6 अप्रैल 2014

देवीशंकर अवस्थी सम्मान - वक्तव्य


 

 

 

 


 विनोद तिवारी
    C-4/604, ऑलिव काउंटी

              सेक्टर-5, वसुंधरा 
      गाज़ियाबाद-201012






    आलोचना : एक सजग आलोचनात्मक कार्यवाही
   (१८  वें देवीशंकर अवस्थी सम्मान- २०१३ के अवसर पर प्रस्तुत वक्तव्य )


आज के इस समारोह के अध्यक्ष आदरणीय मैनेजर पाण्डेय जी, असद जी, प्रणय जी और संजीव कुमार  जी | सबसे पहले मैं देवीशंकर अवस्थी की स्मृति को नमन करता हूँ | आदरणीया कमलेश अवस्थी जी और उनके परिवार के सभी सदस्यों के साथ अवस्थी जी को चाहने वाले उन्हें मान देने वाले इस सभागार में उपस्थित सभी लोगों को नमस्कार करता हूँ |

“व्यापक अर्थों में आलोचना मनुष्य की आत्मचेतना है | साहित्य और कला के रूप में निर्माण की हुयी अपनी अर्थवान रचना के सुन्दर-असुंदर, शुभ-अशुभ, सत्य-असत्य पक्षों के प्रति जागृत चेतना है |... एक बार जब आलोचना का जन्म हो जाता है, तो वह साहित्य-कला की केवल तटस्थ व्याख्याता या निरपेक्ष द्रष्टा ही नहीं बनी रहती | सांस्कृतिक परम्परा और मनुष्य के अर्जित ज्ञान का समाहार करके वर्तमान की ऐतिहासिक चेतना लेकर संवेदनशील, युगद्रष्टा आलोचक प्राचीन और सामयिक साहित्य की कृतियों का मूल्य आंकते हुए नए व्याख्या सूत्रों की उद्भावना भी करता है... इस प्रकार आलोचना स्वयं एक रचनात्मक क्रिया है |”[1]

शिवदान सिंह चौहान के इस उद्धरण के सहारे बात शुरू करने के पीछे का लक्ष्य, आलोचना के व्यापक और वृहत्तर सरोकारों की बात को उठाना है | मैं आलोचना को एक ऐसा दायित्वपूर्ण सजग आलोचनात्मक कार्यवाही मानता हूँ जो साहित्य के परिप्रेक्ष्य से उन सामजिक-सांकृतिक स्थितियों-परिस्थितियों और उनको निर्मित करने वाली  ‘संरचनाओं’ को विवेचित करे जिनमें हमारे समय-समाज के उन प्रश्नों और दबावों से उपजने वाली संघर्ष और तनावपूर्ण निर्मितियों के ‘ट्रेंड्स’ मिलते हों | इसी अर्थ में आलोचना मेरे लिए एक चुना हुआ बौद्धिक-अकादमिक दायित्व है जिसे देवीशंकर अवस्थी ‘बौद्धिक-व्यवसाय’[i][2] के रूप में रेखांकित करते हैं |

सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों को निर्मित करने वाले समकालीन प्रभावों को जाने-परखे बिना साहित्य की प्रवृत्तियों और धाराओं का विश्लेषण आलोचक नहीं कर सकता | इसलिए आलोचक को विविध ज्ञान और अनुशासन की जानकारी रखना भी उसका सरोकार है अन्यथा तो उससे साहित्य की जातीय-संस्कृति छूटती चली जायेगी | इसी को मुक्तिबोध ‘जिंदगी के प्रतिबिम्बों के विभिन्न पैटर्न्स’ कहते हैं | “कहा जाता है कि, साहित्य जीवन का प्रतिबिम्ब है | इस खंड-तथ्य को हम यों भी कह सकते हैं कि, साहित्य में इन प्रतिबिम्बों की रचना अनेकों पैटर्न्स में होती है |...आलोचक या समीक्षक का कार्य, वस्तुतः कलाकार या लेखक से भी तन्मयतापूर्ण और सृजनशील होता है | उसे एक साथ जीवन के वास्तविक अनुभवों के समुद्र में डूबना पड़ता है और उससे उबरना भी पड़ता है, कि जिससे लहरों का पानी उसकी आँख में न घुस पड़े | अपने वर्ग, समाज या श्रेणी की जिन्दगी में अपनी जिन्दगी की सही हिस्सेदारी के बगैर, जो समीक्षक उस जिन्दगी के पैटर्न्स का मूल्यांकन करने बैठता है वह कभी भी सच्ची आलोचना नहीं कर सकता |”[3] इसलिए आलोचना का यह दायित्व है कि वह गतिशील सामजिक मूल्यों और बदलते हुए सांस्कृतिक व्यवहारों के साथ रचना को जोड़कर देखने, व्याख्यायित करने और मूल्यांकित करने की कोशिश करे | इसी सन्दर्भ में यह कहना होगा कि, आलोचना के मानदंड स्थिर नहीं हो सकते | आलोचना के क्षेत्र में कुछ भी निर्णीत नही होता | उसे निर्णीत बनाने की जिद होनी भी नहीं चाहिए | वह जो लेनिन ने कहा है न कि, ‘Nothing is final’. कुछ वैसी ही बात है | नियत मानदंड और प्रतिमान वाली आलोचना का रूप स्थिर और जड़ होगा | ऐसी आलोचना में अमूर्त मूल्यों का बिना सन्दर्भ के निर्गुण भाषा में प्रत्याख्यान और उपदेश प्रमुख हो जाता है | आलोचना इस तरह के किसी भी यथास्थितिवादी प्रवृत्ति से संघर्ष करती है :



खूब काट-छाँट और गहरी छील-छाल

रन्दों और बसूलों से मेरी देखभाल

मेरा अभिनव संशोधन अविगत क्रमागत[4] ...



जब इस माँग के साथ हम आज की आलोचना और उसके एजेंडे पर नजर गड़ाते हैं तो जिस एजेंडे पर आज की आलोचना सक्रिय है वह नाउम्मीद नहीं करती | उग्र हिन्दूवाद, धार्मिक कट्टरता, साम्प्रदायिकता, फासीवाद, बाजारवाद, उपभोक्तावाद, नव-साम्राज्यवादी पूँजी के खेल जैसे मानव-हितों की विरोधी प्रवृत्तियों के साथ दलित, स्त्री, आदिवासी समाजों की वर्गीय संरचनाओं और उनकी अस्मिताओं पर सामजिक आर्थिक नजरिये से आज की आलोचना सोच रही है और अपनी भूमिका का निर्वाह कर रही है | साहित्य को भिन्न-भिन्न अनुशासनों, उसके सामाजिक-साहित्यिक परिप्रेक्ष्य, उन परिप्रेक्ष्य को निर्मित करने वाली शक्तियों, सत्ताओं, सत्ता-संस्थानों और संरचनाओं के अस्तित्व पर भी उसकी नजर है | युवा-पीढ़ी की आलोचनात्मक-चेतना साहित्यिक और सांस्कृतिक विवेचन की दृष्टि से इधर निरंतर व्यापक और विस्तृत हुई है |  युवा आलोचना ने समय के साथ साहित्य से अपने रिश्ते को लगातार गहरा और ईमानदार बनाया है | समकालीन रचनाशीलता के प्रति वह अधिक विचारवान हुयी है | हमारी पीढ़ी की आलोचना में परम्परा-बोध को, इतिहास को समझने और बरतने का ढंग बदला है | बहुत से लोगों का मानना है कि, युवा-पीढ़ी की आलोचना में परम्परा-बोध और इतिहास–बोध नहीं है | पर, यह कैसे संभव है ? ‘आलोचना’ बिना इसके अपना कार्य कैसे कर सकती है | हाँ, यह जरूर है कि वह ‘परम्परा’, ‘इतिहास’ आदि के नाम पर संस्कृति के ‘ग्लोरिफिकेशन’ से वाकिफ है | अगर, इस तर्क से देखा जाय तो परम्परा और इतिहास-बोध में दरार जरूर पैदा हुयी है | “पुराने कुफ्र और आज के ईमान में अब कोई रिश्ता बाकी नहीं रह गया है |”[5]

 आलोचना का एक महत्वपूर्ण सरोकार ‘समकालीन-रचनाशीलता’ से उसके संवादी रिश्ते को लेकर है | रचना और आलोचना के पारस्परिक रिश्ते को लेकर खूब लिखा-पढ़ा गया है |  इनके बीच का रिश्ता अधिकतर विसंवादी ही रहा है | रचनाकार का यह आरोप कि, आलोचक ने उसकी रचना को समझा ही नहीं है, उसने अपने मन और विचार से असंगत निष्कर्षों को मेरी रचना पर थोप दिया है | दरअसल, मैं इसे आलोचना की कोई समस्या ही नहीं मानता | यह समस्या तब पैदा होती है जब हम आलोचना को केवल व्याख्यात्मक आलोचना के सिमित लक्ष्य में घटा कर देखते हैं | आलोचना केवल व्याख्या भर नहीं है न ही वह केवल टीका है | पहले भी यह माना जाता रहा है और आज भी जो लेखक मानते हैं कि, आलोचना का कार्य केवल रचना की प्रक्रिया, अर्थवत्ता, सार्थकता और वर्ण्य-विषय की व्याख्या तक सिमित है वह आलोचना के दायित्व और सरोकार को कमतर करते हैं | दरअसल, यह माँग ‘रचना की स्वायत्तता’ की तरह ‘आलोचना की  स्वायत्तता’ की मांग है | इसके पीछे ‘व्याख्यावादी’ भाष्यकार आलोचकों का यह तर्क है कि, “आलोचना का कृति केन्द्रित व्याख्यात्मक रूप ही वस्तुनिष्ठ हो सकता है या कम से कम वहां आलोचना की स्वायत्तता की सम्भावना अधिक है |”[6] सवाल यह है कि, क्या ‘व्याख्या’ केवल अर्थापन भर है, अर्थ की निष्पत्ति मात्र है या उस व्याख्या का कोई देश-काल भी होगा, कोई ‘कुल-शील’ भी होगा ? अगर, ऐसा है तो आलोचना किसी न किसी दृष्टि-सापेक्षता में ही सम्पन्न होगी और उसे होना भी चाहिए | इसीलिए, किसी भी तरह की ‘स्वायत्तता’ निरपेक्ष नहीं होती | अब प्रश्न यह है कि, मनचाही ‘स्वायत्तताओं’ की सापेक्षिकता ही आलोचना का दायित्व है तब तो स्थिति चिंतनीय हो जायेगी |  आलोचक को राजशेखर ने बहुत पहले ही ‘आरोचकी’ और  ‘तत्वाभिनिवेशी भावक’[7]की भूमिका में रखा है | किसी रचना की व्याख्या करना आलोचना का प्राथमिक किन्तु सीमित लक्ष्य है | उस रचना में अन्तर्निहित लक्ष्य को लक्षित कर उसे सांस्कृतिक-विवेक के साथ मूल्यांकित करना आलोचना का अंतिम और व्यापक उद्देश्य है और एक अनिवार्य सरोकार भी | आलोचना तो एक ‘इंटिग्रल टास्क’[8] है | इसीलिए उसका सरोकार इकहरा या आसान नहीं है वरन अधिक चुनौतीपूर्ण और दायित्व वाला है |  आलोचक ‘रचना की सांसारिकता’[9] का एक ऐसा चौकन्ना नागरिक है जिसकी नजर उसके हर पहलू पर टिकी रहती है | किसी कृति की व्याख्या में हम केवल यही नहीं करते हैं कि उसमें क्या कहा गया है | समर्थ आलोचक वह होता है जो उस ‘कृति’ के उन ‘आशयों’ को ‘इन्टेंशन्स’ को पकड़ने की कोशिश करता है जो उस रचना में भी पूरी तरह रूपायित नहीं हो पाते हैं | इसीलिए आलोचना अपनी शर्तों पर भी ‘रचना’ को देखती है और रचनाकार की शर्तों की भी रक्षा करती है | इन दोनों तर्कों के बीच ही समर्थ आलोचना जन्म लेती है | एक आलोचक समकालीन रचना में अपने समय के चिन्ह (imprints) ढूँढने का कार्य करता है | वह उन इम्प्रिंट्स के सहारे रचना के बीच से गुजरते हुए अगर एक ‘समझदारी भरा तनाव’ अपनी आलोचना में रचता है तो यह उस आलोचना का सृजनात्मक पक्ष है | यह समझदारी भरा तनाव ही ‘समकालीनता’ की आलोचक की समझ व परख और ‘समकालीनता’ से विचलन के संघर्ष को उजागर करता है |

आज जब मध्यवर्ग का अधिकांश हिस्सा ऐसे ‘कास्मोपोलिटन’ समय में रह रहा है जिसमें उसकी कोई एक ‘आईडेंटिटी’ नहीं है वह ‘मल्टिपल आईडेंटिटीज’ में रहने को ही ‘स्मार्टनेस’ मानता है ऐसे में पहचान की मुश्किलें और बढ़ जाती हैं | ऐसे वर्ग को ‘रूटलेस फ्लोटिंग मॉस, कहा गया है जो अपने स्वार्थ और लाभ का ही एजेंडा समाज पर थोपना चाहता है | साहित्य में भी यह ‘रूटलेस फ्लोटिंग मॉस, अपनी ‘स्मार्टनेस’ के साथ सक्रिय है | आलोचना का काम है कि, वह उस ‘स्मार्टनेस’ को,  ‘मल्टिपल आईडेंटिटीज’ को पहचाने और जोखिम लेते हुए उन चालाक हितों को बेनकाब करे जो साहित्य, समाज, राजनीति, धर्म, संस्थाओं, सत्ता प्रतिष्ठानों हर कहीं अपने लोभ-लाभ का छद्म एजेंडा लिए नमूदार रहता है | शायद यही वह सरोकार होगा आज आलोचना का जो नए सन्दर्भों में पूछ सके कि ‘पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है |’

इसी बिंदु पर यहाँ यह सोचने-विचारने के लिए यह एक जरूरी प्रस्ताव हो सकता है कि, प्रगतिशील विचार और इरादों से लिखी हर रचना अनिवार्यतः उत्कृष्ट और महान नहीं होती | जबकि हर उत्कृष्ट रचना प्रगतिशील धारणा, व्यवहार और क्रियान्वयन में सहयोगी जरूर होती है | पूरे विश्व-साहित्य में इसके अनेकों उदहारण हैं | मैं यहाँ उन तफसीलों में नहीं जाना चाहता उसके लिए अवकाश यहाँ नहीं है | पर इस पर बलाघात जरूर है कि, आलोचना इतिहास निर्माण के लिए सहयोगी भूमिका का निर्वाह करती है इसलिए उसका सरोकार है कि वह ‘इतिहासाभास’ के भ्रम को विछिन्न करे | आलोचना को अपने सहगामी और प्रतिगामी दोनों ही तरह की  प्रछ्न्न्ताओं से संघर्ष करना जरूरी होता है | वह जितना दूसरों की आलोचना है उससे अधिक वह खुद के प्रति एक सजग आलोचनात्मक कार्यवाही है | यह संघर्ष ही दरअसल एक आलोचक का संघर्ष होता है |

आलोचनात्मक-चेतना को हताश करने वाले, उसे हँसी में उड़ा देने वाले, अनियंत्रित प्रचार-माध्यमों से उस चेतना को खंडित-विखंडित करने वाले भ्रमों को काटते हुए आलोचना का उत्तरदायी होना मेरी समझ में आज सबसे बड़ा सरोकार बन जाता है | अच्छी रचना को आगे ले आना, उसको मान्यता दिलाना और ख़राब रचनाओं को खराब कहने का साहस और संकल्प आलोचनात्मक-चेतना की ईमानदारी का प्रमाण बनता है | अपने रचनात्मक-समय का एक अनुशासनात्मक-परिप्रेक्ष्य तैयार करने में सहयोग करना आलोचना का सरोकार है | ‘ब्लिंकर्स’ हर समय समय और हर युग में रहते हैं | उनकी पहचान भी उन युगों में की गयी है | पर हम जिस समय में रह रहे हैं उसमें कहीं ऐसा तो नहीं कि ये ‘ब्लिंकर्स’ एक साथ मिलकर ‘सम्मिलित चकाचौंध’ पैदा कर रौशनी का भ्रम पैदा कर रहे हों | ऐसे ‘ब्लिंकर्स’ की पहचान करना और उनके द्वारा फैलाए जा रहे ‘रौशन अँधेरे’ को साफ़ करना आलोचक का ही काम है | मूल्य-मूढ़ता और वैचारिक-धुंध के प्रति आलोचनात्मक होना आलोचना का सजग दायित्व है | दरअसल, मूल्य-मूढ़ता जहाँ परम्परा–संस्कृति आदि को ‘ग्लोरिफाई’ करने में ही अपना दायित्व समझती है वहीँ वैचारिक-धुंध ‘समकालीनता’ के तकाजे से कई महत्वपूर्ण प्रश्नों और जवाबदेहियों के मनमाने इस्तेमाल की सुविधा का माध्यम बन जाता है |    

रचनाकार और आलोचक के संबंधों को आज उसी ढंग से नहीं समझा जा सकता जिस तरह पूंजीवादी समय में | आज के बदले आर्थिक-राजनितिक प्रभावों के बीच इन दोनों के रिश्तों की समझ विकसित की जानी चाहिए | उपभोक्तावादी अपसंस्कृति के विरूद्ध फूहड़ रुचियों और लालसाओं को बनाने में सक्रिय बाजारवाद के खिलाफ जनधर्मी और जीवनधर्मी सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिरोधों को रचना, उत्तरदायी सृजन को आगे करना, उसकी तरफदारी करना केवल आलोचक का ही दायित्व नहीं है वरन दोनों का साझा सरोकार है | आलोचक से अधिक की अपेक्षा की जाती है इसलिए उसकी जिम्मेदारी अधिक बढ़ जाती है | आज की समकालीन रचनाशीलता को केवल ‘साहित्यिकता’ के ‘पाठों’ और ‘प्रतिमानों’ से  ही नहीं समझा जा सकता |

आलोचना का एक व्यापक और वृहत्तर सरोकार और दायित्त्व आज के बढ़ते सामजिक-सांस्कृतिक खतरों को पहचान कर उन पर सही सार्थक बहस का माहौल पैदा करना और उसे रचना है | “आलोचना साहित्यिक पाठ-मात्र को परिष्कृत और सूक्ष्म विधियों से अधिक उपभोग्य बनाने का उद्यम भर नहीं है, न ही पाठ का तुरत-फुरत में अर्थ-दोहन कर उसकी राजनितिक भूमिका तय करने, उस पर मूल्य-निर्णय सुनाने की गतिविधि है | आलोचना साहित्यिक पाठ को पढ़ने  की किसी एक पद्धति का नाम नहीं वह सांस्कृतिक-राजनीति की बृहत्तर कठिनतर कार्यवाही है | इस कार्यवाही में वह विभिन्न पद्धतियों का विवेकपूर्ण उपयोग कर सकती है है स्वयं को समृद्ध करने के लिए उसे करना भी चाहिए | “आज साहित्य, समाज, संस्कृति इस तरह एक दूसरे से गुंथे और संश्लिष्ट रूप से बहते चले जा रहे हैं कि एक साहित्यिक कृति की आलोचना लगभग समूची संस्कृति और समूची सामाजिक व्यवस्था की चुनौती बन जाती है |... क्योंकि सत्ता केवल कुछ राजनैतिक विचारधाराओं  के रूप में ही अपने को व्यक्त नहीं कर रही है बल्कि अनेक सांस्कृतिक मूल्यों, जीवन मूल्यों द्वारा साहित्य को और आलोचना कर्म को प्रभावित कर रही है |”[10] ‘स्टेट आपरेटस’ आज जिस तरह धर्म, राजनीति आदि को अविश्वसनीय, विवादी, संदेहास्पद और व्यक्तिकेंद्री बनाते चले जा रहे हैं वहाँ आलोचना के सरोकार और चुनौती-पूर्ण हो जाते हैं | ‘राज्यशक्ति’ का आज साहित्य और संस्कृति से क्या सम्बन्ध रह गया है ? क्या ‘राज्यशक्ति’ आलोचनात्मक ‘स्पेस’ को लगातार ख़त्म करती जा रही है ? “यह सही है कि, आलोचना के प्रतिरोध का स्वर अंततः ‘साहित्यिक’ होगा पर उसका लक्ष्य सभ्यता को हर तरह की बर्बरता और दमन से बचाए रखने का है |[11]  

मुझे लगता है कि, समय अधिक हो गया है | वैसे भी एक कवि के शब्दों में कहें तो आलोचना के पक्ष में अधिक बोलना अपने को संदिग्ध बना देना है | ‘देवीशंकर अवस्थी सम्मान’ के निर्णायकों का मैं शुक्रगुजार हूँ जिन्होंने मुझे इस काबिल पाया और आज आपके बीच बोलने का अवसर दिया | मैं अपनी आलोचनात्मक जिम्मेदारी को बिना किसी कोताही के और सजगता से निबाह सकूं यही इस सम्मान का महत्व होगा | अल्लामा इकबाल के इस शे’र से आपनी बात खत्म करता हूँ :     

ऐ तारिये लाहूती ! उस रिज्क से मौत अच्छी

जिस रिज्क से आती हो परवाज में कोताही |


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[1]शिवदान सिंह चौहान, 1965, हिन्दी गद्य साहित्य, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली : 57-58
[2]आलोचना मुख्यतः बौद्धिक व्यवसाय है और हमारे देश का बौद्धिक स्तर कैसा है, शायद यह कहने की आवश्यकता नहीं |...इस बौद्धिक तैयारी का असर आलोचना पर भी पड़ता है और रचना पर भी – पर आलोचना में वह बहुत प्रत्यक्ष होता है और रचना में तनिक भीतरी – जिसका कि उद्घाटन करना पड़ता है |” देवीशंकर अवस्थी, 1979, रचना और आलोचना, दि मैकमिलन कम्पनी  आफ इंडिया लिमिटेड , नयी दिल्ली, : 24   
[3]नेमिचंद्र जैन (सं.), 1985-पेपर बैक, मुक्तिबोध रचनावली- खंड : 5, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, : 83
[4]गजानन माधव मुक्तिबोध,2000-पेपर बैक, चाँद का मुंह टेढ़ा है, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, : 281
[5]विजय देव नारायण साही, तीसरा सप्तक, 2000 - पेपर बैक, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, : 183
[6]राममूर्ति त्रिपाठी, पूर्वग्रह,78-79 (जनवरी-अप्रैल,1987) सं.-अशोक वाजपेयी,भारत भवन शामला हिल्स, भोपाल, : 120
[7]स्वामी मित्रं च मंत्री च शिष्यश्चाचार्य एव च |
कवेर्भवति हि चित्रं किं हि तद्यन्न भावकः || - रामशंकर त्रिपाठी (हिंदी अनुवाद एवं टीका), काव्य-मीमांसा, मोतीलाल  बनारसीदास, प्रा.लिमिटेड, दिल्ली, : 52
[8] Terry Eagleton and Matthew Beaumont, 2009, The task of the Critique, Verso, London : 132
[9] ‘रचना की सांसारिकता’ यह पद एडवर्ड सईद का है | देखें – Edward W. Said, 1983,The World, The Text and the Critique, Harvard University Press, Cambridge : 81
[10] नामवर सिंह, पूर्वग्रह,78-79 (जनवरी-अप्रैल,1987) सं.-अशोक वाजपेयी,भारत भवन शामला हिल्स, भोपाल, : 42 
[11] वही : 42