14 जून 2019

पक्षधर - 17, वर्ष 2014, बाघ और सुगना मुंडा की बेटी,

बाघ और सुगना मुण्डा की बेटी 

अनुज लुगुन 

प्रवेश : 

अब तक यह बताया जाता रहा है और जाना जाता रहा है कि बाघ का ठिकाना जंगल है | यह मानव सभ्यता के इतिहास का एकांगी और एकतरफा ज्ञान रहा है जिसने एक वर्चस्व को जन्म दिया और हम उस वर्चस्व का लगातार पालन करते रहे हैं | इस वर्चस्व का जिसने प्रतिरोध किया उसे मानवीयता के दर्जे से भी पदच्युत कर दिया गया |चूँकि अब जंगल तेजी से समाप्त हो रहे हैं और इसलिए बाघ का ठिकाना और स्वरूप भी बदल गया है | अब एक तरफ जंगल,पहाड़ और नदियाँ हैं तो दूसरी तरफ बाघ है | एक तरफ बाघों की तस्करी हो रही है दूसरी ओर बाघों की जनसंख्या बढ़ाने के लिए जंगलों में सरकारी ‘बाघ प्रजनन परियोजनाएं’ चलाई जा रही हैं | कल की ही बात है सुगना मुण्डा की बेटी ने मनुष्यों के एक समूह को भूखे बाघ के हिंसक आवेग के साथ अपने गाँव में हमला करते हुए देखा | वह घबराई –“इतने सारे ‘कुनुईल’ कहाँ से आ गये ? चनार-बानर, उलट्बग्घा कहाँ से आ गए.?” वह अपने समाज में अपने भाईयों की ओर दौड़ी, वहां भी उसने कुछ ‘चानर-बानर’ को टहलते हुए देखा | वह डर कर उनके हमलों से बचने के बारे में योजना करने लगी | उसने देखा कि एक तरफ तो समूहों में आए बाघ उसे और उसके समुदाय को ‘जंगली’ संबोधन देकर घृणा प्रकट कर रहे थे वहीँ दूसरी ओर उसने देखा अपने लोगों के बीच से ही ‘चानर-बानर’ बनने वाले शिकार की खोज में घूम रहे हैं | उसने सोचा ‘चूँकि उसके पुरखे,पिता और भाई की ऐतिहासिकता है इसलिए वह जो कुछ देख रही है वह स्वप्न नहीं हो सकता है और न ही कोई साहित्यिक परिकल्पना | 


1. बाघ
...............
जंगल पहाड़ी के इस ओर है और
बाघ पहाड़ी के उस पार
पहाड़ी के उस पार महानगर है,

उसने अपने नाखून बढ़ा लिए हैं
उसकी आँखे
पहले से ज्यादा लाल और प्यासी हैं
वह एक साथ
कई गाँवों में हमला कर सकता है
उसके हमलों ने
समूची पृथ्वी को दो हिस्सों में बाँट दिया है,

जहाँ से वह छलांग लगाता है
वहां क लोगों को लगता है
यह उचित और आवश्यक है
जहाँ पर वह छलांग लगाता है
वहां के लोगों को लगता है
यह उन पर हमला है
और वे तुरंत खड़े हो जाते हैं
तीर-धनुष,भाले-बरछी और गीतों के साथ ,

जहाँ से वह छलांग लगाता है
वहां के लोगों को लगता है
उसके खिलाफ खड़े लोग
असभ्य,जंगली,और हत्यारे हैं
सभ्यता की उद्घोषणा के साथ
वे प्रतिरोध पर खड़े लोगों पर बौद्धिक हमले करते हैं
उनकी भाषा को पिछड़ा हुआ और
इतिहास को दानवों का दावत मानते हैं
उनके एक हाथ में दया का सुनहला कटोरा होता है
तो दूसरे हाथ में खून से लथपथ कूटनीतिक खंजर,

युद्ध की संधि रिश्तों से और
रिश्तों से युद्ध करनेवाले
श्रम को युद्ध से और
युद्ध से श्रम का शोषण करने वाले
स्व-घोषित सभ्यता के कूप जन
गुप्तचरी कर और कराकर
किसी की भी आत्मा में प्रवेश कर सकते हैं,

उस दिन जब
सुगना मुण्डा की बेटी ने
उनकी वासनामयी
दैहिक मांग को खारिज कर दिया
तो वे ‘चानर-बानर’ बन कर
उसके समाज के अंदर ही घुस आए
अब वे दैहिक सुख के लिए
सुगना मुण्डा की बेटी के
वंशजों की आत्मा में भी प्रवेश कर
बाघ का रूप धर रहे हैं

सुगना मुण्डा की बेटी हैरान है कि वह
उस बाघ की पहचान कैसे करे ...?
कुछ कहते हैं
वह सभ्यता का उद्घोषक है
सत्ता का अहं है
कुछ कहते हैं
वह आदमी ही है
तो कुछ यह भी कहते हैं कि
बात बाघ के बाघपन की होनी चाहिए
जो हमारे अंदर भी है और बाहर भी,


उस दिन से  
सुगना मुण्डा की बेटी
बाघ के सामने तन कर खड़ी है ......


2. सुगना मुण्डा
..........................
सुगना मुण्डा जंगल का पूर्वज है
और जंगल सुगना मुण्डा का
कभी एक लतर था तो दूसरा पेड़
कभी एक पेड़ था तो दूसरा लतर
यहाँ संघर्ष का सच भी था
और सौन्दर्य का आत्मिक स्पर्श भी
दोनों सहजीवी थे
दोनों के लिए मृत्यु का कारण था
एक दूसरे से विलगाव ,

यहाँ हत्यारा कोई नहीं था
जैविक वनस्पतियों में
युद्ध के बीज कहीं नहीं थे
मांदर और नगाड़े
छऊ जदुर और खेमटा
करम और सरहुल
पेड़ की फुनगियों पर
तीतरों की तीरयानी पर
बच्चों की तोतली बोली की तरह थे
संवाद गीत थे
और गीतों की भाषा
गुन्गु की तरह बुनी होती थी
यहाँ बाघ उतना ही अनुशासित था
जितना कि भूख

और यह सब एक दिन
सुगना मुण्डा ने
अपनी प्रियतमा के जुड़े में खोंस दिया था
उसकी प्रियतमा के जुड़े
इतने सुन्दर थे कि
उसकी महक पूरे जंगल में
जड़ों की तरह फ़ैल गई
और उससे उगने लगे वंशबीज
पहले से ज्यादा उर्वर
पहले से ज्यादा साहसी
पहले से ज्यादा चेतना संपन्न
हर बार ऐसा होता रहा
हर बार उम्मीद
बसंत के गीत गाता रहा,

कविता के लिपिबद्ध होने से पहले तक
सुगना मुंडा गीत गाता रहा
उसे अलिखित करार
ज्यादा सहज और संवेदनशील लगता था
अबोले सहमति पर उसकी साख था
मितभाषी उसका अनुवांशिक गुण था
उसे लिखने से ज्यादा
अपने साथ खड़े पेड़ों पर विश्वास था
उस पत्थर पर भरोसा था
जिसे वह अपने पुरखों के सम्मान में
कब्र पर उनके सिरहाने गाड़ आता था
उसे पृथ्वी पर भरोसा था कि
चेतना और विचार
उसी के उपादानों से आते हैं ,

और इसी बीच
कविता के साथ-साथ
इतिहास,दर्शन,विज्ञान और
यहाँ तक कि
रिश्ते भी लिपिबद्ध होने लगे
अब लिखित ही सबकुछ था
लिखित ही प्रमाणिक था,
सुगना मुंडा के सामने
जो दुनिया बन रही थी
उसमें वही वैध था
वही सभ्य और सांस्कारिक था  
और लिखा वही जा रहा था
जो विजेता चाह रहा था
जो विजित थे
वे उनके लेखन के अयोग्य थे
तब सुगना मुंडा ने जाना कि
पृथ्वी पर चेतना और विचार
हर जगह बिलकुल वैसे नहीं हैं
जैसे कि उसका देस है,
उसने यह भी जाना कि
उसके साथी
उसके सहजीवी
उसकी जमीन
उसके जंगल
उसकी नदियाँ
उसकी आजादी
उसका सम्मान
सब खतरे में हैं
उसे सूअरों ने
शब्दों के जंगल में इतना छकाया
कि वह छापामार बन गया
तब भी उसने गीत ही गाये
उसके गीत अलिखित,आरूढ़
और सौन्दर्य के संघर्षरत प्रतिमान बने ,

चूँकि सैकड़ों साल पहले
सुगना मुंडा ने
हँड़िया बनाने की कला से मुग्ध होकर
अपनी सुगनी के जुड़े में
रक्त-बीज का फूल खोंस दिया था
इसलिए फूल खिलते रहे
कभी बंसत में,तो कभी बरसात में
यहाँ तक कि पतझड़ में
सबसे ज्यादा लालायित होते थे
फूल खिलने के लिए  
(बारहमासा फूल थे),
फूल के रंग अनगिनत थे
और आचीन्हें भी
(क्योंकि कभी भी
सुगना मुंडा के फूलों के रंग को
ग्रन्थों और पोथियों में लिखा नहीं गया),

फूल खिलते रहे हैं सृष्टि के आरंभ से
आरंभ से ही जीवन के प्रश्न को लेकर
खिलते रहे हैं लाल-लाल रक्त-बीज के फूल
बाहर की दुनिया में अज्ञात थे सुगना के खिले फूल
जो ज्ञात थे वे अर्द्ध-ज्ञात थे वैदिक सदी में
और जितने ज्ञात फूल थे
वे फूल नहीं, उनके इतिहास का उपहास था,

फूल खिलते रहे –
वैदिक ग्रंथों में खिले,
धर्म ग्रन्थों में खिले,
महाकाव्यों में खिले
ब्राह्मणों में खिले
लेकिन सुगना के लिए इनमें कहीं थी सुगंध
कहीं नहीं थे पराग
ऐसे ही फूल खिले थे
आर्यों के आगमन से
कोलम्बस के दंभ से
वास्कोडिगामा की दुनियादारी से,
फूल खिले – १७६४ ई में
१८३० ई में,१८३२ ई में, १८५५ ई में
उलगुलान में,भूमकाल में, मानगढ़ में
हर बार फूल खिलते रहे कि
दुनिया पहले से और ज्यादा सुन्दर हो
हर बार सुगनी के जुड़े से ही
छीन लिया जाता रहा उसके हिस्से का फूल
उसकी देह से गंध और अखड़ा से गीत ,

और एक दिन फूल खिला
सुगना मुंडा के घर में
और लिखने वालों ने लिखा कि –
‘सुगना मुंडा का बेटा था बिरसा मुंडा’
लिपिबद्ध करने वालों ने लिपिबद्ध किया कि -  
‘बिरसा मुंडा धरती आबा हैं ‘
उन्होंने नहीं लिखा कि
‘सुगना मुंडा की बेटी थी बिरसी’
उन्होंने नहीं बताया कि
‘सुगना मुंडा की कोई बेटी थी या नहीं’
उन्होंने जानने नहीं दिया कि
‘सुगना मुंडा की बेटियां घूँघट के नीचे
सहम कर नहीं जीती हैं
वे तो फरसे और धनुष के साथ बलिदानी हैं ’
उन्होंने नहीं सुनाया कि
‘सुगना मुंडा अपनी बेटियों को
बेटों से अलग नहीं करता है’
उन्होंने कचहरियों में दर्ज नहीं कराया कि
‘सुगना मुंडा की बेटियां
अपने पिता के घर में उसकी पैतृकता की समान भागीदारी हैं’
उन्होंने नहीं सुनाया सुगना मुंडा का यह गीत कि
“बेटियों के जन्मने से गोहर घर भर उठता है”
उन्होंने गवाही नहीं दी कि
‘बिरसा मुंडा के साथ डूम्बारी बुरु में
बड़ी संख्या में सुगना मुंडा की बेटियों ने कुर्बानी दी
और मृत माँ से चिपक कर दूध पीते बच्चे को देखकर
गोरे कप्तान की पत्नी की आँखों में आंसू आ गये थे ’
और यह गीत आज भी मुंडा गाते हैं

सुगना मुण्डा की सुगनी ने
खिलाये थे फूल
उन फूलों ने अपनी कोमलता से नहीं
अपने रंगों से बाघों को चुनौती दी थी
और यह बात उस डाकिये ने नहीं सुनी
जो सुगना और सुगनी की दुनिया में
अपने पैतृक वंशावली के साथ आया था
और इस तरह अधूरे ही रहे प्रतिमान
उनके विश्लेषण के
पूरी बात यहाँ से नहीं पहुंची
कि बिरसा मुंडा के साथ बिरसी भी रही है
कि बिरसी और बिरसा ने
सम्मिलित चुनौती दी है आदमखोरों को
कि कभी नहीं एक ध्रुवीय रही है उनकी दुनिया

हमेशा दफ़न किया गया है
जनवादी संघर्ष को
जनता के गीतों को
एक ‘संभ्रांत’,‘सवर्ण’ और ‘पैतृक’
फ्रेम रहा है उनके पास अपना
और उसी मानक में कसते रहे हैं 
वे सभ्यता की परिभाषा
उसी परिभाषा में, उसी फ्रेम के अंदर
जबरन घसीटा गया सुगना मुंडा के बच्चों को
इतना गहरा और इतना अधिक दार्शनिक प्रलोभन देकर कि
आज वे उनकी भाषा को अपनी भाषा में अनुदित करने लगे हैं
समसत्ता का पितृसत्तात्मक भाष्य ही प्रस्तुत किया जाता रहा है उनके सामने
अनुदित भाषा के व्यवहार का ही प्रचलन किया जा रहा है उनमें ,
  

और तब सुगना मुंडा की बेटी को
यकीन होने लगा कि
चानर-बानर होते हैं
उलट्बग्घा होते हैं
आदमी ही बाघ बनते हैं
कुनुईल होते हैं
जो हमेशा शिकार की खोज में होते हैं
उनके लिए न कोई अपना है
न कोई पराया है
उनका अपना सिर्फ भौतिक भूख है,

शिकार की खोज में
गलियों में,घाटों में,बाजारों में
घूमते हिंसक बाघों को देखकर भी
आज सुगना मुंडा ने अपनी बेटी से नहीं कहा कि
‘बिरसी ! घर में छुप जाओ’
नहीं कहा कि
‘तुम एक लड़की हो’  
उसने कहा –
‘बिरसी ! आज भी जंगल हमारा पूर्वज है
और हम जंगल के पूर्वज हैं
हमारे पूर्वजों से विच्छेद करा कर
हमारे अस्तित्व की रीढ़ तोड़ी जा रही है
हमें अपने पूर्वजों की सहजीविता से जबरन दूर रख कर  
हमारे अंदर वर्चस्वकारी संस्कार आरोपित किए जा रहे हैं  
कि हम एक ही दिखें,एक ही रंग में रंगे
हम भी सभ्यता के भ्रम में करने लगे हैं
बेटियों की पहचान बेटों से अलग’

उसने पहाड़ी के उस पार से उभर कर आती
आकृतियों को देख कर
गहरी साँस छोड़ते हुए चिंता के स्वर में कहा – “बिरसी !
यह बाघ के हमले की साजिश है
वह समूह पर हमला नहीं कर सकता  
इसके लिए वह पहले शिकार को खदेड़ कर अलग-अलग करता है,

यह बाघ का ही हमला है कि
हम बिखर रहे हैं
हम भूल रहे हैं अपनी ही सहजीविता
लैंगिकता के साथ
पितृसत्ता का स्वीकार
हमारे खून में जहर भरेगा
और आंतरिक संरचना में कमजोर होकर
मुक्ति की परिकल्पना संभव नहीं है

सदियों से बाघ
हमें अपने खूनी पंजों में
जकड़ने की कोशिश करता रहा है
हर बार हमारी सहजीविता ने उसे पराजित किया है   
हमारी सहजीविता ही बनाती है
भेदरहित मजबूत रिश्ते    
सत्ता और वर्चस्व
अपने बघपन से ही जीवित रहती है
आदमी ही बाघ हो जाते हैं
‘चानर-बानर’ होते हैं
‘उलट्बग्घा’ होते हैं
भले ही जंगल ख़त्म हो जाय
भले ही प्राकृत बाघ विलुप्त हो जाएँ,

बिरसी ! जंगल के पूर्वज
कभी भी प्राकृत बाघ के दुश्मन नहीं रहे हैं
हम जंगल के पूर्वज रहे हैं
और जंगल हमारा पूर्वज है
जंगल केवल जंगल नहीं है
नहीं है वह केवल दृश्य
वह तो एक दर्शन है
पक्षधर है वह सहजीविता का
दुनिया भर की सत्ताओं का प्रतिपक्ष है वह |”


3. सुगना मुण्डा की बेटी
.......................................

आसमान को छू कर
उन्हें भेद देने की होड़ में खड़ी
कलात्मक इमारतों से लिपटी
चमकती काली सर्पीली सड़कों के नेपथ्य में
यह बाघ की गर्जना है
उसकी गर्जना से
जंगल की सूखी टहनियां
दीमकों की पपड़ियाँ झर रही हैं
गोलियों की तड़तड़ाहट
और विस्फोटकों की कर्कश धमाकों के बीच
नेपथ्य-ध्वनि की तरह रह-रह कर उठती है चीख,
बच्चों की ,औरतों की और बूढों की कराह,
उनके भागने की आहट,
झाड़ियों के टूटने-चरमराने की आहट,

बाघ की गर्जना से पहले बज रही
मांदर की थाप अब थम चुकी है,

रात का अंतिम पहर है
चाँद जो टुकड़ों में अब तक आसमान में था
वह भी जा छुपा था किसी ओट में
झींगुर,जुगनू,नुगुर
हर कोई जैसे गवाही देने से
बचना चाह रहा हो
घबराती हुई,डरती हुई
खुद को संभालती हुई सुगना मुण्डा की बेटी ने कहा -     
“यह बीजापुर है
सिर्केगुडम, कोथागुडम, राजुपेंता और जागामुंडा,
ये दण्डकारण्य के गाँव हैं
हमारा गाँव-घर है दंडकारण्य
दंडकारण्य के गाँवों ने ‘वैश्विक ग्राम’
के संधि प्रस्तावों के विरुद्ध मतदान किया है
क्या उसी का परिणाम है यह कि  
यहाँ मासूम,नाबालिगों तक की लाशें बिखरी हुई हैं.? ”

उस चीखती हुई सन्नाटे में
कांच की चूड़ियों के टूटने की खनक
एक संबोधन के साथ पसरी –
“ओ रीडा हड़म..!!
तुम तो कहा करते थे
जंगली जानवर
बच्चों और औरतों पर हमला नहीं करते
लेकिन इतना बड़ा और अचानक हमला ..?
कहीं कोई आहट तक नहीं हुई
ओह...!!!!
ओ सिंगबोंगा !
ओ धर्मस !
ओ मारंग बुरु !
ओ सिकारी देवता !
हमसे क्या गलती हुई .??

ओ हमारे देवथान के पुरखा !
हमारे गुरु !
कैसे मन लूँ कि
तुम्हारी शिक्षा गलत थी
कैसे मैं दुनिया को बताऊँ कि
यह एक जानवर का ही हमला है ..
?..?..?...?....?..ओह !!”

और दूर जंगली पहाड़ियों के बीच
किसी गाँव से आती रही नेपथ्य में 
पाडू कर रहे लोगो की आवाज
एक गीत गूँजता रहा
रात की सतर्क आँखों के नीचे –
“कौन जंगल जल रहा
केवल धुँआ ही धुँआ उठ रहा
हय रे, मेरे मीत रे
तुम देखने से भी दिख नहीं रहे
खोजने से भी मिल नहीं रहे
तुम्हें पत्थर से ढँक दिया गया
तुम्हें काँटों से ओढ़ दिया गया
हय रे, मेरे मीत रे
तुम देखने से भी दिख नहीं रहे
खोजने से भी मिल नहीं रहे”
         
सुगना मुण्डा की बेटी
देसाउली में देंवड़ा की मुद्रा में बैठी रही  
गूँजता था गीत उसकी कानों में
साथ गूँजता था उस रात के
गोलियों और विस्फोटकों की आवाज
वह कुछ गुनती रही
कुछ मथती रही
मन में अवसाद था  
कुछ बीती सदियों का कटु मवाद था
वह भविष्य की सुनहरी उम्मीद में
तालाब में पसरे कमल-कुमुदों के बीच
खोजती रही गुणकारी औषधि-युक्त लाल कमल
जिसे अर्पित कर
इस संत्रास सदी से मुक्ति मिले,

उस घटना के बाद
एक रात वह
नाट्य रूप में पुरखों से मुखातिब रही –
“मुझे बताओ रीडा हड़म
वह किस जंगल से आया था
उसके पदचिन्ह किस ओर से आए थे
किस ओर गए हैं
मुझे बताओ ...मुझे बताओ”

रीडा हड़म ने
बेचैन समुद्र-सी गहरी सांस लेकर
अपने संपूर्ण संचित अनुभव ज्ञान से कहा –
“ओ बिरसी !
यह वह चौपाया बाघ नहीं
जिसका शिकार बहिंगा से
तुम्हारी दई ने बकरी चराते समय किया था 
जब उसने जानलेवा हमला बोला था ,

यह वह धारीदार बाघ नहीं
जिसे तुम्हारे दादा ने
हल जोतते समय
हल की मूठ से परास्त किया था
जब उसने बैलों पर झपटा मारा था ,

यह वह आदमखोर भी नहीं
जिसका मैंने दुहत्था-दुपैरा धनुष से सेंदेरा किया था
जब उसने मेरे भाई को जबड़े में दबोच लिया था”

बिरसी की आवेग
पहाड़ी नदी की तरह थी
वह तड़प उठी –
“ओह गोमके !
मुझे जल्दी बताओ
वह कौन है ?
कहाँ से आया था ?  
मेरा खून मेरी आँखों से टपक रहा है
मेरी धनुष तन गयी है
मुझे उसका पता चाहिए
मुझे उसका सही ठिकाना चाहिए ..”

रीडा हड़म –
“रुको बिरसी !
यह भावावेश घातक है
इसी आवेश ने
वीरों को असमय शहीद किया है
ऐसा करना अरणनीतिक कदम होगा
यहाँ तात्कालिक प्रतिक्रिया का कोई भविष्य नहीं है
ऐसे ही हजारों सालों से
हमारी लड़ाई अधूरी रह गयी है,

थोड़ा और धैर्य चाहिए
थोड़ा और चिंतन
और वैचारिकता भी चाहिए
इसके बिना कहीं सहयोग नहीं है
कहीं समर्थन नहीं है
हम अधूरे ही होंगे,बिखरे हुए ही होंगे ,

बिरसी –
“ओह हड़म !
मैं और क्या कर सकती हूँ
जब मेरी ही आँखों के सामने
मेरे परिजनों की लाशें बिछी हैं ,
क्या करना चाहिए मुझे ?
कहाँ है वह ...?
...........??”

रीडा –
“सुनो बिरसी !
सोचो कि अगर कोई तुम्हें कहे कि
तुम एक लड़की हो
और लम्बे संघर्ष में
तुम खुद को कहाँ तक ले सकोगी..?

बिरसी – (चौंक कर माथा धुनते हुए)
“यह क्या कह रहे हैं ?
हम सुगना मुण्डा की बेटियाँ हैं
उनके बेटों के सामने बेटियां नहीं
उनके बेटों की संगी बेटियाँ
और आप यह ...”

रीडा –
“तुम सही हो बिरसी
लैंगिक भेद पर
तुम्हारा यह आवेश
हमारी मातृसत्ता का ही अवशेष है
हाँ,लेकिन यह अवशेष है
जो हर बार हर तरफ से छीला जा रहा है   
नोंच-नोंच कर निगला जा रहा है इसे
जनहित के लिए उठाये गए तुम्हारे कदम पर
सबसे पहले तुम्हारे लोगों के बीच से ही ऊँगली उठेगी,

तुमने देखा है
अपने ही भईयों को
जो हाट में आते हैं दिकु से बतियाते हैं
वह दिकु उनसे कहता है कि
‘कैसे भाई हो जो
तुम अपने बहनों को
वश में कर नहीं सकते
कैसे पति हो
जो पत्नी को सरेआम हंसने पर मना नहीं करते
सब के सब मर्द-जनाना
एक साथ बतियाते-गपियाते हैं
नीचता है यह,असभ्यता है यह’
और तुम्हारे ही भाई
अब तुम्हें देखने लगे हैं बेटियों की तरह
पितृसत्ता के विषाणु फ़ैल रहे हैं
हमारे अंदर यहाँ से वहां तक
संस्थागत और नीतिगत रूपों में ,

जिसे तुम खोज रही हो
वह बाघ एक हमारे ही बीच है
और एक पहाड़ी के उस पार
दोनों का समझौता न हो
दीर्घ मुक्ति के लिए  
इस पर बल देना जरुरी है ,

बिरसी –
“पितृसत्ता के विषाणु फ़ैल रहे हैं हमारे बीच  
जो घातक हैं मुक्ति की राह में ..?”

रीडा –
“हाँ बिरसी !
जब तक हमारी दुनिया
एक द्वीप की तरह थी
तब तक समता थी
हमारे गीत-अखाड़े
सबके लिए बराबर थे
तुम्हारे लिए गिति ओड़ा: था
धुमकुड़िया था, पेल्लो एड्पा था, घोटुल था
लेकिन जब से हमारी दुनिया में
घुसने लगी हैं सागर की बेख़ौफ़ लहरें
उसकी सत्तात्मक विषाणु हमारे बीच फैलने लगे हैं
कहीं पितृसत्ता, तो कहीं सामन्ती सत्ता,
कहीं धर्म की सत्ता तो कहीं पूंजी की सत्ता है
संपत्ति का वैभव और उसकी लालसा
मेहनत और उपज के खून-पसीनों की
सामूहिकता को जीने वालों के बीच भी
महामारी की तरह पसर रही है

तुम्हारा हर कदम
हमारे बीच ही बन रहे
सत्ता के अधिकारियों को चुनौती होगा
जो उन बाहरी समुद्री लहरों के साथ निजी समझौता कर रहे हैं,

बिरसी –
“ओह ! तो कल के हमले का कोई एकमात्र सूत्र नहीं है
इसके पीछे एक पूरी संरचना है
एक पूरी व्यवस्था है
जो सत्ता के अनेक सूत्रों से बुनी है
आदमखोर बाघ एक अकेला हमलावर नहीं है
और उसका नहीं है कोई एक ही प्रयोजन ?”

रीडा –
“हाँ नुन्नी !
हमें चौपाया बाघों से कोई डर नहीं है
उनसे हमारी नस्लों को कोई खतरा नहीं है
हमारे बूढ़े,बच्चों और औरतों पर
ये कायराना हमला नहीं करते हैं
उनसे हमारी कोई शत्रुता नहीं है
ये सब तो हमारे सहजीवी हैं ”

बिरसी –
“कितना कठिन समय है यह
कि हम सामने शत्रु को देख कर भी
उसको पूरी तरह पहचान नहीं सकते
उसके रूप को केवल किसी एक रूप से
समझ नहीं सकते
शत्रु देह का आकार भर नहीं
वह एक पूरा विचार भी है
एक पूरी व्यवस्था है
उसकी अ-सम दृष्टि है ”

रीडा –
“हमें उन सब कारणों की पड़ताल करनी होगी
उन सभी सूत्रों के तह में पहुंचना होगा
जहाँ से यह आमानवीय रिसाव है
और इन सबके लिए
सबके साथ विचार चाहिए
विमर्श चाहिए
हमें बहस आमंत्रित करने होंगे
ठीक वैसे ही
जैसे हमारे ओल गोमके
मेनास राम ओड़ेया ने
‘मतु रअ: कहनि’ में बताया है कि  
सेलेगुटू गाँव के ‘दुनुब’ में
सरदारी लड़ाई और उलगुलान के दिनों में
कैसे मुंडाओं ने कई दिनों तक
‘कंपनी तेलेंगा’ और ‘दिकुओं’ के साथ-साथ
नव-बिचौलिए मुंडाओं के भी आरोप सर्वसम्मति से तय किये थे
और तब उन्होंने किया था –
महान हूल, महान उलगुलान
ऐसे ही हुआ था
महान भूमकाल और महान मानगढ़
जिसे ‘संभ्रांत’ और ‘सवर्ण’ लेखकों इतिहासकारों ने
जंगली लोगों का अराजक उपद्रव मात्र कहा,

हमें ऐतिहासिक,दार्शनिक
सभी पहलूओं पर विचार करना होगा बिरसी !
हमारा कोई भी अरणनीतिक और अव्यवस्थित कदम
शहादतों की गलत व्याख्या प्रस्तुत करेगा
संघर्ष और शहादतों का मान
रणनीति और अनुशासन से ही महान होता है ”

बिरसी –
“आबा !
जितनी बड़ी चुनौती हमारे बाहर है
उतनी ही बड़ी चुनौती हमारे अंदर भी है ?

रीडा –
“हाँ,बिरसी
बाहर और अंदर का द्वंद्व ही
बेहतर रास्ता तय करता है
हमें वस्तुगत परिस्थितयों के साथ ही
आंतरिक संरचना और
आत्मगत भावनाओं का गहराई से विश्लेषण करना होगा
एक बाघ बाहर है तो एक हमारे अंदर भी है
तभी तो चानर-बानर होते हैं,उलट्बग्घा होते हैं
आदमी ही बाघ बनते हैं, ‘कुनुईल’ होते हैं  
कहीं वह अनुशासित है, तो कहीं छुटा घूम रहा है ”

बिरसी –
“कहते हैं रोंगों बूढ़ा भी कुनुईल होता है
उलट्बग्घा बनता है
और कोई शिकार नहीं मिला तो वह
अपनी ही दो बेटियों को खा गया ? ”

रीडा –
“हम यह प्रामाणिकता के साथ नहीं कह सकते कि
रोंगों उलट्बग्घा बनता था
हाँ,यह स्वीकार्य है कि
हमारे बीच से ही उलट्बग्घा बनते हैं
आदमी ही बाघ बनते हैं, ‘कुनुईल’ होते हैं  
हमारे ‘मुण्डा’ का बेटा उलट्बग्घा है
उसने कई लोगों को खाया है
सबसे पहले उसने
उन लोगों को जमीन की रसीद अपने नाम लिखवाई
जो उनके यहाँ अपनी जमीन बंधक रख गए थे
उसने ‘पड़हा’ की बातों को
अपने धन के दंभ से नहीं माना
और अपनी खानदानी बेटियों की जमीन हड़प ली
यह हजारों सालों से हमारे पुरखों द्वारा की गयी
दार्शनिक अभिव्यक्ति के खिलाफ था
और यह संभव हुआ था
अंदर के बाघ का बाहरी बाघ के गठबंधन से
सूई की नोंक की तरह ही सही
ये विषाणु हमारे बीच पसर रहे हैं
हमारी अस्मिता और अस्तित्व के लिए
सबसे घातक आंतरिक कारक ”

बिरसी –
“यानी इस हत्याकांड के उत्स में
अतीत है, इतिहास है ,दर्शन है और विज्ञान भी है ”

रीडा –
“हाँ,और यह इस धरती पर
केवल बीजापुर में घटित घटना नहीं है
बीजापुर केवल एक रूपक है
दंडकारण्य केवल एक रूपक है
धरती पर जहाँ भी
धरती अपने संपूर्ण परिजनों के साथ है
जहाँ भी तितली फूलों पर
पंछी अपने पेड़ों पर
मछली अपनी नदियों में
हिरन अपने जंगल में हैं
वहाँ-वहाँ सहजीविता है
और वहाँ निजी लाभ के लिए
मेहनत के पसीने और सौन्दर्य पर
वर्चस्व का प्रसार
दार्शनिक द्वंद्व का कारक है ”

बिरसी –
“अतीत के अधूरे जवाब से
पैदा हुए सवाल हैं ये..?
अविचारणीय मानकर छोड़ दिए गए
विचारणीय तत्व हैं ये ..?
मेहनत के पसीने और सौन्दर्य पर
प्रभुत्व की सभ्यता के तत्व
और  उसके प्रभुत्व से हीन
उसकी सामूहिकता की सभ्यता के तत्वों का दार्शनिक द्वंद्व है ...?”

रीडा –
“हाँ, ये सवाल अब तक कथित सभ्य
और मानवीय लोगों के लिए विचारणीय नहीं थे
उनके विचार के केंद्र में नहीं थी सहजीविता
उनके लिए यह जीवन
मनुष्य केन्द्रित था
जबकि यह धरती केवल मनुष्यों की नहीं है ,

इसका उत्स है आदिमता की वह अवस्था
जहाँ सबसे पहले
मेहनत और उसकी उपज की
सामूहिकता का त्याग किया गया
और उसके शोषण को
सभ्यता और कलाओं का उत्स माना गया
निजी संपत्ति और अतिरिक्त की लालसा में
समनांतर चल रही सामूहिकता की दुनिया का
बहिष्कार और उपहास किया गया,

बाघ का जन्म ऐसे ही हुआ है
ज्यों-ज्यों अतिरिक्त की लालसा बढ़ेगी
उलट्बग्घों की संख्या बढ़ेगी
और विलुप्त होंगे सहजीवी बाघ

वह आदमखोर अप्राकृत बाघ,  
इतिहास में विजेता है
वह भगवान भी है,देव पुत्र भी है
उसके लिए हम पशुवत् हैं
और बाघ एक सम्मानजनक प्रतीक
वह बाघ है,बाघ का पालक है,
जिसे तुम चार पैर
एक पूंछ,और मूंछों से पहचान नहीं सकती
वह हमारे सेंदेरा-विधान से भी
कई गुना चालाक और शातिर है
वह अपने पोथियों और कानूनों से
वैसी ही लुभावनी बातें करता है
जैसे शिकार को फाँसने के लिए चारा डाला जाता है”

बिरसी –
“आबा,तो क्या यह अब भी जीवित है
इतिहास और अतीत का हिंसक प्रतिनिधि !
उसी अतीत में इसे खदेड़ नहीं दिया गया हमेशा के लिए ..?

रीडा –
“नहीं बिरसी !
लड़ाईयां कभी ख़त्म नहीं होती
लक्षित लक्ष्य के बाद भी
संघर्ष जारी रहता है
जब से इस बाघ का अस्तित्व है
तब से उससे संघर्ष है
बावजूद वह अपराजेय बना हुआ है
और इसकी वजह
मनुष्य की खुद की कोमल कमजोरियां हैं
तत्काल लाभ ने
हमेशा इस धरती का नाश ही किया है,

तुम सुन सकती हो
उन गीतों को,उन कथाओं को
जो तुमने सुना होगा अपने स्वजनों से
उन्हीं गीतों में मौजूद है
बाघ से द्वंद्व का सकारात्मक प्रमाण
उन प्रमाणों की व्याख्या ही
एक नया अध्याय प्रस्तुत करेगा,

सुनो गीत,
आओ गाओ गीत
गीत ही हैं प्रतिमान बेहतर मनुष्यता के”

और सुनती है बिरसी
अँधेरे में रोशनी का गीत
देखती है वह स्वंय को गाती हुई
सुनती है वह दूसरों को गाती हुई
वह स्वंय उसमें शामिल है और बाहर भी
सामूहिक ध्वनियों से गुंजायमान है परिवेश –
“ माँ, मुझे दो तीर-धनुष
माँ,मुझे चाहिए बलुआ फरसा
इस बरस सरहुल तो
इस बरस जदुर तो
लड़ाई के मैदान में होगा
संघर्ष के क्षेत्र में होगा ”

कुछ अंतराल के बाद फिर से
दूसरे गीत की सामूहिक ध्वनि उभरी –
“हे चितरी चरई,
हे असकल पक्षी,
जंगल तो जल रहा है
पहाड़ तो धधक रहे हैं
हम दाना चुगने कहाँ जायेंगे
हम गाना गाने कहाँ जायेंगे”

बिरसी –
“आबा, आबा !,
यह तो गीति:ओड़ा: के युवकों का गीत है
संगी युवतियों का स्वर है
लेकिन ये गीति: ओड़ा: में केन्द्रा और टूईला
की जगह बलुआ फरसा की बात क्यों  कर रहे हैं
सरहुल का त्योहार लड़ाई के मैदान में मनाने की तैयारी है
जदुर नाच संघर्ष के क्षेत्र में नाचने की बात कही जा रही है ?”

रीडा –
“हाँ बिरसी ,
यह गीति:ओड़ा: के युवकों का गीत है
गीति:ओड़ा: की युवतियों का स्वर है
यही स्वर है धुमकुड़िया का
यही ताल है पेल्लो एड्पा का
यही राग है घोटुल का
ये गोट कभी अनैतिक रंग-रस के नहीं रहे हैं
यह पाठशाला रही है युवाओं के लिए
संपूर्ण ज्ञान का प्रयोगशाला रहे हैं ये
यहीं सरहुल के गीत तैयार होते हैं
यहीं सेंदेरा के लिए
तीरों में जहर भी बुझाया जाता है
ये पड़हा पंचायत की नर्सरी रही हैं
न्याय का अभ्यास है यह
हमारे गणतंत्र के जरुरी खूंटे हैं ये”

बिरसी –
“ओह ..! तो इन खूंटों से दूर होकर ही
हमारे लोग उलट्बग्घा बन रहे हैं
कुनुईल जन्म ले रहे हैं  
इन खूंटों के कमजोर होने से ही
बाघ मजबूत हुए हैं
उनकी संख्या बढ़ रही है.....’

अधीरता के साथ
वह फिर कहती है -
‘ज्ञान के विस्तार के साथ ही
संघर्ष का क्षेत्र भी बढ़ गया है
अब मैं जाती हूँ लोगों के बीच
गाँव – गाँव डुगडुगी बजेगी
अस्मिता और आजादी का सन्दर्भ
अब वृहद् परिप्रेक्ष्य में होगा ,

आबा ! मैं जाती हूँ
मैं जोहार करती हूँ .....”

रीडा –
“थोड़ा और रुको बिरसी
अंतिम निर्णय लेने से पहले तक
पूरे धैर्य के साथ
सभी तत्वों का विश्लेषण होना चाहिए,

जाते-जाते
इस बात का
सबसे ज्यादा ध्यान रखना है
कि यह समय अब पहले से ज्यादा निर्णायक है
इसलिए भयावाह भी है
बहुत मुश्किल होगा पहचानना
कि बाघ कौन है .?
जिसे तुम अपना भाई मानती हो
जो तुम्हारा सहोदर है
जो तुम्हारे बिरादरी भी हैं
उसे भी गौर से परखो,

तुम देख सकती हो –
देखो..देखो !
वहां जो केंद्र में बैठा है
वह तुम्हारा ही तो भाई है
जो तुम्हारे ही
अधिकार और पहचान की बात करता है
देखो, उसका रूप बदल रहा है
उसकी अंगुलियाँ नाखूनों में
हथेलियाँ खूनी पंजों में बदल रहे हैं
उसके दांत बाहर की ओर निकल आए हैं नुकीले
आँखें अंगारे की तरह हैं
वह आदमी है लेकिन बाघ हो रहा है
वह चानर-बानर है
वह उलट्बग्घा है
वह कुनुईल है  
देखो, बुनुम में वह अपनी देह रगड़ रहा है
ओह ..बिरसी ..!
तुम किस-किसके लिए अपने तीर संभाल कर रखोगी ..?”

मौन अंतराल के बाद
सफ़ेद आभा से युक्त
उस आकृति से अंतिम आवाज आती है -
“और दूसरी जरुरी बात है
सबसे पुराने समय के
सबसे पुराने और सबसे कम बचे लोग हैं हम
हमें तादाद के लिए नहीं
सहजीविता के लिए
अपने सहधर्मियों की खोज करनी होगी,

अब तुम जाओ,
जाओ बिरसी मैं भी अब विदा लेता हूँ
हजार-हजार वर्षों के इतिहास का गवाह
उसका जीवित चरित्र
घायल,आहत,और क्षुब्ध
लेकिन मुझे उम्मीद है
और उम्मीद से ही जीवित रहूँगा
आनेवाली सदियों तक ,

जाओ, बंदई की अमावस्या वाली रात
जब गुड़ी परीक्षा का दिन होगा
तुम डोडे वैद्य से मिलो
वह तुम्हें पुरखों का और अधिक ज्ञान सौंपेगा
तुम पहले से ज्यादा जिम्मेदार और मजबूत होगी
तुम और तुम्हारे साथी
महान विरासत के कर्णधार होंगे
जब तक वह सहजीवी ज्ञान है,वह जीवन है,
तभी तक आगामी लड़ाई की सार्थकता है
उसके बिना फिर से सबकुछ
कुरूप होगा, अराजक होगा ,

जाओ, जाओ बिरसी !
पुरखा सुगना मुण्डा की
काल भेदी जीवित बेटी !
हजारों वर्षों के श्रमशील विरासत की वारिस!
हाशिये की रूपक !
सभ्यताओं की समीक्षक !
तुम्हें जोहार ! तुम्हें जोहार ! तुम्हें जोहार !!”

..और अचानक अवचेतना से
जाग उठी बिरसी
हांफने लगी ..
कुछ कौतुहुलता में खोजने लगी..
क्या यह सपना था ....
या, यह साक्षात्कार था पुरखों का ,खूट का ..??
या,यह बेचैनी का चरम था
जिससे बन रही थी छवियाँ
आदमखोरों को
सभ्यता की सूची से बाहर कर देने के लिए.?

रात पसर रही थी उसके चारों ओर
और नींद की जगह ले ली थीं
दंडकारण्य में उभर रही आकृतियों ने |
   
   

        ××××××××××××

साल के लम्बे-लम्बे पेड़ों को
अपने में समेटने की कोशिश करती
बंदई की अमावस्या –
गहन अँधेरा और दीपकों का उत्सव भी
गुलामी की साजिश और मुक्ति की तैयारी भी,

और पास ही एक छोटी झोपड़ी से
प्रतिपक्ष में खड़े दीये की मद्धिम रोशनी
साल के पेड़ों की पहचान बचा रही है
साथ ही उससे उभर रही है
झोपड़ी के अंदर एक बूढ़े की पहचान –
जिसके गले में एक गमछी टंगी है,
घुटनों तक सफ़ेद धोती लिपटी है
उसके हाथ में बांस की चमकती हुई छड़ी है
वह डोडे वैद्य है,
वैद्य की उपस्थिति
वहां अन्य सात जनों की पहचान बना रही है –
‘तीन युवक और चार युवती ’,
और उन तक मद्धिम आवाज में
गाँव के किसी कोने से बंदई का गीत पहुँचता है –
‘लियो रे हिर्रे  ,लियो रे हिर रे  
हमारे खेत,हमारी खेती के साथी
लियो रे हिर्रे ,लियो रे हिर रे  
तुम्हारे लिए दीये हैं,तुम्हारे लिए बाती
लियो रे हिर्रे, लियो रे हिर रे  
सब कुछ बचा रहे,सब कुछ बना रहे
लियो रे हिर्रे, लियो रे हिर रे 
हिसिंगा से परे, डाह से परे’

डोडे वैद्य के सामने गोबर लिपी जमीन पर
कुछ दोने हैं,दोनों में अरवा चावल हैं
धुअन है, हँड़िया है
वह संवाद की मुद्रा में कहता है -
‘गुड़ी की अंतिम परीक्षा का दिन है यह
फिर से आज कहूँगा कि
यह सांप पकड़ने या जकड़ने का
जादू-टोना नहीं है
और न ही हम ऐसे ढोंगी विद्या के समर्थक हैं
यह आयुर्वेद का संपूर्ण ज्ञान
गंध और गीतों का समुच्चय है
मूल ‘होड़ो-पैथी’ है यह
जीवों के बाह्य और आंतरिक
विशेषताओं और विसंगतियों का ज्ञान
और इसके सूत्रधार होते हैं मंतर,

“ये मंतर केवल शब्द नहीं हैं
केवल ध्वनि मात्र नहीं हैं
और न ही यह मेरी रचना है
जिसे मैं अपनी अमरता के लिए
तुम्हारी स्मृतियों का स्तंभ खड़ा कर रहा हूँ
यह किसी ओझा का झूठ या,अन्धविश्वास नहीं है
यह उन सबका सार है
निचोड़ है,रस है
जो हमारे आस-पास के जीवन में
दृश्य-अदृश्य, बोले-अबोले मौजूद है,

इस धरती में जीवन के तन्तु
एक-दूसरे प्राणियों से ही बुने हैं
हम अपने जीवन के लिए सबके आभारी हैं
प्रकृति में कोई भी किसी के बिना अधूरा है
उसकी पहचान अधूरी है
संपूर्ण जीवन में हम अपने सहजीवियों से
प्रत्यक्ष संवाद नहीं कर पाते हैं
यह मंतर उनसे संवाद का माध्यम है
यह मंतर है,अलिखित,अ-रूढ़,और स्व-अभिव्यक्ति”,

जोना – (शिष्या)
“एक तरफ हम यहाँ
जीवन बचाने के लिए परीक्षा में उतरे हैं
दूसरी तरफ अमानवीय शक्तियाँ भी हैं
जो आज की रात तैयारी में हैं
अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए
कहा जाता है
आज चुड़ैल नाचती हैं अँधेरी रात में
डायन-सभा होती है
जो अपनी देह में जलते हुए दिया को लेकर नृत्य करती हैं
आदमखोर कहीं अपनी दांत तेज कर रहे होंगे”

से:को – (शिष्य)
“अगर हमारे मंतर की शक्ति है तो
उनके मंतर की भी शक्ति होगी ही
तो क्या यह शक्तियों की टकराहट होगी ..?
क्या यह द्वंद्व है
अपनी-अपनी शक्ति स्थापना का ..?


डोडे वैद्य –
“एक तरफ हम हैं
जो जीवन बचाने के लिए खुद को समर्पित कर रहे हैं
और दूसरी तरफ अमानवीयता की भी तैयारी है
गौर करने की बात है कि
हर शक्ति मानवीयता के नाम पर ही उभरती है ,

हमारी तैयारी शक्ति स्थापित करने की नहीं है
बल्कि अमानवीय शक्तियों को
जीवन के केंद्र में आने से रोकने की है”

जितनी –(शिष्या)
“तो फिर यह द्वंद्व है,लड़ाई है
लेकिन हमें तो सबकी सेवा के लिए तत्पर होना है
हमारे लिए क्या शत्रु,क्या दोस्त
सब मरीज हैं दुखी जन हैं ?,

डोडे वैद्य -
“हाँ,हमें सबकी सेवा करनी है
हम वैद्य होंगे,रोग निवारक होंगे,
हमारा कोई शत्रु नहीं है
हमारा शत्रु सिर्फ रोग है,बिमारी है
और यह रोग विचार भी है, सोच भी है
एक व्यवस्था भी रोग होता है
हमें सबसे पहले रोग की पहचान करनी होगी,”

बिरसी – (शिष्या)
“रोगी कौन है
रोग कैसे होता है
चुड़ैल रोग फैलाते हैं
या डायन रोग फैलाते हैं
हमें इन बातों में विशवास नहीं होता है
यह ओझाओं का ढोंग है
अपने लिए मुर्गा और बकरा जुगाड़ने का धन्धा है
इनके मंतर और झाड़-फूँक कष्टदायी होते हैं”

डोडे वैद्य-
“हाँ बिरसी !
चुड़ैल और डायन लोगों की कल्पना है
यह भी सत्ता के वर्चस्व का साधन है
उत्पीड़न का कारक
संपत्ति लालसा का प्रतिबिंब
यह संकेत है
आदिवासी दुनिया में
सत्ताओं के उदय का
पुरखों के गणतंत्र के खिलाफ प्रभुता का,

यह संकेत है
आमानवीय शक्तियों के गठबंधन का,
चानर-बानर के शुक्राणु
उलट्बग्घा के शुक्राणु यहीं से जन्म लेते हैं
यहीं अभिक्रिया होती है आदमी और बाघ की
जो सबसे ज्यादा भयावह और अप्राकृतिक होता है”

बिरसी –
“हाँ,मैंने सपने में देखा था
रीडा आबा मुझे उसी तरह के बाघ की बात बता रहे थे
उन्होंने कहा था
कि आपसे हमें और भी ज्ञान मिलेगा
उन्होंने भी कहा था
आदमी ही बाघ बनते हैं ”

डोडे वैद्य –
“हाँ बिरसी,
प्राकृतिक रोग का इलाज सहज है
मनुष्य निर्मित रोग का इलाज कठिन है
उसका रोग
उसकी व्यवस्था के रूप में प्रतिबिंबित होता है,

हमारे अन्दर रोग
केवल प्राकृतिक नहीं है 
कई बार हमारे मुंडाओं,मानकियों और
पहान जैसे पदधारियों ने भी
अप्राकृत बाघों के साथ अभिक्रिया कर 
मदरा मुण्डा और हीरा राजा के गणतंत्र के विरूद्ध आचरण किया है
और एक ही गण के अंदर
एक मुण्डा के यहाँ अलग व्यवस्था दिख जाती है
दूसरे मुण्डा के यहाँ अलग
हमने उसे एक रोग के रूप में चिन्हित किया है”

जोना –
‘रिसा मुण्डा और मदरा मुण्डा के
गणतंत्र के विरूद्ध
हमारे ही परवर्ती कुछ मुंडाओं ने भी आचरण किया है
यानी,गणतंत्र के विरूद्ध आचरण भी बाघपन है ..?
बिमारी है ,रोग है ..?

डोडे –
हाँ, लेकिन रोग या रोगी की पहचान
केवल उसके बाहरी लक्षण से ही
संभव नहीं है
गणतंत्र यदि एक आवरण मात्र है
और उसके अंदर उसके अस्थि-मज्जों का अभाव है
तो वह धोखा है ढोंग है
हमारे पुरखों ने अपने अस्थि-मज्जों से उसकी संरचना की है
लेकिन हमारे ही मुंडाओं ने
हमारे ही प्रतिनिधियों ने
उसको खोखला कर
आवरण मात्र रहने दिया है,

हमारे गणतन्त्र के आधार गीत हैं
गीत ही मंतर है
रोग निवारक प्रमुख औषधि हैं
गीतों का ह्रास गणतंत्र का ह्रास है
गीत रहित गणतन्त्र प्रभुओं की व्यवस्था है
प्रभुताओं के खिलाफ
मैं तुम्हें मंतर दूंगा, गीत सौंपूंगा
वही होगा रोगों से मुक्ति का आधार,
      
यह गीत, यह मंतर
रोग के कारण से
संवाद का एक माध्यम है
ठीक वैसे ही जैसे
पेड़ से गिरे मरीज को
जड़ी-बूटी देने से पहले
उस पेड़ से संवाद स्थापित करते हैं कि
वह हमें क्षमा करे हमारी अमर्यादा के लिए

यह मंतर गीत है,स्वछंद है
दृश्य-अदृश्य,बोले-अबोले प्रकृति का
संवाद है अपने सभी सहजीवियों से”

सहमति में सात जनों के सिर
अपनी-अपनी स्वाभाविक मुद्राओं में हिले
वे अपनी मुद्राओं को स्वर देते हैं –
‘हाँ, हमें संवाद के
सभी तरीकों से अवगत होना है
संवाद के बिना
गीतों के बिना
हम कोई ठोस व्यवस्था नहीं बना सकते ’    
एक गहन शांति के बाद
डोडे वैद्य ने फिर कहा –
“सुनो !
आज बंदई की अमावस्या है –
‘गुलामी की साजिश
और मुक्ति की योजना भी है’
आज का त्योहार
हमारे सहजीवियों के लिए है  
मवेशियों के लिए है
यह उनकी सेवा का अवसर है
उनसे संवाद को प्रगाढ़ करना है”

सात जनों में से
एक की प्रश्नवाचक मुद्रा उभरी -
“यह संवाद
कैसे प्रगाढ़ होता है ?”

डोडे -
“संवाद की प्रक्रिया होती है
उस प्रक्रिया से गुजरे बिना
हमें अजनबीपन का बोध होता है

हमने अपने सहजीवियों के
सम्मान में उपवास किया
ताकि वे हमारी आँखों से ही
समझ सकें हमारी भावना
और उनकी भावना में
उतर आये अस्पर्श नमी
हमने उन्हें नहलाया
कुजरी तेल से तेलाया
उड़द,चावल नमक की टीप दी
उन्हें धन्यवाद कहा कि
उन्होंने हर बार की भांति
इस बार भी हमारी खेती संपन्न की
वे हमारे बच्चों के आँखों की हंसी हैं
हमारे पुरखों की शांति के कारक
हमने उन्हें हँड़िया,सिंदूर अर्पित किया
हमने उनके पुरखों को स्मरण किया कि
उन्होंने ही हमें घने जंगलों के बीच
जीवन का सहारा दिया
वे हमारे टोटेम हैं,हमारे रक्षक,
हमने स्मरण किया ‘टूंटा साईल काचा बियर’ को
कि उन्होंने आदिम दिनों में
हमारे जीवन का जोखिम भरा रास्ता साफ़ किया

फिर पूरे गाँव के सहजीवियों को
अखड़ा में एकत्रित किया
और उनके साथ मांदर,नगाड़े,गीत साझा किए –
‘हिर रे , हिर रे, तोतो नोनो
हिर रे , हिर रे , तोतो नोनो
आज तुमसे काम नहीं लेंगे
आज तुम्हारी सेवा करेंगे
तुम्हारी इच्छाशक्ति से ही
तुम्हारे लगन से ही
इस जीवन को हमने संवारा 
इस देश को हमने सोना बनाया
हिर रे,हिर रे, घुर रे, हुर्र रे
छगरी रे, गारू रे ,काड़ा रे’


(सभी शिष्य सामूहिक स्वर देते हैं |)

फिर और एक मुद्रा प्रश्नवाचक हुई -
“गीत क्यों जरुरी होते हैं ?

बिरसी –
“संवाद और सम्मान के लिए”

डोडे –
“संवाद और सम्मान
सहजीविता के लिए अनिवार्य शर्त है
जंगलों से,नदियों से
पेड़ों से,जुगनुओं से,तितलियों से
दृश्य-अदृश्य, बोले-अबोले प्रकृति से  
विश्व कल्याण के लिए,

संपूर्ण जीवन की लय और
श्रम के लय की एका से ही
सहजीविता संभव होती है
श्रम का शोषण
इस लय को तोड़ता है
इसी लय को गूँथते हैं गीत
गीत ही हमारे मंतर हैं
यह कोई आदेश नहीं है
कोई फ़तवा नहीं है
स्त्री-पुरुष,बच्चे-बूढ़े
इसके सब समान अधिकारी हैं
वंचित जनों का प्राण है यह”

जितनी –
“गीत हमारे रोग निवारण की
औषधि है
इस औषधि की जड़ अखड़ा है
अवसाद की जड़ी,अकेलेपन की बूटी ..?”

डोडे-
“हाँ,यह रोग निवारण की औषधि है
इस औषधि की जड़ केवल अखड़ा नहीं रही है
हमारा संपूर्ण गणतंत्र इसकी जड़ी है
गिति:ओड़ा:,धुमकुड़िया,घोटुल
पड़हा,पंचायत,सरना,मदाईत,
इसके मजबूत खूंटे हैं
जिसने हमारी दुनिया को चट्टान की तरह बांधे रखा
श्रम के शोषण का प्रतिपक्ष
और सत्ताओं के लिए कड़वा घूंट
जब–जब गीत टूटे हैं
सत्ताओं के विषाणु पनपे हैं ”

रुसू –(शिष्य)
‘यह हमारी प्रकृति में ही मौजूद है
उसी में हैं इसके तंतु’

डोडे-
“हाँ,मूल तो प्रकृति ही है
वर्तमान दंभी विज्ञान का उत्स भी
सभी उत्पादित वस्तुओं का सोता भी,
आह..लेकिन उसी प्रकृति का आज इतना अपमान है !
जड़ें,छाल,पत्ते,फल,पत्थर,बीज,लतर
सभी जीवन के औषधि हैं
प्रकृति अंगी है,हम अंग हैं
उसका ही सम्मान हमारा धर्म है
उसकी रक्षा हमारा कर्त्तव्य
यही है आदिवासियत का आधार
और यही आधार है संपूर्ण सृष्टि के जीवन का ,

जरा सोचो !
वह पहाड़ जिसकी पूजा से बसन्त खिल उठता है
उसे दफना दिया जाय तो
सूरज क्यों न अपनी दिशा खो दे
सूरज क्यों न क्रोधित हो जाय
उसकी उस सीढ़ी को उसके
रास्ते से हटा दिया जाय तो
क्यों न वह आग उगलेगा .?

सहजीविता की समझ ही ज्ञान है
संवेदनाओं,अनुभूतियों की पहचान ही ज्ञान है
ज्ञान प्रतिस्पर्धा नहीं प्रेम सिखाता है 
प्रकृति और मनुष्य
मनुष्य और प्रकृति की सहजीविता
समूह में संभव है
इसे सीचना पड़ता है
अब यह तुम सबका दायित्व है कि
इसका बीजारोपण आगामी पीढ़ी में करो,

ज्यों-ज्यों इसके बीज
अंकुरित होंगे,पुष्पित होंगे,फलित होंगे
त्यों-त्यों बाघ पर अंकुश लगेगा
और तब ही रोग निवारण के लिए
औषधियों का अस्तित्व रहेगा
उसी के अस्तित्व से नियंत्रित होंगे प्राकृत-अप्राकृत बाघ,”

डोडे की बातों से
सातों जनों के मन में लहर उठती
वे सोचते,गुनते,मथते
सामने मिट्टी का दीया
हवा के झोंकों से हिलता-डुलता
कभी बुझने को होता
कभी अचानक ही उसकी लौ दहक उठती
वैद्य कहते जाते और
परीक्षार्थियों के चेहरे की भंगिमा को भी परखते जाते
और उनकी भौंहों की रेखाएं सिकुड़ती-फैलती जाती –
‘क्या सातों जन सफल होंगे
या फिर कोई एक-दो ही
उसके ज्ञान को ग्रहण कर सकेंगे .?
आजीवन साधना का परिणाम
निजी सफलताओं में नहीं
आगामी पीढ़ी की सफलताओं से सिद्ध होता है
तो क्या उनके जीवन की साध अधूरी रह जाएगी.?
एक साथ सात जनों की सफलता की साध
जो अब तक संभव नहीं हुआ है उनके गुड़ी की दुनिया में.?

परिस्थितियों की प्रस्तुति
और उसके सन्दर्भों की व्याख्या कर
गुड़ी परीक्षा के लिए आवश्यक निर्देश देते हुए 
डोडे वैद्य ने फिर कहना शुरू किया  –

“घनी काली रात
इतनी काली कि
सामने कोई भी दिख न रहा हो
केवल प्रतीति हो किसी आकृति के उभरने की
मिथ्या और भ्रम उत्पन्न करने वाली
ऐसी ही काली अँधेरी रात में उभरती
आकृतियों को पहचानने की परीक्षा है यह,

आदमी को आदमी और
बाघ को बाघ के रूप में
पहचानने की क्षमता आती है  
उसके व्यवहार के अतिरिक्त
जीवन अनुभवों के साथ
इतिहास,दर्शन और विज्ञान की भी पड़ताल से
हमारे लिए रात का आशय
‘पहर’ के रात भर से नहीं है
बल्कि दिन के उजालों में फैले
जन के विरूद्ध संस्थागत कृत्यों से है
ठीक वैसे ही जैसे
रोग का आशय सिर्फ
दैहिक-मानसिक रोग से नहीं
बल्कि व्यवस्था रूपायित रोग से भी है,
यही विचार गिति:ओड़ा:,धुमकुड़िया,घोटुल
और पड़हा के गणतंत्र का विस्तार करेगा
सहधर्मियों को अपने संघर्ष में
शामिल होने का अवसर देगा
अँधेरे के साम्राज्य के सामूल नाश के लिए
सहधर्मियों के संघर्ष का साथ होना जरुरी है “

उनके सामने धुअन की
महक उड़ती रही
उसके नशे में जैसे वहां सब धीरे-धीरे
मदहोश हो रहा था
कुछ पल आँखों को और गंभीरता से मीचते हुए डोडे ने कहा –
“जैसे ‘अहद् सिंग’ को लांघने के बाद
मनुष्य घर का रास्ता भूल
नदी,पहाड़,जंगलों में
वर्तमान से इतर यथार्थ की दुनिया में पहुँच जाता है
वैसे ही तुम भी पहुंचोगे
अपने वर्तमान देश,काल,परिवेश से इतर
अपने ही जीवन से सम्बद्ध यथार्थ में,
सबकुछ असामान्य प्रतीत होगा
लेकिन वह सामान्य ही होगा
कई बार तुम्हें अपने ही जीवन की प्रतीति होगी
कई बार अपने दुनियावी अनुभव से परे जीवन की प्रतीति होगी
किन्तु वह सत्य और यथार्थ ही होगा
ज्ञान का नया अनुभव होगा
भले ही वह कभी भी जीवन के अनुभव में न रहा हो
जो सत्य तो होगा किन्तु अविश्वसनीय भी प्रतीत होगा  
यहीं से तुम्हें मिलेगी
रोग के कारक और निवारक को पहचानने की शक्ति,

और जब तुम लौटोगे
उस अवास्तविक - वास्तविक दुनिया से, तो होगी
नयी सुबह,नयी दिशाएं,और नया जीवन
तुम सात जन होगे सात जीवन 
सात अनुभव, सात ज्ञान,
लेकिन तब तक रास्ते में होंगे –
जहरीले सांप,कीड़े-कंक्रोच
रेत,दलदल,तूफान,विस्फोट
और भयावाह परिस्थितियाँ  
तुम्हें इन सबसे लड़ना ही होगा,

अब मैं यह लाठी धरता हूँ
मंतर शुरू करता हूँ
मंतर नहीं, यह गीत गाता हूँ  –

“तन मन जन
को घेरे हैं जहरीले फन
पेड़ पहाड़ तितली जुगनू
सभी सहजीवी होंगे मृत
या होंगे अधिकृत
रात शशिधर
जब होगी बिषधर  
सुनो सपेरे स्याह सवेरे
कैसे तोड़ोगे विष के घेरे
सात जनों की सात कथा
रहेगी तब तक यही व्यथा
तन की, मन की, जन की”   

अरे,यह क्या.?
मंतर का असर होता है
नहीं गीत ही जीवन में घुलता है
जीवन रूपायित होता है गीत में,

देखो, पहला ध्यानस्थ देखता है –
“नृतत्वशास्त्री खेत में फसलों
की किस्मों को अलग कर रहे हैं
वे एक खास किस्म की
फसल की तरफ संकेत करते हुए
कहते हैं कि इनकी प्रजाति एक ही है
एक ही मूल के हैं ये –
कोल,भील,मुण्डा,संथाल,गोंड,खेरवार
बैगा,मुड़िया,कोंड,कोया,पहाड़िया,
ऐसे ही और भी सभी,
जिनका एक ही सहजीवी दर्शन रहा है ,

एक नृतत्वशास्त्री कहता है
कि जब घुमन्तु ग्रह की ठोकर लगी थी जबरदस्त
ये टुकड़ों में बिखर गए
सभी दिशाओं में, सभी भौगोलिक कोनों में,
वह ग्रह टूटा नहीं बल्कि
वह उनकी ही जमीन पर गिरा
और उनके आधे से अधिक
जमीन पर जबरन काबिज हो गया
अब जमीन के लिए संघर्ष शरू हुआ
और इसके साथ ही शुरू हुआ दानवों का जन्म
उस ग्रह के लोग जितना
अपने जीतने का दावा करते
उतना ही देवताओं और दानवों का जन्म होता गया,

उस नृतत्व शास्त्री के पास
एक युवा शोधार्थी आता है और कहता है –
‘नहीं रहे अब सब एक-से
एक-सा नहीं रहा उनका सहजीवी दर्शन
धर्म में,नस्ल में ,रंग में बाँट दिए गए हैं ये
ये ही नहीं, पूरी मनुष्यता ही बंटी है धरती पर ’

ज्यों-ज्यों उस ग्रह का प्रभुत्व बढ़ता गया
वे अपना मूल उत्स भूलते चले गए
उनमें से कुछ उसके पंजों में फंसे रह गए
कुछ अलग दूर उनसे लगातार संघर्ष करते रहे
उनका यह संघर्ष आज भी जारी है

उस ग्रह के पंजे में फंसे लोग
मनुष्य होकर भी पशुता-से प्रताड़ित हैं
उससे बाहर के लोग
अपने ‘मनुष्य होने’ के दावे के साथ
उनके पंजों से बचने के लिए लड़ रहे हैं
दोनों की अस्मिता पर प्रश्न चिन्ह है
दोनों का अस्तित्व संकट ग्रस्त है  
आज उस प्रभु ग्रह की जीभ
उनकी पूरी जमीन को
ग्रस लेने की असीमित लालसा में है
जहाँ उनकी भाषा है,इतिहास है,दर्शन है

और वह ध्यानस्थ देखता है
उस ग्रह की जगह एक विशाल अजगर
उसी की तरफ अपनी जीभ लपलपाता है
वह अजगर के जबड़े में फंसे
अपने लोगों को निकालने के लिए हाथ डालता है
लेकिन उसका हाथ बाजुओं तक फंस जाता है
वह मदद के लिए पुकारता है
और अब उसी प्रभु ग्रह के कुछ न्यायी जन
उसकी मदद के लिए आवाज उठाते हैं
वह उन आवाजों को अपने में मिला लेना चाहता है
आवाज उसकी तरफ बढ़ती है –
‘जनवाद! जनवाद! जनवाद !’
‘जन-संस्कृति!’
‘जन-संस्कृति!’
‘जन-संस्कृति !’
– के संकल्पबद्ध वैश्विक स्वर के साथ |

दूसरी ध्यानस्थ है –

“अरे,मैं यहाँ कहाँ पहुंची हूँ –
संभ्रांत कलात्मक नक्काशी के साथ
सड़कें,चौराहें,गोलंबर सब सजे हैं
दिन में भी बिजली की रोशनी
दीवारों पर हँसते-मुस्कुराते
दमकते हुए विज्ञापन हैं
वाह ! कितना आकर्षक है !
वाह ! कितना विकास है !
ओह ! लेकिन यह किसके चीखने की आवाज है ?
दिन का उजाला है, मौसम खुशनुमा है
ऐसे में तो गीत उच्चरित होने चाहिए
लेकिन यह चीख क्यों .?

मैं लोगों के पास जाकर
चीख के बारे में पूछती हूँ
आश्चर्य! मेरी छुअन से
वे कछुआ हो गये ....,

मेरा रोमांच अचानक भय में बदलने लगा है
चीख मेरे सामने और सामने आने लगी है
लेकिन यह क्या चीख मेरे ही कानों को सुनाई दे रही है ?
लोगों के अपने-अपने कलात्मक खिड़की-दरवाजे इत्मिनान बंद हैं ?

अरे यह क्या .?
मैं ही गलियों में अब दौड़ रही हूँ,भाग रही हूँ
अरे नहीं, मैं कहीं नहीं दौड़ रही,कहीं नहीं भाग रही
दरअसल मेरे अन्दर सिनगी दई की खून दौड़ रही है
फूलो,मकी,झानो की खून दौड़ रही है
मेरे अंदर मेरी ही माँ-दादी का खून दौड़ रहा है  
और मैं तड़पती हँ
इस द्वंद्व से बाहर निकलने के लिए

मैं दिन में पहुँचती हूँ
एक अँधेरी गली में –
‘अरे यह क्या ..?
यह तो किसी युवती की लाश है.?
निरिक्षण करती हूँ आस-पास
लोगों की कलात्मक खिड़कियाँ हैं
नक्काशीदार दरवाजे हैं
कालाओं का उत्सव है
वहीँ हैं एक ओर सफ़ेद विज्ञापन
और स्त्री-प्रताड़ना के कानून
इन सबके बीच मुझे दिखाई देती है
एक जीवित स्त्री की मटमैली आकृति
जिसके हाथ में हथौड़ा है,छेनी है,
हंसुआ है, चूल्हा है,चौकी है,
लेकिन उसके मूल्य का निर्धारण करता हुआ
वहीँ पास में धुंआ उड़ाता एक पुरुष है,

मैं युवती की लाश पर झुकती हूँ
उसे गोद में उठाती हूँ
लेकिन अरे यह क्या ..?
यह तो समकालीन किसी पत्रिका का ‘स्त्री-विशेषांक’ है ?
उसके आवरण पृष्ठ पर
एक गर्भवती स्त्री की नंगी तस्वीर छपी है
जिसके गर्भ में दो भ्रूण हैं
एक में बच्चा है,दूसरे में बच्ची है
बच्चे के सिरहाने ताजे फूल रखे हैं
और बच्ची के सिरहाने
सफ़ेद कपड़ों से लिपटा एक ताबूत रखा है,

और उसके अंदर के पृष्ठ पर
एक कोंदरेड्डी महिला की तस्वीर के साथ
विमर्श का विषय चस्पा है –
‘बलात्कार शब्द की व्युत्पति’
और किसी ने अपना पक्ष रखा है –
‘कम कपडे पहनने के बावजूद
आदिवासी समाज की भाषाओँ में
उनका मूल शब्द ’बलात्कार’ नहीं है’
पत्रिका में कामुकता,कुंठा,
अवसाद और निराशा की शब्दावलियाँ
घोटुल,गिति:ओड़ा:,
और धुमकुड़िया के शब्दों के सामने
बौनी और अपाहिज प्रतीत हो रही हैं,

पत्रिका से नजर हटते ही देखती हूँ
लोगों की भीड़ मुझे घूर रही हैं
मैं घबराकर आदमकद आईने के पास जाती हूँ
मैंने देखा मेरा रूप विचित्र हो चुका था
मेरी कलाई में चूड़ियों की जगह
बैंक चेक,और ड्राफ्ट थे
कान की बालियों की जगह रंगीन चलचित्र थे
और जूड़े में फूल कि जगह
‘फेयर लोशन’ के विज्ञापन झूल रहे थे
मेरी पूरी देह असीमित वस्तुओं की सूची से भरी थी
मुझे अपनी देह विज्ञापन की होर्डिंग लग रही थी
तभी किसी ने मुझसे कहा –
‘अब तुम आदिवासी स्त्री नहीं हो
और यहाँ आकर
तुम्हारा समाज भी अब आदिवासी नहीं रहा’
मैं उस आदमी को नहीं देख सकी
लेकिन सामने केवल एक शब्द
हवा में जड़हीन तैर रहा था – ‘आदिवासी’,

मैंने गौर से खुद को देखा
सचमुच मैं कोंडरेड्डी स्त्री नहीं थी
और मैं जहाँ थी
वह कोंडों की दुनिया नहीं थी
नहीं थे वे पहाड़
जिसके पूर्वज होने के नाते
कोंड ‘पहाड़ों’ के राजा कहलाए
नहीं थीं वे नदियाँ
जिसका जल लेकर कोंड स्त्रियाँ
हल जोतने से पहले
अपने असमय मृत बच्चों का
आह्वान करती थीं
बीज बनकर अवतरित होने के लिए ,

मैं बेचैन हो उठी –
मेरी अस्मिता क्या है
क्या मैं कोंड रेड्डी स्त्री नहीं हूँ
या,वह संभावित स्त्री हूँ
जिसकी हत्या उस चौराहे पर हुई है
उफ़ !!..यह द्वंद्व
मुझे हत्या या आत्महत्या के रास्ते पर ले जाएगा” |

तीसरा ध्यानस्थ देखता है –
“अहा ! क्या सुन्दरता है !
इतने रंगों का गतिमान समायोजन  
इन्द्रधनुष चला आ रहा हो
जैसे उसी की ओर 
आसमान से उतर कर धरती पर !!

उनके माथे पर
रंग बिरंगे पक्षियों के पंख सजे हैं
पंख ही मुकुट हैं उनके
पूरा समूह बढ़ा आ रहा है उसकी ओर

पहचनता है उन्हें वह –
‘रेड इंडियंस अबूझमाड़ में
इन्द्रावती का पानी पी रहे हैं
और उन्हें गोरे सैनिकों ने
इस चेतावनी के साथ घेर लिया है कि
पानी की नीलामी देशहित में हो चुकी है   
अब वे और उनके घोड़े
बिना अनुमति के
बिना कीमत अदायगी के
पानी नहीं पी सकते हैं
ऐसा करना अपराध है’ |

चौथे ध्यानस्थ ने सुने
चेतावनी भरे आज्ञावाचक शब्द –
‘शूद्र’ !’नीच’ !
तुम्हारी यह हिम्मत
कि तुम धर्म की नीतियों का उल्लंघन करोगे ?
हम इस मंदिर के पुजारी हैं
सदियों से वंशानुगत
हमारे पुरखे इसके पुजारी रहे हैं
और तुम कह रहे हो
कि यहाँ पहले तुम्हारा गाँव था .?

उतनी ही अवमानना के साथ
दूसरी ओर से आवाज गूंजी –
‘शूद्र!’
कौन मुझे कहता है ?
मैं भील हूँ , लड़ाकू योद्धा भील,
हमने आज तक किसी की गुलामी नहीं की है
सुनो ब्राह्मण पुजारी !
हम तुम्हारी वर्ण-व्यवस्था से बाहर हैं
देखो, मेरी मजबूत भुजाओं को
इन्हीं भुजाओं ने
तुम्हारे पुरुषोत्तम का उद्धार किया था
हमें कोल कहो, किरात कहो,
लेकिन ‘शूद्र’ ...???
कोई किसे कैसे शूद्र कह सकता है ?
तुम मुझे अपनी साजिश में फंसा नहीं सकते’

अवमानना से
अनगिनत वर्षों की अवैध विरासत
अचानक हिल उठी थी
पुजारी ने कमंडल से पानी निकाल कर
श्राप के शब्दों के साथ उसकी ओर फेंका
और तब सूरज दो टुकड़ों में बंटकर
आग का गोला हो गया
जो हुकनू की आँखों में भी उतर आया
अब तक की बची उसके पुरखों की विरासत
गीतों में तनी धनुष ही थी
वही था उसका प्रत्युत्तर

तब पुजारी ने कलम उठाया
और हुकनू का तीर पिघल कर
उसकी पोथी में समा गया

पुजारी ने मंत्रोच्चार करना शुरू कर दिया
उसके मन्त्र से पैदा होने लगे
हनुमान,बन्दर,रीछ,
गिद्ध,सांप,नाग
दैत्य,दानव सब
और दौड़ पड़े हुकनू की ओर
पुजारी ने ऊँची आवाज में कहा –
यही है तुम्हारा कुल
यही हैं तुम्हारे वंशज-पुरखे
महिषासुर,गयासुर,

हुकनू ने फिर तरकस चढ़ाया
लेकिन इस बार
उसके ही लोग उसकी ओर दौड़ पड़े

हुकनू ने ऊँची आवाज में कहा-
‘हम राक्षस कुल के नहीं हैं
दैत्य-दानव, बंदर,रीछ नहीं हैं
हम मनुष्य हैं
और हमारा सम्मानित इतिहास है ,

उसके दूसरी ओर से
फिर आवाज आई –
‘राम ही सबके पूर्वज हैं
राम के ही सब वंशज हैं
राम नाम ही सत्य है
राम का मान हमारा मान है’

उसी आवाज में हुकनू ने भी कहा –
‘हमारे पूर्वज राम से
पहले के वाशिंदे हैं
और हमारी वंशावली
केवल पैतृक नहीं है’

और तब तक
हुकनू को उसके ही लोग घेर चुके थे
उसने देखा
सब उसके ही भाई हैं
बहन हैं,चचेरे हैं,ममेरे हैं
उनके हाथों में झन्डा है
तलवार है,लाठी है,विस्फोटक है
उनमें केवल शोर है,
इसी के बीच दूर से कहीं
दूसरी मद्धिम आवाज भी सुनाई दी –
‘हम मसीही हैं,हम बौद्ध हैं, हम ....हैं’

हुकनू ने देखा
जहाँ ब्राह्मण पुजारी था
वहां केवल एक दार्शनिक परछाई थी
जो लगातार
विजयी अट्टहास कर रही थी |

पांचवे से ढेचुवा पक्षी ने कहा –
‘मैं गयी थी उन्हें मना करने
कि वे रात-दिन भट्ठा न जलाएँ
चिमनी से इतना ताप न उगलें
बर्फ पिघल रही है
जलस्तर बढ़ रहा है
विनाश होगा
मनुष्य के कृत्यों का फल
निर्दोष सहचरों को भी भोगना होगा

और वे हँसते रहे,मुझे दुत्कारते रहे
कहा –
‘तुम असभ्य,जंगली,
हमें सिखाते हो
क्यों मानें तुम्हारी बात.?
क्या है तुम्हारी औकात ?’
और वे मिसाईल और युद्धक विमान सजाते रहे

वह यूरेनियम जादूगोड़ा का ही था
वही लोग थे,वही जमीन थी
कोई लूल्हा हो गया था
कोई लंगड़ा हो गया था
मनुष्यता ही विकलांग हो रही थी
हमले से पूर्व
मनुष्य ने मनुष्य को तोड़ा था
हिरोशिमा-नागासाकी के बाद
फिर से किसी ने बम फोड़ा था
कहीं ईराक था,कहीं अफगानिस्तान था
कहीं इस्रायल था,कहीं फिलिस्तीन था
कहीं सीरिया था,कहीं कश्मीर था
कहीं चीन था,कहीं तिब्बत था
ब्रह्माण्ड में मनुष्यों का एक ही मानचित्र था
मानचित्र पर एक ही हमलावर था
एक ही बाजार था,एक ही पूंजी थी
वही युद्ध की कुंजी थी,

कुछ पल मौन रही
आँखें उसकी नाम रही
फिर ढेचुवा ने कहा –
‘सोसोबोंगा का नया संस्करण ऐसा ही होगा
लुटकुम हड़म लुटकुम बुढ़िया तुम ही होगी’

कहकर ढेचुवा उड़ गई |

छठे ने देखा –
‘उगता हुआ भोर का सूरज
उसकी आँखों में लोहे की बेड़ियाँ थीं
देह के चारों और सलाखें थीं
और उसके आस-पास मंडरा रहे थे गुप्तचर
वह सूरज पहले एक बच्चा था |

उसने सिर्फ़ इतना ही कहा था -
‘कुतुबमीनार,ताजमहल,खजुराहो के सौन्दर्य की नींव
मेहनत और पसीने के शोषण का प्रतिफलन है,
कवि ! तुम वहां देखो
जहाँ कारीगर की
इतनी अधिक घिसी हुई खुरदुरी हथेली है कि   
वह अपने बच्चों और पत्नी को
अपनी ही कला उपहार में भी नहीं दे सकता,   
जहाँ एक किसान है, मजदूर है
हल की मूठ है,मिट्टी है और मुट्ठी भी |’

उस बच्चे ने बना दिया था
खेल-खेल में मिट्टी की जीवंत मूर्ति  
जिसमें उसकी माँ का सख्त चेहरा था
जो रोज दूसरों के खेत में काम कर लौटती थी
और एक दिन
जब वह हमेशा के लिए नहीं लौटी
तो उसे किसी बुजुर्ग ने
चुपके से सुना दिया था 
उसकी अग्निपरीक्षा की कहानी

तब से माना जाता है कि
रात में उभरने वाली विद्रोही आकृतियाँ
उसी बच्चे की मिट्टी से बनी हैं,

ध्यानस्थ चौंकी –
‘अरे ! यह तो नहीं है
आदिवासी जन
फिर भी है सत्ता से उद्विग्न |’

अंतिम शोधार्थी थी
सुगना मुण्डा की बेटी,
अरे! वह तो
उन छह कथाओं में स्वंय ही शामिल है,
साथ ही उसने देखा यह भी दृश्य
जो उनमें कहीं नहीं था
न ही औरों ने उसे देखा -  
पड़हा सभा में
बैठे हैं
अपने-अपने गोत्र के राजा
और स्त्री-पुरुष सभी जन
बहस गरम है
पक्ष-प्रतिपक्ष अपने-पाने दावे के साथ हैं,

लड़की ने कहा –
‘मुझे अपने माँ-पिता की
संपत्ति का पूरा हिस्सा चाहिए’

अधेड़ पुरुष ने प्रतिपक्ष से कहा –
‘मैंने उसके माँ-पिता की मौत के बाद
इस लड़की का लालन-पालन किया है    
वैसे भी वह जमीन मेरे पिता की है
इसलिए उसे मैं ही जोतूँगा
मेरा हक़ है यह’

उनके गोत्र के राजा ने
अपने अनुभव के पके बालों
को एक बार सहलाकर कहा –
‘यह गलत है जैतू,
मुण्डा बेटी को अपने माँ-पिता की
संपत्ति पर पूरा हक़ है
यह बच्ची जो चाहेगी
पड़हा का फैसला वही होगा
तुम जो बार-बार कागज
लहरा कर अपना दावा जता रहे हो
वह ‘कंपनी तेलेंगा’ लोगों का बनाया हुआ है
उनके लिए बेटियों का मान कुछ भी नहीं था
इसलिए उन्होंने कागज में नहीं लिखा अपनी बेटियों का नाम
जमीन और संपत्ति के हकदार बेटे ही बनाए जाते रहे
मुण्डा अपनी बेटियों का मान रखते हैं
पड़हा उस कागज को नहीं मानती
जिस पर बेटियों का कोई हक़ उद्धृत नहीं है

और तुमने जो कहा कि
कुछ इलाके के मुण्डा ऐसा नहीं करते
तो हम यह भी जानते हैं कि
कुछ मुंडाओं का व्यवहार अब दिकुओं जैसा है
वैसे ही वे अपने रीति-विधान को मोड़ रहे हैं
हमारा पड़हा यह नहीं स्वीकर कर सकता है’

और सभा ने रखा समाज के सामने विकल्प
कि यह बच्ची जब तक नाबालिक है
उसकी देखरेख के लिए
वह स्वंय समाज से किसी का चयन करेगी
या,वह स्वंय सक्षम है तो स्वतंत्र रहेगी,

और जब तक उसकी शादी नहीं हो जाती
तब तक सारी संपत्ति उसकी होगी
उसके विवाह के बाद
सब कुछ समाज में हस्तांतरित हो जायेगा,

और यदि वह अविवाहित रहना चाहती है
तो उम्र भर वह संपत्ति की अधिकारिणी है
मृत्यु उपरान्त सब कुछ समाज में हस्तांतरित हो जायेगा,


सभा के फैसले पर सबकी सहमति हुई
सबने जदुर गाया,जदुर नाचा
जैतू की आँखों में केवल रोष था
आँखे लाल हो रही थी
नाखून पीने हो रहे थे
और दांत नुकीले  
वह बाघ हो रहा था
वह उलट्बग्घा बन रहा था |’

बिरसी ने देखा
संयुक्त सात कथा, सात जीवन
तो क्या वह ‘गोमके’ होगी .?
डोडे वैद्य ने कहा था –
‘सात कथा,सात जीवन का साक्षी
होगा अगुआ,होगी नेत्री ’
  
अपनी-अपनी यात्रा पूरी कर
लौट चुके थे परिक्षार्थी सब  
डोडे वैद्य का
अंतिम विश्लेषण बाकी था अब

              ×××××××××××××××××

परीक्षार्थी परीक्षा पूरी कर चुके थे
शोधार्थी ज्ञान शोध चुके थे
हतप्रभ थे डोडे वैद्य
कि कैसे सातों जन सफल हुए
सात कथा,साथ जीवन
उनके जीवन के अंतिम चरण में फलित हुआ
अब से पहले होते थे दो या तीन जन ही सफल
बाकी लौट आते थे परीक्षा छोड़ कर
कि उनसे सध नहीं सकता इतना कठिन जीवन
डोडे वैद्य की अंगुलियाँ
अपनी सफ़ेद दाढ़ियों को फेर रही थीं
आश्चर्य और अविश्वास था बार-बार,

वे परीक्षकों को देखते
आँखें बंद करते
पुरखों का स्मरण करते
खूट से बतियाते
फिर भी एक दुश्चिंता
उनकी वृद्ध देह को कंपा जाती –
‘सात कथा, सात जीवन का प्रतिफल!
क्या कोई महामारी का संकेत है ?
या,कोई अकाल होगा ?
या,आदमखोर होगा भयावाह और हिंसक ..?
जो भी हो
सात कथा,सात जीवन निर्णायक होगा

अस्मिता का उत्कर्ष होगा
या,उसके पुरातत्व का
आगामी इतिहास परिचायक होगा.’

सात कथा और सात जीवन के साथ
सातों जन डोडे वैद्य के सामने प्रत्यक्ष थे
रोग के कारक और निदान का   
उसने शुरू किया विश्लेषण
कहा –
‘सात कथा,सात जीवन अभिन्न हैं
सूत्र एक-दूसरे के गुंथे हैं आपस में
एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव नहीं है
गुरुत्वकर्षण का केंद्र एक ही है -
श्रम और उत्पादन पर नियंत्रण,
श्रम की सामूहिकता
और सहजीविता के तिरस्कार ने
जन्में हैं महामारी और कुप्रथा
ज्यों-ज्यों बढ़ी है अतिरिक्त की लालसा
बढ़ा है श्रम का शोषण
बढ़े हैं जगत में देवताओं और अवतारों की संख्या
पूंजी ने जन्में हैं फिर से नए अवतार,

तुमने जो कुछ भी देखा
नहीं था वह श्रम और पूंजी से एकांगी,

सुनो, दिकू दुनिया से
अलग रही है  
हमारी सहजीवी व्यवस्था
श्रम के शोषण के नहीं  
उसकी सामूहिकता के कर्णधार रहे हैं हम

नहीं बनाये हमने किले
नहीं बनाया कोई राजमहल
कला को भी हमने जिया है
श्रम में,सामूहिकता में,
कभी नहीं रही है हमारी दुनिया
कलाहीन और शोषण के पंजों से कुरूप
लेकिन हम रहे हैं एक द्वीप की तरह
ज्यों-ज्यों द्वीप में घुसती गई
समुद्र की बेलगाम लहरें
हमारे अन्दर फैलने लगे सत्ता के विषाणु
हमारी अस्मिता और अस्तित्व के जड़
हमारे अंदर से भी कटने लगे
चानर-बानर और उलट्बग्घा
हमारे अंदर से ही बनने लगे ,

फिर कुछ देर लम्बी सांस लेकर
सबको उम्मीद भरी नजरों से देखने के बाद
डोडे वैद्य ने कहा –
‘हम एक द्वीप के अंदर ही रहे
सहजीवी जीवन के लिए  
हमारा ही विस्तार होना चाहिए था
जो नहीं हो सका
अब जो उपचार होगा
रोगों के निदान का
महामारियों से मुक्ति का
उसका रास्ता भी यही होगा
इसी रास्ते है
मनुष्य और उसके सहचरों की दीर्घ मुक्ति
और इसके लिए जोड़ना होगा संबंध
द्वीप के बाहर भी
सहधर्मी संघर्षरत शक्तियों के साथ
सबको होना होगा
जन-संस्कृति का उद्धारक
जनवाद का समर्थक ,

चुप रहे, शांत रहे, मौन रहे   
सुनते रहे, गुनते रहे, धुनते रहे
सात जन, सात कथा, सात जीवन,
हजारों सदियों से संचित चिंता थी
अनुभव भी था, ज्ञान भी था  
डोडे वैद्य ने फिर कहना शुरू किया –

‘दंडकारण्य केवल दंडकारण्य नहीं है
अबूझमाड़ की ध्वनियाँ अबूझ नहीं हैं
वह एक गीत है, रूपक है, दर्शन है
वह डूम्बारी बुरु है,सेरेंगसिया है
वह मानगढ़ है, भूमकाल है
अमेजन है,सारंडा है,

यहाँ जो आदमखोर पहुंचा है
वह जानवर है
जानवर नर है,पुरुष है, पुलिंग है
पितृसत्ता का प्रवक्ता
सेना,पुलिस, व्यवस्था का स्वरूप,

कितनी ही युवतियां थीं
जो शिकार बनाई गईं
उनकी देह की गंध को
अभी महुए में घुलना बाकी था
महुआ के खिलने से पहले ही
उसे पाला मार गया
यहाँ बच्चे,बूढ़े औरत
और सभी सहजीवी तो मारे गये हैं
पितृसत्ता के उस प्रवक्ता के द्वारा,

जमीन चाहिए तो सेना बुलाओ
नदी चाहिए तो सेना बुलाओ
जंगल चाहिए तो सेना बुलाओ
फूल चाहिए तो सेना बुलाओ
जुगनू चाहिए तो सेना बुलाओ
इतना सैन्य संगठित है वह  
कि स्त्री के गुप्तांगों तक में
वह अपनी सत्ता ठोंकता है
इतना चालाक है कि
वह स्त्रीलिंगों का करता है
पुलिंग रूपांतरण
पितृसत्ता का प्रचारक,
सभी सत्ताओं का उद्गम ,

उन पहाड़ी दरख्तों को देखो
जो अब तक भालूओं,
और खरगोशों की ओट से पवित्र था
उन्हें विस्थापित करता हुआ
उसी ओट से
उसे अपवित्र करता हुआ
दाखिल हो चुका है
वह आदमखोर
हमारी सहजीवी दुनिया में

हर गाँव जो
‘वैश्विक ग्राम’ की
संधि-पत्रों से असहमत होगा
वह दंडकारण्य होगा
और जहाँ अरण्य होगा
वहां बाघ का हमला होगा’ ,

फिर सात कथा सात जीवन की साक्षी
सुगना मुंडा की बेटी को
संबोधित कर कहा –
‘बिरसी !
तुम ही होगी
गितिओड़ा: की गोमके
धुमकुड़िया की धांगरिन
तुम्हारे ही कंधों पर होगा
नयी पीढ़ी का उत्सव
नए युग का उद्घोष,

तुम बिरसी हो
सगना मुंडा की बेटी
तुम हो प्रवर्तक,प्रतिनिधि,नेत्री
समता की
सहजीविता की

यहाँ रूपक में हैं मुण्डा
रूपक में हैं सब चेहरे
रूपक में ही तुम खड़ी हो
रूपक में ही हैं तुम्हारे शत्रु
रूपक ही होगा तुम्हारा प्रतिरोध
तुम्हारी आवाज
केवल जल,जंगल,जमीन तक नहीं जाती है
हर बार तुम्हारी आवाज से
उभरा है सहजीविता का रूप
इसी स्वरूप के साथ करना होगा जन-मुक्ति का संघर्ष ,

तुम हो बिरसी !
तुम हो बेटी !
तुम हो गोमके !
तुम हो नेत्री !
तुम हो आदिवासी गणतंत्र की प्रहरिका !
पितृसत्ता के विरुद्ध
मातृसत्ता की मजबूत अवशेष !
सभ्यता की समीक्षक !
सत्ताओं के प्रतिपक्ष की वाहिका !
तुम ही हो
नए सौन्दर्य की आयोजिका !

अब मैं तुम्हें सौंपता हूँ
अपना संपूर्ण अनुभव
संपूर्ण ज्ञान
संपूर्ण संवेदना
यह मैं सौंपता हूँ
‘पुरखा छड़ी’ और
बाघों के नियंत्रण का गीत

तुम्हारे ही नेतृत्व में
होगा अस्मिताओं का उत्कर्ष
तुम्हारे प्रयोगों से ही होगा
साकार जन-मुक्ति का संघर्ष  
जन-संस्कृति होगी
जनवाद होगा
हजारों वर्षों से बाधित
सकल संवाद होगा 

अब तुम्हारा
आह्वान ही बाकी है
नयी पीढ़ी के लिए
नए युग के लिए
उत्सव के लिए
साधना के लिए
संघर्ष क लिए
तुम्हारे ही हाथों विश्व को
रचना होगा मुक्ति-गाथा,”

बिरसी मुड़ी
और राह मुड़ी
सबकुछ सौंप
डोडे वैद्य मुड़े
और मुड़ गया
गुड़ी विद्या का तरीका

अब बाकी था
बिरसी का निर्णायक संबोधन |

                    ××××××××××××
  

बिरसी उठी
और उसके साथ ही उठा
गिति:ओड़ा: का स्वर,

संस्थागत रूप से इतर अवशेष
जो अब
व्यवहार में ही रह गया था
गिति:ओड़ा: का
धूमकुड़िया का
घोटुल का
आदिवासी गणतांत्रिक व्यवस्था का,

साथ ही उठा स्वर नये स्वरूप में
विस्तृत मुक्ति की आकांक्षा के लिए 
बाघों का सामना करने के लिए
बिरसी के सामने  
संघर्ष का जनवादी स्वरूप ही प्रस्तुत था,

अपने साथी सदस्यों की सहमति के साथ ही
नेतृत्वकारी भूमिका में उसने कहा –
‘सात कथा सात जीवन का सार
सात पहाड़,सात समुद्र के पार पहुंचे
सहधर्मी संघर्षशील संग की खोज हो
मदाईत का आयोजन हो
और संघर्ष का सन्देश पहुंचे
नगाड़े के स्वर में
उस आदमखोर की आहट को टोहने के लिए
नृत्य का स्वभाव बदले’

अस्तित्व की स्थापना के लिए
अस्मिता के उत्कर्ष के लिए
जन-मुक्ति के स्वर के साथ  
वह वहीँ खड़ी थी
जो उसके पुरखों की जमीन थी
जो उलगुलान था,हूल था
जनवाद का फूल था
समग्र संबोधन था उसकी चेतना में –
‘यह देश बहुजन का है
यह देश बहुजन का होगा
दलित-पिछड़े,आदिवासी,स्त्री
सब शोषित जन, सब सर्वहारा
अस्तित्व और अस्मिता के साथ
आँख तरेरेंगे आदमखोर को,

एक की आवाज दूसरे तक
दूसरे की तीसरे तक
तीसरे की चौथे तक
इसी तरह आवाज गूँज उठेगी
सात पहाड़ों पर,सभी दिशाओं से
आसमान में गीत होगा –
‘आदिजन, बहुजन हैं हम
सदियों से शोषित जन हैं हम
सब ओर से घिरे हुए सर्वहारा
हर तरह से खरोंचे हुए रक्तिम तारा
जल-जंगल-जमीन रहित
नहीं होंगे शत्रु पराजित

सात कथा, सात जीवन
श्रमिक जन से ही
होगा सकल परिवर्तन
एक गीत, एक तारा,
रक्तिम तारा - सर्वहारा ! सर्वहारा ! सर्वहारा !’

और संग साथियों ने भी
दिया अपनी सहमति का स्वर -
‘ओ आदमखोर !
तुम्हारी सुरक्षा में साँप,बिच्छु,
और घड़ियालों की फ़ौज है
तुम्हारी वासनामयी आँखें दहक रही हैं
तुम्हारी जीभ लार टपका रही है
अपनी पैनी दांत और पंजों के साथ
तुम हमारी ओर बढ़ रहे हो
लेकिन देखो !
हम तुम्हारे सामने निर्भय खड़े हैं ,

तुम्हारे साथ कानूनविद् फेकसियार हैं
बुद्धिजीवी,पत्रकार,साहित्यकार मगर हैं
अफसर और शिक्षक भी – सब उल्लू हैं
(सब रात को ही तांक-झाँक करते हैं )
तुम हम पर कूटनीतिक हमला करोगे
लेकिन छीन नहीं सकते हमसे हमारी चेतना,

ओ ! चारों ओर से
हमें घेरे हुए आदमखोर !
गुप्तचरी में दक्ष
हमारे ही बीच घुसे हुए
कुनुईल,उलट्बग्घा आदमखोर ,
तुम्हारी खरोंच से
खून धरती पर रिस रहा है
और उससे अंकुरित हो रहे हैं रक्तबीज
रक्तपान करने के बाद
तुम कहाँ दुबक गए हो ?

इस भयावह रात में भी
हम पहचान सकेंगे
तुम्हारी पदचाप,तुम्हारे पदचिन्ह,
अब देह नहीं घूमेगी रोगग्रस्त और पीड़ित  
अब कोई साँप काटने से आकस्मिक मौत नहीं मरेगा
अब गोड़ बाथा,मुड़ बाथा
देह बाथा,मन बाथा की प्रताड़ना नहीं होगी
नहीं होगा असमय
हमारी सहजीवी सभ्यता का नाश,’

और उन्होंने पुकारा पुरखों को
अब कुछ भी अधूरा न हो
अधूरा न हो
अस्मिता और अस्तित्व का स्वर
अधूरी न हो जन-संस्कृति
अधूरा न हो जनवाद
लड़ाई अधूरी न हो
जय हो ! जोहार हो ! जोहार हो !

सातों जनों ने
पुरखों को अर्पित किया हँड़िया
संग उनके गीत गाया
और महुए की तरह
उसकी खुशबू फ़ैल गयी जंगल में –
“सुनो रे ,सोना रे
जंगल में युद्ध नाद हो रहा है
सुनो रे, सोना रे
जंगल में बिगुल बज रहा है
रियो,रियो,हय रे
सुनो रे, सोना रे
गीत गाओ,पंख सजाओ”

समग्र संबोधन के साथ
अंतिम बार बिरसी ने कहा –
‘अभी-अभी हमारे गाँव में
बाघ ने हमला बोला है
घाव ताजे हैं
खून लगातार रिस रहा है
खून पीकर आदमखोर
कहीं झाड़ियों में डकार ले रहा है
वह फिर आएगा ,
हमें याद है पुरखों के किस्से
याद हैं उनके गीत
याद हैं उनकी छापामार कलाएं
हम जानते हैं जंगली पगडंडियों का नक्शा
हम जानते हैं
महुए की ‘टप-टप’ और
आदमखोर की आहट का फर्क  
उसके पंजों के निशान यहीं हैं
वह यहीं कहीं है झाड़ियों में डकार लेता हुआ,

जाओ,जाओ हुकनू
जाओ,जाओ जोना
जितनी जाओ
बिधनी जाओ
सब जाओ लांघ कर –
इतिहास की दीवारें
दर्शन की खाई
और सब पहाड़ों को,
पूरब-पश्चिम,उत्तर-दखिन
नगाड़ों का संपूर्ण नाद पहुंचे यहाँ से सब ओर
अनुदित भाषाओँ के अखबारों का भ्रम तोड़ कर
हो सहजीविता का सामूहिक गान,”

और बिरसी की
बाहों के साथ ही खुली
गीतों की बाहें
धनुष का आलिंगन खुला
समूह की भुजाएं वहीँ जुड़ गईं
और वहीँ बन गया अखड़ा –

‘हमारे देश में
हमारी दिशाओं में
बांसुरी की धुन है
मांदल की थाप है,

सुनो रे हे टिरुंग
सुनो रे हे असकल
तलवार चमकाते हुए
मशाल लिए हुए
कहाँ जा रहे हो ?

जदुर के लिए जा रहे हो
करम के लिए जा रहे हो
लड़ने के लिए जा रहे हो
भिड़ने के लिए जा रहे हो
कहाँ जहाँ रहे हो ?

सुनो रे हे टिरुंग
सुनो रे हे असकल
संगी संगोतियों को
न्योता देते जाओ |”
...........................
                                                    
कुछ नोट : 
१.    मुंडाओं की किवंदती के अनुसार कुछ आदमी बाघ बनने की विद्या जानते हैं | उस कला का प्रयोग वे अपने हित में करते हैं | कहा जाता है कि उनकी भूख किसी दूसरे के शिकार से नहीं मिटी या उन्हें कोई शिकार नहीं मिला तो वे अपने स्वजनों को ही शिकार बना लेते हैं | मुंडारी में उन्हें ‘चानर-बानर’ या ‘कुनुईल’ कहते हैं | सादरी में उन्हें ‘उलट्बघा’ कहा जाता है |
२.      मुंडाओं में वैद्य-विद्या सीखने की एक प्रक्रिया है ‘गुड़ी’ | मुख्यतः यह सांप काटने की औषधि के ज्ञान की विद्या है | ‘बंदई’ की अमावस्या की रात में ही इस तरह के वैद्य-विद्याओं की अंतिम परीक्षा होती है | ‘बंदई’ आदिवासियों का त्योहार है इसे अन्य आदिवासी समुदाय इसे ‘सोहराई’ भी कहते हैं | मुंडा में ‘बंदई’ कहा जाता है | साथ ही मुंडाओं की किवंदती है कि बंदई के दिन ही आमानवीय शक्तियां भी साधना करती हैं | 
३.    ‘अहद् सिंग’ एक प्रकार की जड़ी है| मुंडाओं की मान्यता है कि इसे लांघने के बाद मनुष्य रास्ता भूल कर एक दूसरी दुनिया में पहुँच जाता है |
४.     गिति:ओड़ा:, (मुंडा समाज की) धुमकुड़िया (उराँव), घोटुल (मुड़िया), आदिवासी समाज की संस्थाएं रही हैं जहाँ युवक-युवतियां समाज के लिए उत्तरदायी बनते हैं |
५.     जदुर,करम,खेमटा ,छऊ आदिवासी नृत्य की शैलियाँ हैं | इन शैलियों में गीत भी होते हैं |पाडू भी गीत की एक शैली ही है |
६.      कंपनी तेलेंगा = ब्रिटिश कंपनी के सिपाही / अंग्रेज सिपाही
७.      देंवड़ा = पूजा
८.      दिकू = शोषणकारी बाहरी लोग