15 फ़रवरी 2013

सम्पादकीय , पक्षधर-१३


सम्पादकीय , पक्षधर-१३
साहित्यिक पत्रकारिता का वर्तमान

  कहा जाता है कि साहित्य के निर्माण और विकास में साहित्यिक-वातावरण का एक विशेष महत्व होता है | साहित्यिक-वातावरण जैसा होगा उस समय का साहित्य भी वैसा ही होगा | किसी भी देश और समाज में सहितियिक-वातावरण का निर्माण करने वाले कारकों में साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका निस्संदेह नेतृत्वकारी होती है | एक ओर पत्र-पत्रिकाएं जहाँ साहित्यिक-वातावरण को बनाने और प्रचारित-प्रसारित करने का काम करती रही है तो दूसरी ओर उसे अनुशासित भी करती रही हैं | शुरू से ही साहित्यिक पत्रकारिता यह दोहरी भूमिका निभाती रही है | पर इस समय यह सवाल है कि वर्तमान साहित्यिक पत्रकारिता कौन सी भूमिका में है ? साहित्यिक पत्रकारिता का वर्तमान क्या है ? नवजागरण के दौर में साहित्यिक पत्रकारिता एक मिशन की तरह काम कर रही थी | आजादी के बाद शीत-युद्ध के ज़माने में साहित्यिक-वातावरण साफ़-साफ दो खेमों में बंटा हुआ था | साहित्यिक पत्रकारिता के मोर्चे दोनों खेमों की ओर से खुले हुए थे | बहस-मुबाहिसे, वाद-विवाद, सहमति-असहमति को एक चुनौती की तरह लिया जाता था | साहित्यिक और  क्रियाशील दौर था | आपातकाल का दौर आता है जो कि निस्संदेह एक दृष्टि से पत्रकारिता के लिए निर्भीक साहसिकता का दौर था तो दूसरी दृष्टि से एक स्याह और संदेहकारी दौर | लघु-पत्रिका आंदोलन ने साहित्यिक पत्रकारिता के लिए नए तरह के अवसर पैदा किये | सांस्थानिक वर्चस्व और फायदे-नुकसान वाली पत्रकारिता से अलग एक जनतांत्रिक-स्व और रुझान के साथ सामूहिक सहकार के जज्बे वाली पहलकदमी | पर धीरे-धीरे यह दौरा-दौर खत्म हुआ | जो साहित्यिक बहस-मुबाहिसे का वातावरण बना था वह वातावरण कहाँ गया ? सहमति/असहमति के जो सामानांतर मंच थे वे मंच कहाँ चले गए ? कहीं ऐसा तो नहीं कि सहमति/असहमति का झगडा ही खत्म हो गया | तुम सहमत हो तो हम भी तुमसे सहमत हैं, तुम असहमत हो ठेंगे से | तुम अपने घर दाल-रोटी खाओ हम अपने घर | आज साहित्यिक पत्रकारिता की दिशा क्या है ? उसका लक्ष्य क्या है ? इस पर कुछ कहना और बातचीत करना एक गैर जरूरी बहस लग सकती है ठीक वैसे ही जैसे आजकल अन्य मुद्दों और मसलों पर बातचीत करना गैर जरूरी मान लिया गया है | जो करता भी है उसे अपरिपक्व मान कर यह कहा जाता है कि अभी उसके अंदर समझदारी विकसित नहीं हुयी | दरअसल, ऐसी बहसें ऐसे मुद्दों पर बातचीत अब स्वयं को व्यावहारिक और परिपक्व कहने-मानने वाले लोगों के प्रतिकूल पड़ती हैं | इसका कारण है कि अब उन्होंने अपने अनुभव से यह जान लिया है कि समझदारी क्या है | इसलिए वे सबकुछ को टालते-छोड़ते जाने की सुरक्षित रणनीति अपनाते हैं | मूँदहु आँखि कतहुँ कछु नाहीं |
जिस तरह से साहित्यिक–वातावरण के निर्माण में साहित्यिक पत्रकारिता की भूमिका निर्विवाद है उसी तरह साहित्यिक पत्रकारिता के लिए साहित्यिक वातावरण जिम्मेदार है | दोनों में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है | अधीरता, अराजकता, घाल-मेल, छद्म महानता की निरर्थक आत्मुग्धता, व्यक्तिवादी मैकेनिज़्म, लोभ-लाभ की छिछोरी क्षुद्रताएं, एक कातर और दयनीय समर्पण, सामूहिक-सहकार का न होना आज के साहित्यिक वातावरण का स्वभाव बन गया है | इसके लिए कोई एक कारक तत्व नहीं है बल्कि अनगिनत तत्व इसके कारक हैं | इन सबका प्रभाव जहाँ एक ओर साहित्यिक पत्रकारिता पर पड़ना लाजिमी है वहीं दूसरी तरफ उक्त वातावरण के निर्माण में साहित्यिक पत्रकारिता की भूमिका की  भी पड़ताल होनी चाहिए | आज मोटे तौर पर साहित्यिक पत्रकारिता की  चार तरह कि कोटियाँ बनाई जा सकती है :
1.    पहली कोटि उन पत्रिकाओं की है जो यथास्थिति को बरकार रखते हुए चलते चले जाने की निरंतरता में विश्वास रखती है |
2.    दूसरी कोटि की पत्रिकाएं वे हैं जो एक तरह का साहित्यिक-सांस्कृतिक धुन्ध फैला कर घालमेल करती हैं |
3.    तीसरी तरह की पत्रिकाएं वे हैं जो हिट होने के लिए तरह-तरह के बाजारू नुस्खे अपनाती है और सेंसेशन फैलती रहती हैं |
4.    चौथी कोटि उन पत्रिकाओं की है जो अपने को सर्वोच्च मानकर व्यक्तिवादी साहित्यिक अहंवाद के चलते एक खास तरह के मैनेरिज्म का शिकार हो जाती हैं |
पहली श्रेणी में अधिकांश वे संस्थानिक पत्रिकाएं है जो सांस्थानिक और सांगठनिक हैं और जो संस्थान व संगठन की नीतियों और मानदंडों पर निकलते चले जाने के लिए अभिसप्त हैं | जहाँ से जिससे जैसा भी जो मिले सबको परोसते रहना | दूसरी श्रेणी की पत्रिकाओं का लक्ष्य होता है घाल-मेल करना | राष्ट्र, राष्ट्रिय साहित्य, कला-विमर्श, दर्शन और अध्यात्म इत्यादि को एजेंडे पर रखते हुए वे एक ऐसा साहित्यिक-सांस्कृतिक धुंध निर्मित करती हैं जिसमें वर्तमान और तात्कालिक मुद्दे ओझल बने रहें | जो तीसरी श्रेणी है उसमें सांस्थानिक और यदा-कदा झलक मारने वाली पत्रिकाएं हैं | ये पत्रिकाएं हिट होने के लिए कुछ भी करने को तैयार होती हैं | इधर सुना है कि एक पत्रिका ने ठेके पर लेखन कार्य शुरू कराया है | पत्रिका के संपादक के घर रात्रिभोज में लेखक और संपादक में साहित्यिक वर्तमान को लेकर चर्चा चलते-चलते खुद एक दूसरे की चर्चा परिचर्चा पर केंद्रित हो जाती है | लेखक संपादक से कहता है कि तुमसे तो अब कहानी छूट गयी | संपादक का पलट जवाब होता है कि छूटी तो वह तुमसे भी है कौन सा वह तुम्हीं से सध रही है | लेखक फनफना कर कहता है नहीं-नहीं मैं तो अभी चाहूँ तो दर्जन भर कहानियाँ तुम्हारे मुंह पर मार सकता हूँ | संपादक इस अवसर को तुरंत पकड़ता है जाने नहीं देता | अगर ऐसी बात है तो लगी शर्त, तुम मुझे दर्जन भर कहानियां दो मैं उन्हें हर महीने छापूंगा | प्रति कहानी पांच हज़ार रूपये पक्का, चाहो तो साठ हज़ार एकमुश्त एडवांस अभी ले लो | बस बात पक्की | अब हर महीने कॉलम की तरह कहानी छप रही है | किसको फ़िक्र है कि पाठक के ऊपर क्या बीत रही है | जो चौथी कोटि है पत्रिकाओं की वह अपनी सर्वोच्चता के व्यक्तिवादी अहम् में स्वयं के सम्मोहन से मुक्त नहीं हो पाती हैं | व्यवहार ऐसा अलोकतांत्रिक की पूछिए मत |  ऐसी पत्रिकाओं के संपादक तरह-तरह के प्रपंच रचते छद्म बुर्जुआजी का खेल खेलते रहते हैं | वे एक खास तरह की ‘टेरेटरी’ बनाते हैं जिसमें धीरे-धीरे पत्रिका खुद एक तरह के मैनेरिज्म का शिकार हो जाती है | इस प्रकार अपना ही सत्य अपने ही विरोधी सत्य में दम तोड़ देता है |
इस बीच यह सुखद सूचना है कि ‘पहल’ का प्रकाशन फिर से हो रहा है | जब पहल के बंद होने की घोषणा हुयी थी तो खूब रोदन-मोदन हुआ था | मैं उन दिनों बनारस में था | मैंने अपने एक वरिष्ठ मित्र से पूछा था, क्या आपको लगता है कि ज्ञान जी बिना पहल के जी सकेंगे | जैसा कि उनकी आदत है वह प्रश्न का जवाब प्रश्न में ही देते हैं कहा था, आपको क्या लगता है कि पहल हमेशा के लिए बंद हो जाएगी ? मैं भी तो यही जानना चाहता हूँ मैंने कहा | तो जो आप जानते हैं  उसको मुझसे क्यों कहलवाना चाहते हैं | उनका जवाब था | दरअसल, उन मित्र से मैंने उसी समय कहा था कि, ज्ञान जी न तो पहल को बंद कर पाएंगे और न ही उसे लंबे समय तक स्थगित रख पाएंगे | किसी दूसरे के हाथों तो सुपुर्द करने का सवाल ही नहीं उठता | वे एक थकान के बाद उसे पुनः शुरू करेंगे | थकान भी कैसी यह कह पाना मुश्किल है | हाँ, चलते-चलते उन मित्र ने एक बात कही - थकान की बात तो मैं नहीं जानता पर ज्ञान जी इस समय पत्रिका को लेकर एक खास तरह की मेलानकोलिया के शिकार हो गए हैं | उससे जब उबरेंगे पत्रिका फिर से निकलने लगेगी | उस समय तत्काल मैं उनकी बात समझ नहीं पाया था | वह  कहा जाता है न कि, राजा की जान कहाँ बसती है तो सुग्गे में | पहल और ज्ञान जी का कुछ ऐसा ही रिश्ता है | हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता और पाठकों के लिए निस्संदेह यह एक मुबारक सूचना है | हम पहल के पुनः प्रकाशन का स्वागत करते हैं | परन्तु अचानक बंद करने और एक छोटे से अंतराल के बाद पुनः शुरू करने के पीछे कौन सी मनःस्थिति थी/है यह सवाल पहल के पाठकों  और उसको चाहने वाले लोगों के मन में अपनी जगह कायम है | क्योंकि, हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता में पहल ने जो मकाम कायम किया था यह सुनकर लोगों को तेज झटका लगा था कि ‘पहल’ बंद पत्रिका अब बंद हो रही है |
मुझे याद है नयी सहस्राब्दि शुरू होने पर ‘आलोचना’ को पुनः शुरू किया गया, पुनर्नवा अंक निकला | नामवर जी ने बड़ी ही ऐतिहासिक जिम्मेदारी के साथ रणनीतिक ढंग से एक नए ढंग के उभरते फासीवादी वातावरण पर चोट करते हुए सम्पादकीय लिखा | नामवर जी से जब ‘आलोचना’ की इस नयी पारी के सम्बन्ध पर पूछा गया था तो उन्होंने जो जवाब दिया वह काफी आश्वस्ति से भरा स्पष्ट जवाब था, अब अपने मुंह से कहना ठीक नहीं है, लेकिन मुख्य रूप से भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राजग की सरकार जिस तरह से बनी और उसके बनने के बाद जिस तरह अमेरिकी साम्राज्यवाद से इस सरकार का गठजोड़ हुआ और जो नयी आर्थिक नीतियां चलीं और उसके साथ-साथ शिक्षा, संस्कृति के क्षेत्र में सीधे हस्तक्षेप करते हुए उसे हिंदुत्व के रंग में रंगने की कोशिश हुयी उसके फलस्वरूप मैंने देखा कि साहित्यकारों, संस्कृतकर्मियों और बुद्धिजीवियों का वही तबका जो कुछ वर्षों से बिलकुल दबा हुआ था खुलकर सामने नहीं आ रहा था, आक्रामक मुद्रा में आ गया है | पहले वो सुरक्षात्मक लड़ाई लड़ रहे थे अब आक्रामक और कुछ उत्सव मनाने कि मुद्रा में हैं कि हमारा ज़माना आ गया है | यही नहीं बल्कि इस तरह कि पत्रिकाओं की संख्या बढ़ गयी है | कुल मिलाकर लग रहा है कि लगभग एक तरह से उसी कि आवृत्ति हो रही है जो जर्मनी और इटली में ३० के दशक में हुयी थी | तब पूरे यूरोप में फ़ासिज़्म की लहर आयी हुयी थी | तो मुझे कुछ-कुछ महसूस हुआ कि उसी की पुनरावृत्ति यहाँ नए वातावरण में हो रही है | यह महसूस तो इतिहास और  राजनीति विज्ञान के लोग भी कर रहे थे लेकिन साहित्य में कोई नहीं कह रहा था कि फ़ासिज़्म है | आज भी बहुत लोग यह मानने को तैयार नहीं हैं कि जिस फासीवाद के विरूद्ध हमने यह अंक निकाला वह वजूद में है कि नहीं | इस पर भी लोग प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं | तो मैंने सोचा कि कम से कम यह सवाल तो उठाया ही जाना चाहिए कि यह खतरा है और दूर नहीं है बल्कि हमारे सामने है | मैं तो मानकर चलता हूँ कि आलोचना के एजेंडा पर यह मुख्य मुद्दा है और जबतक आलोचना निकलेगी हर अंक में इस पर कुछ न कुछ हम देते रहेंगे | मेरे सामने यही एक ही मुद्दा है और कोई मुद्दा नहीं है | साहित्य, संस्कृति की सारी समस्याएं इसी के तहत हैं यह मैं मानकर चलता हूँ | यह संघर्ष तो लंबा है और चलेगा | एक दिन में खत्म होने वाला नहीं है | मुझे खासतौर से इसलिए लगा कि जो अन्य पत्रिकाएं हैं जैसे उदाहरण के लिए ‘सोशल साइंटिस्ट’ में इस पर लगातार लिखा जा रहा है | देखकर आश्चर्य होता है कि ‘सोशल साइंटिस्ट’ में तो हो रहा है, ‘फ्रंटलाइन’ लगातार यह काम कर रही है लेकिन जो भाषाई पत्रकारिता है और साहित्यिक पत्रकारिता है उस मोर्चे पर जितना तीव्र संघर्ष होना चाहिए नहीं हो रहा | जहाँ तक वामपंथ और उसकी पार्टियों का प्रश्न है उनके सामने और भी बड़े मुद्दे हैं | मैं नहीं मानता कि वो साहित्य और संस्कृति को गौण समझते हैं | लेकिन यह है कि और भी मुद्दे हैं, दूसरे फोरम हैं, पार्लियामेंट है | जनता के बीच, जन संगठनों के बीच काम करने के लिए उनकी अपनी लड़ाईयां हैं और वे लड़ेंगे | लेकिन साहित्य संस्कृति में जो काम करने वाले लोग हैं उन्हें एक मंच पर लाकर इसके विरूद्ध और केवल नारे के रूप में नहीं बल्कि तथ्यों को सामने ले आना, उन तथ्यों का विश्लेषण करना और इस बीच जो साहित्य लिखा जा रहा है उसकी समीक्षा के माध्यम से बताना की कहाँ-कहाँ यह प्रवृत्तियां दिखाई पड़ती हैं, ‘आलोचना’ का काम होगा |
निश्चित ही इस घोषणापत्र को एक सार्थक पारी का, सपने का घोषणापत्र माना जा सकता है | पर वही नामवर जी ‘हंस’ के सिल्वर जुबिली जलसे में बोलते हुए ‘हंस’ के साथ-साथ ‘आलोचना’ के क्षय को बयां कर चुके हैं | उस गोष्ठी में, जैसा कि नामवर जी का अंदाजे-बयां होता है, उन्होंने खरामा-खरामा वह सब कहा जो किसी बहाने से वे कहना चाहते थे | जो उनके अंदाज को समझते हैं, वह खूब समझते हैं | राजेन्द्र जी भी खूब समझ रहे थे- ‘धोए गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए |’
 क्षमा किया जाय पर लब्बो-लुवाब यही है और यही साहित्यिक पत्रकारिता का वर्तमान है जो निश्चित ही निराशाजनक है | नए प्रश्नों, नए विचारों, नए आन्दोलनों, नयी प्रवृत्तियों के नेतृत्वकारी उत्तरदायी भूमिका की दृष्टि से यह साहित्यिक पत्रकारिता का शून्य-काल है | कई मायनों में एक तरह का अवसाद-काल |

विनोद तिवारी