12 सितंबर 2018

विश्वविद्यालयों में हिंदी शिक्षण और शोध

विश्वविद्यालयों से ऐसे मनुष्य तैयार हों जो 

अपने परिवेश और अपनी अस्मिता के प्रति 

जाग्रत हों

                                    
                                    विनोद तिवारी

      सबसे पहले तो वागर्थ और भारतीय भाषा परिषद को बधाई कि वह आज के कई जरूरी सवालों और मुद्दों पर लगातार ऐसी परिचर्चाओं का आयोजन कर रहा है जिन पर बहुत संजीदगी के साथ सोचने-विचारने की आज जरूरत है । आज उच्च-शिक्षण को लेकर नए सिरे से यह बहस शुरू हो चुकी है कि उच्च-शिक्षण का जो आधारभूत सांस्थानिक ढांचा अब तक चला आ रहा था वह अब पुराना पड़ चुका है, उसमें न केवल व्यापक सुधार और बदलाव की जरूरत है बल्कि उसे खत्म कर देना ही उचित है । सरकार 1951 के यूजीसी एक्ट के तहत गठित उच्च-शिक्षण की नियामक संस्था विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को खत्म कर उसकी जगह पर एक नयी नियामक संस्था उच्च शिक्षा आयोग, भारत (HECI : Higher Education Commission of India) को लाने की तैयारी कर चुकी है । ऐसे में इस परिचर्चा का एक ऐतिहासिक महत्व है । विश्वविद्यालयों में हिन्दी-शिक्षण ही नहीं पूरी विश्वविद्यालयी संरचना और सांस्थानिक रूप में उसके वर्तमान स्वरूप और भविष्य चिंताओं और संभावनाओं को लेकर बात होनी चाहिए । उस पर अलग-अलग मंचों से बात हो भी रही है । पर, यहाँ विश्वविद्यालय में हिन्दी-शिक्षण को परिचर्चा के लिए लिया गया है इसलिए अपनी बात इसी पर केन्द्रित की जाय ।
      आज जब हम विश्वविद्यालयों या महाविद्यालयों में हिन्दी विषय के शिक्षण की बात सोचते हैं तो सबसे पहला सवाल यही सामने आता है कि हिंदी पढ़ने-पढ़ाने कि कोई उपयोगिता अभी भी बची है ? क्यों हिंदी से लोग बीए एमए या शोध करना चाहते हैं ? क्या वह सचमुच भाषा और साहित्य की अपनी रुचि या पसंद के लिए ऐसा करते हैं जैसा कि अधिकांश विदेशी विश्वविद्यालयों में लोग करते हैं या फिर डिग्री लेकर रोजगार के लिए उस कतार में खड़े हो जाने के लिए हिंदी पढ़ने आते हैं जहां पहले से ही एक लंबी कतार है । हम लोगों का अपना अनुभव भी और अब जितना देखा-समझा है उस अनुभव के आधार पर सचाई यही है कि भाषा और साहित्य के प्रति लगाव और पसंद के चलते हिंदी पढ़ने लोग नहीं आते । इसलिए उद्देश्य और उपयोगिता दोनों ही दृष्टियों से स्पष्ट है कि डिग्री और रोजगार की कामना लेकर ही लोग हिंदी पढ़ने आते हैं, जबकि सचाई यह यह है कि यहाँ अध्यापन, अनुवाद, पत्रकारिता और सिनेमा की बहुत सीमित संभावना में ही रोजगार के दरवाजे खुले हैं इनमें भी एक कठिन प्रतिस्पर्द्धा है । यह बात बहुत हताश करने वाली है पर मैं रोजगार की दृष्टि से हिंदी के उस तथाकथित लहलाहते डायस्पोरा और वैश्विक उन्नति वाले सुनहरे दिनों के सपने के प्रति से आश्वस्त नहीं हो पाता हो पता तो सचमुच मुझे बहुत खुशी होती । इसलिए, हिंदी पढ़ने की उपयोगिता को अगर केवल रोजगार से जोड़कर ही देखा जाएगा तो फिर तो परिदृश्य बहुत आश्वस्ति दायक नहीं है । इसी वर्ष जुलाई में यू. जी. सी. ने नेट और जेआरएफ के लिए 55000 अभ्यर्थियों को उत्तेर्ण किया है । जिसमें से 5  प्रतिशत, लगभग 3000 के आस-पास हिन्दी के ही लोग होंगे जिन्हें सहायक प्रोफेसर बनने के योग्य अर्हता मिल गयी है । पर हम सब जानते हैं कि इस प्रमाण-पत्र का व्यावहारिक धरातल पर क्या मूल्य है । इसलिए सवाल उठता है कि क्या यह पूरी परीक्षा और प्रमाण-पत्र बांटने की प्रक्रिया ही लचर हो गयी है, क्या इसकी विश्वसनीयता ही समाप्त हो गयी है ? फिर इस इस परीक्षा क अर्थ क्या है ? क्या सचमुच यूजीसी के पास ऐसा प्रबंधन ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिसके तहत पूरे देश में उपलब्ध खाली पड़ी रिक्तियों के सापेक्ष और उसी अनुपात में नेट के प्रमाणपत्र जारी करे ? अपनी ही परीक्षा प्रणाली और उसके तहत दिए जाने वाली अर्हता में विश्वसनीयता हासिल करे ? अगर यह नहीं है तो हर छमाही 3 हज़ार सहायक प्रोफेसर बनने की अर्हता रखते हुए भी बेरोजगार भटकने के लिए विवश होंगे । इसलिए, सीमित रोजगार की संभावना के साथ साहित्य पढ़ने के प्रति रुचि और पसंद को प्रोत्साहित करने और उसके लिए न केवल विश्वविद्यालयों के स्तर पर वरन सामाजिक स्तर पर भी सार्थक वातावरण बनाने की ओर भी सोचना चाहिए और यह पूरी तरह से अध्ययन-अध्यापन की प्रक्रिया, व्यवस्था और उसकी विश्वसनीयता से जुड़ा मसला है । हिंदी के पठन-पाठन और शोध को लेकर आज जो विश्वसनीयता का दायरा कम हुआ है उसकी ज़िम्मेदारी किसी एक की नहीं है बल्कि अध्यापक, विद्यार्थी, शोधार्थी और विश्वविद्यालयी व्यवस्था सबकी है ।
      आज यह आम धारणा है कि अब न पढ़ाने वाले वैसे रहे न पढ़ने वाले । दोनों में; बड़े पैमाने पर एक  नैतिक गिरावट आयी है । अध्यापक की निष्ठा और विद्यार्थी की गंभीरता दोनों में क्षरण हुआ है । विश्वविद्यालयों में आज जो माहौल है, उनकी पूरी कार्यसंकृति में आए जो बदलाव हैं, सांस्थानिक रूप से जिस तरह से विश्वविद्यालय नामक संस्था और परिसर को लेकर तरह-तरह की बहसें शुरू हुई हैं, उन सबके परिप्रेक्ष्य में पाठ्यक्रम, अध्ययन, अध्यापन, शोध और शिक्षक-शिक्षार्थी या शोधार्थी के पारस्परिक संबंध पर विस्तार से बात करने की जरूरत है । अध्यापक एक सापेक्ष शब्द है । अध्ययन करने वाला ही अध्यापक ठहरेगा । बिना अध्ययन के अध्यापक कैसा । अध्यापन व्यवसाय होते हुए भी अध्यवसाय है और इसी कारण वह दूसरे व्यसायों से अलग है । इसलिए जो वास्तविकता में अध्यापन कार्य से जुड़ा है, अध्यापक है तो अध्यापन कार्य उसका जीवन-धर्म है । काशी के प्रकांड संकृत के आचार्य और व्याकरण के पंडित रामप्रसाद त्रिपाठी के बारे में काशी में यह प्रसिद्ध है कि उनकी आँखों का आपरेशन हुआ । वे बहुत परेशान और बेचैन थे । कुछ लोग मिलने गए और उनकी इस परेशानी का कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि मुझे कष्ट आँखों के कारण नहीं है कष्ट इस बात का है कि मैं कुछ दिनों तक पढ़ा नहीं पाऊँगा । पर दुर्भाग्य से आज यह आदर्श बिला गया है । इसलिए पहले तो पढ़ाने की रुचि और निष्ठा खुद में होनी चाहिए तब विद्यार्थियों से इसकी अपेक्षा की जाय । शिक्षक नामक संस्था की, तमाम गिरावटों के बावजूद अभी भी एक छवि है । पढ़ाने का हासिल लक्ष्य होना चाहिए कि आप अपने विद्यार्थियों में एक आलोचनात्मक-चेतना कैसे पैदा कर पा रहे हैं । इसलिए मेरे हिसाब से असल चीज है क्षमता, रुचि और सबसे बढ़कर आलोचनात्मक बोध पैदा करना । एक शिक्षक पढ़ाए, तैयार करे और विद्यार्थी को यह सिखाए कि नदी पार कैसे की जाएगी । उसके बाद वह हट जाए । विद्यार्थी को स्वयं तैरने और पार उतरने के लिए छोड़ दे । हर गुरु की यह कामना होती है कि उसका शिष्य उससे आगे जाए, उनके ज्ञान और अधिगम का दायरा और अधिक व्यापक हो । गुरु की इच्छा होती है कि उसकी दी गयी शिक्षा और भी अधिक समृद्धशाली हो, शिष्य उसका भी अतिक्रमण कर जाए । एक सहृदय और आदर्श गुरु की इच्छा होती है कि उसका शिष्य उसे भी पराजित करे – सर्वत्र विजयमिचछेत् शिष्यात् इच्छेत परजायम् । संस्कृत के प्रकांड विद्वान और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति रहे पं. सर गंगनाथ झा से एक बार उनके किसी प्रिय शिष्य ने आग्रह के साथ कहा की आपको मैं गुरु दक्षिणा देने का अभिलाषी हूँ । गंगनाथ झा ने कहा सोच लो क्योंकि मेरी गुरु दक्षिणा कठिन है । शिष्य ने भी कहा आप मान कर तो देखिए । उन्होंने गुरु दक्षिणा के रूप में जो माँगा वह वह एक शिक्षक और अध्येता के लिए अत्यंत ही महत्वपूर्ण है । गंगनाथ झा ने कहा, तुम इस अहमन्यता में कभी मत आना कि तुम सब जानते हो । इसलिए जब पढ़ाने जाओ तो यह भाव लेकर जाओ कि मैं सबकुछ नहीं जानता । खींचतान कर अर्थ कभी न करो । जिसके बारे में तुम्हें खुद संदेह हो उसको पूर्णविश्वास  के साथ अतर्कसंगत ढंग से मत समझाओ । जितना मैं जानता हूँ, जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ उसके हिसाब से यह तर्कसंगत लगता है,  इस तरह से नए प्रश्न, नए विचार को विधार्थियों के बीच रखना चाहिए । फिर उस बारे में खुद अधिक से अधिक जानकारी एकत्र कर अगली कक्षा में विद्यार्थियों को उससे समृद्ध करना चाहिए । यही मेरी गुरु दक्षिणा है ।
      अध्ययन-अध्यापन समृद्धतर होते चले जाने की एक अनवरत यात्रा है । यह सच है कि अध्ययन का कोई काल नहीं होता । हम जीवन पर पढ़ते-सीखते हैं । एक अध्यापक के लिए तो यह और अनिवार्य है । यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अध्ययन सिर्फ गुरु से और शास्त्र से कक्षा में ही नहीं होता । अध्ययन या सीखना ऐसे लोगों से भी होता है जिनके पास कोई शास्त्र नहीं होता पर वे सुजान होते हैं, लोक और समाज की अनुभवात्मक जानकारी उनके पास होती है, जो सांसरिक जीवन से स्वतः प्रमाणित होती है । लेकिन, दुर्भाग्य से हम इस तरह के ज्ञान से धीरे-धीरे अपने को अलग कर लेते हैं । कारण कि हमारा वर्ग बदल गया है, हम विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं, भला एक चाय वाला एक पान वाला, एक धोबी, एक लकड़हारा हमें क्या ज्ञान देगा । अब तो सुना है कि कुछ विश्वविद्यालय अपने शिक्षकों से घोषित करके यह अपेक्षा रखते हैं कि उनके अध्यापक उन सार्वजनिक जगहों पर न उठें-बैठें, चाय आदि न पीने जाएँ जहाँ समान्य जन उठते-बैठते हों । पिछले दिनों, नवागंतुक अध्यापकों के साथ बैठक में इस तरह की अध्यापकीय नैतिकता की मांग की पूरब के आक्सफोर्ड कहे जाने वाले केंद्रीय विश्वविद्यालय के विद्वान कुलसचिव ने कुलपति की मौजूदगी में अध्यापकों से की । ऐसे अध्यापक और येन-केन कारणों से कुलसचिव, कुलपति आदि बन जाने वाले लोग भारतीय परंपरा, संस्कृति, नैतिकता आदि कि बहुत बातें करते हैं जबकि वास्तव में उनको भारतीय परंपरा और संस्कृति का ज्ञान नहीं होता । ऐसे गुरुओं को, गुरुओं के गुरु; आदि गुरु दत्तात्रेय की कहानी जरूर पढानी-सुनानी चाहिए, जिन्होंने आतंत ही सरल हृदय से यह गिनाया है कि मेरे 24 गुरु हैं और हर गुरु से कुछ न कुछ मैंने जरूर सीखा है ।
      भारतीय परंपरा और संस्कृति में तो विश्वविदायलय एक खुला परिसर होते थे जहाँ हर तरह के लोग आ जा सकते थे । सीखने-समझने का आदान-प्रदान निर्बाध होता था । पर दुर्भाग्य से, राजनीतिक कारणों से आज यह वातवरण ही धीरे-धीरे ख़त्म कर दिया गया । हम पाश्चात्य संस्कृति के प्रभावों दुष्प्रभावों की खूब बात करते हैं पर भूल जाते हैं कि अमरीकी विश्वविदयालयों में वैसे भी बुद्धिजीवियों को पूरी आजादी है जो अपने सोच-विचार और अपनी मान्यता और अपनी कटु आलोचना के लिए जाने-पहचाने जाते हैं, नाम लेना जरूरी ही हो तो एडवर्ड सईद और नॉम चामस्की के नाम लिए जा सकते हैं । मुझे एमरे सल्यूसिज्की द्वारा एडवर्ड सईद का एक साक्षात्कार याद आ रहा है, रामकिर्ती शुक्ल द्वारा हिंदी में अनूदित इस साक्षत्कार में एमरे ने इस साक्षत्कार में खुल कर दो तीन सवाल ऐसे किए हैं जिनसे अमरीकी विश्वविद्यालयों की सांस्थानिक प्रकृति को समझ जा सकता है । एमरे पूछते हैं कि, क्या किसी विश्वविद्यालय के लिए यह संभव है कि वह बुद्धिजीवियों का संस्थानीकरण न करे ? इस पर एडवर्ड सईद का जवाब बिलकुल साफ है और वे कहते हैं कि अमरीकी विश्वविद्यालयों का इस कोई जवाब नहीं है । मेरे और नॉम चामस्की जैसे तमाम लोग विश्वविद्यालयों में मौजूद हैं । फिर इमरे एक तल्ख सवाल दागते हैं, बिना समझौते किए ? सईद का जवाब है, मैं तो नहीं समझता कि हम लोगों ने समझौता किया, मेरा मतलब है कि हमने जानबूझकर कोई समझौता नहीं किया बाकी कोई विश्वविद्यालय सी. आई. ए. के पैसों से चलता है इसकी पड़ताल करना हमारा काम नहीं हैं । अगर, ये विश्वविद्यालय न होते तो वे सारे लोग कहाँ से आते जिन-जिन से मेरा और चामस्की का संवाद चलता रहता है ।
      मुझे याद है, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के निदेशक रहते हुए शम्भुनाथ जी ने आज से 10 साल पहले हिंदी शिक्षण को लेकर एक तीन दिनों का अखिल भारतीय सम्मेलन आगरा में किया था । इस सम्मेलन के उदघाटन भाषण में नामवर जी ने साहित्य शिक्षण की बात करते हुए बड़े ही अमर्ष के साथ एक बात कही थी कि अगर विद्यार्थी हमारी कक्षा में मात्र उपस्थिती के लिए बैठे हैं तो लानत है हमको अध्यापक होने और अध्यापक बनने पर । अपनी इस बात को और स्पष्ट करते हुए नामवर जी ने दु:ख व्यक्त करते हुए यह कहा था कि साहित्य का शिक्षण रुचि और संलग्नता पैदा करने के लिए भी होता है पर दुर्भाग्य से कविता को कविता की तरह, कहानी को कहानी की तरह, उपन्यास को उपन्यास की तरह, नाटक को नाटक की तरह पढ़ने-पढ़ाने की विधि समाप्त होती जा रही है । विमर्शों का इतना घटाटोप है कि जो पाठ नहीं भी किसी विमर्श में आता उसे भी किसी विमर्श में रेड्यूस कर दिए का फैशन इधर अधिक विकसित हुआ है । अगर नामवर जी की इस चिंता पर गौर किया जाय तो यही हाल शोध-विषयों का भी है । विमर्श से लदे हुए शोध विषय, जबकि इन विमर्शों के मूल उद्गम और स्रोत भाषा की कोई बुनियादी समझ तक शोधार्थी के पास नहीं है । इसलिए हिंदी के शोधार्थी को हिंदी के अलावा अँग्रेजी और किसी एक अन्य भारतीय भाषा में पढ़ने समझने के ज्ञान को प्रवेश की अनिवार्य जरूरत बनाना चाहिए । शोध-प्रवेश प्रक्रिया को कठिन न भी बनाया जाय तो भी उसे इस तरह तैयार किया जाय कि जिसकी रुचि और चेतना शोध में प्रवृत्त होने की हो उन्हें ही प्रवेश मिल सके । शोध को अध्यापक की नियुक्ति की अर्हता से जोड़कर न देखा  जाय साथ ही शोध-निर्देशकों की प्रोन्नति के लिए मिलने वाले प्राप्तांक से भी इसका रिश्ता नहीं होना चाहिए । शोध करना-कराना अध्यापक के अपनी पढ़त-लिखत और विशेषज्ञता की परियोजना का हिस्सा होना चाहिए । हर अध्यापक को अपनी विशेषज्ञता और अध्ययन के क्षेत्र से प्रत्येक सत्र में पाँच शोध-विषयों को तैयार कर विभाग को देना चाहिए । इस अतरह से अगर एक विभाग में 20 अध्यापक हैं तो 100 टॉपिक्स हो गए । हिंदी में किए जा रहे शोध-विषयों पर एक नज़र दौड़ाई जाय तो अधिकांश शोध-विषय अपने शीर्षक में अमुक की कवीता का समाजशास्त्रीय अध्ययन, फलाँ के उपन्यास का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण’, अमुक की आत्मकथा में स्त्री विमर्श आदि-इत्यादि । सवाल ऐसे विषयों की समस्या से नहीं है, पर एक काम यह किया जा सकता है की शोध-प्रबंध का एक मूल्यांकन कर्ता हिंदी से इतर उन अनुशासनों से रखा जाय, जिनका संबंध ऐसे विषयों से है । एक बहुत जरूरी सर्वेक्षण यह भी होना चाहिए कि हिंदी का जो प्रोफेसर या एसोसिएट प्रोफेसर या असिस्टेंट प्रोफेसर होता है, और जिनकी संख्या बहुत अधिक है, वह हर एक साल पुस्तकों और पत्रिकाओं पर कितना पैसा खर्च करता है । इसे भी ध्यान में रखते हुए कि इन पुस्तकों और पत्रिकाओं में साहित्य के साथ-साथ इतिहास, समाजविज्ञान या अन्य अनुशासनों की पुस्तकें और पत्रिकाएँ कितनी हैं ? परिणाम की दृष्टि से यह सर्वेक्षण बहुत ही निराशाजनक होगा । क्योंकि हालत सचमुच बहुत दयनीय है । अगर हम अपने घिस चुके सूचना, तकनीकी और ज्ञान को तरह-तरह के नए ज्ञाननुशासनों और जानकारियों से अधुनातन नहीं बनाने की कोशिश करते हैं तो फिर तो शिक्षण में न कोई बदलाव होगा और न ही गुणवत्ता की दृष्टि से शोध में ही । 
      शोध की गुणवत्ता के लिए राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक कार्य-योजना की जरूरत है । यह सरकार और शिक्षक-विद्यार्थी दोनों ओर से होना चाहिए । मुझे याद है महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय द्वारा शोध-समवाय नाम से अखिल भारतीय स्तर पर एक वार्षिक आयोजन की शुरुआत हुयी थी, जिसमें देश भर से हिंदी के शोधार्थी एक मंच पर एकत्र होते थे । पर, एक दो आयोजनों के बाद वह बंद हो गया । इस तरह के प्रयास देश भर के विश्वविद्यालय, शिक्षक और शोधार्थी मिलमिलकर कर सकते हैं । इतिहास, समाज विज्ञान में इस तरह के मंच मौजूद हैं । इधर प्लैगेरिज़्म की समस्या को लेकर सरकार ने कुछ नियम और निर्देश जारी किए हैं, उसकी इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए । पर, प्लैगेरिज़्म ही मूलभूत समस्या नहीं है । मूलभूत समस्या शोध की दृष्टि से संसाधनों की कमी है । सरकार को इस ओर सोचना चाहिए । तकनीकी दृष्टि से हिंदी के पिछड़ेपन की बात बहुत होती है पर तकनीकी विकास की दृष्टि से हिंदी को समृद्ध करने की दिशा में कोई ठोस कदम अब तक नहीं उठाया गया है । हिंदी में शिक्षण और शोध की दिशा में एक और जरूरी काम जो सरकार की मदद से हो सकता है वह है हिंदी का व्यापक डाटाबेस तैयार किया जाना । यथासंभव प्रामाणिक हिंदी की प्राचीन पाण्डुलिपियों, पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, भाषणों, सेमिनारों आदि का डिजिटाइजेशन जरूरी है । हिंदी की कई पुरानी संस्थाएं और पुराने पुस्तकालय नष्ट होने के कगार पर हैं उनको संरक्षित-सुरक्षित करने का एक ही तारीका है कि अत्याधुनिक तकनीकी की मदद से उनका डिजिटाइजेशन किया जाए । अगर ये संदर्भ स्रोत नष्ट हो गए तो शोध कहाँ से किन स्रोतों से होगा । फिर तो शोध से शोध लिखे जाने की जिस समस्या से हम आज ग्रस्त हैं वह और विकराल हो जाएगा ।
      अब अगर पाठ्यक्रम पर बात की जाय तो उसमें बदलाव और नवता की बहुत जरूरत है पर उसके पहले हमें यह स्पष्ट करना होगा कि इस बदलाव के पीछे हमारा लक्ष्य क्या है ? प्रायः मानविकी विषयों, जिनमें से हिंदी भी एक है के बारे में यह चर्चा चलती ही रहती है कि इन्हें रोजगार परक बनाना चाहिए, बाजार से जोड़ना चाहिए । पर, क्या सचमुच मानविकी के विषय, विज्ञान, इंजीनियरिंग, प्रबंधन या इनकी तरह के अन्य रोजगार परक बाज़ार के विषय हो सकते हैं ? मेरी समझ से नहीं । इसलिए पहले सबसे जरूरी है कि मानविकी के विषयों के पढ़ने-पढ़ाने का लक्ष्य क्या है, क्या होना चाहिए इस पर बहस चलनी चाहिए । क्योंकि, लक्ष्य को ध्यान में रखकर ही पाठ्यक्रम बनाए जाते हैं । अगर लक्ष्य स्पष्ट नहीं है तो पाठ्यक्रम किसी प्रभावी भूमिका में कोई परिवर्तनकारी हस्तक्षेप नहीं कर सकते । एक समय में बने प्रयोजन मूलक हिंदी के पाठ्यक्रमों का आज जो हश्र हुआ वह हमारे सामने है । इसलिए लक्ष्य पहले तय हो कि आज हम मानविकी के विषयों से किस तरह की अपेक्षा रखते हैं ? मानविकी के पाठ्यक्रम कभी भी किसी पैकेज की गारंटी नहीं हो सकते क्योंकि उनका लक्ष्य ही भिन्न है । पर, दुर्भाग्य से अब हर चीज का निदेशक और नियंता बाज़ार है । हमने यह मान लिया है कि अगर बाज़ार में हिंदी नहीं बिकेगी तो फिर उसका मूल्य ही क्या है । 
      एक और बात जो छूट जा रही, उसको भी लेना चाहिए । प्रायः यह बात उठती रही है कि हिंदी का भला केवल साहित्य पढ़ने-पढ़ाने से न होगा । बल्कि हिंदी को विचार और ज्ञान-विज्ञान की, इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान, दर्शन आदि की भाषा बनाना चाहिए तभी वह प्रगति कर सकती है । पर, दुर्भाग्य से हिंदी प्रदेशों में पले-बढ़े और हिंदी जानने समझने वाले अँग्रेजी पद्धति में पढे लिखे लोग तो हिंदी में लिखना अपनी हेठी समझते ही हैं हिंदी में भी कुछ लोग आपको मिल जाएंगे जो अपनी लटके-झटके वाली अँग्रेजी के सहारे अँग्रेजी में लिखना अधिक पसंद करते हैं और हिंदी को उसी वर्नाकुलर औपनिवेशिक मानसिकता से तुच्छ कहकर तिरष्कृत करते रहते हैं ।
      अतः अब लगता है कि हिंदी-शिक्षण और शोध का एक इतिहास-चक्र पूरा हो चुका है । अब इसमें बुनियादी रूप से बड़े व्यापक बदलाव और नएपन की जरूरत है । पाठ्यक्रम, प्रवेश-प्रक्रिया,  शिक्षण-पद्धति, शोध पंजीकरण, शोध-विषय, शोध-प्रक्रिया व संसाधन सब पर नए सिरे से सोचने-विचारने का वक्त आ गया है ।

      संपर्क : सी-4/604, ऑलिव काउंटी, सेक्टर-5, वसुंधरा, गाज़ियाबाद – 201012