनी कविताओं में स्त्री की पहचान को अलग
ही तरह से विश्लेषित किया है मगर इधर नेरुदा को संबोधित उनकी कविता - ‘‘हमारी निबों पर तुम्हारे शब्द भाप छोड़ते
हैं, नेरुदा’’। विश्व के एक बड़े कवि के बहाने उनकी
काव्य-दृष्टि के फलक को, कवयित्री
हमारी दारुण सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति को भी खोलती गयी है और जीवन के विविध पक्षो
को प्रकाशित करती गयी है।
नेरुदा
पर लिखते हुए कवयित्री ने नेरुदा को गहराई से आत्मसात किया है और उसके बेहद क़रीब
से, उसे छू कर निकल गयी
है - त्वचा के नीचे सांस लेती गहराइयां तक - ‘नेरुदा, मैं क्यों नहीं लिख पाता तुम्हारी
तरह/मैं सचमुच उदास हूँ’ इस
स्वाभाविकता से कह जाती हैं जैसे कुछ कहा ही न हो। पत्थरों के बीच छिपी हलचल वाले
नेरूदा के विरल अनुभव तक वह पहुँची है - मज़दूरों के साथ समान भूमि पर आ जाने वाले
नेरुदा को याद करते हुए निर्मला हमारे यहाँ के मज़दूरों की दुर्दशा को लेकर विचलित
भाव से कहती है - ‘मज़दूर
हमारे जीवन की धुरी है, नेरूदा/और
हम हैं कि उन्हें हाशिए से बाहर रखते हैं।’ और ये पंक्तियाँ जैसे वर्तमान में हमारे
मज़दूरों की हालत के बारे में ही हैं: ‘यह उजड़ने का मौैसम है नेरुदा और वे/अकेले होे कर भी एकाकी
नहीं।’
कविता
लिखते हुए कवयित्री का सहज भाव से नेरूदा की कविता में दाखिल होना और फिर उस से
बाहर आ जाना अपने शब्दों के साथ उस पर
कविता लिखना, कुछ
वैसा ही है जैसे रंगकर्म में अभिनेता/अभिनेत्री का किरदार में दाखिल होना और उस से
बाहर आ जाना किरदार को निभाने के लिए। ज़ाहिर है निर्मला की कवि-दृष्टि इस कविता को
एक अलग आयाम प्रदान करती है। कविता के बाहरी-भीतरी पहलुओं तक वह अनायास उतर गयी
है। लगता है नेरूदा के प्रति लगाव को ही नहीं, उस के समय के संतापों-तनावों को भी कवयित्री
ने बड़ी आत्मीयता और कला से अपने समय के तनावों और संतापों तक तान दिया हों,
उन का हिस्सा बना दिया हो।
कुमार
अनुपम की लंबी कविता ‘आफिस-तंत्र’
पढ़ना व्यक्ति और व्यवस्था में अलग तरह
के तनावों से गुज़रना है उस टूटन और बिखराव के साथ जो घर को घर नहीं रहने देता। ‘नौकरी बचाए रखना’ जहाँ हर पल एक युद्ध है और षड्यंत्र भी।
नैतिकता-अनैतिकता से परे, सवाल
जीने का है, एक
अदद घर का है जहाँ सभ्यता और संस्कृति की सांसे उखड़ी महसूस होती हैं। इस तरह से
देखें तो एक घर और ऑफिस तंत्र के तनावों की एक बड़ी रैंज है कविता में। ये तनाव मानसिक,
आर्थिक और ज़हनी हैं - संस्थान में बने
रहने के लिए। इन तनावों से जुड़ी हुई है चतुर चालबाजियाँ, षडयंत्र और रणनीतियाँ। इस तरह के तनाव
की दृश्य/अदृश्य छायाएँ गले तक कैसे दबोचे रखती हैं, इसे बॉस और ‘वह’ के अंतर्संबंधों में बखूबी देखा जा सकता
है।
‘ऑफिस
तंत्र’ में केवल धूर्तताएँ
और चालाकियों ही नहीं है, आॅफिस
अपने भ्रष्ट माहौल और अमानवीय रूप में उपस्थित है। नैतिक गिरावट और आचरणगत
हरामजदगियों का तो कहना ही क्या! बॉस की छाया कर्मचारी को ही नहीं, उसके घर, परिवार और बच्चों के स्नायुतंत्र को
ग्रसती चलती है। वह ‘बॉस
के केबिन से/किसी हाँ में थरथराता/निकलता है/कहीं न जाने के लिए अपनी सीट पर अकसर
की तरह आता है।’ ऑफिस
का वही दब्बू घर में बॉस में रूपांतरित हो जाता है। उसकी बातें सुनती पत्नी ‘ध्वस्त’ हो जाती है - ‘वह बॉस की तरह मंद मंद मुस्कराता रहता
है/ और किसी विजेता भाव में बिला जाता है।’
कवि
की दृष्टि तटस्थ एवं बेबाक है। उसमें व्यंग्य की कचोट संवेदनात्मक संस्पर्शों के
साथ गहरी और पैनी हैं: ‘मसलन
यह/कि कोई किसी का ताबेदार है तो किसी का मनसबदार/और कोई किसी का कारकून तो कोई
किसी का तरफ़़दार/मतलब कोई इनका आदमी है तो कोई उनका आदमी है/कोई काम का आदमी नहीं
है।’ दफ्तरी तंत्र में
फैली ज़लालत और कमीनगी में किसी के लिए कोई स्पेस बची ही कहाँ है? इस कारोबारी दुनिया में, ऑफिस-तंत्र से जुड़ते हुए इश्क का
हल्का-फुल्का खेल खेलते हुए लड़के-लड़की के संबंध कहाँ बचे है इस तंत्र में।
ऑफिस-तंत्र, तमाम
घुनों के बावजूद, अपने
ही देश का मेटाॅफर बनता गया है।
लंबी
कविताओं में किसी एक ढंग की मूल्यवत्ता ढूँढ़ना बेकार है। हर लंबी कविता अपनी
मूल्यवत्ता या मूल्यांकन के आधार का अन्वेषण करती है। किसी एक मूल्यांकन आधार के
साँचे में अथवा मूल्यों-सिद्धांतों के बारे में लंबी कविताओं को नहीं हांका जा
सकता। ‘राम की शक्तिपूजा’
(निराला), ‘असाध्य वीणा’ (अज्ञेय), ‘अँधेरे में’ (मुक्तिबोध) , ‘मुक्ति-प्रसंग’ (राजकमल चैधरी), ‘कुआनो नदी’ (सर्वेश्वरदयाल सक्सेना) और इधर की लंबी
कविताओं का मूल्यांकन किसी एक पैमाने या सिद्धांत के अधीन नहीं किया जा सकता।
मूल्यवत्ता कवियों के संस्कार, दृष्टिकोण
और मानसिकता के साथ जुड़ी हुई है जो समाज में तेज़ी से हो रहे परिवर्तनों की खबर
देती रहती है। इक्कीसवीं सदी में परिवर्तन की यह प्रक्रिया जैसे-जैसे और तेज़ होगी,
कविता की संवेदनात्मक और वैचारिक दृष्टि
और संरचना भी प्रभावित होगी और मूल्यांकन की कसौटियां भी।
लंबी
कविता ने बीसवीं शताब्दी में केंद्रीय भूमिका निभायी है जो इक्कीसवीं सदी की इधर
की परिस्थितियों में नए विन्यासों में ढल रही है और महत्त्वपूर्ण हो गयी है। नयी
तरह की कसमसाहट, छटपटाहट
और बेचैनी जो इन दिनों कवि महसूस कर रहे हैं, उससे कविता में और लंबी कविता में भी एक
नये युग के समारंभ के संकेत मिल रहे हैं। वह आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के चैखटों
को तोड़कर बाहर आयी है - नये संदर्भों में पैदा हुए विचारों को आत्मसात करने के लिए,
नये समय की चुनौतियों को स्वीकार करने
के लिए, जिसके लिए वह नये
प्रयोगों, विन्यासों और मॉडलों
को अर्जित करने के लिए तत्पर दिखती है।
छोटी
कविता हो या लंबी कविता, सृजनात्मकता
हर तरह की कविता की पहली शर्त है। आख्यान हो, बिंब हो या विचार, बड़ी बात उसके सृजनात्मक उपयोग की है।
हाँ, लंबी कविता का माध्यम
सृजनात्मकता के लिए एक बड़ा आधार, एक
बड़ा फलक देता है जहाँ कवि सतत अन्वेषण, आत्मपरीक्षण और आत्मसंघर्ष का कलात्मक प्रमाण जुटा सकता है,
जहाँ वह अपनी दृष्टि से पूरे युग के
संक्रमण को, परंपरागत
काव्यरूपों की बंदिशों में बंधे बिना, कला-स्तरों पर सृजित और संयोजित कर सकता है।
@&?
संपर्क : 239-डी, एम॰आई॰जी॰ फ्लैट्स, राजौरी गार्डन
नई दिल्ली-110027 मो॰ 9818749321 ई-मेल : nmohan1935@gmail.com