समकालीन सरोकार, जनवरी,
२०१३,
बाहरी दुनिया
समय के खुले हुए सिरे पर
विनोद तिवारी
अपने ठोस वास्तविक अर्थ में ‘आजादी’ शब्द अत्यंत ही मोहक है पर उसको उसी
वास्तविक अर्थ में पाना इस पर निर्भर है कि समाज में हमारे अधिकार क्या हैं | - सिमोन विल
समय के खुले हुए एक सिरे पर
स्त्री है – अपनी सारी सामजिक अस्मिताओं में अंततः अकेली, दूसरे सिरे पर समाज –
अपनी तथाकथित समूची लोकतांत्रिकता में विधि-निषेधों का मजबूत तंत्र | समाज अपने
सिरे को हमेशा एक तनाव दिए रहता है, ढील का मतलब दूसरे सिरे पर इस तनाव में कसी
स्त्री की स्वतंत्रता, आजादी, उछृंखलता, बिगड़ना और न जाने क्या-क्या | ‘जिमि
स्वतंत्र होहिं बिगरहिं नारी’ | नियंत्रण, वर्जनाएं, विधि-निषेध, प्रताड़ना,
बलात्कार, शोषण आदि के जितने रूप हो सकते हैं, स्त्री इन सबको बेपनाह घुटन और पीड़ा
के साथ जीने के लिए अभिशप्त है | स्त्री के हित में अधिकारों और क़ानून के तमाम
वैश्विक उपायों, सभ्यता के तथाकथित उदार सैद्धांतिक नीतियों, सामजिक संगठनों की
बदस्तूर भागीदारी और रस्साकशी के बावजूद एक स्त्री अपने स्त्री होने को लेकर बराबर
असुरक्षा क्यों महसूस करती है ? क्यों उसके हिस्से बर्बर हिंसा और जघन्य अत्याचार
आता है ? जब यह लेख लिखना शुरू ही किया था
तभी शर्मसार कर देने वाली खबर दिल्ली से मिली | एक नहीं दो नहीं छह युवकों ने एक
२३ साल की मेडिकल की छात्रा के साथ मनुष्यता को घृणित करने वाला जो सामूहिक कुकृत्य
किया उसे सुनकर कौन कह सकता है कि हम सभ्य समाज में रह रहे हैं | इस कदर वासना की
भूख तो जानवर भी पूरी नहीं करता | स्त्री की पीड़ा का छोर अनंत है | वह बहुआयामी है
| घर-बाहर चारों ओर | बाहर वह अपने पूरे सामजिक-राजनितिक वजूद के बावजूद पहले केवल
एक स्त्री है जिस पर पुरुष अपना अधिकार समझता है | एक पुरुष का यह अधिकार और
शासक-भाव किसी न किसी रूप में घर के अंदर भी पसरा रहता है | पुरुषार्थ और मर्दानगी
के नाम पर एक खौफ बनकर | अब तो मर्दानगी और पुरुषार्थ जैसे शब्दों को उनकी पूरी
सत्ता और इयत्ता के साथ शब्दकोष से बाहर कर देना चाहिए | अब सवाल केवल पितृसत्ता
(पैट्रियार्की) का नहीं है उससे गंभीर मसला मर्दानगी (मैस्कुलेनिटी) का है |
स्त्रियों के लिए इस तरह का
जघन्य कृत्य किसी भौगोलिक सीमा में बंद नहीं है | कमोवेश वह हर जगह हर शै में
मौजूद है | भूगोल बदल जाने से इतिहास बदल जाय यह जरूरी नहीं | और अपनी मूल संरचना
में कई बार इतिहास की सच्चाई वही रहती है भूगोल के बदलने से उनमें बहुत बदलाव नहीं
होता |
बस एक पर्दा जैसा होता है जो बाहर से आवरण का काम करता है |
उस आवरण के अंदर झांकने की जुर्रत करिये तो कई सच बेपर्दा होते हैं | अभी हाल ही में टेलीविजन में अलज़जीरा चैनल पर बंगलादेश की उस
स्त्री का साक्षत्कार देख रहा था जो १९७१ में सेना के जवानों द्वारा कई दिनों तक
लगातार किये गए बलात्कार के लिए न्याय की लड़ाई लड़ रही है | जितने साल हो गए
बंगलादेश को अलग राष्ट्र बने उतने साल उसे लड़ते बीत गए पर अभी तक उसे न्याय नहीं
मिला | हमारे अपने देश में शर्मीला इरोम के साथ क्या हो रहा है ? आपको यह जानकर
आश्चर्य हो सकता है कि योरोप के मुहाने पर लगे तुर्की गणतंत्र में भी स्त्री की
हालत बहुत अच्छी नहीं है | किसी देश के सामाजिक ताने-बाने को समझने में सामाजिक-सांस्कृतिक
स्थितियों एवं परिस्थितियों से संवाद एक महत्वपूर्ण जरिया होता है | इस संवाद की
जड़ें परिवार और परिवार की धुरी स्त्री के
प्रति किसी समाज का व्यवहार कैसा है, उनमें गहरे धँसी होती हैं | तुर्की की
सामाजिक-सांस्कृतिक रहन, सिद्धांत और व्यवहार में एक स्त्री की जगह और पहचान को
लेकर बहुत गहरा विरोधाभास अंदर ही अंदर पसरा हुआ है |
तुर्की एक ‘स्टेट’ के बतौर
अपने गणतंत्र के नव्बे वर्ष पूरे करने जा रहा है | वह मध्य-पूर्व का एक मजबूत
राष्ट्र है | विश्व की बीस बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक | अपने ढंग का इकलौता
लोकतांत्रिक और सेकुलर कहा जाने वाला इस्लामिक राष्ट्र जिसकी नींव मुस्तफा कमाल अतातुर्क
ने डाली थी | वह संयुक्त राष्ट्र संघ (UN), आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (OSCE), उत्तर अटलांटिक संधि
संगठन (NATO) और इस्लामिक सहकारी संघ (OIC) का सदस्य है | योरोपीय संघ (EU) की सदस्यता के लिए निरंतर
कोशिशों में लगा हुआ है इसके लिए वह योरोपीय संघ द्वारा दिए हुए ‘कोपेनहेगन
मानकों’ को पूरा करने में लगा हुआ है | अन्य इस्लामिक राष्ट्रों के लिए तुर्की को बतौर
एक माडल के रूप में प्रोजेक्ट करने की कोशिश योरोपीय देशों की ओर से हो रही है |
पर यही शायद तुर्की के अपने आंतरिक द्वंद्व का कारण भी है | वह इस्लामिक राष्ट्रों
का अगुआ भी बनना चाहता है और योरोपीय संघ की सदस्यता के लिए भी कई सालों से कोशिश
में लगा है | स्वाभाविक है कि दोनों की अपनी–अपनी मांगे हैं अपने-अपने तर्क हैं | एक
तरफ काबा है तो दूसरी तरफ कलीसा है | ‘इमां मुझे रोके है तो खेंचे है मुझे
कुफ्र/ काबा मिरे आगे है तो कलीसा मिरे पीछे |’ असल परेशानी तुर्की की यही है
| इसलिए परदे के भीतर की आंतरिक सचाईयों को देखा जाय तो तुर्की अपनी धार्मिक और
सामाजिक, राजनितिक और आर्थिक स्थितियों में एक खास तरह की एम्बिग्युटी और
पैराडाक्स को जीने वाला राष्ट्र है | यह दुचित्तापन, यह विरोधाभास पूरब और पश्चिम
के मध्य, इस्लामिक-राष्ट्रों और योरोपीय-राष्ट्रों के बीच, पारंपरिक इस्लामिक रहन
और आधुनिक पाश्चात्य खुलेपन के बीच संतुलन बनाने की लगातार की जाने वाली उसकी
नीतियों और व्यवहारों में देखा जा सकता है |
योरोपीय मानकों के हिसाब से
तुर्की मानवाधिकार के मामले में सबसे फिसड्डी है | इसमें स्त्रियों की स्वतंत्रा
और अधिकार सबसे प्राथमिक मुद्दे हैं | बाहरी दिखावे के लिए तो स्त्री के प्रति
बहुत सम्मान है | उसको बहुत कुछ अधिकार मिले भी हुए हैं | मैं तुर्की की राजधानी
अंकारा में रहता हूँ | विश्वविद्यालय जाने के लिए सामान्यतः बस की सेवा लेता हूँ
जो आम जनता की सवारी है | स्त्री-पुरुष सब की | पर किसी स्त्री को देह की नज़र से
घूरते हुई किसी पुरुष को नहीं देखा | नयी पीढ़ी की स्त्रियों के पहनावे और वेश-भूषा
में पाश्चात्य आधुनिकता देखने को मिलती है तो साथ ही एक पीढ़ी पहले की जो स्त्रियां
हैं उनमे ओटोमन जमाने के इस्लामिक संस्कार देखने को मिल जाएंगे | वे बुर्का तो
नहीं पहनतीं पर सिर को दुपट्टेनुमा खास डिजाईन वाले एक तरह के कपड़े से ढंकती हैं |
तो, एक साथ आपको आधुनिक और पारंपरिक दोनों पहनावे दिख जाएंगे | लड़कियों पर राह
चलते छींटाकशी यहाँ अंकारा में मैंने नहीं देखी सुनी | हो सकता हो देश के दूसरे
शहरों में यह हो | क्योंकि हमारे एक पी-एच. डी. छात्र याल्चिन कायली का कहना है कि
अंकारा में राजधानी होने के नाते यह नहीं है | तो, क्या सच में जो दीखता है वही सच
नहीं होता ? जब धीरे-धीरे दूसरे छोर से मैं देखने और समझने की कोशिश करने लगा तो
स्थिति बहुत ही निराशाजनक है | तुर्की समाज में बाल-विवाह, घरेलू-हिंसा का प्रतिशत
बहुत अधिक है | राजनितिक और सामजिक मंचों पर स्त्रियों की भागीदारी न के बराबर है
| घर के अंदर पुरुष उसे ‘कमोडिटी’ से अधिक कुछ नहीं समझता |
तुर्की में बाल-विवाह की जो
जड़ें हैं वह यहाँ के गावों में बहुत गहरे तक फ़ैली हुई हैं | इसके पीछे पारम्परिक
इस्लाम की धार्मिक मान्यताओं का रोब-दाब बहुत अधिक है | एक स्त्री की कुल सच्चाई
यह है की जब से आर्गेनिक ढंग से वह संतान उत्पन्न करने के लायक हो जाय और जब तक इस
लायक बनी रहे उसे अधिक से अधिक संतान उत्पन्न करना चाहिए | इस दुनिया में वह पैदा
ही इसीलिए हुयी है | जो आंकड़े हैं उनके अनुसार १५ साल में ही पढ़ाई छुडाकर व्याह दी
जाने वाली लड़कियों का प्रतिशत कुल आबादी का ६१ प्रतिशत है | अभी हाल ही में ‘पेव
रिसर्च फाउन्डेशन’ ने धर्म के सम्बन्ध में वैश्विक आंकड़े जारी किए हैं | २३८ देशो
में किये गए इस सर्वेक्षण से जो परिणाम आये हैं उनमें से एक यह है कि दुनिया में
पूरी आबादी का ८४ प्रतिशत धर्म और उसके संस्थानों और रीतियों-नीतियों से सम्बन्ध
रखने वाली आबादी है | यह हम सब बखूबी जानते हैं कि धर्म और उसकी संस्थानिक सामाजिक
सत्ता का सबसे कठोर दंड स्त्रियों को भोगना सहना पड़ता है | इस्लामिक राष्ट्रों में
यह और अधिक है |
तुर्की में घरेलू हिंसा के
आंकड़े और भयावह हैं | जो पुरुष घर के बाहर आपको बहुत ही उदार और सभ्य दिखेगा वही
घर में अपनी मर्दानगी में स्त्री के साथ तरह-तरह की क्रूरताएं करने से बाज नहीं
आता है | यहाँ के सामजिक संगठनो और सोशल मिडिया के लिए यह केन्द्रीय समस्या है |
‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी/सकल ताडना के अधिकारी’ की तरह यहाँ भी लोक-व्यवहार में
यह प्रचलित है कि, ‘एक औरत के पिछले
हिस्से पर हमेशा डंडा पड़ते रहना चाहिए तभी वह काबू में रहती है |’ इसपर भी धर्म और
समाज का ऐसा आतंककारी भय कि पीड़ित – प्रताडित औरत इसको जब्त करती जाती है – घर की
इज्जत के नाम पर | लन्दन में रहने वाली तुर्की की लेखक एलीफ़ सफक का एक उपन्यास है
‘इस्केंदर’ (सिकंदर), पिछले वर्ष अंगरेजी में यह उपन्यास ‘ऑनर’ के नाम से छप कर
आया है | इस उपन्यास में सफक ने घर के अंदर एक स्त्री की निर्मम दुनिया को जिस तरह
से लिखा है वह शर्मशार कर देने वाला है | घरेलू-हिंसा से पीड़ित और घर से निकाली या
स्वतः घर छोड़कर निकल गयी औरतें अपने बच्चों के साथ सरकार द्वारा बनाये गए शेल्टरों
में जीवन गुजार रही हैं | तुर्की में ऐसे ८६ शेल्टर्स हैं जिनमें ग्यारह हज्जार
औरतें २३३८ बच्चों के साथ रह रही हैं | अंगरेजी दैनिक ‘ टुडेज जमन’ का कहना है कि
२०११ की तुलना में २०१२ में यह संख्या बढ़ी है | परिवार एवं सामाजिक मामलों की
मंत्री फातिमा शाहीन का कहना है कि ऐसे शेल्टर्स की संख्या और बढ़ाई जा रही है | यह
तो वह औरतें हैं जिन्होंने घरेलू हिंसा के खिलाफ शिकायत करने का साहस किया,
जिन्होंने यह मान कि जिसे घर कहा जाता है वह एक स्त्री के लिए नर्क से भी बदतर है
| यहाँ बाहचेशहर विश्विद्यालय में सामाजिक-राजनीतिशास्त्र की प्रोफ़ेसर निलोफर
नार्लि का कहना है कि, घरेलू हिंसा से पिडीत औरतों में से ५५ प्रतिशत औरतें यह
कहते हुए पायी जाती हैं कि ‘वह मेरा शौहर है, वह मुझे मारता भी है तो प्यार भी तो करता
है |’ निलोफर पिछले पांच वर्षों में शारीरिक और यौन हिंसा की शिकार मृत औरतों का
जो आंकड़ा देती हैं वह लगभग १७०० के आसपास है | अभी इसी माह के ३ दिसंबर की एकदम
ताज़ा घटना है यहाँ काला सागर के किनारे बसे एक प्रमुख महानगर इज़मीर की | पिनार
उय्नलुर नाम की एक २९ वर्षीय महिला की उसके अपने ही पुरुष मित्र द्वारा गोली मरकर
हत्या कर दी गयी | वह अपने ९ साल के बच्चे को स्कूल लेने गयी थी | बच्चे को लेकर
स्कूल से ज्यों ही वह बाहर निकली उसकी कनपटी से सटाकर गोली मारी गयी, तत्क्षण उसकी
मृत्यु हो गयी | बच्चा किस दहशत में होगा इसकी कल्पना आप हम कर सकते हैं | और तो
और राजनितिक मंच पर सक्रिय भागीदारी और रसूख रखने वाली औरतें भी इस घरेलू हिंसा का
शिकार हैं | वर्तमान में सत्ता पर काबिज तुर्की की ‘जस्टिस एंड डेवेलपमेंट पार्टी’
की संसदीय उप-प्रमुख फातिमा सलमान कोतान तक घरेलू हिंसा की शिकार हैं | पिछले
दिनों यहाँ के एक अंगरेजी अखबार को दिए अपने साक्षात्कार में उन्होंने इसे स्वीकार
किया | तुर्की के टेलीविजन चैनल अपने धारावाहिको में जो पारिवारिक ‘ड्रामा’ और
‘कामेडी’ परोसते हैं उनमें एक स्त्री को हर जगह पुरुष मर्दानगी में अपमानित और
प्रताड़ित होते दिखाया जाता है | वह ऐसे पेश की जाती है कि पुरुष के अधीन रहना उसकी
नियति है | हाल ही में दिखाए जा रहे एक ‘सोप ओपेरा’ को लेकर काफी विवाद हुआ | अभी
वह विवाद चल ही रहा है | आटोमन ज़माने के इतिहास को आधार बनाकर ‘मुहेत्शिम युजयिल’
(मैग्निफिसेंट सेंचुरी) नामक इस सोप ओपेरा में आटोमन सुलतान सुलेमान के हरम के
माध्यम से स्त्रियों की जो छवि निर्मित की जा रही है वह एक ‘सोशल स्टेट’ के खिलाफ
है | ऐसे ही एक अन्य धारावाहिक ‘फातमा ग्युलू’न सुचु ने’ (व्हाट इज फातमा गुल’स
आफेंस) के विरूद्ध यहाँ के सामजिक संगठनों
ने आवाज उठाई है | इन धारावाहिकों में स्त्री या तो केवल सेक्स आब्जेक्ट होती है
या मातृत्व में विवश और मजबूर औरत | तमाम नारीवादी सामाजिक संगठनों के विरोध के बाद
संस्कृति मंत्रालय ने जनमत जानने के लिए एक सर्वेक्षण कराया जिसमें ७० प्रतिशत
जनता के मत में ये धारावाहिक स्त्री की छवि को बिगाड़ने वाले हैं |
स्त्रियों की लड़ाई लड़ने वाला
यहाँ का प्रमुख संगठन है – ‘दि एसोशियेसन फार एडुकेशन एंड सपोर्टिंग फिमेल
केंडिडेट्स’ (KA-DER) | यह संगठन स्त्री को सभी मंचों पर समान अधिकार दिए जाने
की लड़ाई लड़ रहा है | आपको आश्चर्य होगा कि यहाँ की २७५ संसदीय सीट वाली सरकार में
केवल एकमात्र महिला मंत्री फातिमा शाहीन हैं जो परिवार और सामजिक मामलों का
मंत्रालय संभालती हैं | तुर्की गणतंत्र के इतिहास में अबतक यहाँ एकमात्र महिला
तान्सु पेंबे चिलेर प्रधानमंत्री हुयी हैं | पर स्त्री अधिकारों के लिए काम करने वाले
कार्यकताओं का कहना है कि उस महिला ने अपनी ही स्त्री जाति के लिये कोई काम नहीं
किया | कुछ का तो यहाँ तक कहना है कि राजनीति में जिस तरह का पुरुष वर्चस्व है
उसको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि तान्सु पहली और आखिरी महिला प्रधानमंत्री थीं
| उनको एक मौका मिला था, अपनी राजनितिक शक्ति और अधिकार का उपयोग कर स्त्रियों के
लिए कुछ करने का पर उन्होंने इसके लिए कोई प्रयास तक नहीं किया | सामाजिक संगठनों
की लगातार यह मांग है कि तुर्की स्त्री अधिकारों के प्रति जरूरी कदम उठाये | स्त्रियों
के प्रति जो अत्याचार हैं और उनके लिए जो जरूरी क़ानून हैं, मसलन घरेलू हिंसा के
रोकथाम के लिए क़ानून की धारा ६२४८, सिविल कोड २००२ और पेनल कोड २००४ सब नाकाफी हैं
| क्योंकि ये क़ानून स्त्री अधिकारों की बात नहीं करते वरन परिवार की सुरक्षा और
उन्हें बचाने की वकालत करते हैं | निलोफर नार्लि का मानना है कि, परिवार के समर्थन
और सुरक्षा से अधिक स्त्री की सुरक्षा जरूरी है | ‘का-देर’ की मांग है कि, ‘हमें प्रशासनिक
स्तर पर, राजनितिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक सभी क्षेत्रों में पुरुषों के
बराबर प्रतिनधित्व और अधिकार चाहिए | हम कोटा सिस्टम में विश्वास नहीं करते | क्योंकि कोटा
सिस्टम में बराबर का अधिकार सुनिश्चित नहीं होता | इसके लिए उनकी मांग है कि
‘जिप्पर सिस्टम’ लागू किया जाय | ‘जिप्पर सिस्टम’ पर आगे के अंकों में किसी कालम
में विस्तार से चर्चा की जायेगी |
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इस शीर्षक का विम्ब और अर्थ ध्वनि (अर्थ-छवि भी) कात्यायनी की एक कविता ‘निराशा की कविता’ की एक पंक्ति से प्रभावित है | ‘जानती हूँ कि समय के सिरे खुले हुए हैं’ इस पंक्ति की निरपेक्ष सचाई कही न कही मेरी संवेदनात्मक दुनिया में गहरे धंसा रह गयी थी जिसकी टीस बराबर बनी रही |
इस शीर्षक का विम्ब और अर्थ ध्वनि (अर्थ-छवि भी) कात्यायनी की एक कविता ‘निराशा की कविता’ की एक पंक्ति से प्रभावित है | ‘जानती हूँ कि समय के सिरे खुले हुए हैं’ इस पंक्ति की निरपेक्ष सचाई कही न कही मेरी संवेदनात्मक दुनिया में गहरे धंसा रह गयी थी जिसकी टीस बराबर बनी रही |