20 जून 2012

कोन्या में मौलाना रूमी की दरगाह पर

                                         
                                          दुनिया मेरे आगे    
23 जून 2012 जनसत्ता  
कोन्या में मौलाना रूमी की दरगाह पर
विनोद तिवारी
”गज़ल(कविता) में काफिया(तुक) उसी तरह होता है जैसे दाखबारी में चारों ओर लगे बाड़ ” 
 मौलाना रूमी            
जब से तुर्की आया तब से मसनवी के महान गायक मौलाना रूमी की दरगाह ‘कोन्या’ जाने की ख्वाहिश दिलो दिमाग में बनी हुई थी | पिछले दिनों मन की यह मुराद पूरी हुई |मेरे लिए यह यात्रा बहुत ही प्रेरक और ज्ञानवर्द्धक रही | कोन्या तुर्की का एक सूबा है, यह अनातोलियन सेल्जुक तुर्क शासकों की राजधानी रही है | आज भी यह तुर्की की सांस्कृतिक राजधानी है – धर्म, दर्शन और संस्कृति का अद्भुत रसायन | मौलाना रूमी का जन्म बल्ख में ३० सितम्बर , १२०७ को हुआ था | इस सूफी दरवेश ने मध्य एशिया के कई स्थलों पर घूमते हुए अपने जीवन का अधिकतम समय कोन्या में बिताया, इस पूरे क्षेत्र को पहले रूम के नाम से जाना जाता था | रूम में रहने के नाते मोहम्मद जलालुद्दीन ‘रूमी’ के नाम से मशहूर हुए, बाद में मौलाना जुड़ जाने से मौलाना रूमी | यहीं पर १७ नवम्बर १२७३ को उनका निधन हुआ | कहा जाता है कि, उनकी अंतिम यात्रा में पूरा रूम उमड़ पड़ा था | न केवल मुसलमान वरन बहुत बड़ी संख्या में इसाई और यहूदी भी इसमें सामिल थे | इनसे जब किसी ने पूछा कि आप सब कैसे इस यात्रा में तो उनका जवाब था, “’जैसे आपके लिए मौलाना दूसरे मोहम्मद थे वैसे हमारे लिए भी वे हमारे दूसरे मूसा और जीसस थे |””’ कोन्या में ही मौलाना रूमी ने अपनी महान रचनाएं कीं |”
“मेवलाना जामी” के नाम से मशहूर कोन्या की  दरगाह बाहर से जामी ( तुर्की में मस्जिद को जामी कहते हैं ) और अंदर से एक अद्भुत संग्रहालय है | दुनिया की सबसे बड़ी मसनवी की किताब यहाँ है और दुनिया का सबसे छोटा कुरआन यहाँ है | मौलाना रूमी की ‘दीवान-ए-कबीर’ यहाँ है | फारसी में लिखी  छः भागों में मसनवी की मूल पाण्डुलिपि सूफी अदब और दर्शन का एक नायाब अवशेष है | कहा जाता है कि मौलाना रूमी ने इसे अपने अत्यंत प्रिय मित्र और अन्तरंग सखा हुसामुद्दीन चलाबी को बोलकर लिखवाया था | दो पंक्तियों के वृत्त में लिखे गए इस मसनवी में कुल २५००० छंद हैं | सन् १२५८ में इसका पहला खंड पूरा हुआ माना जाता है और अंतिम खंड १२७३ में, मौलाना की मृत्यु के कुछ दिनों पहले | माना जाता है कि, मसनवी के अंतिम भाग ‘तीन राजकुमार’ का लेखन हसामुद्दीन चलाबी ने किया | कहा जाता है कि मौलाना रूमी ने मसनवी के छः भाग भारतीय ‘षड् दर्शन’ को आधार माननकर किया था जिसकी प्रेरणा उन्हें उनके मित्र और गुरु शम्स-ए-तबरीजी से मिली थी | शम्स-ए-तबरीज़ी का सम्बन्ध हिदुस्तान से माना जाता है जिनके पूर्वज ईरान विस्थापित होने से पहले मुल्तान में रहते थे | तबरीज़ी का बहुत गहरा असर मौलाना रूमी के साहित्य और दर्शन पर पाया जाता है | अपने इस परम मित्र और गुरु के सम्मान में रूमी ने एक पुस्तक लिखी जो ‘दीवान-ए-कबीर या दीवान-ए-शम्स-ए-तबरीज़ी’ के नाम से मशहूर है | ग़ज़लों के इस संग्रह में कुल अठारह दीवान हैं |   
इस संग्रहालय में ‘साफा’ और ‘सामा’ की मौजूद निशानियाँ सूफी दरवेशों की मलंग जीवन शैली को दर्शाती हैं | ‘समा या सामा’ नृत्य सूफियों का ऐसा नृत्य है जिसमें दरवेश तन्मय तल्लीन मुद्रा में एक वृत्ताकार परिधि में अनवरत घूमता है और अपने को भूलकर एक लहर के साथ एक नाद के संग लयमान हो जाता है | यह नृत्य सम और संतुलन, प्रेम और समर्पण का अद्भुत नमूना है | कोन्या में इस नृत्य मुद्रा की प्रतिमाएं जगह - जगह पार्कों और चौराहों पर मिल जायेंगी | यह यहाँ की पहचान है | इस संग्रहालय में सूफी संगीत के अनेकों साज देखने को मिले | मौलाना रूमी का रवाब और रीद देखा | रीद बांसुरी की तरह का एक वाद्य होता है | रवाब का जिक्र कबीर के यहाँ खूब हुआ है | पर रूमी का यह रवाब प्रचलित अरबी रवाब से भिन्न है | इसमें चार तांतों और चार छोरों की जगह छः तांत और छः छोर हैं | इसके नवता के पीछे  मौलाना रूमी का रचना – दर्शन है जिसमें जगत के छः दिशाओं का रहस्य अन्तर्निहित है |
संग्रहालय में सूफी बैठक और उनकी रसोई के दृश्य अत्यंत ही आकर्षक हैं | सूफी खल्वत देखा | खल्वत एक बहुत ही छोटी कमरेनुमा जगह होती है जिसमें दरवेश बैठकर ध्यान लगाते थे |  मंदिर और मस्जिद का इससे अच्छा उपयोग और क्या हो सकता है | मौलाना ने अपने मरने से पहले कबीर की ही तरह यह कहा था – “
“मेरे मरने के बाद धरती पर मेरी कब्र न खोजना
           मैं तो अपने आरिफ के दिलों में पाया जाउंगा |””


विनोद तिवारी
विसिटिंग प्रोफ़ेसर, अंकारा विश्वविद्यालय, अंकारा – तुर्की
फोन:+903124418757 मोबा. +9005303639128