21 मार्च 2016

मंतव्य - 5

अखान-बखान



विनोद तिवारी
 
[पिछले अंक से हमने ‘अखान-बखान’ नाम से एक स्तम्भ शुरू किया है | इस स्तम्भ के अंतर्गत आलोचक-संपादक विनोद तिवारी ‘मंतव्य’ के पाठकों के लिए हर अंक में भारतीय भाषाओं में प्रकाशित और हिंदी या अंग्रेजी में उपलब्ध किसी एक उपन्यास का आलोचनात्मक विश्लेषण करते हैं | शुरुआत, प्रख्यात कथाकार भालचंद्र नेमाडे के बहुचर्चित और बहसतलब उपन्यास ‘हिंदू : जीने का समृद्ध कबाड़’ से हुयी थी | इस बार, प्रस्तुत है तमिल कवि और कथाकार पेरुमल मुरुगन के चर्चित और विवादित उपन्यास ‘माधोरुबागन’ के अंग्रेजी अनुवाद -‘One Part Woman’ (अनु. अनिरुद्धन वासुदेवन) का विवेचन-विश्लेषण | ] - सं.

 “Author Perumal Murugan has died. He is no god, so he is not going to resurrect himself. Nor does he believe in reincarnation. From now on, Perumal Murugan will survive merely as a teacher he has been.”

(एक लेखक के रूप में पेरुमल मुरुगन मर गया । वह कोई भगवान नहीं जो मरे हुए को पुनर्जीवित करने जा रहा हो | वैसे भी वह पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता  । अब से, पेरुमल मुरुगन केवल एक शिक्षक के रूप में जिंदा बच जाएगा) |  

तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन ने 13 जनवरी, 2015 को अपने फेसबुक स्टेटस पर उक्त घोषणा की | सवाल यह है कि एक लेखक को खुद के द्वारा ही अपने लेखक की हत्या करने के पीछे कोई मजबूरी थी, किसी तरह की कोई विवशता थी या भय और आतंक जनित कोई दबाव था ? बात जब पूरे देश को मालूम हुई तो पता चला कि  हिंदूवादी संगठन ‘हिंदू मक्कल काचि’ के नेतृत्व में अन्य हिंदूवादी संगठनों ने तिरुचेनगोड, नामक्कल (तमिलनाडु) में उनके उपन्यास ‘माधोरुबागन’ को हिंदू धर्म की निंदा करने, हिंदू संस्कृति को प्रदूषित करने, उसका मजाक उड़ाने और अपमानित करने वाला उपन्यास घोषित किया | आरोप यह है कि, यह उपन्यास मंदिरों की पूजा-विधि और प्रसिद्धि की अवमानना करता है | यह उपन्यास हिंदू स्त्री की उस शास्त्रीय परम्परागत छवि को दूषित करता है जिसमें वह देवी की तरह पूजी जाती है | इस उपन्यास को तुरंत सभी जगहों से वापस लेने के लिए उक्त संगठनों द्वारा हिंसक विरोध शुरू किया गया | मुरुगन और उनके परिवार को तरह-तरह से धमकियाँ मिलने लगीं | अंततः पेरुमल मुरुगन को यह मर्माहत निर्णय लेना पड़ा | हिंदूवादी संगठनों द्वारा विरोध का यह सिलसिला नया नहीं है | पहले वेंडी डोनियर फिर ए. के. रामानुजन और अब मुरुगन |
पेरुमल मुरुगन तमिलनाडु के उस इलाके से आते हैं जिसे ‘कोंडुनाडु’ कहा जाता है | ‘कोंडुनाडु’ कावेरी नदी के किनारे बसे जिलों से मिलकर बना तमिलनाडु का पश्चिमी तटीय क्षेत्र है | इसमें – नामक्कल, कोयम्बतूर, थिरुप्पुर, नीलगिरी, इरोड, करूर, सलेम, धरमपुरी और कृष्णागिरी जिले शामिल हैं | मुरुगन का जन्म नामक्कल जिले में तिरुचेनगोड के पास के गाँव में एक सीमान्त किसान के घर में हुआ | नामक्कल के ही राजकीय महाविद्यालय में वे तमिल साहित्य के अध्यापन का काम करते हैं | जिस ‘गौंडर’ समुदाय से मुरुगन का रिश्ता है वह  ‘कोंडुनाडु’ का सबसे बड़ा खेती-किसानी वाला जातीय समुदाय है | यह समुदाय शैव-सम्प्रदाय में आस्था रखने वाला समुदाय है | जिस तरह से हर राज्य में किसी न किसी शहर की ख्याति मंदिरों के शहर के नाम से होती है, जैसे काशी की प्रसिद्धि, जैसे हिमाचल प्रदेश के एक छोटे से शहर मंडी की प्रसिद्धि उसी तरह तिरुचेनगोड की प्रसिद्धि मंदिरों के शहर के रूप में है | इसी शहर में मुरुगन के पिता एक सिनेमा हाल के सामने सोडा की दूकान चलाते हैं | मुरुगन ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा इसी शहर से प्राप्त की | फिर आगे की पढ़ाई इरोड और कोयम्बतूर से किया | 1988 में वे मद्रास विश्वविद्यालय आ गए जहाँ से उन्होंने तमिल साहित्य में एम.फिल. और पी-एच. डी. की | यहीं पर मुरुगन का संपर्क भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (एम.एल.)  से टूट कर अलग हुए एक स्थानीय समूह ‘मक्कल कलचरा कझगम’ से हुआ जिसके नेता लेखक और पत्रकार पा. जयप्रकाशम थे | मुरुगन ने बहुत कम उम्र में ही लिखना शुरू कर दिया था | जब वे 14-15 वर्ष के थे तभी उन्होंने बच्चों के लिए गीत और कविताएँ लिखीं | इनमें से अधिकांश का प्रसारण आल इंडिया रेडियो, त्रिची से हुआ है | एक लेखक के रूप में मुरुगन की प्रसिद्धि मद्रास विश्वविद्यालय के दौर में होने लगी थी | आज वे तमिल में खूब पढ़े जाने और पसंद किये जाने वाले लेखक के रूप में ख्यात हैं | अब तक, उनके छः उपन्यास, चार कहानी संग्रह और चार काव्य संग्रह प्रकाशित हैं | उनके चार उपन्यासों – ‘येरु वेय्यिल (1991), ‘निझाल मुत्रम’ (1993), ‘कूलामदारी’ (2000) और ‘माधोरुबागन’ (2010) का क्रमशः ‘राइजिंग हीट’, ‘करेंट शो’, ‘सीजन ऑफ़ दि पाम’ और ‘वन पार्ट वोमेन’ के नाम से अंग्रेजी अनुवाद हो चुका है |
‘माधोरुबागन’ (One Part Women) का तमिल में प्रकाशन ईस्वी सन् 2010 में हुआ | तब इस उपन्यास में ऐसा कुछ भी नहीं पाया गया कि इसका विरोध किया जाय | फिर अचानक इस उपन्यास को लेकर विरोध क्यों शुरू हुआ ? क्या इसे अभिव्यक्ति की आजादी और सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता की देशव्यापी बहस से अलग करके देखा जा सकता है ?  जो उपन्यास पाँच साल पहले छप कर आ गया था, खूब पढ़ा भी गया फिर इसके अंग्रेजी में अनुदित होकर आने और केंद्र में भा.ज.पा. की सरकार बनने के बाद अचानक यह उपन्यास हिंदू धर्म, परम्परा और संस्कृति का निंदक कैसे हो गया ? या जानबूझकर इसे टारगेट किया गया | हमें जानना चाहिए कि, यह उपन्यास क्या सचमुच में हिंदू धर्म, परम्परा और संस्कृति का मजाक उड़ाने वाला, उसकी निंदा करने वाला उपन्यास है जिसके चलते पेरुमल मुरुगन को अपने लेखक की हत्या करने के लिए बाध्य किया गया | पेरुमल मुरुगन ने रचनात्मक लेखन के साथ-साथ तमिल भाषा और साहित्य को लेकर गंभीर और महत्वपूर्ण शोध-कार्य किए हैं | ‘कोंगुनाडु’ के लोक साहित्य पर उन्होंने एक महत्वपूर्ण ‘कोंगु लोकसाहित्य- शब्दकोश’ तैयार किया है | उनके इस योगदान को देखते हुए टाटा समूह के संसथान ‘इंडिया फाउंडेशन ऑफ़ दि आर्ट’ बैंगलोर ने उन्हें मंदिरों के शहर तिरुचेनगोड के आस-पास के लोकसाहित्य, इतिहास और संस्कृति पर शोध के लिए एक प्रोजेक्ट दिया | ‘माधोरुबागन’ के बारे में लिखते हुए पेरुमल मुरुगन ने यह लिखा है कि यह उपन्यास एक तरह से इसी शोध-परियोजना की रचनात्मक उपलब्धि है |[1]
यह उपन्यास ‘कोंगुनाडु’ के जिस जातीय संस्कृति और अंचल विशेष को अपने उपन्यास का केंद्र बनाता है तमिल में ऐसे आंचलिक उपन्यासों की परम्परा मौजूद रही है | तमिल में ऐसे उपन्यासों को ‘वत्तारा इलाक्कियम’ (sub-regional literature) कहा जाता है | मुरुगन से पहले ‘कोंगुनाडु’ पर जिन उपन्यासकारों ने लिखा है उनमें आर. शणमुगसुन्दरम (1917-77) और कु. चिनप्पा भारथी (1937) के नाम उल्लेखनीय हैं | आर. शणमुगसुन्दरम गांधी के विचार से प्रभावित रचनाकार हैं | उनका उपन्यास ‘नागम्मल’ ‘गौंडर’ समुदाय के ऊपर लिखा गया पहला ऐसा उपन्यास है जो इस समुदाय की क्षमताओं के साथ-साथ इसके अंतर्विरोधों को सामने लाता है | पेरुमल पुरुगन ने अपनी पी-एच.डी. आर. शणमुगसुन्दरम के कथा साहित्य पर ही पूरी की है | चिनप्पा भारथी कम्युनिस्ट हैं और मुरुगन की तरह उनका भी अपना जनपद नामक्कल ही है | उनके उपन्यासों में किसानों और मजदूरों के जीवां की सचाईयाँ चित्रित हैं | ‘कोंगुनाडु’ के किसानों और बुनकरों की समस्या पर लिखा गया उनका उपन्यास ‘धागम’ (1975) अत्यंत ही चर्चित और प्रसिद्द उपन्यास है | पहाड़ी जनजातियों के जीवन को लेकर लिखा गया उपन्यास ‘संगम’ (1985) और झारखंड के कोयला खदानों में काम करने वाले मजदूरों पर उनका लिखा उपन्यास ‘सुरंगम’ (2006) जनजातीय जीवन और मजदूरों की समस्यायों पर लिखे गए उपन्यासों में बेजोड़ हैं | इनके अतिरिक्त इस इलाके के दो अन्य उपन्यासकारों का नाम लिया जाता है – सी. आर. रविन्द्रन और सूर्यकान्तन |  
‘माधोरुबागन’ अर्थात् अर्द्धनारीश्वर (One Part Women) तिरुचेनगोड के पास रहने वाले एक छोटे किसान परिवार में किसी तरह गुजर-बसर करने वाले पति-पत्नी के त्रासद  जीवन जीवन की कहानी है जो निःसंतान हैं | विवाह के बारह साल बीत जाने के बाद भी उनको कोई संतान नहीं है | दोनों पति-पत्नी एक दूसरे को बहुत प्यार करते हैं | काली अपनी पत्नी पोन्ना को बहुत मानता है, बहुत चाहता है |[2] वह पोन्ना के प्रति इतना सहज, सरल और ईमानदार है कि कई बार ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न होने पर भी, जिसमें परिवार और समाज पोन्ना के प्रति कटु व्यवहार से नहीं चूकता, वह पोन्ना को बहुत प्यार से संभालता है | पोन्ना के साथ काली का विवाह प्रेम-विवाह जैसा है | पोन्ना को वह बचपन से जानता है क्योंकि उसका भाई मुत्थु और काली बचपन के दोस्त हैं |  दोनों का एक दूसरे के घरों में बराबर आना-जाना होता रहता है | दोनों का खेलना -कूदना, शैतानी, बदमाशी सब एक साथ | बड़े होने पर अचानक एक दिन काली बहुत ही संकोच के साथ मुत्थु से पूछता है कि क्या तुम अपनी बहन का हाथ मुझे दे सकते हो ? यह सुनकर मुत्थु ख़ुशी से पागल हो उठता है क्योंकि उसकी नजर में काली एक बहुत ही संवेदनशील, समझदार और मानवीय गुणों से सम्पन्न नवयुवक है | वह तैयार हो जाता है और उसी क्षण से उसे ‘मापिल्लै’ (जीजा) संबोधित करके लगता है | काली सचमुच पोन्ना की बहुत फ़िक्र करता है, उसका बहुत ख्याल रखता है | पर वह उस समाज का क्या करे जिसमें एक बाँझ स्त्री ‘स्त्री’ के रूप में नहीं स्वीकार की जाती | यह केवल कोंगुनाडु के गौंडर समाज में ही नहीं है कमोवेश पूरी भारतीय सामाजिक मानसिकता में है कि संतान के बिना परिवार का वंश कैसे चलेगा | गौंडर समाज में तो इसके बिना उस दम्पत्ति की सामाजिक स्वीकृति ही नहीं होती, एक बड़े कलंक के रूप में इसे देखा जाता है | जो स्त्री बच्चा नहीं दे सकती उसे समाज में एक प्रतीक चिह्न के साथ जीना पड़ता है | यह चिह्न गौंडर समाज बाँझ स्त्री के पहचान के रूप में उसे देता है | काली और पोन्ना इस बात को लेकर भी फिक्रमंद नहीं हैं | परन्तु, पोन्ना की माँ, उसके पिता, उसका भाई, उसकी सास, काली के दोस्त सब बार-बार दोनों को यह एहसास करती रहते हैं कि बिना संतान के समाज में उनकी हैसियत क्या है | मैं जब यह उपन्यास पढ़ रहा था तो एक प्रसंग को लेकर मुझे अपने समाज (भोजपुरी समाज) में प्रचलित उस लोक मान्यता का दर्द हरा हो आया जिसमें यह माना जाता है कि बाँझ और विधवा स्त्री की उपस्थिति शुभ कार्यों में नहीं होनी चाहिए | उनकी छाया मात्र से अशुभ का आगमन हो जाता है | यह दकियानूस मान्यता गौंडर समाज  में भी पूरी तरह लागू है | जो पोन्ना विवाह पूर्व अपने पिता और भाई के साथ खेतों में काम करती थी, बीजारोपण करती थी अब वही पोन्ना एक बीज भी नहीं डाल सकती क्योंकि, बाँझ स्त्रियों के डाले हुए बीज का उगना और पनपना संभव नहीं | बल्कि उसकी नज़र पड़ जाय तो पौधे की बाढ़ रुक जाय |[3]
यह पुरुषसत्ताक समाज की संरचना है जिसमें स्त्री की उपयोगिता संतति देने में है वर्ना तो वह उस गाय की तरह से है जिसे कसाई को दे देना चाहिए | मुरुगन ने इस पूरी मानसिकता को उपन्यास में एक जगह बहुत ही व्यंग्यात्मक दृष्टान्त में उपस्थित किया है | इस अंश[4] को पढ़कर यह कहना पड़ता है कि उपन्यास रचना में पात्रों और परिस्थितियों के व्यवहार और तनाव को चित्रित करने के लिए किस तरह के रचनात्मक कल्पना और व्यक्ति-चरित्र के व्यवहारों का अनुभवात्मक अन्वीक्षण कला के लिए जरूरी होता है | काली के दूर के रिश्ते का चाचा चेलप्पा गौंडर एक दिन काली के घर पर आ धमकता है | चेलप्पा गौंडर पशुओं के खरीद-फरोख्त का धंधा करने वाला व्यापारी है | वह, काली से तमाम तरह की बाते करता है | उससे दूसरा विवाह करने के लिए कहता है और उसे याद दिलाते हुए एक घटना का जिक्र करता है कि, काली तुम्हें याद है, तुम्हारे यहाँ एक गाय थी जो एक नहीं, दो नहीं तीन-तीन बार भी सांड के पास जाकर भी गर्भ नहीं धारण कर पायी थी | उस गाय को तुम लोगों ने अपने यहाँ से हटा दिया था | ऐसी गाय का क्या करना जो किसी काम की न हो | उसे तो हटा ही देना चाहिए | काली तुम एक संकेत भर करो मैं सबकुछ ठीक करा दूँगा | काली चुपचाप सुनता है, वह हाँ-हूँ कुछ भी नहीं कहता | वहीं पास में ही गोशाले में गोबर आदि की सफाई करती हुयी पोन्ना उनकी इन सारी बातों सुन रही होती है | इस जगह पर उपन्यासकार ने पोन्ना की मनःस्थिति का जो चित्रण किया है वह बिलकुल ही वास्तविक और वाजिब लगता है | वह लिखता है, पोन्ना इस दृष्टान्त के पीछे छिपे उस अर्थ को बखूबी समझती है | प्रतिक्रिया में वह चेलप्पा को खा जाने वाली नजरों से देखती है, दौड़ कर एक छड़ी ले आती है | वहीं पास में खूंटे से बंधी अपनी ही गाय को बिना बात सटाक-सटाक सटकारने लगती है | छड़ी सटकारते हुए गुस्से में वह गाय को जिस भाषा में फटकार लगा रही है,  मुरुगन का यहाँ जवाब नहीं – “तुम्हें समय और जगह का जरा भी ख्याल नहीं रहता | तुम्हें पता होना चाहिए की मैं यहाँ गोबर उठा रही हूँ | मेरे हाथ पैर दोनों ही उससे सने हुए हैं | फिर भी तुम मुझसे चालाकी दिखा रही हो | बहुत अधिक स्मार्ट हो गयी हो ? तुम्हारी पूंछ क़तर कर भूखा न छोड़ दिया तो मेरा भी नाम नहीं |”[5] ‘सौती क रीस कठौती पर’ वाली बात | पर वह भी करे क्या | अपनी प्रतिक्रिया को इसी रूप में अभिव्यक्त करती है | गाय बिचारी इस तरह बिना बात अचानक बेतहासा पीटे जाने से भौंचक हो डकारने लगती है और खूंटे के इधर-उधर भय से चक्कर काटने लगती है | चेल्प्पा यह दृश्य देखकर भाग खड़ा होता है, किन्तु जाते-जाते यह कहना नहीं भूलता, काली हम जल्दी ही दोबारा मिलेंगे | इसपर काली और मजे लेने के लिए कहता है अरे ! चाचा चलिए हमलोग उधर उस बखार की और चलकर बात करते हैं | अरे ! नहीं ! नहीं !! तुम क्या आग को और भड़काकर दंगा करना चाहते हो |
ठीक इसके बाद पोन्ना रात में जब अपने पति के साथ होती है तो उससे बहुत ही गंभीरता से पूछती है, “ क्या तुम मुझे छोड़कर किसी दूसरी स्त्री से विवाह करना चाहते हो, बताओ ? काली बड़े ही नाज से उसे समझाता है, तुम तो मेरे आँखों की तारा हो, मेरी मोती, मेरी खजाना, भला तुम्हें मैं कभी छोड़ने की सोच सकता हूँ |” [6] ये दोनों खूब अच्छी तरह इस बात को जानते हैं कि उनके इन प्यारे और सुखी जीवन को बिना संतान के समाज कोई महत्व नहीं देने वाला | इसलिए विवाह के बारह सालों में संतान पाने के लिए ये दोनों वह सब करते हैं जो दोस्त-मित्र, परिवार, समाज, करने के लिए कहता है | ऐसा कोई टोटका नहीं, ऐसा कोई पथ्य नहीं, ऐसी कोई पूजा नहीं, जिसे इन्होनें न किया हो | आस-पास का ऐसा कोई मंदिर नहीं, देवी-देवता नहीं जहाँ न गए हों, जिनकी प्रार्थना न की हो |  पर ‘ऊधो हम परिणाम निराशा’ | धर्म, धार्मिक अंधविश्वासों, ईश्वर, ईश्वरीय सत्ता, चमत्कार , आस्था, विश्वास, मान्यता जैसे सभी परम्परागत और रूढ़िगत ढकोसलों का, उन्हीं के रास्ते और तरीके से यह उपन्यास जितनी सघन और बारीक आलोचना प्रस्तुत करता है उतना संभवतः समाज-विज्ञान की कोई पुस्तक भी न करे | संतान प्राप्ति के लिए एक साथ कई सलाहों पर ये दोनों पति-पत्नी मन दबाकर भी वह सब करते हैं जो इन्हें नहीं पसंद | समाज का घेरा इतना मजबूत जो है | पोन्ना की सास नीम के ठूंसे पीस-पीसकर बराबर पिलाती है जिससे गर्भधारण में पोन्ना को मदद मिलेगी | पोन्ना को मिचली तक आ जाती है पर मन कड़ा कर इसे वह पीती है | बचपन में उसकी माँ जब उसके पसंद के विपरीत कोई चीज खाने को देती और वह उसे खाने में ना-नुकुर करती तो माँ कहती कि, क्या मैं तुम्हें नीम की ठूंस थोड़े ही खाने को दे रही हूँ | आज वही नीम उसका रोज का पेय बना हुआ है | फिर भी कुछ नहीं होता | एक बार तो वह अपने पति से खीझकर कहती है कि, “तुमने मुझसे शादी कर के गलती की | तुम्हें तो नीम के ठूंसे खानेवाली किसी बकरी से शादी कर लेनी चाहिए थी | वह तुम्हें खूब ढेर सारे बच्चे देती |”[7] काली हंसकर टाल देता है | पर, काली के टालने से क्या सचमुच में यह बात टल जायेगी ? नहीं, पोन्ना को बच्चे के लिए हरेक उपाय करना ही होगा | तभी तो वह अर्द्धनारीश्वर, जिन्हें संतान देने वाला भगवान (सामी पिल्लै) कहा जाता है, की पूजा-प्रार्थना से लेकर, पंडीश्वरर के शिखर पर चढ़कर उसे छूने, आदिवासी देवी पावथा को प्रसन्न करने,  कुंवारी शिला के रूप में प्रचलित वारादिक्कल जैसे चट्टान की खतरनाक परिक्रमा करने का हर वह दुसाध्य कार्य करती है जिससे उसकी गोद भर जाय  हर बार जब वह लौटती है तो एक उम्मीद के साथ कि शायद इसबार उसकी गोद भर जायेगी | हर बार उसे अपने मासिक धर्म के न होने का इंतज़ार रहता है | एक बार तो ऐसा होता है कि, मासिक धर्म होने में दो-तीन दिन का विलम्ब होता है, वह मारे ख़ुशी के झूम उठती है काली से लिपट कर उसे इस सूचना से अवगत कराती है | पर तीसरे दिन ही मासिक धर्म शुरू होने से वह जिस कदर मायूस होती है, टूटती है, उससे उस धर्म और समाज की उस जड़ संरचना का रेशा-रेशा उधड़ने लगता है जिसके ताने-बाने में स्त्री को गुलाम बनाये रखने की पूरी व्यवस्था खड़ी की गयी है | एक स्त्री बिना बच्चे के कुछ भी नहीं | सारा दोष उस बेचारी स्त्री का ही है | पुरुष भला संतानोत्पत्ति में अक्षम कैसे हो सकता है ? वह तो धर्म और शास्त्र अनुमोदित पुरुषार्थ और मर्दानगी का हर-हमेश: उदाहरण पेश करता रहता है | गलती, चूक, कमी, यह सब तो स्त्री के हिस्से की चीज हैं | निरुपाय पोन्ना क्या करे ? कैसे धर्म और समाज के इस मजबूत जकड़बंदी से निजात मिले ? अंततः, उपन्यासकार ने तिरुचेनगोड के अर्द्धनारीश्वर मंदिर में हर साल पखवाड़े भर चलने वाले रथ-उत्सव में प्रचलित एक लोक-रीति का सहारा लेते हुए उपन्यास को खत्म किया है | इस पंद्रह दिन चलने वाले मेले के बारे में यह मान्यता है के मेले के चौदहवें दिन निसंतान विवाहित स्त्रियाँ स्वतंत्र रूप से किसी भी पुरुष के साथ जिसे वह जानती तक भी नहीं समागम कर गर्भधारण कर सकती है | इस दिन वह जिस पुरुष के साथ समागम करती है वह भगवान का ही प्रतिरूप है | इस दिन वह पुरुष ही ‘सामी पिल्लै’ है | ऐसे पुरुष से प्राप्त संतति को भगवान का ही प्रसाद माना जाता है | पोन्ना और काली दोनों को किसी तरह से उनके घर वाले तैयार करते हैं | काली तो किसी भी कीमत पर पोन्ना को भेजने के लिए तैयार नहीं |[8] पर अपने साले और बचपन के दोस्त मुत्थु के बहुत समझाने बुझाने पर वह मानता है | पोन्ना इसी उत्सव में एक अजनबी के साथ समागम कर गर्भ धारण करती है |
इस उपन्यास में हिंदू देवी-देवताओं के प्रति आस्था और विश्वास भंजन का जो चित्रण किया गया है उसको लेकर तो हिंदूवादी संगठनों का जो विरोध है सो है ही | पर, उनका जबरदस्त विरोध इस तरह से गर्भ धारण करने को लेकर है | उनका कहना है कि, इस प्रथा का हवाला देकर, उसकी आड़ लेकर उपन्यासकार द्वारा एक हिंदू स्त्री का इस तरह से समागम कर गर्भ धारण करने वाला जो उल्लेख है वह सरासर हिंदू-धर्म और संस्कृति को गलत ‘पाठ’ के रूप में पेश करना है | हो भी क्यों नहीं, क्योंकि यह ‘पाठ’ हिंदू नारीत्व के स्मृति और पुराण आधारित आदर्श के विरूद्ध जाता है | पर क्या सचमुच में ऐसा है ? फिर ‘नियोग’ नामक प्राचीन रीति और प्रथा का क्या करेंगे ? प्रायः सभी हिंदू धर्म-ग्रन्थ और महाकाव्य ‘नियोग’ प्रथा की बात करते हैं | महाभारत में भीष्म राजमाता सत्यवती को समझाते हुए कहते हैं कि कैसे नियोग प्रथा के द्वारा भावी कौरव-वंश का राजा प्राप्त किया जा सकता है –
ब्राह्मणो गुणवान् कश्चिद् धनेनोपनिमंत्र्यताम् |
विचित्रवीर्य क्षेत्रेषु यः समुत्पादयेत प्रजाः ||[9]
कौरव वंशी विचित्रवीर्य की अक्षमता के चलते उनकी पत्नी और काशी नरेश की पुत्री अम्बालिका से संतानोत्पत्ति के लिए महर्षि वेदव्यास का समागम कराया जाता है | हम सबको पता है कि महर्षि वेदव्यास खुद मत्स्यकन्या सत्यवती और ऋषि पराशर की जारज संतान हैं | रामायण में देवी अंजना पर मरुत देव का आसक्त होना, दोनों का आलिंगनबद्ध होना और उससे हनुमान का जन्म लेने का जो वर्णन है उसे देखना चाहिए –
ना त्वां हिंसामि सुश्रोणि माऽभूत्ते सुभगे भयम् |
मारुतोऽस्मि गतो यत्वां परिश्वज्यं यशस्विनीम् ||
वीर्यवान्बुद्धि सम्पन्नस्तव पुत्रो भविष्यति |
महास्त्वो महातेजा महाबल पराक्रम : ||[10]
आर्य-संस्कृति और हिंदू धर्म का सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में यह उल्लेख मिलता है कि, संतानोत्पत्ति में अक्षम पति अपनी पत्नी से कहता है कि, हे देवि ! तू मुझ से संतानोत्पत्ति की आशा मत कर |  हे सुभगे ! तू किसी वीर्यवान पुरुष के बाहु का सहारा ले |  तू मुझ को छोड़कर अन्य पति की इच्छा कर 
आघाता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृणवन्नजामि |
उप बर्बृहि वृषभाय बाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पति मत् |[11]
असल में, यह देखा जाना चाहिए कि, ऐसी किसी प्रथा का संहिताकरण कब और कैसे हुआ ?  इन प्रथाओं के विधि-निषेध कैसे बने ? ऐसी प्रथाओं में क्या करणीय है और किस विधि और अनुशासन में करणीय है इसके प्रतिपादक कौन लोग हैं, तो पूरा खेल समझ में आ जाता है | जब हम नजर दौड़ाते हैं तो, हिंदू धर्म और संस्कृति के एकमात्र विधि-शास्त्र के रूप में मान्य ग्रन्थ ‘मनुस्मृति’ का नाम सामने आता है | मनुस्मृति ने ‘नियोग’ या इस जैसी किसी प्रथा के कायदे-क़ानून बनाये और यह स्थापित किया कि, इसके तहत क्या करणीय है और किस तरह करणीय है | इसी मनःस्थिति पर प्रश्नांकन करते हुए रोमिला थापर ने पेरुमल मुरुगन संबंधी विवाद पर बोलते हुए यह रेखांकित किया है कि, आपत्ति इस पर नहीं है कि संतानोत्पत्ति के लिए कोई स्त्री समागम कर सकती है या नहीं, मूल आपत्ति इसपर है कि एक स्त्री का इस कदर स्वतंत्र हो जाना ठीक है जो स्वयं ही किसी दूसरे पुरुष के साथ समागम का निर्णय कर सके | बिलकुल नहीं | नियोग में तो समागम किस पुरुष के साथ स्त्री करेगी इसका नियोक्ता पति या परिवार का कोई बड़ा ही करेगा | स्वयं स्त्री नहीं | स्त्री भला यह निर्णय लेने के लिए कैसे स्वतंत्र हो सकती है | रोमिला थापर यह सवाल करती हैं कि, क्या अपने घर, परिवार, पति की इच्छा को मानते हुए एक स्त्री ऐसा निर्णय नहीं ले सकती ?[12] कदापि नहीं, किसी भी मसले पर स्त्री को कबसे यह अधिकार मिल गया, किसने यह अधिकार उसे दे दिया कि वह खुद निर्णय ले सके | खेल हमारा, खेल के नियम हमारे, खिलाड़ी हमारे | यही है मनुस्मृति की लाईन | ‘मनुस्मृति’ में इसकी इजाजत कहाँ | वहाँ तो स्पष्ट तौर पर कहा गया है –
वालवा वा युवत्वा वा वृद्धया वापि योषिता |
न स्वातन्त्र्येण कर्तव्यं किंचित्कार्य गृहेश्वपि ||
वाल्ये पितुर्वशेतिष्ठेत् पाणिग्राहस्य यौवने |
पुत्राणां भर्तृरि प्रेते न भजे स्त्री स्व्तन्त्र्याम् ||[13]

वस्तुतः, यही वे बिंदु हैं जिनके चलते इस उपन्यास का विरोध कट्टर और रुढ़िवादी लोगों  द्वारा किया गया है | पर इनको यह पता होना चाहिए कि, आज का समाज ‘मनुस्मृति’ के विधि-विधानों पर नहीं चलाया जा सकता | समाज अब वहीं नहीं ठिठका हुआ है जहाँ से आपकी जड़ता टूटने और आगे बढ़ने का नाम ही नहीं लेती | धर्म, शास्त्र और परम्परा के नाम पर आप मनमाफिक नियम और निर्णय नहीं बना सकते | इस सम्बन्ध में शिकागो विश्वविद्यालय में विधि और क़ानून की प्रोफ़ेसर और स्त्रीवादी चिन्तक और दार्शनिक और ‘सेक्स एंड सोशल जस्टिस’ नामक चर्चित पुस्तक की लेखक मार्था क्रेवेन नुसबॉम का यह कथन देखना चाहिए –
 “परम्परा से कोई चीज अचित्य्पूर्ण नहीं सिद्ध की जा सकती | परम्परा अगर अच्छी हो सकती है तो बुरी भी हो सकती है | दूसरे, प्रत्येक परम्परा अपने भीतर भिन्न तथा परस्पर विरोधी परम्पराएं लिए रहती है | अतः वह कोई ‘एक’ या ‘एक ही तरह की’ परम्परा नहीं होती | तीसरे, प्रत्येक संस्कृति में तरह-तरह की आवाजें होती हैं – कुछ जोरदार आवाजें, कुछ कमजोर आवाजें, कुछ अपेक्षाकृत खामोश आवाजें, तो कई ऐसी आवाजें जो सार्वजनिक जगहों पर मुंह ही नहीं खोल सकतीं | यह भी देखने में आता है कि, बहुत से लोग अज्ञान तथा भय के कारण या तो बोल ही नहीं पाते या अच्छी तरह नहीं बोल पाते | इसका अर्थ यह है कि यदि उन्हें ज्ञान हो जाय और उनका भय दूर हो जाय, तो वे भिन्न ढंग से बोलेंगे और हो सकता है तब उस संस्कृति में उनकी ही आवाज सबसे जोरदार हो | उदहारण के लिए, जिस संस्कृति में स्त्रियों के मन में शुरू से ही यह बात भरी जाती हो कि पुरुष स्त्री से श्रेष्ठ है और पति ही पत्नी का परमेश्वर है, उसे ‘परम्परा’ के नाम पर मानवीय और न्यायपूर्ण नहीं कहा जा सकता | फिर, कहना होगा कि ऐसी परंपरा ही अमानवीय और अन्यायपूर्ण है |”[14]
अतः, ‘माधोरुबागन’ तिरुचेनगोड के ‘लोक’ और ‘लोकेल’ को, उसकी सामाजिक-सांकृतिक रहन को,  आज के आधुनिक और सभ्य समाज की उस मानसिक संरचना में जानने-समझने के लिए यह उपन्यास एक जरूरी ‘पाठ’ उपलब्ध कराता है, जहाँ पुरुषसत्ताक सामन्ती ढाँचा, धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संरचनाओं का अमानवीय चेहरा शास्त्र और परम्परा के नाम पर किस कदर हमारे समाजों में मौजूद है | ऐसे समाजों में जब शास्त्र और परम्परा अनुमोदित रीति और विधि-विधान से अलग एक स्त्री जब उनकी ही इच्छा के निमित्त कोई निर्णय ले लेती है तो वह विपथगामी हो जाती है और वह धर्म, समाज, परम्परा इन सबके नाम धब्बा बन जाती है, कलंक हो जाती है | पेरुमल मुरुगन का यह उपन्यास ‘माधोरुबागन’ धर्म, समाज, शास्त्र और परम्परा, इन सबको मानवीय गरिमा के हक़ में आलोचित करने वाली ऐसी रचना है जिससे धर्म, शास्त्र, परम्परा की जड़ता में जीने वाले लोगों को मुश्किल होनी ही है |





[1] “During my field research about Tiruchengod, I discovered many things. This Novel came from the creative urge sparked by the research.”- Author’s Note, One Part Woman, Penguin Books, 2014, p. 245.
[2] वही, p. 83
[3] One Part Woman, Penguin Books, 2014, p.5 & 115.
[4] वही, p. 10-11.
[5] One Part Woman, Penguin Books, 2014, p.11.
[6] वही, p. 13.
[7] One Part Woman, Penguin Books, 2014, p.46.
[8] वही, p.99.
[9] महाभारत : आदि पर्व, अध्याय -104, श्लोक – 2.
[10] वाल्मीकि रामायण : किष्किंधा काण्ड, सर्ग : 66, श्लोक-18, 19.
[11] ऋग्वेद, दसवाँ मंडल : 10-10.
[12] This is the text of what Romila Thapar said at the meeting organized by ‘SAHMAT’ in support of Perumal Murugan on Fubruary 17, 2015 in Delhi.
[13] मनुस्मृति, अध्याय-5, श्लोक: 147,148.
[14] Sex and social justice – Martha C. Nussbaum, Oxford University Press, USA, 1988. भूमंडलीय यथार्थवाद की पृष्ठभूमि – रमेश उपाध्याय, शब्दसंधान, नयी दिल्ली, 2014, p. 213. से उद्धृत.