10 सितंबर 2015

सवालों के आईने में साहित्य का प्रतिबिम्ब
                 (हमारे समय में हिंदी भाषा और साहित्य का पक्ष)

                                                                                            विनोद तिवारी 

 देश और देश के बाहर हिंदी का पितर-पख (पितृ-पक्ष) आने वाला है | देश के सभी सरकारी कार्यालयों में हिंदी पखवाड़ा के नाम पर हिंदी का जयकारा 14 सितम्बर तक गूंजता रहेगा ‘बिकाज ऑफ़ हिंदी इज अ ऑफिसियल लैंग्ववेज़’ | ‘बोलो हिंदी मातु की जय !’ जय जय जय जय हे ! फिर साल भर हिंदी की ‘हिंदी’ करते रहिए | कोई फर्क नहीं पड़ता | अंग्रेजी का सिक्का बदस्तूर चलता रहेगा | ऐसा क्यों हुआ इसकी तफसील में यहाँ जाने की जरूरत नहीं | शायद सब जानते हैं कि ऐसा क्यों हुआ | हिंदीतर प्रान्तों में हिंदी के विरोध का रोना तो खूब रोया गया पर अपने ही घर में वह किस कदर जर्जर, कमजोर, घृणित और उपेक्षित होती चली गयी इसको लेकर न कोई ग्लानि न कोई पश्चाताप | आजादी से पूर्व हिंदी भाषा में बोलने, लिखने-पढने और हिंदी की तरह का जीवन जीने वाले लोगों की तादाद आज से अधिक न थी | परंतु, दुर्भाग्य से वह उस समय संविधान की ‘ऑफिसियल लैंग्ववेज़’ नहीं थी वरन लोगों का उस भाषा से, उसके साहित्य से एक अर्थपूर्ण भावात्मक जातीय रिश्ता था | क्या कारण रहा कि वह अर्थपूर्ण भावात्मक लगाव, वह जातीय रिश्ता धीरे-धीरे बदरंग होते-होते इस कदर धूमिल हो गया कि हिंदी की बात करना जैसे अब पुरानी और बेकार की बात करना हो गया है | दरअसल, एक गड़बड़ तो तभी हुआ जब राष्ट्रीय एकता के नाम पर ‘एक राष्ट्र एक भाषा’ की धारणा पर जोर दिया गया और इसे राष्ट्रीय अस्मिता के साथ जोड़ कर प्रस्तुत किया गया | दूसरी गड़बड़ तब हुयी जब संविधान में उन्नत और सक्षम हो जाने की अवस्था में हिंदी और और उसकी लिपि को ‘राजभाषा’ और लिपि का दर्ज़ा दिए जाने की बात कही गयी | इसके कारण राजनीतिक पैंतरेबाजियों, प्रयत्नों, दबावों और विरोध के चलते हिंदी का जितना नुकसान हुआ उतना शायद अपने ही देश में एनी किसी दूसरी भाषा का नहीं | क्या अंग्रेजी को बनाये रखने की यह सोची-समझी रणनीति थी ? ‘राष्ट्रभाषा’ या ‘राजभाषा’ जैसा विभाजन ही गलत था | किसी अन्य राष्ट्र  में इस तरह का विभाजन आपको नहीं मिलेगा | क्या ‘राजभाषा’ का अर्थ केवल ‘ऑफिसियल लैंग्ववेज़’ है तो फिर ‘राष्ट्रभाषा’ का क्या अर्थ जिस भाषा में मनुष्य पहली बार तुतलाता है, हकलाता है, खुलता है और अभिव्यक्त होता है, दुनिया के प्रति उन्मुख होता है और उससे जुड़ता है वही उसकी मातृभाषा होती है | इसलिए दुनिया की हर भाषा आत्यंतिक रूप से मातृभाषा होती है किन्तु हर भाषा की दुनिया अपने में अलग होती है | यह समर्थ अलगाव ही उस भाषा की पहचान होती है | हिंदी की दुनिया अंग्रेजी की दुनिया कभी नहीं हो सकती पर दुर्भाग्य से बाज़ार ने अन्य कई प्रकार के  भ्रमों की तरह  एक तरह का यह भी भ्रम फैला रखा है कि, हिंदी में क्या रखा है ? वह तो ऐसे गँवार, भदेस, भूखे, गरीब बहुसंख्य लोगों की भाषा है जिनकी कोई औकात नहीं | वह कुछ-कुछ कविता-कहानी की भाषा है, ज्ञान-विज्ञान और विचारों की भाषा वह नहीं है | हिंदी में ‘वैचारिक-स्वराज’ नहीं के बराबर है या है ही नहीं | यह सुना जा रहा है और बताया भी जा रहा है कि यह देश सभी क्षेत्रों में उन्नत, सक्षम और विकसित होता जा रहा है सिवाय ‘हिंदी’ के | नहीं, नहीं ऐसी बात नहीं है हिंदी ने भी खूब उन्नति की है, विकास किया है और वह हर संभव सक्षम हुयी है | न, न मैं नहीं मानता | अगर, यह सच होता तो हिंदी को उसकी जगह मिल जानी चाहिए जिसके लिए संविधान में वह अंग्रेजी की टांग पकड़ कर लटकी हुयी है | संविधान में यही तो शर्त राखी गयी कि जिस दिन वह विकसित और सक्षम हो जायेगी इस राष्ट्र की ‘राज्य भाषा’ हो जायेगी | ‘उसके फरेबे हुस्न से छलके हैं शोबए-नूर’ | मेरी नजर में मूल समस्या यहीं है – संविधान में | यह समस्या ठीक वही समस्या है जो इस वाक्य से परिलक्षित होती है – ‘इंडिया दैट इज भारत’ | इस वाक्य से भी – ‘हिंदी दैट इज ऑफिसियल लैंग्ववेज़’ | संविधान में हिंदी का जिक्र किया जाता नहीं किया जाता बहुत फर्क नहीं पड़ता पर हिंदी की जगह अंग्रेजी चलती रहेगी यह उल्लेख करना ही छलावा था | एक तरह का फरेब था| हमारे समय के तमाम बड़े झूठों में से एक बड़ा झूठ है किसी भी भाषा का सालाना जलसा करना और उस दिन यह शपथ लेना कि हम अपनी भाषा में कार्य करेंगे | हिंदी के लिए कुच्छ और किया जाय या न किया जाय यह ‘पितर-पख’ मनाना बंद होना चाहिए | 14 सितम्बर का यह धंधा बंद होना चाहिए | 
क्या कारण है कि, इतना सक्षम और विकसित होने के, प्रचुर मात्रा में साहित्य सृजन और चिंतन के और राष्ट्रीय स्तर के हिंदी सम्मेलनों से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर के विश्व-सम्मेलनों के बावजूद हिंदी के प्रति लोगों का वह अर्थपूर्ण भावात्मक लगाव नहीं उत्पन्न हो पा रहा | क्या हिंदी में जीवन जीने का, रहन-सहन का ढंग और ढब घट रहा है | यदि किसी भाषा में जीवन-पद्धति और कार्य-कुशलता ही खत्म होती जायेगी तो वह भाषा और उसमें सृजित साहित्य लोगों की रुचि और स्वाभिमान का कारण क्योंकर हो | इसकी पड़ताल होनी चाहिए | यह सच है कि किसी भी भाषा और उसमें बनने –विकसित होने वाले जीवन और मिजाज को बदलने से नहीं रोका जा सकता, उसकी दारोगागिरी नहीं की जा सकती | परन्तु, उसमें बनने-बिगड़ने वाले समाज और साहित्य की स्थिति और विकास पर बात होनी चाहिए | एक युग बीत गया | अब नया युग है | इस नए मिजाज में, नयी चाल-ढाल में हिंदी भाषा और साहित्य पर बात करना दयनीय होने तक दर्दनाक है | पर इस दैन्यता और दर्दनाक स्थिति में अपने को खंगालना में भी एक रोमान तो है ही |
जातीय स्मृति के तर्क से भी और सामाजिक-ऐतिहासिक-राजनीतिक परविर्तनों और  विकास की दृष्टि से भी, किसी भी समय को जानने समझने के लिए उस समय की भाषा और साहित्य के पक्ष को एक जरूरी प्रमाण के रूप में देखा जाना चाहिए | आज साहित्य पर, साहित्य के पक्ष पर और साहित्य मात्र पर ही क्यों समूची सांस्कृतिक निर्माण के प्रक्रिया पर बातचीत हमारे समय की ठोस वास्तविकताओं पर आधारित होनी चाहिए | हमारे समय में साहित्य का पक्ष क्या है ? इस सवाल पर बातचीत समकालीन महत्व रखता है | इसे हमें साहित्य के ‘बैलेंस शीट’ की तरह देखना चाहिए | आज जो सबसे बड़ा सवाल है वह यह है कि, हम साहित्य का पक्ष किसके सापेक्ष, किसके बरक्स तय कर रहे हैं | किसी पूर्व-निर्धारित निरपेक्ष सार्वभौम सत्य के सापेक्ष अथवा अपने समय की मौजूद स्थितियों-परिस्थितयों के सापेक्ष कहा जाता है कि, ‘साहित्य का अपना सत्य होता है |’ असंख्य बार कहे हुए इस वाक्य की तमाम अर्थ-ध्वनियों में से एक में यह अर्थ अंतर्निहित होता है कि साहित्य किसी राजनीतिक-सत्य या विचारधारात्मक-सत्य का उपनिवेश नहीं होता | पर, आज हम सब यहाँ साहित्य की भूमिका या उसके पक्ष पर जिस ‘हमारे समय’ समय के परिप्रेक्ष्य से बात करना चाह रहे हैं उस पर क्या इतने अमूर्त और सार्वभौम सत्य वाली टेक से बात संभव है | यह तो शुतुरमुर्गी सोच होगी | आज साहित्य पर, साहित्य के पक्ष पर और साहित्य मात्र पर ही क्यों समूची सांस्कृतिक-निर्माण की प्रक्रिया पर बातचीत हमारे समय की ठोस वास्तविकताओं और जरूरतों के आधार पर होनी चाहिए |
मैं जब यह बात कह रहा हूँ तो इसका अर्थ यह कदापि न लिया जाय की मैं समय को निपट वर्तमान के अर्थ में ही ग्रहण कर रहा हूँ | वास्तव में तो साहित्य के लिए समय वही नहीं है जो हमारा निपट वर्तमान है वरन् वह समय भी है जो हमें भविष्य में अपेक्षित है | इसलिए भी हमें आज इस बातचीत को साहित्य के ‘बैलेंस शीट’ की तरह देखना चाहिए | प्रसिद्द इतिहासकार रजनी पाम दत्त का उल्लेख करना चाहूँगा, वे कहते हैं कि, “जब समाज दोराहे पर खड़ा होता है, जहाँ उसे विकल्प की तलाश होती है, उस समय यदि जनतांत्रिक शक्तियाँ इतनी बलवती होती हैं कि विकल्प दे सकें तो विकल्प मिल जाता है, अगर ऐसा नहीं होता या भटकाव की स्थिति बनी रहती है तो फासीवाद का उदय होता है |”[1] साहित्य हमेशा से ही ऐसे किसी भी ‘अधिनायकवाद’ अथवा ‘फासीवाद’ के खिलाफ एक समानांतर लोकतान्त्रिक विकल्प रचने का प्रयास करता रहा है | क्या वह आज भी अपनी इस भूमिका से, अपने पक्ष से वाकिफ है ? जिस समय और समाज को लेकर हम चिंताग्रस्त हैं उसी समय और समाज के अन्दर पहुँचने और पसरने की कार्य-संस्कृति के लिए साहित्य के पास आज मुद्दा क्या है ? रोड मैप क्या  है ? क्या हम आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की तरह से यह पूछ सकते हैं कि, “वास्तव में वह वस्तु क्या है, और वह परिस्थिति क्या है, जिसे हम बदलना चाहते हैं | काल्पनिक प्रेत को घूँसा मारना बुद्धिमानी का काम नहीं है | नगरों और गाँवों में फैला हुआ, सैकड़ों जातियों और सम्प्रदायों में विभक्त, अशिक्षा, दारिद्र्य और रोग से पीड़ित मानव-समाज आपके सामने उपस्थित है | भाषा और साहित्य की समस्या वस्तुतः उन्हीं की समस्या है | क्यों ये इतने दीन- दलित हैं? शताब्दियों की सामजिक, मानसिक और अध्यात्मिक गुलामी के भार से दबे हुए ये मनुष्य ही भाषा के प्रश्न हैं और संस्कृति तथा साहित्य की कसौटी हैं |”[2]
उपर्युक्त पुरानी चुनौतियों के साथ-साथ आज हमारे सामने अनेकों नईं और बहुविध चुनौतियाँ उभरकर आयी हैं | जिस तरह से राजनीतिक उत्पातों से लेकर बाज़ार में उपलब्ध भिन्न-भिन्न उत्पादों (जिसमें साहित्यिक-उत्पाद/उत्पात भी सम्मिलित है) तक में आज एक निर्लज्ज किस्म का बाजारू प्रोपेगैंडा रचकर जिस तरह से रुचियों, जरूरतों, विचारों और चयन की स्वतंत्रताओं को प्रभावित किया जा रहा है, बिगाड़ा जा रहा है उसकी चिंता उसका प्रतिरोध साहित्य के अन्दर कहाँ है ? अगर टेरी ईगल्टन की माने तो क्या इस अरुचि का एक सीधा रिश्ता ‘कमोडीफिकेसन ऑफ लिटरेचर’[3] से नहीं है | नव उदारवादी/पूंजीवादी अर्थ-व्यवस्था में हर चीज एक ‘उत्पाद’ है एक ‘वस्तु’ है इसके अलावा कुछ नहीं | ‘साहित्य’ भी अगर महज इस ‘मुक्त-बाजार’ में एक वस्तु मात्र है, एक उत्पाद भर है तो स्वाभाविक है कि इस बाज़ार में मौजूद हर वह नागरिक ऐसे  ‘उत्पाद’ या ‘वस्तु’ के मूल्य आँकने का अधिकार स्वतः पा जाता है |
साहित्य के लिए सदा से ही इस सरोकार की बात की जाती रही है कि उसे ‘भीड़’ को ‘समाज’ में बदलने का प्रयास करना है | यदि आप वास्तविक सामजिक संघर्षों से जुड़े बगैर साहित्य और संस्कृति के प्रश्नों को हल करना चाहते हैं तो वह उतना ही आसान होगा जैसे केवल ‘क्रान्ति’ ‘कामरेड’ और ‘लाल सलाम’ जैसे शब्दों को ओढ़कर उग्र ‘वामपंथी’ बनना और झंडे गाड़कर शिविरों और शाखाओं में बैठकर उग्र सोच-विचार करते हुए फासीवादी एजेंडे को मनवाने के लिए अति ‘दक्षिणपंथी’ होना | ईश्वर, धर्म, पंथ, विचार ये सब मनुष्य की ईजाद हैं | मनुष्य ने अपनी सामाजिकता और सामुदायिकता के लिए इन सबको बनाया | पर, आज ये सब मनुष्य के ऊपर उसकी सीमाओं से पार उसी को डराने और शोषित करने के माध्यम बन गए हैं | “मेरे ख्याल में दुनिया में ऐसे कोई भी विचार नहीं हैं जिनका अस्तित्व मनुष्य की सीमाओं से बाहर हो | मैं यह मानता हूँ कि केवल मनुष्य ही सब वस्तुओं और सब विचारों का रचयिता है | चमत्कारों को पैदा करने वाला और सभी प्राकृतिक शक्तियों का भावी स्वामी भी वही है | कलाओं की दुनिया में जो भी कुछ सबसे सुन्दर है, वह मनुष्य के श्रम द्वारा, उसके चतुर हाथों द्वारा निर्मित हुआ है | श्रम की ही प्रक्रिया में हमारे सभी विचार और भावनाएँ  प्रस्फुटित हुई  हैं और यह बात कला के इतिहास, विज्ञान और प्रौद्योगिकी को देखकर और अधिक पुष्ट होती है | विचार तथ्य का अनुगमन करता है | मैं मानव के प्रति श्रद्धा से नत हूँ क्योंकि इस संसार में जो कुछ भी है वह मनुष्य के विवेक, उसकी कल्पना और विचार-शक्ति का ही परिणाम है | उसने उसी तरह ईश्वर का अविष्कार किया है जैसे फोटोग्राफी का | अंतर केवल इतना है कि कैमरा वही दिखता है जो कुछ वस्तुतः उपस्थित है, जबकि ईश्वर मनुष्य की अपने बारे में गढ़ी गई आदर्श कल्पना की तस्वीर है जो बनने की उसकी इच्छा है यानी सर्वांग, सर्व - शक्तिमान और पूर्णतः न्यायप्रिय हो सकने की कामना | ... यदि पवित्रता के विषय में कुछ कहने की जरूरत है तो मैं कहूँगा कि मेरे लिए पवित्रता का एक ही मतलब है, और वह है मनुष्य का स्वयं के प्रति असंतोष, जो वह है उससे बेहतर बनने की उसकी तड़प, जीवन में विकसित हो रही उन वाहियात चीजों के प्रति उसकी घृणा जिसे उसने खुद ही पैदा किया है | अपने से रचे उसके संसार के सभी लोगों में फैली इर्ष्या, लोभ,अपराध, रोग, युद्ध और शत्रुता के समाप्त कर देने की उसकी इच्छा को भी मैं पवित्र मानता हूँ |”[4]          
मुझे याद आ रहा है कहीं मैं पढ़ रहा था पिछली शताब्दी के नवें या आखिरी दशक में ब्रिटिश संसद के अपर-हाउस में ‘कविता’ की स्थिति और भविष्य को लेकर बहस हुई थी | कैसी कवितायें लिखी जा रही हैं इस पर चिंता व्यक्त की गयी थी | सदन में यह प्रस्तावित किया गया था कि अच्छी कविताओं की जरूरत आज और अधिक है | हमारे देश की संसद के पास ऐसी किसी बहस या चिंता का कोई उदहारण हमारे पास है क्या ? इस देश में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर को मिलकर बहुत सारे राजनीतिक दल हैं | किसी भी दल में कोई साहित्यिक नीति है क्या ? जो वामपंथी दल हैं उनकी भी साहित्य-विषयक कोई स्पष्ट नीति नहीं है कमोवेश उनके लेखक संगठनों के निष्क्रिय और निष्प्रभावी प्रयासों के उदाहरण के अतिरिक्त |
कृष्णा सोबती ने एक बातचीत में यह कहा है कि उनमें हिंदी की रुचि कैसे और कहाँ पैदा हुई | वे अपने स्कूल के दिनों में में शिमला के माल रोड से जा रही थीं तो उन्हें नागरी में लिखा हुआ इकलौता जो साईन बोर्ड दिखा वह ‘नागरी प्राचारिणी सभा’ का बोर्ड था | उस बोर्ड ने और उस संस्था ने उनके मन को आकर्षित किया | पर आज साहित्य की ही नहीं सभी तरह की सांस्कृतिक संस्थाओं का जो क्षरण हुआ है, पतन हुआ है उसका हमारे समय पर, हमारी सोच पर, हमारी सृजनशीलता पर गहरा प्रभाव पड़ा है | साहित्यिकों, सामाजिकों और राजनीतिकों में इस बात को लेकर कोई चिंता नहीं | कदाचित, एक-आध स्वर इसको लेकर चिंतित होते दिखते हैं | जी.पी. देशपांडे का यह कथन इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है – “हमें यह देखना चाहिए कि समाज अपनी संस्थाओं का निर्माण, संचालन और नियंत्रण कैसे करता है | संस्थाएँ मनुष्य में में अपनी सामजिक अस्मिता का बोध पैदा करती हैं, जिसमें एक इतिहास बोध भी शामिल रहता है, एक प्रकार का कर्तव्य-बोध भी शामिल रहता है और एक प्रकार का सौन्दर्यबोध भी शामिल रहता है | इसी से लोग अपने हर काम को सृजनशील ढंग से करने के लिए प्रेरित होते हैं | चाहे व्यापार करना हो या अपने स्वास्थ्य की देखभाल करनी हो या अपने घर अथवा परिवेश को सुन्दर बनाना हो या साहित्यिक लेखन व कलात्मक सृजन करना हो |”[5]
इन स्थितियों-परिस्थितयों में साहित्य का पक्ष क्या होना चाहिए इसका उत्तर पा लेने से पहले यह पूछा जाना चाहिए कि :

1.    जिस समय और समाज को लेकर हम चिंताग्रस्त हैं उसी समय और समाज के अन्दर पहुँचने और पसरने की कार्य-संस्कृति के लिए साहित्य के पास आज मुद्दा क्या है ? रोड मैप क्या  है ?
2.    राजनीति जिन सवालों पर चुप है साहित्य अपने सामाजिक-सांस्कृतिक दायित्व के साथ उन सवालों को, उन बिन्दुओं को उठा रहा है ?
3.    सूचना की ‘महाक्रांति’ वाले इस समय में एक शाश्वत समयहीनता में गुजर-बसर कर रहे जी रहे लोगों को उनके समय से जोड़ने का कोई कार्य साहित्य कर पा रहा है ?
4.    कमोडिटी में बदलते चले जाने की जो प्रवृत्ति इधर बहुत तेज़ी से साहित्य में पैदा हो गयी है, बाज़ारवाद के इन ‘जर्म्स’ से, इन किटाणुओं से हमारे समय का साहित्य बचा रह सकेगा ? ‘पाठक’ नमक संस्था का जिस तेज़ी से क्षरण हो रहा है क्या उसके लिए ज़िम्मेदार केवल बाज़ार है या रचनाकार-साहित्यकार भी ?
5.    साहित्य में ‘प्रोपेगैंडा’ पहले भी रहा है और आज भी है | परन्तु, इधर दिखने और कहने में अति-लोकतांत्रिक पर वास्तविकता में चरम व्यक्तिवाद का मुखौटा ओढ़े रचनाकारों और तथाकथित साहित्यिकों ने जिस तरह से साहित्य को अरुचिकर और अविश्वसनीय बनाया है वह चिंता जनक है | सोशल मीडिया एवं अन्य सेटेलाईट माध्यमों के चलते साहित्य में एक ‘आतंरिक उपनिवेशवाद’ (Internal Colonialism) जैसी मनोवृत्ति और संरचना का विकास होता दिख रहा है | साहित्य में एक बड़े शहरी मध्यवर्ग के संस्कारों और बौद्धिक गतिविधियों के बीच जो दरार है क्या साहित्य इसे प्रश्नांकित कर पा रहा है ?
6.    20-30 साल के आयु-वर्ग वालों की एक पूरी नयी पीढ़ी उभर कर आयी है | हमारे प्रधान मंत्री जिन्हें ‘माउस चार्मर’ पीढ़ी कहते हैं | यह पीढ़ी बहुत ‘स्मार्ट’ पीढ़ी है और इनके लिए ‘स्मार्टनेस’ का एक ही अर्थ है – ऐसी स्किल जो किसी भी तरह से अपना काम सिद्ध कर सके – और उस सिद्धि को, फल को मीडियाकरी के सहारे तार्किकता का जामा पहनाकर वैधता देने की कोशिश करे | यह स्किल, यह तार्किकता, यह वैधता दरअसल  पूँजीवादी मूल्यों का, बाजार का विस्तार है, वैधता है | इस स्किल में वे युवा भी शामिल हैं जिन्हें मक्सिम गोर्की मानते हैं कि ‘वे साहित्य और संस्कृति के नाम पर अहमवादी व्यक्तित्व का मात्र खाल ओढ़े, आत्मा में थकान और मन में व्यग्र करने वाली आशंकाएं लिए कभी समाजवाद से इश्क फरमाते हैं तो कभी पूँजीवाद की खुशामद करते हैं | उनकी निराश एक भयंकर अनास्था का रूप ले लेती है | कल तक जिसकी वह पूजा करते आये थे आज उसी को उन्मादी की तरह नकारने और आग में झोंकने लगते हैं |’ क्या साहित्य इस चालाक ‘स्मार्टनेस’ को चिह्नित कर पा रहा है और यदि कर पा रहा है तो उसका पक्ष क्या है ?
7.    साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों में अब कितनी जान बची है ? वे किस तरह की भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं ? राम विलास शर्मा ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि, “किसी भी संगठन को लुंजपुंज नहीं होना चाहिए | लुंजपुंज संगठनों से मेले हो सकते हैं , कोई ठोस काम नहीं |”
8.    आज साहित्य की ही नहीं सभी तरह की सांस्कृतिक संस्थाओं का जो क्षरण हुआ है, पतन हुआ है उसका हमारे समय पर, हमारी सोच पर, हमारी सृजनशीलता पर गहरा प्रभाव पड़ा है | साहित्यिकों, सामाजिकों और राजनीतिकों में इस बात को लेकर कोई चिंता है ?
9.    क्या धर्म संसद, विज्ञान कांग्रेस, इतिहास कांग्रेस, समाजविज्ञान कांग्रेस जैसी सालाना संसदों की तर्ज़ पर साहित्य संसद जैसी कोई सालाना बैठक है ? ‘लिटरेरी फेस्टिवल’ की तरह का नहीं |
10.  सेटेलाईट माध्यमों के आक्रमण के आगे समाज का अधिकांश हिस्सा आत्मसमर्पण करता जा रहा है | हम अपने ही देश में सांस्कृतिक रूप से विस्थापित हैं | सांस्कृतिक-राजनीतिक मुँहजोरी का इतना भव्य और आकर्षक किन्तु विकृत रूप इतने अकुंठ भाव से पहले कभी नहीं हुआ | झूठ को इतना बह्व्य और आकर्षक बनाकर पेश करने की इतनी कोशिश पहले कभी नहीं दिखी | धर्म का वितंडा इधर न छंटने वाले कुहासे की तरह पसरता जा रहा है | सनसनी और अफवाहें जहरबाद की तरह अपने असर में फैलती जा रही हैं | इस तरह की प्रवृत्तियों को रोकने के  लिए साहित्यकार लेखन के अलावा और क्या कार्य कर  सकते हैं ?
इन प्रश्नों के अलावा और भी बहुत सारे प्रश्न हो सकते हैं | अगर, आज हमें इस बात की चिंता है कि, हमारे समय में साहित्य का पक्ष क्या होना चाहिए, साहित्य काआने वाला समय कैसा हो तो निश्चित तौर पर इन या इन जैसे और अन्य प्रश्नों के साथ सोचने-विचारने का माहौल बनाना चाहिए और साहित्य के ‘बैलेंस शीट’ को तैयार करना चाहिए |

Ø  विनोद तिवारी : युवा आलोचक | ‘देवीशंकर अवस्थी आलोचना सम्मान’ से सम्मानित | ‘पक्षधर’ पत्रिका के संपादक | सम्प्रति दिल्ली विश्ववविद्यालय में हिंदी का अध्यापन |

Ø  सी-4/604, ऑलिव काउंटी, सेक्टर-5, वसुंधरा, गाज़ियाबाद-201012, मो. 9560236569
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[1] Democracy and Fascism : A Reply to The Labor Manifesto on Democracy vs. Dictatorship -   R. Palm Dutt
[2] मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है – हजारी प्रसाद द्विवेदी
[3] Literary Theory – Terry Eglton
[4] On Art and Literature – Maxim Gorki
[5] बेहतर दुनिया की तलाश- जी.पी. देशपांडे का साक्षात्कार, (सं.- रमेश उपाध्याय)