2 नवंबर 2012

समकालीन सरोकार - नवंबर, २०१२



यथार्थ के घर में गल्प की रिहाइश
विनोद तिवारी
यथार्थ भी एक गल्प है | तो फिर गल्प क्या है? गल्प का यथार्थ क्या है? गल्प वह है जिसे रचनाकार रचता है | यह या वह रचित संसार ही गल्प का यथार्थ है | केशव ! तो गल्प क्या  एक रचित यथार्थ है | हाँ पार्थ ! रचित यथार्थ ही गल्प है | जब यह कहा जाता है कि, ‘अमुक रचना के सभी पात्र काल्पनिक पात्र (फिक्शनल कैरेक्टर) हैं, वास्तविक जीवन और जगत से उनका कोई वास्ता नहीं है’, तो क्या इसी रचित यथार्थ की ताईद की जाती है?
फिर उक्त लिखे हुए वाक्य और पूरी रचना में घटित कार्य-व्यापार में कोई साम्य क्यों नहीं होता? क्यों दोनों में एक दूसरे को बराबर झुठलाने की कश-म-कश जारी रहती है? कभी लगता है कि नहीं जो दिखाया जा रहा है वह कोरा गप्प है तो कभी लगता है कि नहीं यह तो समाज की वह सच्चाई है जिसे हम जानते हुए भी अनजान बने रहते हैं | कहते हैं न कि, ‘जो दिखता है वह होता नहीं और जो होता है वह दिखता नहीं |’ एक रचनाकार का असल रचनात्मक द्वंद्व यही होता है- दिखने और न होने, होने और न दिखने का रचनात्मक द्वंद्व | एक रचनाकार यथार्थ को गल्प में और गल्प को यथार्थ में, वास्तव को फैंटेसी में और फैंटेसी को वास्तव में, सच को कल्पना में और कल्पना को सच में बुनता-बनाता है | यही उसकी कला है | शायद यही उस रचित कला का यथार्थ भी |
इतालवी दार्शनिक और विचारक बेनदेतो क्रोंचे की धारणा है कि, जहाँ आख्यान नहीं है वहाँ इतिहास नहीं है | अगर क्रोंचे की इस धारणा में प्रयुक्त शब्दों को हम बदल दें और कहें कि, जहाँ गल्प नहीं है वहाँ यथार्थ नहीं है अथवा जहाँ यथार्थ नहीं है वहाँ गल्प नहीं है तो कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए | एक बार इतिहास को उलट कर देखने की कोशिश की जाय, इतिहास के वर्तमान रूप को मिटा दिया जाय  और इसकी तलाश की जाय कि राजे –महाराजों के अखानों-बखानों से भरे इतिहास रूपी बखार से भिन्न आदिम मनुष्य कैसे अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक स्मृतियों को संजोता रहा है और उन्हें अभिव्यक्त करता रहा है तो हम पाएंगे कि इसकी सबसे मजबूत डोर–छोर उन आख्यानों, वाचिक कथा स्मृतियों, लोकगाथाओं, मिथकों और लोकमानस के रूप/विरूप, सभ्य /असभ्य, पक्व/अपरिपक्व सामूहिक प्रयासों में है जिन्हें हम केवल थाती मानकर कभू–कभू महान  बहु-सांस्कृतिक उदारता के सन्दर्भ में याद कर लेते हैं | इतिहास की अभिजात धारा में इन धारक सांस्कृतिक शक्तियों को केवल लोक-विश्वास (अंधविश्वास) और मिथकीय चेतना के खाते में डालकर इस टिप्पणी के साथ किनारे कर दिया जाता है कि इनकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता संदिग्ध है | पर क्या ऐसे में इतिहास की  प्रामाणिकता स्वयंसिद्ध है ? क्या इतिहास गढंत नहीं होता है, उसमें गल्प के तत्व नहीं होते हैं ? अगर सचमुच नहीं तब वह इतिहास मृत पुरातत्व का संग्रहालय मात्र होगा जबकि गप्प, आख्यान और मिथक सामूहिक–मन और चेतना के निरंतर गतिशील सहज स्वभाव | इतिहास लेखन में इन धारक सांस्कृतिक शक्तियों का कोई  पुछंतर ही नहीं जबकि समाज की यही धारक शक्तियां इतिहास में परिवर्तन का पावर हाउस होती हैं | इतिहास बदलने में इन्हीं शक्तियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है | इन शक्तियों को आप भले ही भूखे – नंगे, गरीब, असभ्य, आदिवासी, नक्सली चाहे जो नाम दे दीजिए पर इतिहास यही बदलेंगे | संस्कृतिवादी पुरोहित पाठ से जुदा निखालिश खांटी पाठ |
दरअसल, रचना एक गढ़न है | एक ऐसी गढ़न जिसे उसका सिरजनहार सिरजता है गढ़ता है | गढ़ंत ही तो किस्सागोई का आदिम तत्व है | जो जितना गढिया वह उतना बढ़िया | के. अयप्पा पणिक्कर ने महाभारत के आख्यानोपाख्यान की संरचना को नारिकेलोपाख्यान कहा है | जिस  तरह नारियल के परत-दर-परत को हटाकर उसके रस तक पहुँचते हैं उसी तरह गल्प के यथार्थ को पाने के लिए उन परतों को हटाना पड़ता है जिन्हें रचनाकार गढ़ता है | इसलिए देखा जाय तो एक कथाकार अपनी तात्कालिक सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों में रहते हुए – रचते हुए भी सदैव एक ‘प्राकृतिक- देशकाल’ रचने की कोशिश करता है, जो सार्वभौम होता है | परन्तु, यह ध्यान रहे कि यह प्राकृतिक-देशकाल कोई पारलौकिक संकल्पना नहीं है वरन सभ्यता के विकास में मानव विरोधी यांत्रिकता का एक समानांतर विकल्प है |
एक ऐसा ही समानांतर विकल्प २००६ में साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित उपन्यासकार ओरहान पामुक ने अपने शहर इस्तांबुल (तुर्की) में रचा है | इतिहास, पुराण, स्मृति, आख्यान के अंत की घोषणाओं के उत्तर-आधुनिकता वाले समय में यथार्थ की औपन्यासिक पुनर्रचना (फिक्शनल रिक्रिएशन) और उस यथार्थ के गल्प से पुनः एक वास्तविक दुनिया की रचना | एक ऐसी दुनिया की रचना जो एक ‘फिक्शन’ की दुनिया है | ओरहान पामुक का एक उपन्यास है – ‘मासुमियेत म्युज़ेसी’ (द म्युजियम ऑफ इनोसेंस)| यह उपन्यास २००८ में प्रकाशित हुआ और अबतक इसके दसियों संस्करण निकल चुके हैं | यह पामुक का सर्वाधिक बिकने वाला उपन्यास है | ५९२ पृष्ठों का यह उपन्यास ६० से अधिक भाषाओं में अनूदित हो चुका है | पामुक ने इस उपन्यास की दुनिया को, उस दुनिया में रहने वाले लोगों की भावनाओं से जुड़े सामानों और वस्तुओं को जोड़-जोड़ कर बड़ी ही मासूमियत के साथ एक जीते-जागते वास्तविक म्युजियम में नक्श किया है | एक ऐसा म्युजियम जिसमें न तोप हैं न मोर्टार, न खुदाई में मिली वस्तुएं न इतिहास | इसमें कोई ‘पुरातत्व’ है ही नहीं | यह दुनिया में इस तरह का इकलौता म्युजियम है – अपनी तरह का अलहदा यह बड़े ही जतन और इत्मीनान से धीरे – धीरे १२ सालों में एक-एक कर कमाल और फुसून के जीवन से जुडी यादों का एक नायाब संकलन है | फुसून से कमाल के (कह सकते हैं स्वयं नैरेटर के) बेहद प्यार और पागलपन  की एक सनक भरी जिद और कदरदानी |  पामुक जब अपना यह उपन्यास लिख रहे थे तभी से उनके मन में यह सपना पलने लगा कि क्या सच में एक ऐसा म्यूजियम बनाया जा सकता है? धीरे-धीरे उन्हें यह लगने लगा कि हाँ यह किया जा सकता है | पामुक ने अंगरेजी अखबार ‘दि गार्डियन’ को दिए अपने एक इंटरव्यू में यह कहा कि, ऐसा नहीं है कि यह म्युजियम उपन्यास लिखे जाने के बाद का सपना है, मैंने उपन्यास और म्युजियम दोनों को साथ-साथ जिया है ( आई कन्सीव नावेल एंड म्युजियम टुगेदर.) | उनकी इच्छा थी कि उपन्यास और म्युजियम दोनों एक साथ सामने आयें पर यह हो न सका, उपन्यास पहले आया म्युजियम २८ अप्रैल २०१२ में | म्युजियम के लिए तीन मंजिला घर तो पामुक ने १९९९ में ही खरीद लिया था | १९ वीं शताब्दी में बना यह घर चुकुरजुमा, इस्तांबुल की अपेक्षाकृत एक शांत सँकरी सड़क के किनारे है | इसके आस-पास रद्दी और पुरानी चीज़ें बेचने वालों की दुकानें हैं जिनमें पुराने पीतल, तांबा, कालीन से लेकर चूने – भट्टी और पुट्टी के अलावा न जाने क्या-क्या है |
दरअसल, उपन्यास की कहानी इस्तांबुल के जिन इलाकों में घूमती है उनमें  चुकुरजुमा, निशानताशी, तकसीम, हारबिये और बेयोलु प्रमुख हैं | ये सभी इलाके इस्तांबुल के ‘हाई प्रोफाईल’ और ‘इलीट’ लोगों के रिहायिशी इलाके हैं | उपन्यास का हीरो कमाल इसी ‘हाई प्रोफाईल’ और ‘इलीट’ इलाके में बीसवीं शताब्दी के छठे दशक में पैदा होता है और पलता-बढता है | खुद ६० वर्षीय ओरहान पामुक निशानताशी में पैदा हुए, उनके जीवन-निर्माण में इन्हीं इलाकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है | हो सकता है कि कमाल और ओरहान एक दूसरे को बहुत करीब से जानते-पहचानते रहे हों, दोनों में यारी रही हो | ऐसे में फुसून से भी पामुक की जान-पहचान होना लाजिमी है | पर यह हो सकता है, यथार्थ में ऐसा था कि नहीं पर गल्प (फिक्शन) की पढ़त से बार-बार ऐसा लगता है | और ऐसा लगता है तो लगने में बुराई क्या है |  सैद्धांतिक तौर पर तो उपन्यास के सिद्धांतकारों ने यह मान ही लिया है कि, हर उपन्यास आत्मकथात्मक होता है | ‘जिन गीतों में शायर अपना गम रोते हैं, वे ही उनके सबसे मीठे नगमें होते हैं |’ ‘मासुमियेत म्युजेसी’ (दि म्युजियम ऑफ इनोसेंस) एक प्रेम-कथा है | कमाल और फुसून की प्रेमकथा | कमाल एक संपन्न घराने का नौजवान और फुसून एक निम्न मध्य-वर्गीय लड़की जो दूर के रिश्ते में कमाल की कजिन लगती है | फुसून से कमाल की पहली मुलकात एक शॉप पर होती है | दोनों एक दूसरे के गले मिलते हैं | तुर्की लोगों में यह रवायत है कि वह अपनी पहचान में एक दूसरे के गले मिलते हैं और कनपटी के नीचे एक दूसरे को चूमकर अपनापे का इज़हार करते हैं | कमाल और फुसून भी इसी तरह मिलते हैं | कमाल जब फुसून को चूमता है तो कमाल को लगता है कि फुसून के कान की बाली उससे फुसफुसाकर कुछ कह रही है | यह पहला एहसास है | वह बाली कमाल के मन में बस जाती है | फिर तो धीरे-धीरे यह फुसफुसाहट कानों से होते हुए दिल तक पहुँचती है | दोनों में प्यार होता है | कमाल फुसून को पागलपन के हद तक चाहने लगता है | पर जैसा कि हर प्रेम-कथा में होता है वह इसमें भी घटित होता है | कमाल की सगाई उसके अपने वर्ग की लड़की सिबेल सो हो जाती है | उधर फुसून की शादी एक संघर्षशील नवोदित फिल्मकार सो हो जाती है | कमाल के चित्त से फुसून उतरती ही नहीं है | वह उसके बिना रहने और जीने की सोच ही नहीं सकता है |  इस प्रेम के ताने-बाने में परत-दर-परत लिपटा हुआ है, सन `’५० से २००० के बीच, पूरी आधी शताब्दी के इस्तांबुल (तुर्की) की उच्च और मध्य-वर्गीय व्यकिगत व सामाजिक जीवन की मौजूद और बनती-बदलती छवियों का यथार्थ : औपन्यासिक यथार्थ – गल्प का यथार्थ | इस उपन्यास में पामुक ने बड़ी ही गहराई से छठे-सातवें दशक में तुर्की के ‘इस्लामिक-टर्न’ को रखने की कोशिश की है | दरअसल, छठे-सातवें दशक में तुर्की समाज अपनी पारम्परिक-आधुनिकता और यूरो-केंद्रित आधुनिकता को लेकर काफी बहस और जद्दो-ज़हद में दीखता है | प्रेम, सेक्स, यौन-शुचिता, जीवन-पद्धति इन सब पर रूढ़िवादियों द्वारा एक सामजिक संस्थान के बतौर वही पुराने नजरिये से देखने सोचने का ढंग है तो दूसरी तरफ इसको व्यक्तिगत-आज़ादी के ‘यूरो-सेंट्रिक’ आधुनिक नजरिये से देखने और जीने वाला नया-खून | इसमें सबसे संदिग्ध बुर्ज्वा-चरित्र  है जो एक साथ दिखावे में तो पाश्चात्य और आधुनिक बने रहने का ढोंग करता  है पर अपनी मनोवृत्ति और रवैये में वही रूढ़िवादी और दकियानूस सोच रखता है | पामुक इस बुर्ज्वाजी की तीखी आलोचना करते हैं | इसका उन्हें खामियाजा भी भुगतना पड़ता है | तुर्की में वह उतने पसंद नहीं किये जाते जितना बाहरी दुनिया में | यहाँ उनके प्रति एक उपेक्षा का भाव है | इसके और भी अन्य कारण हैं |
परन्तु, बात भटक कर कहीं ‘यू-टर्न’ न ले ले इसलिए अभी फिलहाल मूल विषय पर फोकस जरूरी है | कमाल अपने प्यार में इस कदर दीवाना है कि वह फुसून से जुडी हर याद को, हर फ़साने को हर उस चीज़ को सँजो लेना चाहता है उसे संग्रहित कर उससे एक म्यूजियम बनाना चाहता है | वही कामना हम रहें न रहें, प्यार हमारा आबाद रहे | म्युजियम बनाने का सपना कमाल उपन्यास में ही देखता है इसलिए वह हर एक चीज़ को इकट्ठा करता रहता है जो उनकी यादों के हमसफ़र हैं | कभी-कभी वह ऐसी वस्तुओं का संग्रह करता है जिसे नितांत पागलपन कहा जा सकता है | पर यह पागलपन ही तो उसकी
मासूमियत है | वह फुसून के होंठो से लगे सिगरेट के एक-एक टुकड़े को जमा करता है जो गणना में ४२१३ हैं | पामुक ने इन ४२१३ सिगरेट के टुकड़ों को म्यूजियम का हिस्सा बनाया है | म्यूजियम में घुसते ही एक कांच के बड़े से पात्र में सिगरेट के टुकड़ों का पहाड़ दिख जाएगा | तीन मंजिले म्युज़ियम में ८३ शो-केश हैं जो उपन्यास के तिरासी अध्यायों के प्रतिनिधि है | हर शो-केश पर एक कान की बाली टंगी है फुसून के पहली छुअन की पहली निशानी | इन शो-केशों में चाबियाँ, लैम्प्स, घड़ियाँ, पोस्टकार्ड, रेस्टोरेंट के बिल, सिनेमा के टिकट, बसों के टिकट, कप, गिलास, पोर्ट्रेट, राकी की बोतलें (राकी तुर्की की खास शराब है), कपडे, किचेन के सामान, ऑफिसियल कागज़-पत्तर, अखबार की कतरनें, फोटोग्राफ्स, पहचान-पत्र, बैंक पासबुक, आर्टिफिशियल गहने, दरवाज़ों के हैंडल, माचिस, पामुक द्वारा उपन्यास के शुरुआती पृष्ठों की हस्तलिखित पाण्डुलिपि और न जाने क्या-क्या |  तिरासी शो-केशों में भरी ये चीज़ें निर्जीव वस्तु मात्र नहीं हैं इन चीज़ों में कमाल और फुसून के प्यार-मनुहार, दुःख-सुख, हर्ष-विषाद, मूर्त-अमूर्त, कहे-अनकहे गोपन और उन्मुक्त न जाने कितने तरह के भाव और अहसास जिन्दा हैं | बेइंतहा प्यार का ही यह जोर है कि, हर वह लम्हा हर वह याद जो फुसून से जुड़ी है उसे कमाल भुला नहीं पाया और अपनी फुसून को गल्प के बाहर यथार्थ में संजोने लगा | वास्तव में यह म्यूजियम तो जीने का एक बहाना है | जिसमें कमाल और फुसून का प्यार आज भी जिंदा है | शायद, ओरहान पामुक का भी यही सच हो | स्मृति का अमर संसार | किस्से बदलते रहते हैं कहन रह जाता है | यही गल्प और यथार्थ का रचनात्मक संसार है | पामुक का मानना है कि, चीन, भारत, मेक्सिको, ईरान और तुर्की जैसे देशों के लिए इतिहास और संस्कृति की संपदा का संग्रहालयों में प्रदर्शन अब कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है वरन इन देशों के लिए आज एक महत्वपूर्ण चुनौती उन कहन (टेल्स) को यथाविधि संकलित, संयोजित और प्रदर्शित किये जाने की है जिनमें इन देशों की वैयक्तिक निजता के साथ मानवीय जीवन रचा-बसा है |
 
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युवा आलोचक | पक्षधर पत्रिका का संपादन-प्रकाशन | दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी का अध्यापन | आजकल अंकारा विश्वविद्यालय, अंकारा (तुर्की) में विसिटिंग प्रोफ़ेसर |
ई-मेल :  tiwarivinod4@gmail.com फोन:+903124418757 मोबा. +9005303639128