पक्षधर मेरे लिए नशा है
पक्षधर-१२ |
मैं पक्षधर नशेड़ी हूँ | पक्षधर मेरा नशा है | मैं इस नशे का आदी हो चुका हूँ | जहाँ भी रहूँ यह नशा मुझसे छूटता नहीं, मैं इसे छोडता नहीं | नशे के बारे में कहा जाता है कि यह लत दूसरे लगाते हैं, परन्तु मैंने इस नशे को खुद गले लगाया है | हाँ, यह जरूर था कि पक्षधर के एकांकी संपादक और तत्कालीन ‘माध्यम’ संपादक श्री सत्यप्रकाश मिश्र दोनों ने मुझे बरजने की, आगाह करने की कई कोशिशें कीं पर वे नाकाम रहे | शायद वे इसी नशे से मुझे बचाना चाहते थे | सत्यप्रकाश जी अब रहे नहीं पर दूधनाथ जी ने पत्रिका की बेहतरी के लिए उसके शुरुआती अंकों में जिस तरह अपने अनुभव से मुझे सहेजा वह मेरे लिए एक तरह की ट्रेनिंग थी | आज भी वह पत्रिका को लेकर बहुत ही सचेत रहते हैं कोई चूक हो जाती है तो इस कदर बेरुखी से झाडते हैं कि, कहते न बने | पर कभी-कभी वह यह भी कहकर छूटना चाहते हैं कि “भाई अब मुझे बख्श दो अब मैं बूढा हुआ” | दूधनाथ जी ७५ के हुए हैं, बूढ़े कहाँ हुए हैं | ७५ पूरे होने पर हम सबकी अनंत शुभकामनाएं कि वह सालों-साल गिनती में बड़े होते जाएँ पर बूढ़े न हों | दूधनाथ जी कभी-कभी किसी गलती पर इस कदर तल्ख़ होते हैं कि आपके साथ गैर से भी बदतर पेश आते हैं | दरअसल उनका ‘मम’ उस समय सब कुछ को परे कर अत्यंत ही निर्मम हो जाता है | तभी तो उनके जानने चाहने वाले कहते हैं-
काम उससे आन पड़ा है,कि जिसका जहान में
लेवे न कोई नाम सितमगर कहे बिगैर
जब मैं बिना किसी ढोल-मंजीरे के तुर्की आने लगा तो मेरे कुछ मित्रो ने यह सवाल किया कि पक्षधर का क्या होगा? कैसे निकलेगा ? क्या अब पक्षधर बंद हो जायेगा| मैंने सबको कहा कि नहीं पक्षधर बंद नहीं होगा वह तुर्की से भी निकालता रहेगा | एक ने कहा कि “ मैं आपका उत्साह देखूंगा” | दरअसल, पक्षधर जब मैंने शुरू किया तो यह सोचकर नहीं कि, इससे मुझे क्या फायदा या नुकसान होगा | हाँ ! एक जूनून जरूर था कि नहीं, एक पत्रिका बनारस में रहते हुए शुरू की जा सकती है | उस जूनून में कहीं न कहीं पत्रिका के लिए एक बेइंतहा जिद्दी प्यार शामिल था | वह प्यार धीरे – धीरे परवान चढता गया | अब तो उसने अपने रंग में मुझे इस कदर रंग लिया है कि निकल पाता हूँ न भाग पाता हूँ –
दिलकश ऐसा कहाँ है दुश्मने–जाँ
मुद्दई है पे मुद्दआ है इश्क
............................................
क्या कहूँ मैं तुमसे कि क्या है इश्क
जान का रोग है बला है इश्क
हालाँकि, इस जिद्दी धुन ने मुझसे मेरा बहुत कुछ छीना भी है | कुछ ऐसे लम्हे, कुछ ऐसे पल, कुछऐसी हसरतें, कुछ ऐसे लोग जो मुझे प्यार करते थे, जिन्हें मैं प्यारा था | उन सबको मैंने छोड़ा
नहीं वे छूटते गए | सच में, आज जब पत्रकारिता कोई मिशन नहीं रह गयी है तो भी वह आपसे कितना कुछ वसूलती है उसको बयाँ नहीं कर सकता | जब पत्रिका नफ़ा नुकसान के व्यावसायिक तर्कशास्त्र से अलग एक जुनूनी और जिद्दी प्यार की तरह आपके जीवन और स्वभाव में उतर जाय फिर तो – ‘दिन नाहीं चैन रात नहिं निंदिया’ |
पक्षधर को निकलते हुए पांच साल हो गये | इन पांच सालों में पक्षधर ने पाठकों की इस उम्मीद को पुख्ता किया है कि पक्षधर बंद नहीं होगा | इस बीच, पत्रिका एक नाशुक्रे की मक्कारी और छलना का भी शिकार हुई | तरह–तरह के प्रलोभन देकर वह मुझे मूसता रहा अपन पत्रिका की खातिर मुसते रहे जब मूस चुका तो दिल्ली की अनजान भीड़ में गधे की सींग की तरह ऐसा गायब हुआ कि लौट कर न आया | तौबा ! मेरी दिल्ली तेरी मक्कारी और छलनाओं से | पर तुझे भी क्या कोसना, तू भी क्या करे ऐसे न जाने कितने पेट के जले हुए मक्कार और छलियों की तू ही तो आसरा है,वर्ना वो पेट की आग लेकर जाएँ तो जाएँ कहाँ |
कवि-कथाकार विनोद कुमार शुक्ल पचहत्तर के हो गए, वे दीर्घायु हों उनकी रचनात्मक सक्रियता बनी रहे | उनके सम्मान में पक्षधर के इस अंक में उनकी दस कवितायें और साहित्य – संस्कृति संबंधी विविध प्रसंगों पर उनसे एक लंबी बातचीत प्रस्तुत है |
हरिओम की लंबी कविता ‘जंगल-गाथा’ से हमने लंबी कविताओं की शुरुआत की थी | पिछले अंक में निशांत की लंबी कविता ‘फिलहाल साँप कविता’ को पाठकों ने बहुत सराहा था | इस अंक में विवेक निराला की लंबी कविता ‘चार पुरुष और स्वर्ण युगों पर शोकगीत’ | इन लंबी कविताओं को आप अगर एक साथ रखकर देखें-पढ़ें तो अपने समय के साथ एक बहुत ही तल्ख संवाद करती हैं ये कवितायें | इधर युवा कवि और आलोचकों ने कविता और आलोचना के साथ कथा क्षेत्र में भी पूरी रचनात्मक ऊर्जा और ऊँचाई के साथ पहलकदमी की है | इस अंक में राकेश रंजन के लिखे जा रहे नायब उपन्यास ‘मल्लू कठफोड़वा’ के प्रारम्भिक अंश एवं अशोक कुमार पाण्डेय की कहानी ‘और कितने यौवन चाहिए ययाति ?’ को इसी नुख्ते के साथ देखा जाना चाहिए |
आशा है कि हर अंक की तरह इस अंक को भी पाठकों का प्यार मिलेगा | मेरे लिए तो हर अंक बहुत ही मुश्किलातों भरा होता है | इस अंक के लिए तेजभान ने बहुत परिश्रम किया है | परदेश में रहते हुए बिना उनके सहयोग के यह संभव नहीं था |
विनोद तिवारी